Durum Wheat Varieties and Quality Seed Production Techniques
दुनिया की एक तिहाई आबादी के लिए खाद्य अनाजों में चावल के बाद गेहूँ मुख्य भोजन है। गेहूँ की खेती लगभग 800 ई.पू. के बाद से शुरू हुई। डी कैंडोले के अनुसार गेहूँ की उत्त्पत्ति फ़रात और दजला की घाटी है तथा वाविलोव के अनुसार ब्रेड गेहूँ की उत्त्पत्ति दक्षिणी-पश्चिमी अफगानिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान, बबशारा पहाड़ी का दक्षिणी भाग और कठिया गेहूँ एबिसिनिया को माना जाता है।
विश्व में गेहूँ उत्पादन करने वाले प्रमुख देश में चीन, भारत, रूस, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और तुर्की आदि है I भारत में गेहूँ को विभिन्न नामो से जाना जाता है जैसे बंगाली में गोम , गुजराती में घाऊ, कन्नड़ में गोढ़ी, कश्मीरी में कुनुख, मलयालम में गोथम्बु, मराठी में गहु, उड़िया में गहमा, पंजाबी में कनक, तमिल में गोडुमई, तेलुगु में गोधुमालु।
विश्व स्तर पर, रोटी (हेक्साप्लोइड) और ड्यूरम (टेट्राप्लोइड) गेहूं का उत्पादन क्रमशः 95% और 5% है I हेक्साप्लोइड गेहूं की तुलना में कम उपज देने के बावजूद, ड्यूरम (टेट्राप्लोइड) गेहूं महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत के रूप में मौजूद है। अत्यधिक सहनशील और अधिक उपज देने वाली किस्मों के विकास के कारण मध्य भारत को अब ड्यूरम गेहूं का केंद्र कहा जाता हैI
भारत में कठिया गेहूँ की खेती लगभग 25 लाख हैक्टर क्षेत्रफल में की जाती है। कठिया गेहूं की खेती मुख्यतः मध्य प्रदेश के मालवा, गुजरात के सौराष्ट्र और कठियावाड़ राजस्थान के कोटा, मालावाड़ एवं उदयपुर तथा उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड आदि क्षेत्रों में की जाती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ सिंचाई की सुविधा कम है वहाँ के लिये कठिया गेहूँ की खेती करना एक अच्छा विकल्प है क्योंकि कठिया गेहूँ सामान्य गेहूँ की तुलना मे कम सिचाई की आवश्यकता होती है। इसलिए कठिया गेहूँ की खेती कम वर्षा वाले क्षेत्रो मे भी आसानी पूर्वक की जा सकती हैं।
गेहूं में आवश्यक पोषक तत्व जैसे की प्रोविटामिन ए, एंटीऑक्सीडेंट और कम सोडियम होता है, जो आहार में आवश्यक हैं। कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स के कारन यह मधुमेह रोग में उपयुक्त माना जाता है I ड्यूरम गेहूं की पोषक संरचना जैसे की उच्च ग्लूटेन शक्ति और एकसमान सुनहरा रंग पास्ता बनाने के लिए आदर्श बनाता है I ड्यूरम दाने की कठोरता, उच्च कैरोटीनॉयड स्तर और प्रोटीन मूल्य का उपयोग मोटे चार (सूजी) का उत्पादन करने के किया जाता है जिससे उच्च गुणवत्ता वाले पास्ता, स्पेगेटी, और पेने बनते है I सूजी और पास्ता का रंग कैरोटीनॉयड के ऊपर निर्भर होता है, जो पास्ता और सूजी को पीलापन देता है और गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार है I
कठिया गेहूँ के पौधे सामान्य गेहूँ की तुलना में मोटे होते हैं और इसके पत्तियाँ भी चौड़ी होती हैं। इसके दाने अधिक कठोर, बड़े आकार के, सुनहरे रंग के तथा अर्धपारदर्शी होते हैं। इसके अलावा कठिया गेहूँ में ग्लूटेन प्रोटीन की मात्रा भी अधिक होती है और यही कारण है कि कठिया गेहूँ अपने विशेष गुणों के कारण वर्तमान समय में अधिक महत्वपूर्ण है और विभिन्न प्रकार के उत्पादों एवं विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने के लिए में उपयोग किया जा रहा है।
कठिया गेहूँ की मुख्य विशेषताएं
इसमे बीटा कैरोटीन नामक एक पीला पदार्थ पाया जाता है। जिससे विटामिन "ए" बनता है जो हमारी आंखों की रोशनी के लिए बहुत अच्छा होता है। कठिया गेहूँ में आयरन और सेलेनियम प्रचुर मात्रा में उपस्थित होता है। जो हमारे मानव शरीर के प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने में मदद करता है। तथा रक्त कोशिकाओ के प्रसार एवं पुर्ननिर्माण में भी मदद करता है। सामान्य गेहूँ के अपेक्षा कठिया गेहूँ से बने उत्पादों का उपयोग करने से शुगर के मरीजो का शुगर का स्तर नही बढता है। कठिया गेहूँ में पौटाशियम प्रचुर मात्रा मे पाया जाता है जोकि हमारे दिल की धडकन को सामान्य रखने मे मदद करता हैं। कठिया गेहूँ से बनी सेमोलीना का उपयोग करने से शरीर मे हिमोग्लोबिन खून की कमी को पूरा करने मे मद्द करता है। क्योकि सेमोलीना कठिया गेहूँ के अन्तबीजो (भ्रूणपोश) से बनता है जिसमे आयरन (लोहे) की प्रचुर मात्रा पाई जाती है।
कठिया गेहूँ से बनने वाले उत्पाद
कठिया गेहूँ से बनने वाले उत्पाद जैसे पास्ता, पिज्जा, बरगर, नूडल, फ्रेकह, मैकरोनी, रवाइडली रवा पुट्टू स्पेगेटी, कसकस, आदि हैं। कठिया गेहूँ में बीटा कैरोटीन नामक एक पीला पदार्थ पाया जाता है जो पास्ता को उसका पीलापन रंग देता हैं।
कठिया गेहूँ की प्रमुख उन्नतशील किस्में एवं उनकी मुख्य विशेषताएं
क्रम संख्या |
उन्नतशील किस्में |
अधिसूचना वर्ष |
मुख्य विशेषताएं |
1 |
डीडीडब्ल्यू 55 |
2023 |
प्रोटीन (11.5%), जस्ता (43.3पीपीएम), लौह (38पीपीएम) |
2 |
एच आई 8830 (डी) |
2023 |
प्रोटीन (11.3%), जस्ता (37.9पीपीएम), लौह (37.6पीपीएम) |
3 |
एम ए सी एस 4100 |
2023 |
प्रोटीन (9.9%), जस्ता (39.4पीपीएम), लौह (37.7पीपीएम) एवं औसत उपज (46कु./है.) |
4 |
डीडीडब्ल्यू 48 |
2021 |
इसके दानो मे पीला रंजक व प्रोटीन(12.1%) की अधिकता होती है औसत उपज (47.4कु./है.) |
5 |
डीडीडब्ल्यू 47 |
2020 |
अधिक पीला रंजक तत्त्व ,पास्ता स्कोर 7.9,प्रोटीन 12.7%, जस्ता 39.5%, लौह तत्त्व 40.1पीपीएम |
6 |
एचआई 8777 (पूसा गेहूँ 8777) |
2018 |
इसके दानो मे 14.3 प्रतिशत प्रोटीन, 43.6 पीपीएम जस्ता एवं 48.7 पीपीएम लौह पाया जाता है। |
7 |
एचआई 8759 (पूसा तेजस) |
2017 |
इस किस्म के दानो मे 12.0 प्रतिशत प्रोटीन, 42.8 पीपीएम जस्ता एवं 42.1 पीपीएम लौहा पाया जाता है। |
8 |
एचआई 4728 (पूसा मालवी) |
2016 |
यह किस्म 54.2 कुन्तल प्रति हैक्टर की औसत उपज देती है। प्रोटीन 11.5% जस्ता 38.5पीपीएम |
9 |
एचआई 8713 (पूसा मंगल) |
2013 |
इसमे पीला रंजक तत्व की अधिकता होती है। प्रोटीन (11.7) जस्ता (33.6पीपीएम) |
10 |
डब्ल्यू एच डी 943 |
2011 |
प्रोटीन (12.5%), जस्ता (41.4पीपीएम), लौह (40.4 पीपीएम) |
सस्य क्रिया एवं बीज फसल प्रबंधन:
खेत का चयन एवं तैयारी –
बीज उत्पादन के लिए उचित भूमि का चयन आवश्यक है। किसानो को भूमि का चयन करते हुए यह ध्यान देना है कि जमीन समतल एवं उपजाऊ हो, यह जमीन अवाछिंत पौधे (वोलिंटीयर पौधे) हानिकारक खरपतवार से मुक्त हो। ऐसा खेत हो जिसमे पिछली बर्ष गेहूँ न बोया हो या गेहूं की दूसरी किस्म न लगाई हो ।
खेत की तैयारी –
पिछली फसल कि कटाई के बाद मिटटी पलटने बाले हल से एक जुताई कर के 2-3 हैरो चलाना चहिये, दीमक से बचाव के लिए कोलोरोपयारीफास 20 ई. सी. 2.5 लीटर मात्रा 50 किलोग्राम बालू या रेट में मिलाकर प्रति हेक्टर अंतिम जुताई के साथ खेत में डाल दे ।
बीज उपचार-
बीज से प्रचारित होने बाले रोगों के रोकथाम के लिए फफूंद नाशक जैसे टोबकोनोजोल 1.0 ग्राम/किलोग्राम बीज का प्रयोग करे ।
बुबाई –
बुबाई से पूर्व बीज अंकुरण क्षमता की जाँच कर ले । इसके लिए 400 बीजो का चयन करके पेपर अथवा जूट के बोरे में 8 दिन तक नमी देते हुए रखे । अगर अंकुरण क्षमता 85 प्रतिशत से अधिक है तो ही ऐसे बीज की बुबाई के लिए आदर्श /योग्य माना जाता है ।
बुबाई की तकनीक –
सीड ड्रिल से पंक्ति में बुबाई करना एक अच्छा विकल्प है । इसी से प्लाट का निरीक्षण एवं अवाछिंत पोधों को निकालने में सुविधा होती है । पक्तियों की दूरी 20 से 22.5 से. मी. होनी चहिये जो रोगिंग के लाभप्रद है, बुबाई के समय बीज की गहराई 5 से. मी. तक होनी चहिये । बीज उत्पादन हेतु समय से बुबाई करने से ही अच्छी गुणवत्ता वाले बीज का उत्पादन होता है ।
प्रथक्करण दूरी –
गेहुँ स्व-परागित फसल है । अत: अन्य खेतो से बीज खेत की दूरी 3 मीटर रखना पर्याप्त है । लेकिन अनावृन्त कंड रोग से बचाव के लिए नयूनतम प्रथक्करण दूरी 150 मीटर रखी जाती है ।
रोगिंग-
बीज फसल में अन्य पौधें , अन्य किस्मो एवं रोगग्रस्त अथवा अवछिंत पौधों को निकालना रोगिंग कहलाता है । ऐसे पौधो को ऊचाई , बाली की बनाबट, पत्तियों के रंग एवं चौड़ाई इत्यादि से पहचाना जाता है गेहूँ में कंड़ुआ रोग ग्रस्त पौधें से लगभग एक सप्ताह पहले ही निकाल आते है । ऐसे पौधे के बालियों पर लिफाफे के निचले हिस्से को मुठ्ठी से बंद कर निकालना चहिये तथा गड्डे में दबा देना चहिये ।
बीज स्रोत -
बीजोत्पादन के लिए हमेशा प्रमाणित बीज का प्रयोग चाहिए एवं अत: बीज हमेशा हमेशा प्रमाणित संस्था से ही खरीदना चाहिए।
बीजदर –
कठिया गेहूँ की बुआई सीडड्रिल से ही करनी चाहिए। छिड़कवां विधि सें बोने से बीज ज्यादा लगता है तथा जमाव कम होता है इसलिए छिड़कवां विधि से बुआई नही करनी चाहिए। सीडड्रिल से बुआई आज-कल लोकप्रिय हो रही है क्योंकि इससे कम बीज लगता है। और बीज की गहराई तथा पंक्तियों की दूरी नियंत्रित रहती है तथा जमाव भी अच्छा होता है।
100 किलोग्राम/ हेक्टेयर |
समय से बुबाई |
बीज उपचार
बीज साफ, स्वस्थ एवं खरपतवारों व अन्य फसल के बीज उसमें मिश्रित नहीं होने चाहिए। और कटे-फटे बीजों को भी निकाल देना चाहिए यादि सम्भव हो तो हमेशा प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए।
सिंचाई -
कठिया गेहूँ फसल की (क्राउन) जड़े निकलने तथा बालियों के निकलने की अवस्था में सिंचाई की अधिक आवश्यकता होती है। सामान्य गेहूँ की फसल के लिय सामान्यतः 4-6 से सिंचाईयों की आवश्यकता होती है, परन्तु कठिया गेहूँ को कम सिंचाई आवश्यकता होती है। इसलिये कठिया गेहूँ के लिए 1-4 सिंचाई पर्याप्त होती हैं। प्रथम तथा अन्तिम सिंचाई हल्की करें।
पहली सिंचाई (क्राउन) जड़ अवस्था मे बुआई के 20 -25 दिन बाद में देनी चाहिए।
दूसरी सिंचाई गाँठ बनने की अवस्था में 60-65 दिन के बाद में देनी चाहिए।
तीसरी सिंचाई फूलआने के पूर्व मे 80-88 दिन होने की अवस्था में देनी चाहिए।
चौथी सिंचाई दाने कड़े होने की 120-135 दिन की अवस्था में देनी चाहिए।
खाद और उवर्रक की मात्रा
अवस्था |
नाइट्रोजन |
फास्फोरस |
पोटाश |
सिंचित, समय से बुआई |
48 कि.ग्रा./एकड़ |
24 कि.ग्रा./एकड़ |
16 कि.ग्रा./एकड़ |
फसल निरिक्षण -
कम से कम फसल का चार बार निरिक्षण करना चाहिए जो क्रमशः बुवाई से पूर्व, बुवाई के बाद, फूल बनते समय एवं परिपक्वता के समय करें |
खरपतवार नियंत्रण –
गेहूँ के प्रमुख खरपतवार फैलेरिसमाइनर (गेहूँ का मामा), जंगली जई, बथुआ, जंगली पालक, कृष्णनील, हिरनखुरी आदि खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है। गेहूँ बोने से पूर्व एक हल्की सिंचाई करके खरपतवार के बीजों को जमने का मौका दें तथा खरपतवार उगने के बाद जुताई करके नष्ट कर देना चाहिए।
खरपतवारों के प्रकार व नाम |
खरपतवारनाशक रसायनों के नाम |
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए (बथुआ, जंगली पालक, मैना, मैथा, हिरनखुरी, मकोय) (बुआई के 30-35 दिन तक ) |
2,4-डी (३८ इ सी ) @ 500 मिलीलीटर प्रति एकड़ मेट्सल्फ्यूरॉन मिथाइल @ 8 ग्राम/ प्रति एकड़ |
संकरी पत्ती वाले खरपतवार के लिए (कनकी/ गुल्ली डंडा, जंगली जई) (बुआई के 30-35 दिन तक) |
क्लोडिनाफॉप प्रॉपरगिल @ 160 ग्राम प्रति एकड़ |
दोनों संकरी और चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए (गेहूं की बुआई के 72 घंटे के अंदर) |
पेन्डीमैथालीन 1250 मि.ली./ एकड़ प्रति एकड़ |
खरपतवारनाशक रसायनों का छिड़काव खिली धूप वाले दिन जब हवा की गति कम हो तभी करना चाहिए। खरपतवार नाशको को 125-150 लीटर पानी में प्रति एकड़ घोल बनकर छिड़काव करना है I
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
(1.)गेरुआ (रतुआ)
(अ)तना गेरूआ - यह रोग पक्सीनिया ग्रेमिनिस, ट्रिटिसाई नामक कवक के कारण होता है यह रोग पत्तियों एवं तने पर गहरे भूरे रंग के लम्बे धब्बे के रूप में आता है।
(ब)पर्ण गेरूआ - फैले अण्डाकार रोग के लक्षण पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
(स)धारीदार गेरूआ - रोग के लक्षण पत्तियों की शिराओं पर पीले रंग की धारियों के रूप में दिखाई पड़ते है। पौधे के तने, पर्णाच्छेद एवं बाली पर भी ऐसे धब्बे दिखाई पड़ सकते हैं।
रोकथाम - विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों के लिए संतुस्त गेरुआ रोगरोधी किस्मों की बुआई करे तथा धब्बे के दिखाई पड़ने पर 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल का दो बार पत्तियों पर छिड़काव करें।
(2.)पर्ण झुलसा -
यह एक जटिल रोग है जो बाइपोलेरिस सोरोकिनियाना, पायरेनोफोरा ट्रिटिसाई रीपेटिस एवं अल्टरनेरिया ट्रिटिसाईना द्वारा उत्पन्न होता है इस रोग में पत्तियों पर बहुत छोटे, गहरे भूरे रंग के पीले धब्बे बनते हैं जो बाद में परस्पर मिलकर पर्ण झुलसा उत्पन्न करते हैं। संक्रमित पत्तियाँ जल्दी ही सूख जाती है और पूरा खेत दूर से झुलसा हुआ दिखाई पड़ता है संक्रमित बाली में भूरे धब्बे वाले दाने होते हैं।
रोकथाम - रोग प्रतिरोधी किस्में उगाएं। खड़ी फसल में 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल (टिल्ट 25 ईसी) का छिड़काव करें और खेत में पानी ठहरने न रहने दें।
प्रमुख कीट एवं प्रबंधन
कीटों एवं नाशी जीवो के नाम |
लक्षण एवं हानि |
कीट प्रबंधन |
दीमक |
ये जड़ों और तने के भूमिगत हिस्सो को खाकर पौधो क्षतिग्रस्त कर देते हैं। |
दीमक के टीले और सुरंगों को नष्ट कर देना चाहिए तथा क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी @ 3 लीटर 50 किलोग्राम मिट्टी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर मिट्टी में प्रयोग करें। |
महू/ चेपा |
यह छोटे, मुलायम शरीर वाले, छोटे के आकार के कीड़े होते हैं यह पत्तियों से पौधों का रस चूसते हैं जिससे पौधे की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती हैं। |
महू/ चेपा को निंयत्रित करने के लिए इमिडाक्लोरोपीड़ 200 SL @ 20 ग्राम ए आइ / हेक्टर की दर से प्रारभिक अवस्था में खेतो के चारो तरफ बॉर्डर पर छिड़काव करे I |
कटाई –
कटाई से पहले यह जांच लें कि गेहूँ पूरी तरह से पका है जब दानों में लगभग 12 % नमी रह जाये तब फसल कटाई के लिए उपयुक्त मानी जाती है। गेहूँ की कटाई आम तौर पर 15 मार्च से 15 अप्रैल के बीच कटाई करनी चाहिए, फसल कटाई से पहले यह देख ले थ्रेसर, कम्बाइन हार्वेस्टर यंत्रों की अच्छी तरह से सफाई कर लेनी चाहिए।
उपज -
कठिया गेहूँ की उपज सामान्य गेहूँ की फसल से कम होती है। कठिया गेहूँ की उन्नतशील किस्मों की औसत उपज लगभग 45-48 कु./है तक होती है।
पैकिंग –
कठिया गेहूँ के बीज की पैकिंग जूट या पोलोथीन के थैले या कट्टों में करे। तथा पैकिंग करने के बाद गेहूँ को सुनिश्चत सुरक्षित, साफ स्थान पर रखें।
बीज भंडार –
बीज को भंडारण से पहले धूप में अच्छी तरह सुखा ले और दानों की नमी 12% से कम हो ये सुनिश्चित कर ले। भंडारण के लिए हमेशा नये जूट के बोरो का प्रयोग करना चहिये जिससे अन्य किस्मो के बीजो में मिश्रण से बचा जा सके। बीज के बोरो को रखते समय उसके नीचे लकड़ी का पट्टा रखें ताकी नमी का बीजों से संपर्क न हो। बीजों में भंडारण के समय नुकसान करने वाले कीटों को प्रधूमन विधि द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
भंडारण के दौरान सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला फयूमिगेंट एल्युमीनियम फास्फाइड है ,इसका 9 ग्राम प्रति टन बीज के अनुसार उपयोग करें। इस विधि द्वारा फयूमिगेशन करने के लिए सबसे पहले बीज को हवाबंद पॉलिथीन या तिरपाल में ले, उसके पश्चात बीज में एल्युमीनियम फास्फाइड मिलाकर अच्छी प्रकार बंद कर दें ताकि गैस (फास्फीन) बाहर न निकल पाये।
यह विधि करते समय यह सुनिश्चित कर ले कि बीज को उपचारित करने वाले व्यक्ति का मुँह अच्छी तरह ढका हो और उपचारित बीज के पास 3 से 4 दिन तक किसी भी प्रकार का अवरोध न हो और कोई इंसान या जानवर इसके संपर्क में न आए। इस प्रकार बीजों का सुरक्षित भंडारण किया जा सकता है।
बीज का प्रमाणीकरण –
बीज अधिनियम 1966 की धारा 5 के तहत, बाजार में बेचा गया ऐसा बीज जिसको अधिनियम की धारा 6 (क) और (ख) निर्धारित बीज लेवल लगाना अनिवार्य है लेकिन प्रमाणीकरण स्वैचिछक है। आधारीय एवं प्रमाणित बीज उत्पादन के लिए प्रमाणीकरण एवं लेबलिंग दोनों अनिवार्य है। भारतीय न्यूनतम बीज प्रमाणीकरण मानक, 2013 के अनुसार गेहूं के आधारीय एवं प्रमाणित बीज के लिए निम्नलिखित बीज मानको का पालन करना अनिवार्य है।
अव्यव |
मानक |
|
|
आधारीय बीज |
प्रमाणित बीज |
शुद्ध बीज (न्यूनतम) |
98.0 प्रतिशत |
98.0 प्रतिशत |
अक्रिय पदार्थ (अधिकतम ) |
2.0 प्रतिशत |
2.0 प्रतिशत |
अन्य फसलों के बीज (अधिकतम ) |
2.0 प्रतिशत |
2.0 प्रतिशत |
कुल खरपतवारों के बीज (अधिकतम ) |
10 प्रति कि.ग्रा. |
20 प्रति कि.ग्रा. |
आपतिजनक खरपतवारों के बीज (अधिकतम ) |
2 प्रति कि.ग्रा. |
5 प्रति कि.ग्रा. |
करनाल बंट से ग्रस्त बीज |
0.05 प्रति कि.ग्रा. |
0.25 प्रति कि.ग्रा. |
इयर कोकल व टुंडू से ग्रसित बीज |
कोई नही |
कोई नही |
अंकुरण (न्यूनतम) |
85 प्रतिशत |
85 प्रतिशत |
नमी (अधिकतम ) |
12 प्रतिशत |
12 प्रतिशत |
वाष्परोधक कंटेनर में नमी (अधिकतम ) |
8 प्रतिशत |
8 प्रतिशत |
Authors:
उमेश कांबले, अमित कुमार शर्मा, चरण सिंह, रविंद्र कुमार, किरण गायकवाड़* एवं प्रवीन कुमार
भाकृअनुप- भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल;
*भाकृअनुप- भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली
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