ट्राइकोडर्मा सूक्ष्मजीव का उत्पादन, उपयोग तथा कृषि में योगदान

ट्राइकोडर्मा सूक्ष्मजीव का उत्पादन, उपयोग तथा कृषि में योगदान

Production and Contribution of Trichoderma microorganism and its use in Agriculture

आज के समय में दिन प्रतिदिन हमारी मृदा प्रदूषित होती जा रही है। इसका मुख्य कारण लगातार रासायनिक कवकनाशी का प्रयोग करना है। जिसके कारण हमारी मृदा में रहने वाले सूक्ष्म लाभकारी जीवो की संख्या में लगातार कमी आती जा रहीं है। जिससे हमारा कृषि उत्पादन घटता जा रहा है। इसलिए आज के समय में कवकनाशी में कमी लाना अति आवश्यक हो गया है।

ट्राईकोडर्मा का कल्‍चरइस कड़ी में मैं एक ऐसे ही सूक्ष्म जीव ट्राइकोडर्मा  कवक के बारे में विस्तार कर रहा हूँ, जो की हमारे मृदा के लिए बहुत ही लाभकारी है। ट्राइकोडर्मा मुख्यतः एक जैव कवकनाशी तथा अरोगकारी मृदापजीवी कवक है, जो प्रायः कार्बनिक अवशेषों पर पाया जाता है। इसकी दो प्रजातियाँ मुख़्य रूप से प्रचलित है, ट्राइकोडर्मा विरिडी एवं ट्राइकोडर्मा हरजीयनम।

ऐसा माना जाता है की एक चम्मच मिटटी में इनकी संख्या लाखो में होती है। यह  कृषि की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। यदि इसका प्रयोग लोग करे तो कृषि में रासायनिक कवकनाशी के ऊपर निर्भरता काम होगी और हमारी मृदा सुरक्षित रहेगी।

ट्राइकोडर्मा उत्पादन वि‍धि‍

ट्राइकोडर्मा के उत्पादन के लिए कंडो एवं गोबर की देशी खाद का प्रयोग करते है , लगभग २५-३० किलोग्राम गोबर की खाद को छायादार स्थान कूट-कूट कर बारीक  कर लेते है और हल्का पानी का छींटा मर लेते हैं ।

इसके बाद ट्राइकोडर्मा का शुद्ध कल्चर ६० ग्राम प्रति २५ किलोग्राम खाद की दर से मिला लेते है। इसको जूट के बोरे से ढक कर छोड़ देते है। समय-समय पर पानी  छींटा  मारते है जिससे की उसमे नमी ३० प्रतिशत से कम न हो।

इस मि‍श्रण को  ५-७ दिन के अंतराल पर डंडे से मिलाते है। लगभग २०-२१ दिन बाद हरे रंग की फफूँद खाद के ढेर के ऊपर दिखाई देने लगती है इससे यह तय हो जाता है की हमारा कल्चर तैयार हो गया है और अब हम इसको मृदा तथा बीज उपचार के लिए प्रयोग कर सकते है। आगे पुनः इसकी संख्या को बढ़ने के लिए इसका कुछ भाग सुरक्षित रख लेते है।

Production of Tricodermaट्राइकोडर्मा उत्पादन वि‍धि‍

ट्राईकोड्रमा का उपयोग

  • आज के समय में ट्राइकोडर्मा का उपयोग ,मृदोपचार ,बीजोपचार तथा नर्सरी पौधे के उपचार के रूप में किया जाता है। मृदा उपचार के  लिए २१ दिन के बाद बने कल्चर को बुवाई के पहले २५ किलोग्राम की दर से प्रयोग करते है।
  • बीज  ४-५ ग्राम शुद्ध ट्राइकोडर्मा के कल्चर को प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाकर बुवाई करनी चाहिए।
  • राइजोम अथवा नर्सरी पौधे के उपचार के लिए ५ ग्राम ट्राइकोडर्मा को १ लीटर में घोल बना कर २५-३० मिनट डुबोकर फिर लगाना चाहिए।
  • ट्राइकोडर्मा के कवक तंतु फसल के नुकसानदायक फफूँदी के कवक तंतुओ को लपेटकर अथवा सीधे उनके अंदर घुसकर उनको मार देते है।
  • इसके अतिरिक्त भोजन स्पर्धा के द्वारा तथा कुछ ऐसे विषाक्त पदार्थ का स्राव करते है ,जो बीजो के चारो ओर सुरक्षा कवच बनाकर हानिकारक फफूँदों से बचाते है।
  • ट्राइकोडर्मा के उपचार से बीजो में अंकुरण अच्छा होता है तथा फसले कवक जनित बीमारियो से मुक्त रहती है।

Uses of Tricodermaट्राइकोडर्मा के कवक तंतु

ट्राईकोड्रमा का कृषि में योगदान

हमारे देश में फसलों को बीमारियों से होने वाले कुल नुकसान का ५० प्रतिशत से भी अधिक मृदाजनित पादप रोग कारको से होता है। जिसका नियंत्रण रासायनिक कवकनाशी से कुछ समय के लिए तो हो जाता है लेकिन इसका बहुत बड़ा प्रभाव हमारी मृदा एवं हमारे स्वाथ्य पर पड़ रहा है। मृदा प्रदूषित होती जा रही है और दिन प्रतिदिन फसलों की बहुत सारी बीमारियाँ जन्म ले रही है। अतः इस समय में ट्राइकोडर्मा का प्रयोग करना अत्यंत आवश्यक है।

ट्राइकोडर्मा, पादप रोग प्रबंधन  विशेष तौर पर मृदा जनित बीमारियों के नियंत्रण के लिए बहुत ही प्रभावशाली जैविक विधि है। 

ट्राईकोड्रमा लगभग सभी प्रकार के कृषि योग्य भूमि में पाया जाता है। इनमे से ट्राइकोडर्मा विरिडी एवं हरजीयनम का प्रयोग मुख्य रूप से मृदा जनित कारको जैसे राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोसीयम, मैक्रोफोमिना, पीथियम, फाइटोफ्थोरा,एवं फ्यूजेरियम आदि के द्वारा होने वाली विभिन्न बीमारियाँ जैसे बीजसड़न, आद्रगलन, मुलगलन, अंगमारी एवं म्लानि के नियंत्रण के लिए किया जाता है।

कवक नाशक के अलावा ट्राईकोड्रमा सूत्रकृमि से होने वाले रोगो से भी पौधों को बचाते है। यह मुख्यत: दो प्रकार से रोग कारको की वृद्धि को रोकता है, प्रथम विभिन्न प्रकार के रसायनो का संशलेषण एवं उत्सर्जन करके तथा दूसरा यह प्रकृति में रोग कारको पर सीधा आक्रमण कर उसे अपना भोजन बना लेता है।  यह उन्हें अपने विशेष एंजाइम जैसे काइटीनेज,बीटा-१,३ ग्लुकानेज द्वारा तोड़ देता है। यह पौधों में उपस्थित रोग रोधी जीन को सक्रीय कर पौधों की रोग रोधक क्षमता का भी विकास करता है।


Authors

राम निवास1*, गिरीश चंद1, दीपक मौर्या2 एवं अंकित कुमार पाण्डेय3

1पौधा रोग विज्ञान विभाग, 2सब्जी विज्ञान विभाग , 3फल विज्ञान विभाग

बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर, बिहार-८१३२१०

*लेखक मेल : ramniwas14011994@gmail.com

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