Management practices to Protect the rabi crops from untimely, excessive rain

पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि रबी फसल के समय असामयिक वर्षा या अधिक वर्षा के कारण फसलों को भारी नुकसान पहुंचता है। इन परिस्थितियों में फसल को बचाने के लिए निम्नलिखित तुरंत एवं दूरगामी प्रबंधन की अवश्यकता होती है

इन प्रबंधन क्रि‍याओं को किसान भाई अपनी जरूरत, परिस्थितियों एवं सोहलियत के अनुसार अपनाकर रबी फसलों को बचा सकतेे है या नुकसान को कम कर सकते है ।

field leveling to manage excessive rainखेत समतलीकरणः-

असमतल खेत के विभिन्न भागों में पानी की कमी अथवा पानी की अधिकता होना दोनों ही स्थितियों में ये फसलों को नुकसान पंहुचाता है। खेतों के उंचा-नीचा होने के कारण जहां एक और सिंचाई जल एक समान नहीं लग पाता वहीं दूसरी ओर सिंचाई हेतु जल की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है।

असमतल खेतों से भारी अथवा लगातार वर्षा के दौरान जल निकासी ठीक तरह से नहीं हो पाती है। इसके परिणामस्वरूप जहाँ से खेत नीचा होता है, वहां पानी भर जाता है, तथा फसल को नुकसान पहुँचाता है। इस नुकसान को बचने के लिए खेत का समतल होना अतिआवश्यक है।

इसके लिए लेजर लैंड लेवलर मशीन एक वरदान के रूप मं उभरा है। लेजर लैंड लेवलर के उपयोग द्वारा खेत का समतलीकरण बहुत ही लाभकारी तकनीक है, जिसे कृषकों को अपनाना चाहिए और इसका फायदा उठाना चाहिए।

इस मशीन द्वारा समतलीकरण करवाने से कृषकों को दोनों ही परिस्थितियों (अत्यधिक वर्षा के कारण जलमग्न अथवा सिंचाई जल की कमी) में लाभ होगा। खेत का समतलीकरण करते समय 1-1-5” की ढ़लान खेतों में रखने से जल निकासी में आसानी हो जाती है।

जल निकासी नालियां-

सिंचित खेतों में जल निकास हेतु नालियों का होना अतिआवश्यक है। जिसे हम अकसर टाल  देते हैं। अत्यधिक एवं लगातार  वर्षा के होने पर इन नालियों के द्वारा खेतों का अतिरिक्त पानी खेत से बाहर निकाला जा सकता है।

इन जल निकासी नालियों का निर्माण इस प्रकार से करना चाहिए कि इनके द्वारा निकाला गया अतिरिक्त पानी किसी बड़े नाले या जलाशय में जाकर मिले, ताकि दुसरे कृषकों के खेत इस प्रक्रिया से प्रभावित ना हों। इसके लिए सामुहिक प्रयास की आवश्यकता होगी, जिसके उपयोग से  एक बड़े श्रेत्र के निष्कासित जल को  किसी बारहमासी नाले की सहायता से निकटतम  जलस्त्रोत तक ले जाया जा सके।

खेतों में जल निकास हेतु नालियोंजल निकासी नालियां

भूजल पुनर्भरण संरचना का निर्माण-

यह एक बहुत उपयोगी एवं व्यावहारिक तकनीक है जिसे व्यक्तिगत स्तर पर हर कृषक अपना सकता है। इसे खेत के निचले हिस्से में जहां सम्पूर्ण खेत का 1-1-5” का ढलान देकर अतिरिक्त जल एकत्रित किया जा सकता है वंहा पर एक आवश्यकतानुसार कुआं/भूजल पुनर्भरण संरचना का निर्माण  करना चाहिए।

भारी एवं अत्यधिक वर्षा की स्थिति में अतिरिक्त जल को इस कुंए/संरचना से भूजल पुनर्भरण में सहायता की जा सकती  है, इससे फसलों को नुकसान से बचाने के साथ-साथ भूमिगत जल में भी बढ़ोतरी होगी जो कि बहुत तेजी से कम होता जा रहा है।

     

भूजल पुनर्भरण संरचनाभूजल पुनर्भरण PondsPond in field 

अवशेषों का उपयोग-

खेत में फसल अवशेषों का उपयोग पलवार (घास-पात से ढकना) के रूप में करने से मृदा की जल धारण/जल सोखने की क्षमता दोनों में वृद्वि होती है। इसके अतिरिक्त पलवार मृदा की संरचना एवं जैविक गतिविधयों में भी सुधार करती है।

इनके सामूहिक परिणामस्वरूप अधिक वर्षा के कारण होने वाली जलमग्नता की स्थिति अपेक्षाकृत कम समय के लिए रहती है जिससे फसलों को नुकसान कम या बिलकुल नहीं होता। भूमि पर फसल अवशेष छोड़ने पर यह भी पाया  गया है कि अधिक वर्षा एवं तेज हवा चलने की स्तिथि में भी फसल गिरती नही या बहुत कम गिरती है।

फसल बुआई की विधि-

छिटकवां विधि से फसल की बिजाई करने से बीज की गहराई अपेक्षाकृत कम रह जाती है जिससे जड़ों का विकास केवल ऊपरी सतह तक ही सिमित रह जाता है। इसके अतिरिक्त इस विधि से फसल ज्यामिति एवं पौधे प्रति यूनिट भूमि उपयुक्त नहीं रहते। परिणामस्वरूप वर्षा के कारण पौधे भारी होने एवं उथली जड़े होने के कारण शीघ्र एवं अधिक गिरते है ।

फसल ज्यामिति उपयुक्त नहीं होने से गिरी हुई फसल में वायु एवं प्रकाश का आवागमन भी बाधित होता है जिसके फलस्वरूप फसल को अधिक नुकसान होता है। इसके विपरित ड्रिल मशीन से बुआई करने पर बीज निश्चित गहराई तक  पहुँच जाता है तथा फसल की उपयुक्त ज्यामिति कायम रहती है इससे अपेक्षाकृत फसल कम गिरती है।

जैविक खाद का उपयोग-

जैविक खाद जैसे कि पशुओं का सड़ा-गला गोबर, ढ़ैंचा या मूँग की हरी खाद, केन्चुआ खाद, फसल अवशेष  इत्यादि, खेतों में डालने से मृदा की गुणवत्ता में सुधार होता है। मृदा कणों का एकीकरण, संरध्रता, पारगम्यता, अंतः स्पंदन दर, जल निकासी क्षमता, इत्यादि में सुधार होता है।

यह सभी कारक जलमग्नता की समस्या अपेक्षाकृत कम करने में अत्यंत सहायक होते है। इसके अतिरिक्त जैविक खाद फसलों को पोषक तत्त्व भी प्रदान करती है, जिससे उत्पादकता में निश्चित रूप से वृद्वि होती है।

     

संरक्षण खेती-

यह फसल उगाने की एक ऐसी विधि है जिसमें भूमि की कम से कम जुताई (जीरो टिलेज) की जाती है तथा फसल अवषेशों को भूमि पर बनाये रखा जाता है। पिछले तीन-चार सालों से गेहूँ फसल के मौसम में भारी वर्षा के कारण गेहूँ की फसल को नुकसान झेलना पड़ा है लेकिन यह पाया/देखा गया कि जहाँ भी संरक्षण खेती तकनीक से गेहूँ उगाई गई थी उसमें बहुत कम यानि ना के बराबर फसल गिरी एवं नुकसान हुआ है।

मौसम पूर्वानुमान सेवा-

क्षेत्र विशेष के लिए किसानों को मौसम की जानकारी विभिन्न माध्यमों (टेलीविजन, रेडियो, समाचार पत्र) के द्वारा नियामत रूप से दी जाती है। इनके अलावा किसानों के मोबाइल फोन पर एस एम एस सेवाओं के द्वारा भी मौसम की जाकारी उपलब्ध करवाई जाती है।

भारत मौसम विज्ञानं, सांख्यकी तकनीक के माध्यम से लघुकालिक (3 दिन के लिए), मध्यकालिक (5-7 दिनों के लिए) पूर्वानुमान प्रदान करता है। यह सलाह स्थानीय भाषा जैसे की पंजाबी, गुजराती, मराठी इत्यादि शभी भाषओं में किसानों तक पहुंचाई जाती है।

इन पूर्वानुमानो को ध्यान में रखते हुए सिंचाई करने का फैसला करना चाहिए, यदि निकट भविष्य में वर्षा होने का अनुमान हो तो सिंचाई नही करना चाहिए। इससे धन, समय, श्रम इत्यादि की बचत तो होगी ही साथ ही फसल को जल जमाव की समस्या से भी बचाया जा सकता है।

 


Authors:

राज पाल मीना*, अंकिता झा, कर्णम वेंकटेश, एवं सूरज गोस्वामी

वरिष्ठ वैज्ञानिक (एग्रोनॉमी)

आई.सी.ए.आर.-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसन्धान संस्थान, करनाल

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