Chuli (Prunus armeniaca) or Apricot fruit tree importance, cultivation and protection techniques (Hindi)

Chuli (Prunus armeniaca) or Apricot fruit tree importance, cultivation and protection techniques (Hindi)

चुली ( प्रूनस आर्मेनियका ) फलदार वृक्ष का महत्व, रखरखाव एवं संरक्षण की विधियां।

The height of Chuli, Jardalu or Apricot tree is about 10 m. The leaves are oval to round oval and sub-heart shaped.Flowers and new leaves mostly appear in the month of March-April. In low altitude areas, fruits are produced in the months of June-July and in high altitude areas in the months of July-August.

चुली,  जिसे अंग्रेजी भाषा में ‘प्रूनस आर्मेनियका’ कहते है, पहले एमेगडैलेसी और अब रोजेसी कुल से सम्बन्ध्ति है। इसे जर्दालु, खुबानी नाम से जानते है। यह एक मध्यम आकार का बहुदुदेशीय फलदार वृक्ष है। खुबानी या चुली न केवल भारत वर्ष में अपितु विश्व के अन्य देशों में भी पाया जाता है।

इस वृक्ष की उत्पति चीन के खुदूर उतर पूर्व पहाडी क्षेत्रों एवं मध्य एशिया के देशों से जुड़ी है तदुपरान्त वृक्ष अर्मिनिया से होते हुए भारत ईरान, मिस्र, और यूनान में पहुंचा। आज यह वृक्ष विश्व के अधिकतर शीतोष्ण क्षेत्रों वाले देशों में उगाया जाता है। जर्दालु या चुली व्यापार की दृष्टि से अमेरिका, स्पेन, फा्रस, तुर्की, इटली, अफ्रिका, ईरान तथा आस्टेलिया जैसे देशों में प्रमुख रूप से लगाया जाता है।

चुली एक फलदार वृक्ष है और इस वृक्ष की उंचाई लगभग 10 मी., पत्ते अंडाकार से लेकर गोल अंडाकार एवं उप हदयकार होते हैं। इसके फूल गुलाबीपन लिए हुए सफेद रंग के होते हैं तथा फूल पतों के लगने से पूर्व पनपते हैं। फूल एवं नये पते ज्यादतर मार्च-अप्रैल  के महीने में लगते हैं। कम ऊँचाई क्षेत्रों में फल जून-जुलाई के महीनों में एवं ऊँचाई वाले क्षेत्रों में जुलाई-अगस्त के महीनों में लगते हैं।

भारत वर्ष में यह वृक्ष मुख्यतः हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर एवं उतरांचल के पहाड़ी क्षेत्रों में जो 1200 से 3450 मी. की ऊँचाई पर स्थित है, उन क्षेत्रों में लगाऐं जाते है। हिमाचल प्रदेश में यह किन्नौर, लाहौल-सपीति, सोलन, चम्बा, शिमला, मंडी, कुल्लू, कागंडा, एवं सिरमौर इत्यादि जिलों में पाया जाता है। यह वृक्ष सभी प्रकार की मिट्टी में उगता है एवं समशीतोष्ण से लेकर शीतोषण एवं मरूस्थल वाले क्षेत्रों में सुगमता से उगता है।

इस वृक्ष की वृद्धि उन क्षेत्रों में अच्छी होती है जहां ग्रीष्म ऋतु में तापमान सामान्य होता है विशेषकर 110-260 मी. तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में, जहां सिंचित दोमट मृदा हल्की एवं छिद्र लिए होती है में प्रायः अच्छी पैदावार पाई जाती है। लदाख पश्चिमी हिमालय का शीत मरूस्थलीय क्षेत्रा विशेष रूप से चूली के लिए प्रसिद्ध है। इस वृक्ष का उपयोग बहुउदेशीय है न केवल खाने योग्य फल प्राप्त होते है परन्तु बहुमूल्य तेल भी बीजों से निकाल जाता है। अपितु इसकी लकड़ी भी ईधन एवं सूखे पतों को पशुओं के चारे के रूप में उपयोग किया जाता है।

इन वृक्षों की लगातार घटती संख्या कुछ वर्षो से देखी गई है इसी कारण इसके संरक्षण एवं अधिक वृक्ष रोपण की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसा न करने पर हम इस बहुमूल्य वृक्ष के अभाव से अपनी जरूरतों को पूरा करने में अक्षम हो जाऐगें। इसका एक मुख्य कारण इस वृक्ष की जगह दूसरे वृक्षों जैसे सेब, नाशपाती, बादाम, इत्यादि ने ले ली है। अतः आज फिर से इस वृक्ष के बहुमूल्य महत्व को समझते हुए आवश्यक है कि इस वृक्ष के संरक्षण एवं बड़े पैमाने में वृक्ष रोपण जैसे उचित कदम राष्ट्रीय स्तर पर उठाऐ जाऐं।

पौधशाला में चुली के लगाने की विधि एवं रखरखावः

चुली मुख्यतः बीजों द्वारा, जो लैगिक विधि से तैयार किया जाता है, लगाई जाती हैं। इसे अलैंगिक यानि कायिक विधि द्वारा भी तैयार किया जाता है। इस विधि से पौधें को शाखाओं एवं तनों की कलमों से भी तैयार किया जाता है।

चुली के बीजों को 15-30 दिनों तक नमी युक्त रेत में लकडी के बॉक्स या ट्रे में 2-3 सें. मी. रेत पर ढककर 6-7 परतों में बीज एवं रेत को बारी- बारी से एक दूसरे के उपर रखते हैं तथा फव्वारे से इसकी सिंचाई करते हैं ताकी नमी बनी रहें।

सर्दियों के मौसम में यह बीज 15-30 दिनों तक इस अवस्था में रखकर अंकुरित होने लगते हैं जिससे स्ट्रेटिफिकेशन की आवश्यकता भी पूरी हो जाती है। इससे पूर्व पौध्शाला की क्यारियों में मिट्टी को अच्छी तरह से खोदकर उचित मात्रा में मिट्टी खाद एवं रेत का मिश्रण 2:1:1 दर से  मिलाकर भूमि को समतल करे एवं 10 मीटर की आकार वाली क्यारियां बनवाऐं। बीजों को 3 से 4 सें. मी. की गहराई पर पंक्ति में बीजाई करें।

आपस की पंक्तियों की दूरी 10-15 से.ं मी. तक रखें। क्यारियों में बीज प्रायः नवम्बर से मार्च महीनों में की जाती है। क्यारियों में अंकुरित पौधे जब बड़े हो जाए नियमित रूप से निराई-गुडाई का कार्य व सिंचाई उचित मात्रा में करते रहें। तत्पश्चात पौधें को उखाड़कर बगीचों में लगाने का कार्य किया जाता है। उखाड़ने से पूर्व क्यारियों में सिंचाई आवश्य होती है क्योंकि 45 से 75 सेंú मीú गहराई तक पौधें की जड़े खोद कर ध्यान पूर्वक पौधें को निकाला जाता है जो अक्सर काफी गहराई तक चली जाती हैं।

पौधें को पौध्शाला से उखाड देने के पश्चात तुस्त रोपण क्षेत्रा के लिए अच्छी तरह से पैक करना अवश्यक है। पौधें की जड़ों को सर्वप्रर्थम चारों तरह से काई ; शैवाल लगाकर बांध कर छोटे-छोटे 50 या 100 पौधें के बंडलो को बोरी में रखें तथा पौधें में नमी को बनाए रखने के लिए समय-समय पर पानी का छिड़काव करते रहें। अगर वृक्षारोपण में बगीचों में विलम्ब हो रहा हो तो चुली के पौधें को तुरन्त मिट्टी में दबा कर रखें।

चुली वृक्षारोपण का सही समय एवं विधि

ख्रुबानी बृक्षारोपण उंचाई वाले क्षेत्रों में सधरणतयः दिसम्बर व जनवरी में किया जाता है क्योंकि इस समय पौधे सुप्तावस्या में चले जाते हैं। इस दौरान व्यापक मात्रा में नम एंव ठण्डा तापमान मृदा में उपल्बध् रहता है। पश्यिमी हिमाचल क्षेत्रों के मध्यम उचाई वाले क्षेत्रा में पौध् रोपण प्रायः फरवरी के आखिरी सप्ताह तक सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

वृक्षारोपण से पूर्व जिस भूमि में वृक्षरोपण किया जाना है, अवश्यकतानुसार दो-तीन गड्ढे खोद लें। गडढो का आकार 45×45×45 सें मी गहरी मिट्टी में तथा पथरीली, सप्पड़ या बंजर वाली ज़मीन पर गड्ढे का आकार 60×60×60 सें मी तक बनाऐं। आपस की दूरी गड्ढे की 5×5 मी तक रखें व निकाली गई मिट्टी को धूप में अच्छी तरह रख कर सूखा ले ताकि मृदा जनित रोग भी कम हो जाऐं।

इसी प्रकार वृक्षारोपण से पूर्ण गड्ढो को खाद के समुचित मिश्रण बना कर भर दें और रोपण के पश्चात लकड़ी की खूंटी लगा दें जिससे सही जगह पर पौधे की वृधि हो सके पौधें को सीध पकड़कर गड्ढ़े में रोपित करें ताकि जड़े  मुड़ न सकें। बडी जड़ों को प्रूनर की मदद से कटवा भी सकते हैं। बाद में फष्वारे की सहायता से पौधें को उचित मात्रा में सिचांई करें कुछ वर्षा तक ताकि पौधें का समुचित विकास हो सके। ग्रीष्म ऋतु में वृक्षों का अधिक ध्यान रखना आवश्क हो जाता है। निराई-गुड़ाई का कार्य वर्षा के दिनों में महीनें में एक वार तथा अन्य आवश्यकतानुसार करें।

चूली या खुबानी की किस्में

उँचे पर्वतीय क्षेत्रो में अगेती किस्म जैसे कैशा, नगट एवं मध्य मौसमी किस्म, सफेदा, चारगाज, शक्करपारा लगना उचित होता है। इसी प्रकार न्यू कैसल, अर्ली शिपले अगेती किस्मों को मध्यपर्वतीय क्षेत्रा में लगाऐं। शुष्क शीतोषण पर्वतीय क्षेत्रों में चारगाज, सफेदा, शक्करपारा और कैशा उपयुक्त किस्में हैं। इन्हें सुखाकर भी खाया जाता है क्योंकि इसकी गिरी मीठी होती है।

चूली में लगने वाले रोग व कीट तथा उनका प्रबन्धन

फास्टी मिलडयू एवं पर्णचित्ती कवक रोगः

लक्षणः  यह रोग सरकोस्पोरेला परसिका कवक द्वारा होता है व पत्तों की निचली सतह पर छोटे-छोटे सफेद पाऊडर की तरह धब्बे   बनाता है जिससे पत्ते समय से पूर्व पीले होकर गिर जाते है।

नियंत्राणः रोग दिखाई देने पर मैंकोजेब 2.5 ग्राम प्रति ली॰ का छिडकाव 14-15 दिन के अन्तर में अगस्त से सितम्बर महीने में करें।

पाऊरी मिलडयू या चूर्णी फफूंदी

लक्षणः इस रोग का रोगजनक  सेफरोथिका  पैनोसा एवं पोडोस्फेरा कैलेन्टेस्टीना, पी औवसीकैन्थी किस्म र्ट्राइडैक्टीईला  फफूदयों द्वारा होता है जो सर्वप्रथम नई कोंपलों और पत्तियों पर रूई के समान सफेद रेशे या हल्के घूसर धब्बे   के रूप में उभरती है। प्रकोप बढ़ने पर ये धब्बे   बडे़ और ज्यादा गहरे रंग के नजर आते हैं व टहानियों बीमों और पत्तों का विकास रूक जाता है। प्रथम संक्रमण गुलाब के संक्रमित पौधें से बसंत ऋतु में आता है।

नियंत्राणः इस रोग पर नियंत्राण करने के लिए वैटेबल सल्फर 3 ग्राम/ली पानी या कार्बन्डाज़िम/ थायेाफेनेट मिथाईल 1 ग्राम/ली पानी या स्कोर यानि डाईनाकोनजोल 3 ग्राम/ली पानी या अन्य सल्फर फफूंद नाशकों का प्रयोग करें। गुलाब के पौधें को उखाड़ फैकना व जला दना भी रोग को कम करता है। पौधें की कांट छांट भी सही तरीके से करें ताकी  सूर्या का प्रकाश पौधे पर बना रहे।

जैब विधि से भी रोग की रोगथाम की जा सकती है जैसे नीम का तेल, होर्टीकलचर तेल, जोजोबा तेल या  जैविक नाश्क जैसे सैरीनाड 2.5 ग्राम/ली पानी। तेल का छिड़काव आध या एक ग्राम/ प्रति ली. पानी की दर से करें परन्तु याद रहे कि सल्फर फंफुदनाशक के साथ दो सप्ताह के अंरराल के बीच में कभी न करें।

फूलों का भूरा ध्ब्बा रोग

लक्षणः  इस रोग द्वारा कोमल युवा फूलों पर अधिक  असर पड़ता है जो मोनिलिया फंफूदी की कई प्रजातियों द्वारा फैलाया जाता है। प्रभावित फूल, टहनियाँ शाखाऐं एवं पत्तियाँ ग्रसित होकर खत्म हो जाती हैं। छोटे गहरे रंग वाले कैंकर जिनके घेरे अधिक  गहरे शिखाओं पर अक्सर उभरते हैं तथा रोग युक्त पदार्थ फूलों के मूल भाग पर बनने लगते हैं। भूरे रंग के फंफूदी बीज फूूलों को ढक देते हैं, प्रायः अधिक  आद्रता में कवक गले सड़े फलों व मरे हुए शिराओं में रहता है।

नियंत्राणः इस रोग को नियंत्रित रखने के लिए पौधे पर कैप्टान 3 ग्राम/ली पानी का छिड़काव फल तोडने से लगभग 3 सप्ताह पर्व करें तथा कलियाँ मुरझाने अथवा ब्लाइट जैसे लक्षण हेतु कार्बन्डाज़िम 1 ग्राम/ली पानी फूल निकलने पर छिड़के और 9-10 दिन बाद पुनः छिड़काव करते रहें 

शॉट होल ; कार्पाफिलस

लक्षणः यह रोग सरकोस्पोरा प्रजाति एवं विलसोनोमाईसिस कारफेाफिला द्वारा होता है पत्तों पर छोटे, गोल धब्बे   प्रकट होते हैं। धब्बे   से प्रभावित स्थान सूख जाता है और वहाँ छोटे-छोटे छिद्र हो जाते हैं।

नियंत्राणः इस रोग को रोकने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम/ली पानी या मैन्कोजेब 2.5 ग्राम/ली पानी घोल से वर्षा ऋतु  आने से पूर्व छिड़कें। बोर्डो मिश्राण 500 मि.ग्राम/ली पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें।

बैक्टीरिया गमोसिस या गैंदित रोग

लक्षणः यह रोग सुडोमोनास सीरिन्जी उपजाति सीरिन्जी से प्रभावित होता है। कैंकर शिराओं तथा फूलों के मूल भाग तथा पत्तियों, कलियों व फूलों के मूल भाग में लाल रंग के गोंद रूपी धब्बे   घाव वाले पौधें में ज्यादा दिखाई, देते हैं। कैंकर उपरी दिशा में फैलता है और धंसे हुए, धब्बे   सर्दी के मौसम में प्रायः बनते हैं।

अगर रोगजनक सुसुपता अवस्था में कलियों में चला जाता है। और बसंन्त ट्टतु में फिर उभर आता है तो शुरू के ग्रीष्म दिनों में कालियां ग्रसित होकर मर जाती हैं। कभी कभार इस पर लक्षण भी दिखाई पड़ते हैं।

नियंत्राणः रोग प्रतिरोध्क किस्मों का चयन करें। पर्यावर्ण भी पौधें को प्रभावित करता है जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं। कॉपर आक्सी क्लोराइड 2 ग्राम/ली पानी का छिड़काव फूलों के खिलने से पूर्व करें। पड़ों की कटाई ग्रीष्म ट्टतु के शुरू में करें इससे संक्रमण कम हो जाता है। स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 1 ग्राम/ 10 ली पानी के घोल का इस्तेमाल 15 दिन के अन्तराल में करें।

क्राउन गॉलः

लक्षणः यह रोग जीवणु है जो एग्रेाबैक्टीरियम टयूमेफेसिन्स द्वारा फैलाया जाता है। प्रभावित पौधें के तने में भूमि की सतह पर गोल या लम्बे व विकृत आकार वाली नर्म गाँठे बन जाती हैं जो बाद में हल्की पीले से भूरे रंग में परिवर्तित हो जाती हैं। यह प्रायः जड़ों के नज़दीक होती हैं। प्रारंभ में ये नर्म होती हैं किन्तु बाद में सख्त और खुरदरी हो जाती हैं। यह रोगजनक इन गाँठों में या झड़ कर मिट्टी में मिलकर या फिर ग्रसित भागों में रह कर अगले मौसम में बिमारी फैलाता है।

निंयत्राणः रोगग्रस्त नर्सरी क्षेत्रा की अच्छी तरह से जुताई करने के पश्चात सिंचाई करें व अप्रेल से जून माह के बीच में सफेद पारदर्शी पालीथीन 100 माईक्रोनमोटी से 90 दिनों तक ढ़क कर रखें। जैव वाहक से बनी जैवनाशक का प्रयोग जैसे बेसिलास सबटिलिस को फरवरी माह में 10 लीú घोल/वर्ग मीú दर से पेड़ो की मूल सतह के पास सिंचित करें जिससे सतह से 30 सें मी गहराई के प्रयोग के बाद ही चूली के स्वस्थ मूलवृंतों या पौधें को भूमि में रोगण करें या इस घोल से वृक्षों के मूल भाग के पास वाली जगह को उपचारित करें। भूमि में पानी निकासी की अच्छी सुविध अन्य-फसल च्रक के साथ पौधें को लगाएँ या फिर नई पौध् नई भूमि पर रोपित करें तथा बगीचों की साफ-सफाई का खास ध्यान रखें।

रतुआ या रस्ट रोग

लक्षणः यह एक फफूंद जनक रोग है जो ट्रांजकैलिया डिसकलर द्वारा पौधें की निचली सतह पर पीले, गोल और भूरे लाल रंग के उभरे हुए ध्ब्बो के रूप में दिखाई देता है। अधिक  रोग प्रकोप से प्रभावित पत्तियां जल्द गिर जाती हैं।

नियंत्राणः  रोग प्रकट होने से शुरू में मैनकोजेब 2.5 ग्रा/ ली. पानी या बाईटरटानोल 1 ग्रा./ली. पानी या हैक्जाकोनाजोल 4 मि.ली /100 ली. पानी की दर से मिला कर घोल का 20 दिन के अन्तर पर दो से तीन बार छिड़काव करें।

पल्म पोक्स या विषाणु रोग

लक्षणः  यह रोग  विषाणु रोगजनक से पैदा होता है हल्के पीले धब्बे   अगुंठी व घारियों के समान गर्म ऋतु मै फैलते हैं। एसे धब्बे   फलों पर भी बनते हैं जिससे फल ताजे ही सूख कर बिना गन्ध के हो जाते हैं व आकार हीन हो जाते हैं।

नियंत्राणः  इस रोग की रोकथाम के लिए प्रमाणित स्वस्थ पौध् का ही चयन करें। कीटनाशक का छिड़काव जैसे मोनोक्रोटोफॉस 2 मि.ली./ ली. पानी या फैमिटेाथियॉन 2 मि.ली. /ली. पानी का छिड़काव करना आवश्यक है जिससे तेला का प्रकोप फूलों व फलों को ग्रसित न करे। इससे फलों पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और विषाणु रोग ज्यादा फैलता है।

चुली के कीट

मिली प्लम ऐफिड या तेला

इस कीट के द्वारा पत्तियों व शाखाओं पर काफी प्रभाव पड़ता है जिससे पौध बौना रह जाता है। यह कीट छोटे आकार का हरे से सफेद रंग का वैक्सनुमा पदार्थ निकलता है और पौधें का रस चूसता है व इसके अण्डे सर्दी के मौसम में बनकर तेले में बदलकर ग्रीष्म में पनपने लगते हैं। इन कीटों को मारने के लिए फूल खिलने से 7-10 दिन पूर्व मिथाइल डैमेटॉन 2 मि.ली./ ली. पानी या मोनोक्रोटोफॉस 2 मि.ग्रा/ ली. पानी का 14-15 दिन के अन्तर में छिड़काव करें।

पत्ते और फल खाने वाली बीटल या भृंग

बहुत से बीटल पत्तों और फूलों को खाकर क्षति पहुंचाते है अधिक  आक्रमण होने पर पूरे पेड़ के पत्ते नष्ट हो जाते हैं। मृदा जमीन में घुस कर अण्डे देती है और इसके शिशु बाद में जड़ों को हानि पहुंचाते हैं। इसके लिए कारवराइल 4 मि.ग्रा/ ली. पानी का छिड़काव मई या जून में इस भृंग को खत्म करने के लिए आवश्यक है। पौधें को हिला कर शाम के वक्त चादर में इक्टठा करें और बाद में कीटों को मिट्टी के तेल वाले पानी में डाले और नष्ट कर दें।

कान खजूरा ईयरवीग

इस कीट से प्रौड़ वृक्ष में अधिक  आक्रमण होता है। अगर आक्रमण युवा पौधे की शाखाओं के शीरे पर होता है, तो पौधे छोटे आकार के रह जाते हैं। फूलांे की सतह पर गहरे दाग और अवयवस्थित धब्बे   बनते हैं। कीट का अग्रम भाग चूभने वाला होता है और भूरे तथा चमकीले रंग के ये कीट नजर आते हैं।

नियंत्राण:  इसके नियंत्राण के लिए खरपतवार जो पौधें के आस पास हो उखाड़ फंेकें, सभी काटी हुई टहनियों व ढीली पड़ी पेड़ खाल को नष्ट करें। तने के भाग को कस कर पलास्टिक सीट से कीट के बच्चे निकलने से पूर्व बांध् कर रखें जिससे ये पेड़ के उपर की तरफ न जा पाएं। कीटनाशकों का प्रयोग बंसन्त मौसम के शुरू में करें जैसे सेविन या कार्बराईल 1 मि. ली./ ली. पानी या फिर साबुन वाले पानी से भी छिड़काव किया जा सकता है। हल्के गर्म पानी की बौतल में कुछ बंूदें साबुन के घोल की मिला लें फिर ग्रसित भागों में छिड़काव करें।

चुली के औषधीय गुण एवं उपयोगः

चुली के वृक्षों से प्राप्त उत्पाद अनेक प्रकार की बीमारियों के उन्मूलन के लिए प्राचीन काल से प्रयोग में लाए जाते रहे है। फलों व बीजों दोनों का उपयोग विभिन्न प्रकार के व्यंजन तथा रोगों को दूर करने के लिए किया जाता है जैसे फलों को ताजा उपयोग चटनी व जैम बनाकर किया जाता है। जिससे कई प्रकार के खनिज पदार्थ शरीर को प्राप्त होते हैं।

कब्ज एवं दुरपचन के रोगों को ठीक करने लिय तेल नियमित रूप से शारीरिक दुर्बलता को दूर करने  हेतु तथा टॉनिक के रूप में अति लाभकारी होता है। तेल का इस्तेमाल बवासीर, दमे, कान दर्द, व जिगर की बिमारियों का उन्मूलन करता है व इसके मालिश से जोड़ों के दर्द व गठिया रोगों का निदान होता है।

तेल का उपयोग साबुन, शैम्पु, दवाई उद्योगो में किया जाता है, अल्कोहलिक पेय बनाने में तथा बीजों से तेल निकालने के पश्चात बची खल या खली दुधरू एवं अन्य पशुओं को खिलाने के लिए काम आती है। इस वृक्ष  की लकड़ी ईधन के रूप में, खेती के लिए औजारों एवं मृदा के बने भवनों की छत के उपर लगाने के लिए उपयोग में लाई जाती है।


Authors:

डॉ॰ सुनीता चंदेल1 एवम् डॉ॰ सविता जन्डायक2

1प्राध्यापक , 2सहायक प्राध्यापक

पादप रोग विभाग, डॉ॰ वाई॰ एस॰ परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय नौणी, सोलन (हि॰प्र॰)

Email: schandelmpp@rediffmail.com

 

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