भारत के पूर्वी प्रान्तों में किलनी-जनित रोगों का मवेशियों में बढ़ता प्रकोप

भारत के पूर्वी प्रान्तों में किलनी-जनित रोगों का मवेशियों में बढ़ता प्रकोप

Increasing Incidence of Tick transmitted Diseases In Eastern Region of India

पूर्वी भारत में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार एवं झारखंड राज्य शामिल हैं । इन सभी राज्यों में कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र, आजीवि‍का का एक महत्वपूर्ण माध्यम है । इन राज्यों में पशुपालन का भी बहुत महत्व है। किलनी तथा मच्छर-मक्खी को सक्रिय रहने एवम् बीमारियों के प्रसार के लिए कम से कम 85% आर्द्रता तथा 7°C  से अधिक तापमान वाले जलवायु के इलाकों की आवश्यकता होती है।

पूर्वी भारत एक उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु वाला क्षेत्र है जिसके कारण यहां किलनी से प्रसारित बीमारियों का मवेशियों में प्रकोप बढ़ता जा रहा है। पूर्वी भारत की  बनस्पतियाँ (नम पर्णपाती वन) भी इन सन्धिपाद की वृद्धि और अतिजीवन के लिए अनुकूल हैं।

किलनी से प्रसारित बीमारियों से पशुओं में कई प्रकार के दुष्प्रभाव होते है जिसके कारण उनका समग्र उत्पादन बिगड़ जाता है और उनसे जुड़े किसानों को नुकसान का सामना करना पड़ता है। किलनी (Ticks) को अलग-अलग प्रान्तों में कई स्थानीय नामों से जाना जाता है जैसे चिमोकन (उत्तर प्रदेश), चिचड़/ चिचड़ी (हरियाणा/ पंजाब), कुटकी, आठेल या आठगोरवा (बिहार), आटोली पोका (पश्चिम बंगाल), आदि।

ये ऐसे परजीवी हैं जो विभिन्न अवधि के लिए किसी अन्य जीव (मवेशी) की त्वचा पर रहते हैं और आपने जीवन चक्र की कुछ काल को पूरा करते है, लेकिन मवेशी या पशु को हानि पहुँचाते हैं । यह मुख्यतः दो प्रकार के होते है जिन्हें हार्ड टिक और सॉफ्ट टिक कहा जाता है।

गोवंशीय पशुओं में संक्रमण हार्ड टिक के प्रकार से ही होता है। इनमें से कई किलनी मेजबान पशु प्रजाति विशिष्ट हैं (बोयोफिलस प्रजाति गोवंशीय पशुओं के लिए), जबकि अन्य किलनी या चिमोकन कई पशु प्रजातियों को मेजबान के रूप में प्रयोग कर सकती है ।

संक्रमित किलनी को रोगजनकों के वैक्टर के रूप में जाना जाता है, जो परजीवी आमतौर पर पशु के खून चूसने के के मध्य में (होस्ट) मेजबान पशु में संचारित होते हैं।

पशुओं के शरीर पर अधिक संख्या में ये किलनी कई तरह से परेशानी उत्पन्न करते है, जिनमें से कुछ प्रमुख है: 1) स्ट्रेस/ परेशान होना, 2) त्वचा में सूजन एवम् खुजली, 3) बाल झड़ना,  4) कम वज़न बढ़ना,  5) फोकल रक्तस्राव, 6) छिद्रों (कान, आदि) की रुकावट, 7) खाना पीना छोड़ना, 8) खून की कमी (एनीमिया),  9) दूध उत्पादन कम होना, आदि ।

किलनी प्रकोप के अनुकूल समय ?

किलनी का प्रकोप पशुओं में सभी मौसम में पूरे साल देखा जाता है, परन्तु इनकी संख्या गंदगी, नमी, कम रोशनी होने पर बढ़ जाता है । आम-तौर पर इनका प्रकोप गर्मी और बरसात में अधिक देखा जाता है।

किसी क्षेत्र में संकर नसल या विदेशी नसल के पशुओं की संख्या में इजाफा हो जाने से भी इनका प्रकोप बढ़ जाता है। इसका प्रमुख कारण इन नसल का संक्रमण के प्रति ज्यादा सम्बेदंशील होना है तथा कई और संरचनात्मक अंतर। देशी नसल के पशुओं में इनका प्रकोप कम पाए जाते है ।

सामान्यता यह परजीवी पशुओं के बाहरी शरीर के किसी भाग में पाए जा सकते है, परन्तु अकसर ये उन जगहों पर ज्यादा मात्रा में होते है जहाँ बड़े बाल या आसानी से नज़र न आने वाले जगह जैसे की कानों की निचली तरफ, पूंछ व योनि तथा जांघ के अंदर की सतह, गर्दन के निचले भाग एवं अयन, अंडकोश के चारों तरफ पाये जाते हैं ।

पशुओं में किलनी से संक्रमण सम्बन्धित प्रमुख बीमारियां

किलनी के काटने से होने वाले प्रमुख एवम् घातक पशु रोग में प्रमुख तीन में थिलेरिया (गिल्टी में सुजन) को सबसे घातक माना जाता है, अन्य दो रोग बबेसिया (लाल मूत्र रोग) और अनाप्ल्समा भी  अकसर घातक हो सकता है । अकसर इन रोगों में तीव्र बुखार होता है जो की आम-तौर पर इस्तेमाल वाले एंटीबायोटिक से ठीक नहीं होता । इनके लक्षण लगभग एक जैसे होते है, जिसके कारण संक्रमित पशु का रक्त जाँच किसी प्रयोगशाला में करवाना पड़ता है। उसके उपरांत ही सही उचार किया जा सकता है ।

1. थेलेरिओसिस या चिचूडिया बुखार रोग

यह रोग एक विशेष प्रकार की संक्रमित किलनी मुख्यतः हायलोमा अनाटोलिकम के काटने से उनके लार से यह स्वस्थ पशु में फैलते है । इसके अलावा रीपीसीफेलस और हीमाफाइसेलिस जाति के किलनी से भी प्रसारित हो सकते है । यह भारत के पूर्वी प्रान्तों में मुख्यतः दो प्रकार के सूक्ष्म रक्त परजीवी से  होता है ।

थिलेरिया एनुलेटा  को थेलेरिओसिस  रोग का प्रमुख कारण माना जाता है जिससे लक्षणात्मक रूप से यह रोग होता है और दूसरा प्रकार जिसमें अकसर बिना बाहरी लक्षण के संक्रमित होते है वह थेलेरिओसिस रोग थिलेरिया ओरिएंटलिस से होता है । यह परजीवी सबसे पहले लिम्फ-नोड/ लसीका ग्रंथि के श्वेत कोशिकाओं में संक्रमण कर रक्त संचार प्रणाली में प्रवेश कर खून के लाल कोशिकाओं को संक्रमित कर मार देता है ।

इस रोग के लक्षण और व्यापकता ज्यादा थिलेरिया एनुलेटा  के विदेशी या संकर नसल के पशुओं में देखा जाता है । तीव्र संक्रमित पशुओं में प्रारंभिक लक्षण जो की पशुपालक समझ सकते है, उनमें प्रमुख हैं तेज़ बुखार, भूख काम होना, दुधारू पशुओं में दूध काम होना, अगले पैर के समीप वाली लसा ग्रंथियों में सूजन, आँखों से बहाव, आदि ।

कुछ दिनों पश्चात प्रभावित पशुओं को श्वास लेने में कठिनाई महसूस होने लगता है जिसका कारण रक्त अलापता और फेफड़े का क्षतिग्रस्त होना माना जाता है । कभी-कभी गले में सूजन भी हो जाता है । सही समय पर निदान और इलाज के अभाव में 50-70 % प्रभावित पशुओं में मृत्यु हो सकती है ।

रोग के लक्षण से इसका निदान करना बहुत कठिन है । निदान के लिए संक्रमित पशु का खून या लसा ग्रंथियों का पदार्थ को जाँच के लिए किसी उपयुक्त प्रयोगशाला से कराया जा सकता है । पूर्वी भारत में ऐसे कई प्रयोगशालाओं की उपलब्धता है जो की राज्यों के विभिन्न पशु चिकित्सा महाविद्यालयों, राजकीय एवम् केन्द्रीय पशुधन अनुसंधान केन्द्र  में मौजूद हैं ।

इस रोग का निदान के बाद समुचित उपचार संभव है । सबसे कारगर उपचार बुपारवाक्वोंन (Buparvaquone) जो की अलग-अलग कंपनियों कई नामों (बुटालेक्स, ज़ुबिओने, आदि) से बाज़ार में उपलब्ध करवाती है । यह दवा का प्रयोग संक्रमित पशु के शरीर भार के हिसाब (@ 2.5 मिली ग्राम प्रति किलो शरीर भार) से मांस-पेशी में करना चाहिए । इसके अलावा लक्षण के हिसाब से कई और प्रकार के दवा का भी प्रयोग किया जाता है ।

इस रोग से बचाव के लिए टिका भी बाज़ार में उपलब्ध है जो की जीवित टिका की श्रेणी में आता है । इसका वितरण, भंडारण के लिए -70°C तक ठंढा रखने वाला मशीन की आवश्यकता रहती है । यह बाज़ार में रक्षा-भेक-टी (Rakshvac-T) के नाम से आता है । यह नवजात पशुओं  में 3 महीने के उम्र के बाद, 3 ml की मात्रा को खाल में लगाया जाता है । इसके बाद हर साल दुबारा देते रहना चाहिए ।  

2. बबेसिओसिस (लाल मूत्र रोग या पशुओं के पेशाब में खून आना):

यह बीमारी भी पशुओं में एक विशेष प्रकार की संक्रमित किलनी मुख्यतः रीपीसीफेलस या  हीमाफाइसेलिस प्रजाति के काटने के प्रक्रिया में उनके संक्रमित लार से यह स्वस्थ पशु में फैलते है| यह रोग भारत के इस भाग में मुख्यतः बबेसिया बाइजेमिना रक्त प्रोटोज़ोआ से गो-पशुओं में होता है| इसके अलावा कई अन्य प्रकार के बबेसिया प्रजाति से दूसरे पशु में भी ये रोग हो सकता है।

गौ पशुओं में देशी नसल के पशुओं के तुलना में विदेशी और संकर नस्ल के पशु इस रोग के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते है। संक्रमण के बाद, ये रक्त परजीवी, रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में जाकर अपनी संख्या बढ़ने लगते हैं जिसके फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकायें टूट कर नष्ट होने लगती हैं| लाल रक्त कोशिकाएं के टूटने (Intravascular) से उनमें मौजूद हीमोग्लोबिन (रुधिरवर्णिका) गुर्दा से छन कर पेशाब से बाहर निकलने लगता है जिससे मूत्र/ पेशाब का रंग कॉफी के रंग या लाल रंग का हो जाता है|

इसके अलावा पशुओं में तेज बुखार, भूख न लगाना और अचानक से दूध उत्पादन में गिरावट होने की शिकायत मिलती है । कभी-कभी पशु को दस्त भी होने लगता हैं| इस रोग में खून की अल्पता (एनीमिया) हो जाने से संक्रमित पशु बहुत कमज़ोर हो जाता है| पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखायी देने लगते हैं तथा समय पर इलाज ना कराया जाये तो पशु की मृत्यु हो सकती है|

रोग के लक्षण (मूत्र में रंग का परिवर्तन, किलनी का होना और तेज़ बुखार) से बबेसिओसिस रोग का निदान बाकी किलनी जनित रोगों से लाभप्रद है । पुष्टिकर परीक्षण के लिए संक्रमित पशु का खून, मूत्र को जाँच के लिए किसी उपयुक्त प्रयोगशाला से जाँच कराया जा सकता है ।

इस रोग  के निदान के उपरांत रसायनोपचार के लिए बहुत से विकल्प मौजूद है । जिनमें से डाइमिनेजीन एसीटुरेट (निल्बेरी, बेरेनिल, आदि) का प्रयोग सबसे ज्यादा होता है और इसका इस्तेमाल संक्रमित पशु के शरीर भार के हिसाब (4-8 मिली ग्राम प्रति किलो) से मांस-पेशी में दिया जाता है।

इनके अलावा आज काल इमिडोकार्ब (बबिमिडो, इमिजेट, आदि ) नमक दवा का भी इस्तेमाल सफलता से इस रोग का इलाज और रोक-थाम के लिए की जाती है ।  इन दवा के अलावा कभी-कभी खून चढ़ाने की नौबत भी आ सकती है।

कई और सहयोगात्मक उपचार जैसे की खून में घटती आयरन की मात्र के लिए आयरन की इंजेक्शन, विटामिन्स और बुखार घटने की दवा देनी पर सकती है । इस रोग को पुनः न होने के लिए किलनी का रोकथाम सबसे जरूरी कदम है ।

3. अनाप्ल्स्मोसिस रोग / पित्त की बीमारी/ Gall S। ckness :

एनाप्लाज्मोसिस पशुओं में होने वाली एक रोग है जो की मनुष्य में भी हो सकता है । यह रोग एक जीवाणु (रिकेट्स) जनित रोग है जो की कुछ प्रकार के किलनी के काटने से फैलता है । जुगाली करने वाले पशुओं में पारंपरिक रूप से यह जीवाणु एनाप्लाज्मा जीनस से होने वाले रोग को संदर्भित करता है।

भारत के पूर्वी भाग में जुगाली करने वाले पशुओं में यह रोग मुख्यतः एनाप्लाज्मा मार्जिनल के कारण होता है । यह रोग एक रक्त संक्रामक बीमारी के श्रेणी में आता है । यह रोग वयस्क एवम् विदेशी या संकर नसल के पशुओं में ज्यादा होता है। इस रोग में पशु का शरीर कमजोर हो जाता है जिसका प्रमुख कारण रक्ताल्पता और पीलिया जैसे लक्षण का होना है।

संक्रमित और असंक्रमित लाल रक्त कोशिकायें के मक्रोफज़े (macrophages) द्वारा विनाश के कारण की हमेशा संक्रमित पशुओं में प्रगतिशील रक्ताल्पता (anem। a) रहता है। इस रोग से ग्रसित पशु में प्रमुख लक्षण में तेज बुखार जो की समय के साथ कम-ज्यादा हो सकता है, कम आहार खाना, दूध उत्पादन में गिरावट, साँस लेने में परेशानी, कभी-कभी गर्भवती पशु में गर्भपात, मूत्र के रंग में परिवर्तन, आदि शामिल है ।

निदान केवल बाहरी लक्षण के आधार पर करना बहुत मुश्किल है क्योंकि जीवित संक्रमित पशु में ये लक्षण रोग-विशिष्ट नहीं होते हैं । इस रोग का भी निदान के लिए संक्रमित पशु का खून को जाँच के लिए किसी उपयुक्त प्रयोगशाला से कराया जा सकता है ।

निदान के उपरांत इसका इलाज के लिए विशिष्ट औषधियां में सबसे प्रचलित ओक्सीटेट्रासाइकिलिन इंजेक्शन या इसका लम्बे समय तक काम करने वाली रूप (LA) हैं जिन्हें उपयुक्त मात्रा में मांस-पेशी में दिया जाता है ।  इसके अतिरिक्त इमिडोकार्ब (बबिमिडो, इमिजेट, आदि) नमक दवा का भी इस्तेमाल इस रोग का इलाज और रोक-थाम के लिए की जाती है ।  

किलनी से बचाव के उपलब्ध साधन :

बचाव के लिए कई तरीके उपलब्ध है जिसमें की रासायनिक कीट नाशक का प्रयोग सबसे ज्यादा होता है । पशुपालक के लिए कुछ सरल उपाय निम्नलिखित है :-

  • पशु चरागाह को जलाकर जिससे उसमें मौजूद किलनी की अवस्था नष्ट हो जाएं। चरागाह को पशुओं के लिए नियमित आवर्तन (rotat। on) आवश्यक है ।
  • नियमित रूप से अपने जानवरों का निरीक्षण कर सकते हैं और किलनी को हटा सकते हैं।
  • आवारा पशुओं जैसे कुतो को पशु के बाड़े में प्रवेश न करने देना चाहिए ।
  • जैविक नियंत्रण के लिए तरीके पर कार्य किया गया, परन्तु इसका व्यावहारिक इस्तेमाल मक्खियों एवम् मच्छर पर ही सीमित रहा ।
  • टीका करण द्वारा किलनी से बचाव पर कई शोध कि गयी है, परन्तु भारत में कोई टिका बाज़ार में उपलब्ध नहीं है ।
  • हर्बल दवा और औषधीय पौधे को भी नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है । शरीफा/सीताफल (Custard apple) के पत्ते का पानी जलीय अर्क का प्रयोग किलनी नियंत्रण के लिए फायदेमंद पाया गया है । शरीफा फल के बीज का पिसाई करके, तेल में भिगोने के बाद भी प्रयोग किया जा सकता है । तम्बाकू के पत्ते को पशु के शरीर पर रगड़ने से भी पशुपालक किलनी नियंत्रण में सफलता पा सकते है । इसी प्रकार नीम का तेल (5 ml) और 1% तम्बाकू के सूखे पत्ते का मिश्रण भी प्रयोग किया जा सकता है ।
  • पशु चिकित्सक की सलाह के उपरान्त, उनके देख रेख में निम्नलिखित दवाओं का प्रयोग किया जा सकता है :-
  • इवेरमेक्टिन (1% । vermect। n) का इंजेक्शन (1 ml प्रति 50 किलो शरीर भार, खल में) या टेबलेट (4mg प्रति किलो शरीर भार) हर 7 दिनों में 28 दिनों के लिए दिया जा सकता है। इसके प्रयोग से किलनी के अलावा भी कई और प्रकार के बाह्य-परजीवी से पशु को एक समय तक मुक्ति मिल सकता है ।
  • अमित्राज (Am। traz/R। DD©/TakT। K©) का पानी में घोल (3 ml दवा को 1 L पानी में मिला कर घोल बनाये) को पूरे शरीर पर छिड़काव करें । इस क्रम को 2-3 बार दुहराए ।
  • पोर- ऑन दवाए (बैटिकाल©) भी उपलब्ध है जिसे 1ml दवा प्रति 10 किग्रा शरीर भार के अनुसार सिर से पूंछ तक बूँद-बूँद कर रीढ़ की हड्डी पर टपकाना होता है । इनका प्रयोग भैसों में नहीं करना है।
  • साइपरमैथ्रिन / डेल्टामैथ्रिन (Butox©/Cl। nar) घोल को 1 पानी में मिलकर (1 ml दवा प्रति लीटर पानी में )  ग्रसित पशु को नहलायें तथा 2-5 ml दवा 1 L पानी में घोलकर बाड़े में छिड़काव करें।

Authors:

पंकज कुमार1*, मनोज कुमार त्रिपाठी1, रश्मि रेखा कुमारी2, रवि कुमार2, और पल्लव शेखर2

1पशुधन और मत्स्य प्रबंधन विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का पूर्वी अनुसंधान परिसर, पटना

2भैषज्य विभाग, बिहार वेटरनरी कॉलेज, पटना

* वरिष्ठ वैज्ञानिक (औषधि विज्ञान) ema। l: pankajvet@gma। l.com

Related Posts

Foot-Mouth Disease (FMD) in Animals
पशुओं में खुरपका-मुँहपका ( एफ.एम.डी.) रोग  यह रोग एक विषाणु जनित...
Read more
बारिश के मौसम में मवेशि‍यों मे सूक्ष्म...
Treatment of microbial diseases in cattle during the rainy season...
Read more
MesenchymalMesenchymal
Role of Mesenchymal Stem Cells for the...
मैस्टाइटिस पशुओं के उपचार के लिए मेसेनकाइमल कोशिकाओं की भूमिका  Stem...
Read more
बिहार में कृषि विकास के लिए समेकित...
Holistic approach of integrated nutrient management for agricultural development in...
Read more
मूल्य संवर्धन के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं...
Empowering Rural Women through Value Addition: The Success Story of...
Read more
ड्रैगन फ्रूटः एक आधुनिक, पोषक और औषधीय...
Dragon Fruit: An Modern, Nutritious and Medicinal Fruit  ड्रैगन फ्रूट, हिलोकेरस...
Read more
rjwhiteclubs@gmail.com
rjwhiteclubs@gmail.com