Potato storage problems and their solution
आलू उत्पादन के हिसाब से हमारे भारत देश का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है एवं हमारे कृषक अपनी अथक मेहनत से हर वर्ष लगभग 400 लाख मेट्रिक टन आलू का उत्पादन करते हैं। आजादी से लेकर अब तक हमारे देश में आलू का उत्पादन दिन प्रतिदिन बढ़ता रहा है। इसका एक बड़ा श्रेय केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान को भी जाता है जिसने अब तक, विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के अनुसार , पचास आलू की किस्मों का विकास किया है।
इस बढ़ते हुए आलू उत्पादन से एक विकट समस्या भी पैदा हुई है और वो है आलू का भण्डारण। हमें यह ज्ञात है कि आलू में लगभग 80 प्रतिशत जल होता है और ऐसी फसल को सम्भाल कर रखना एक चुनौती से कम नहीं है। इसके लिए संस्थान द्वारा ऐसी कई तकनीकियों का विकास किया गया है जिनसे आलू का भण्डारण की समस्याओं का निदान किया जा सके।
देश के अधिकतर भागों में (85 प्रतिशत मैदानी इलाके) आलू की खुदाई फरवरी-मार्च के महीनों में होती है, जिसके पश्चात् ग्रीष्म ऋतु आ जाती है। ऐसी परिस्थिति में आलू में अत्याधिक ह्रास होने की सम्भावना रहती है, अतः आलुओं को सामान्यतः शीत भण्डारों में सुरक्षित रखा जाता है। हम भण्डारण की समस्या व इसके निदान को विभिन्न उपयोगों के अनुसार देख व समझ सकते हैं:
बीज हेतु आलुओं का भण्डारणः
आलू के बीज को एक फसल से दूसरी फसल तक बचा कर रखना अति आवश्यक होता है, जो कि लगभग 7-8 माह का समय अन्तराल होता है। शीत भण्डारों में बीज को भण्डारित करना सबसे सुविधाजनक माना जाता है। ये शीत भण्डार 2-4 डिग्री सेल्सियस व 80 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर कार्य करते हैं।
इसके फायदे यह हैं कि शीत भण्डारित आलुओं में अंकुरण लगभग न के बराबर होता है व इनमें भार का ह्रास भी न्यूनतम होता है। अतः भण्डारित आलू ठोस दिखते हैं व जब बीज हेतु इनका उपयोग किया जाता है तो इनकी दैहिक अवस्था भी अनुकूल होती है।
हमारे देश में कुल पैदावार का लगभग 70-80 प्रतिशत आलू शीत भण्डारों में सुरक्षित रखा जा सकता है, परन्तु इनमें किसानों को अतिरिक्त खर्च भी करना पड़ता है जो कई परिस्थितियों में मुश्किल भी होता है।
बीज योग्य आलुओं के भण्डारण हेतु पहाड़ी क्षेत्रों में शीत भण्डारों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इन क्षेत्रों में सामान्यतः खुदाई के पश्चात् शीतकाल आरम्भ हो जाता है व आलुओं को विसरित प्रकाश में सुरक्षित रखा जा सकता है।
शीतकाल में आलुओं के अंकुरण की बढ़वार नहीं हो पाती है और ग्रीष्मकाल के आरम्भ में अंकुरण बढ़ने लगते हैं व तत्पश्चात् इन आलुओं की बुआई कर दी जाती है। इस प्रकार बीज योग्य आलुओं को कुशलता पूर्वक इन दो विधियों द्वारा भण्डारित किया जा सकता है।
चित्र 1: कोल्ड स्टोर में आलू का भण्डारण
चित्र 2: विसरित प्रकाश में आलू भण्डारण
खाने व प्रसंस्करण योग्य आलुओं का भण्डारणः
वैसे तो अधिकांश क्षेत्रों में खाने व प्रसंस्करण योग्य आलुओं को बीज आलुओं की भान्ति ही शीत भण्डारों में 2-4 डिग्री सेल्सियस पर भण्डारित किया जाता रहा है, पर इससे एक बड़ी समस्या का विकास हुआ है।
शीत भण्डारों में इतने कम तापमान पर रखने से आलुओं में अवकारक शर्करा का अत्यधिक जमाव हो जाता है जिससे आलू स्वाद में मीठे लगने लगते हैं व अधिकतर उपभोक्ताओं द्वारा इन्हें पसन्द नहीं किया जाता है।
इसी प्रकार प्रसंस्करण योग्य आलुओं में यदि शर्करा का अधिक जमाव हो जाए तो उनसे बनने वाले उत्पाद भूरे अथवा काले रंग के हो जाते हैं जो उपभोक्ताओं द्वारा पसंद नहीं किए जाते। इस समस्या से निपटने के लिए संस्थान ने दो प्रकार की तकनीकियों का विकास किया है, जो निम्नलिखित हैं:
(क) देशी विधियां:
हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है व यहां के किसान लम्बे अरसे से देशी विधियों द्वारा आलू का भण्डारण करते रहे हैं, परन्तु इसमें एक समस्या यह रही है कि आलुओं में होने वाला ह्रास 10-40 प्रतिशत तक बढ़ जाता है व जो लाभ किसानों को मिलना चाहिए वह लगभग नगण्य हो जाता है।
अतः संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा इन देशी विधियों में कुछ बदलाव लाए गए ताकि इससे आलुओं में होने वाले ह्रास को 10 प्रतिशत व उससे कम स्तर पर लाया जा सके।
इन सुधारों में छप्पर लगाना, आलुओं को ढेर व गड्ढों में पुआल से ढककर रखना, उनमें छिद्रयुक्त पी.वी.सी. पाइप लगाना, उनको किसी अंकुरण रोधी रसायन जैसे क्लोरप्रोफाम से उपचारित करना इत्यादि शामिल हैं।
इन सुधारों को अपनाते हुए कृषक बंधु आलुओं को 3-4 माह तक कुशलतापूर्वक भण्डारित कर सकते हैं, व जब आलुओं के दाम मण्डी में अधिक हों तो उन्हें बेचकर अधिक लाभ की प्राप्ति कर सकते हैं।
चित्र 3: ढेर में आलू का सुधरा भण्डारण
(ख) शीत भण्डारण की आधुनिक विधि:
जैसा कि हमें विदित है, शीत भण्डारों में आलू में अवकारक शर्करा के अधिक जमाव से वे खाने व प्रसंस्करण योग्य नहीं रह जाते हैं, अतः संस्थान ने एक नई तकनीकी का विकास किया जिसमें आलुओं को बढ़े हुए तापमान (अर्थात् 10-12 डिग्री सेल्सियस) पर भण्डारित किया जा सकता है।
परीक्षणों से यह ज्ञात हुआ है कि इस बढ़े हुए तापमान पर अवकारक शर्करा का जमाव न्यूनतम होता है। परन्तु इस तापमान पर अंकुरण होना जल्द ही आरम्भ हो जाता है अतः हमें आलुओं को किसी अंकुर रोधी रसायन जैसे क्लोरप्रोफाम अथवा सी.आई.पी.सी. द्वारा उपचारित करना पड़ता है।
एक टन आलू में लगभग 40 मि.ली. क्लोरप्रोफाम का इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि यह तकनीकी हमारे देश में लगभग 10 वर्षों से ही प्रचलित हुई है, पर इसका तेजी से विस्तार हो रहा है व वर्तमान में कुल शीत भण्डारों (लगभग 6000) में से 450 भण्डार इस तकनीकी द्वारा आलुओं को भण्डारित कर रहे हैं।
शीत भण्डारों को जब 10-12 डिग्री सेल्सियस पर भण्डारित किया जाता है तो उन्हें 6 माह के समय में दो बार रसायन द्वारा उपचार करना पड़ता है जो कि एक मशीन द्वारा धुन्ध (फॉग) के रूप में डाला जाता है। परीक्षणों द्वारा इन आलुओं की विधायन गुणवत्ता भी मापी गई है जो कुछ महीनों तक अनुकूल पाई गई है।
अतः इस तकनीकी द्वारा अब बाजार में खाने योग्य कम मीठे आलू भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं व उपभोक्ता इसके लिए अधिक दाम देने से भी नहीं हिचकिचाते हैं। प्रसंस्करण हेतु भी अच्छी किस्मों को 5-6 माह तक इसी विधि द्वारा भण्डारित करके प्रसंस्करण उद्योग इन आलुओं को ही उत्पाद बनाने हेतु उपयोग में लाते हैं।
चित्र 4: शीत भण्डारों में सी.आई.पी.सी. उपचारित आलुओं का भण्डारण
कृषक अपने अथक प्रयासों द्वारा आलुओं की उपज पैदा करता है। इससे समुचित लाभ मिलने पर ही उसका व हमारे कृषक प्रधान देश का समग्र विकास हो सकता है।
अतः उपज के उपरान्त फसल को सम्भाल कर रखने हेतु यदि किसान इन उपरोक्त विधियों से आलू को भण्डारित करते हैं तो उन्हें अवश्य ही उचित लाभ प्राप्त होगा।
लेखक
ब्रजेश सिंह1, धीरज कुमार सिंह2 व पिंकी रायगोंड3
1संभागाध्यक्ष, फसल दैहिकी, जीव रसायन एवं फसलोत्तर तकनीक
2वैज्ञानिक, सामाजिक विज्ञान संभाग
3वैज्ञानिक, फसल दैहिकी, जीव रसायन एवं फसलोत्तर तकनीक
केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला-171001
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