26 Apr Preparations against blast disease of wheat in India
भारत में गेहूँ के प्रध्वंस या झौंका रोग के विरूद्ध तैयारी
Wheat blast disease, which is also called by the names of wheat blast disease, or blight disease, is caused by a fungus called Magnoporthe oryzae pathotype Triticum and is currently considered as a fatal disease of wheat. This fungus is transmitted through infected seeds by international trade, seed transactions between farmers and through air-borne means.
भारत में गेहूँ के प्रध्वंस या झौंका रोग के विरूद्ध तैयारी
गेहूँ का ब्लास्ट रोग जिसे गेहूँ का प्रध्वंस रोग, झौंका रोग अथवा झुलसा रोग के नामों से भी पुकारा जाता है, मैग्नोपोरथे ऑरिजै पैथोटाइप ट्रिटिकम (Magnoporthe oryzae pathotype Triticum) नामक कवक से उत्पन्न होता है तथा वर्तमान में यह गेहूँ के एक घातक रोग के रूप में उभरकर सामने आया है। यह कवक अंतरराष्ट्रीय व्यापार द्वारा संक्रमित बीजों के माध्यम से, कृषकों के मध्य बीज के लेन-देन तथा वायु-जनित माध्यम से प्रसारित होता है।
गेहूँ के ब्लास्ट रोग से संक्रमित बाली पीली या सफ़ेद पीली दिखाई देती है, बाली पूरी तरह से बाँझ (stertile) होती है जिसमें दाना बिल्कुल भी नहीं बनता है। झुलसा रोग की महामारी के लिए प्रतिरोधिता विहीन प्रजाति, कवक की उपस्थिति, अनुकूल जलवायु और सर्दियों में उच्च तापमान (21-27 डिग्री सेंटीग्रेड) का होना आवश्यक है।
इस रोग का प्रबंधन कवकनाशकों, प्रतिरोधी किस्मों और समयानुकूल सस्य क्रियाओं के माध्यम से किया जा सकता है। यद्यपि जहाँ तक रासायनिक कवकनाशकों का सम्बन्ध है, स्ट्रोबिलिन कवकनाशकों के साथ ट्रायजोल का संयोजन ब्राजील में अप्रभावी पाया गया। इसके अतिरिक्त उच्च जोखिम वाले कवकनाशक जैसे टेबूकोनाजोल, ईपोक्सीकोनाजोल, एजोक्सीस्टरोबिन, पैयराक्लोस्ट्रोबिन, बिक्साफेन इत्यादि का प्रयोग जहाँ प्रभावी है वहीँ यह रोगकारक कवक के उतरोत्तर विकास प्रक्रिया को तीव्र करके रोग की प्रबलता को भविष्य में और अधिक बढ़ा सकता है।
गेहूँ के ब्लास्ट रोग से होने वाले आर्थिक नुकसान को दो तरह से समझा जा सकता है। एक तो दाना न बनने की वजह से सीधे उपज की हानि, दूसरा संगरोध आधारित निर्यात के कारण हानि। गेहूँ के इस रोग को सर्वप्रथम ब्राजील में वर्ष 1985 के दौरान खोजा गया था। उसके बाद यह अर्जेंटीना, बोलीविया और पैराग्वे देशों के गेहूँ उगाने वाले क्षेत्रों में तेजी से फैलता गया। फिर भी यह रोग वर्ष 2016 तक लैटिन अमेरिका तक ही सीमित रहा।
जनवरी 2016 में गेहूँ का यह ब्लास्ट रोग कई वैज्ञानिक रिपोर्टों के माध्यम से पड़ोसी देश बांग्लादेश में पाया गया। बांग्लादेश के कुछ प्रभावित जिलों में झुलसा रोग प्रभावित क्षेत्र 70 प्रतिशत तक था और उपज हानि 51 प्रतिशत तक थी जो 90 प्रतिशत के प्रारम्भिक अनुमानों की तुलना में काफी कम थी। गेहूँ में औसत उपज हानि 24.5 प्रतिशत तक रिपोर्ट की गयी।
वर्ष 2016-17 से सम्बंधित अगली फसल के मौसम में हानि पहले से कम 5-10 प्रतिशत तक थी। लेकिन यह रोग बांग्लादेश के कुछ नए जिलों में फैल गया। इस घटना के बाद बांग्लादेश में गेहूँ के क्षेत्र में 7.32 प्रतिशत की कमी आ गयी थी।
इसके बाद वर्ष 2017-18 के दौरान छह नए जिलों में इसके फैलने की सूचना मिली थी। बाद में बांग्लादेश के पैथोटाइप को आनुवंशिक रूप से ब्राजील और बोलीविया के पैथोटाइप से सम्बंधित पाया गया। रिपोर्ट में बताया गया कि रोगजनक कवक ब्राजील से बांग्लादेश में गेहूँ के आयात के माध्यम से आया था।
ब्राजील में गेहूँ के ब्लास्ट रोग की इस घटना को न केवल जलवायु परिवर्तन जनित बताया गया (विशेष रूप से सर्दियों के तापमान में वृद्धि), बल्कि यह भी भविष्वाणी की गयी कि यदि जलवायु परिवर्तन लगातार चलता रहा तो विश्वभर में गेहूँ के ब्लास्ट रोग के प्रकोप की तीव्रता में वृद्धि होगी। इसलिए न केवल इसी तरह की जलवायु परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में झुलसा रोग के प्रसार का खतरा है, बल्कि शीत एवं शुष्क क्षेत्रों में भी इसके फैलने का खतरा है।
गेहूँ ब्लास्ट रोग महामारी के तहत औसत प्रतिशत उपज हानि के आँकड़े बोलीविया, ब्राजील और बांग्लादेश से उपलब्ध हैं। इन देशों में बोलीविया के गेहूँ उत्पादन क्षेत्रों में गेहूँ के ब्लास्ट रोग के कारण 69 प्रतिशत उपज का नुकसान हुआ है और एशिया में गेहूँ के ब्लास्ट रोग का सबसे हालिया उपकेंद्र यानि बांग्लादेश में गेहूँ के क्षेत्र में काफी कमी आने के परिणाम स्वरूप औसतन 24.5 प्रतिशत उपज दर्ज की गयी है। इस रोग के कारण गेहूँ उत्पादन में 5-10 प्रतिशत की कमी के कारण 132-264 मिलियन अमेरिकी डॉलर के नुकसान का अनुमान लगाया गया है।
गेहूँ भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल है। भारत, वर्ष 2021 में 109.59 मिलियन टन के रिकॉर्ड उत्पादन के साथ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश रहा। इस प्रकार भारत गेहूँ निर्यातक बनने के कगार पर है और देश सन 2050 तक 140 मिलियन टन का उत्पादन लक्ष्य निर्धारित कर रहा है। हालाँकि गेहूँ के ब्लास्ट रोग का प्रकोप भारत में अभी नहीं है फिर भी गेहूँ निर्यातक बनने के ध्येय को पूरा करने में यह एक बड़ी बाधा सिद्ध हो सकती है।
भारत का लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र बांग्लादेश और पाकिस्तान सहित एशिया में ब्लास्ट रोग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। भारत बांग्लादेश के साथ 4046 कि.मी. लम्बी अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करता है जो इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को और अधिक बढ़ा देता है।
गेहूँ के ब्लास्ट रोग के दक्षिण एशियाई केंद्र से यह भौगोलिक निकटता भारत के कुल गेहूँ क्षेत्र का 21 प्रतिशत इस रोग के दृष्टिकोण से असुरक्षित है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन के अलावा गेहूँ की फसल में पुष्पावस्था के समय गर्म एवं आर्द्र दशा होने की स्थिति ब्लास्ट रोग के प्रकोप को अत्यधिक बढ़ा सकती है। इसे देखते हुए उपज हानि की सीमा 70 प्रतिशत अधिक हो सकती है और गेहूँ के साथ यह स्थिति देश के कुल खाद्य उत्पादन का 27 प्रतिशत है जो हमारे देश की जनसँख्या के अनुपात से अत्यंत चिंताजनक सिद्ध हो सकती है।
यदि उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में गर्म और आर्द्र मौसम के दौरान ब्लास्ट का प्रकोप होता है तो परिणाम बहुत भयावह हो सकते है। वैज्ञानिकों ने पहले से ही गर्म और आर्द्र सर्दियों की स्थिति के तहत उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में इस तरह के परिदृश्य की भविष्यवाणी की है हालाँकि गेहूँ के इस ब्लास्ट रोग के खतरे को देखते हुए भारत सरकार की प्रतिक्रिया बांग्लादेश सीमावर्ती क्षेत्रों में जागरूकता निगरानी और निगरानी मॉड्यूल बनाकर अभूतपूर्ण रूप से सक्रिय रही है।
भारत सरकार द्वारा एक सख्त आंतरिक और बाह्य संगरोध, मैग्नोपोरथे ऑरिजै पैथोटाइप ट्रिटिकम (MoT) के लिए उचित बीज स्वास्थ्य परीक्षण, जर्मप्लाज़्म की सुरक्षित आवाजाही के लिए मानक दिशा निर्देशों को लागू किया गया। इसके अलावा भारत में गेहूँ के ब्लास्ट रोग को रोकने हेतु सीमावर्ती क्षेत्रों में संक्रमण की श्रंखला को तोड़ने के लिए वर्ष 2016 में गेहूँ की फसल को नष्ट कर दिया गया था।
भारत में पश्चिमी बंगाल के मुर्शिदाबाद और नादिया जिलों में बांग्लादेश के साथ सीमावर्ती क्षेत्र के साथ 5 किलोमीटर के भीतर ‘गेहूँ रहित क्षेत्र’ अर्थात गेहूँ की खेती करने पर प्रतिबन्ध की अनुशंसा द्वारा इस रोग को देश में प्रवेश करने से सफलतापूर्वक रोका जा रहा है। इन क्षेत्रों में सर्दियों के मौसम में किसानों को चना, उरद, तिलहन फसलों जैसे रेपसीड, सरसों और आलू जैसी वैकल्पिक फसलों की सिफारिश की गयी है।
सीमावर्ती क्षेत्रों में भी हर मौसम में रोगजनक कवक के प्रसार की रोकथाम हेतु गेहूँ ट्रैप नर्सरी लगाई जाती रही है। भारतीय गेहूँ की किस्मों के सेट नियमित रूप से बोलीविया और बांग्लादेश में अग्रिम-स्क्रीनिंग के लिए भेजे गए है और इनमें से कुछ ब्लास्ट रोग प्रतिरोधी किस्मों की पहचान भी कर ली गयी है।
इन स्क्रीनिंग ट्रायल्स से पता चला कि गैर नॉन-2NS लाइनों के मुकाबले 2NS वाहक लाइनें ज्यादा प्रतिरोधी सिद्ध हुई है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के तत्वाधान में भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसन्धान संस्थान, करनाल ने विभिन्न परिस्थितियों के लिए पाँच प्रतिरोधी/ सहिष्णु और अधिक पैदावार वाली गेहूँ की किस्मों की सिफारिश की है।
इनमें सिंचित और समय से बुवाई के लिए DBW187, HD3249 व HD2967 तथा सीमित सिचाई और समय से बुवाई हेतु DBW252, HD3971 शामिल हैं। इनमें से HD2967 उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र की लोकप्रिय किस्म हैं और DBW187 (करण वंदना) उत्तरी-पूर्वी मैदानी क्षेत्र के साथ हाल ही में उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए अनुशंसित एक नवीनतम व उच्च उपज वाली किस्म है।
इसके अलावा उपलब्ध संभावित पोटेंशियल डोनर BH1146, मिलन, SHA 7, Ae. Tauschi जिसमें Lr 34 जीन है और 2 NS ट्रांसलोकेशन रखने वाली किस्मों का उपयोग गेहूँ एवं जौ अनुसन्धान संस्थान, करनाल में भारतीय खेती में गेहूँ के ब्लास्ट रोग के प्रतिरोध के लिए अन्तर्ग्रहण प्रजनन कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। बांग्लादेश में इनोकुलम लोड कम होने की वजह से भारतीय गेहूँ क्षेत्र की संवेदनशीलता को कम करने की आवश्यकता है और यह ‘गेहूँ रहित क्षेत्र’ के माध्यम से पूरा भी किया जा रहा है।
गैर मौसम में रोगमुक्त प्रतिरोधी किस्मों के बीजों की आपूर्ति, कृषि पद्धतियों, एकीकृत रोग प्रबंधन के विकास, कार्यान्वयन और लगातार रोग के प्रति निगरानी एवं संगरोध ही इसका उपाय है।
जलवायु परिवर्तन पर आधारित पूर्व से दी गयी चेतावनी प्रणालियों को संवेदनशील क्षेत्रों के लिए विकसित किये जाने की आवश्यकता है तथा रोगजनक MoT के आर्थिक और संगरोध के महत्व को ज्यादा उपज देने वाली ब्लास्ट प्रतिरोधी किस्मों के तेजी से विकास में निवेश को आकर्षित करने व अच्छी तरह से समझने की आवश्यकता है जिसमें ‘स्पीड ब्रीडिंग’ की अग्रणी तकनीकियों, जीनोमिक चयन तथा जीन एडिटिंग का उपयोग किया जा सकता है।
Authors:
संतोष कुमार बिश्नोई, राजेंद्र कुमार, मधु पटियाल, रविन्द्र कुमार, चरण सिंह एवं ज्ञानेंद्र सिंह
Scientist, ICAR-IIWBR, S&RU, Hisar
Email: skbishnoi.ars@gmail.com