Techniques for the improvement of Khejri - Kalpvriksh of Thar Desert
थार रेगिस्तान में उगने वाली वनस्पतियों में खेजड़ी का वृक्ष एक अति महत्वपूर्ण वृक्ष है| यह मरूप्रदेश के कल्पवृक्ष के नाम से जानी जाती है| यह थार निवासियों की जीवन रेखा कहलाती है| यह दलहन परिवार का फलीदार वृक्ष है जिसका वनस्पतिक नाम "प्रोसोपिससिनेरेरिया" है|
यह भारतवर्ष के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से जानी जाती है जैसे दिल्ली क्षेत्र् में इसें जाटी के नाम से जाना जाता है, पंजाब व हरियाणा में जॉड़, गुजरात में सुमरी, कर्नाटक में बनी, तमिलनाडुं में बन्नी, सिन्ध में कजड़ी एवं राजस्थान में इसे खेजड़ी के नाम से पुकारा जाता है| वेदों एवं उपनिषदों में खेजड़ी को शमी वृक्ष के नाम से वर्णित किया गया है| राजस्थान के थार रेगिस्तान में खेजड़ी का वृक्ष बहुतायत में पाये जाते है|
वहां के मरूस्थलीय जीवन में, खेजड़ी एक जीवन रेखा का कार्य करती है| खेत में खेजड़ी वृक्ष का होना भूमि की उपजाऊ शक्ति का द्योतक है| इस वृक्ष का प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में मरूस्थलीय प्राणियों के लिए उपयोगी व जीवनदायीं है, इसलिए ही खेजड़ी के वृक्ष को मरू प्रदेश का कल्पवृक्ष कहा जाता है|
सुखे व अकाल जैसी विपरित परिस्थितियों का इस पर कोई असर नहीं पड़ता बल्कि ऐसी परिस्थितियों में मरूक्षेत्र् के जन-जीवन की रक्षा करती है| खेजड़ी की पत्तीयां (लूंग/लूम) पशुओं के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण पोष्टिक आहार है तथा वे इसे बहुत ही चाव से खाते है| इसकी सांगरी (फली) बहुत पोष्टिक व स्वादिष्ट होती ह। खेजड़ी का वृक्ष दलहन कुल होने के कारण ये भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते है| साथ में ही खेजड़ी के वृक्ष उच्च कोटि की पौष्टिक सांगरी प्रदान करती हैं|
खेजड़ी की पकी सांगरीयों में औसतन 8-15 प्रोटीन, 40-50 प्रतिशत कार्बोहाइडे्रट, 8-15 प्रतिशत शर्करा, 8-12 प्रतिशत रेशा, 2-3 प्रतिशत वसा, 0.4-0.5 प्रतिशत कैल्सियम, 0.2-0.3 प्रतिशत लौह तत्व तथा अन्य सुक्ष्म तत्व पाये जाते हैं जोकि मानव व पशुओं के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही गुणकारी हैं| खेजड़ी से उच्च कोटि की गुणवत्ता वाली लूंग (पत्तियां) प्राप्त होती हैं जो राजस्थान के शुष्क क्षेत्रें में पशुपालन का मुख्य आधार है|
इस तरह से शुष्क क्षेत्रें में खेजड़ी का वृक्ष जन-जीवन व पशुधन के लिए जीवन रेखा का काम करती है| यहां के स्थानीय लोग किसी भी शुभ अवसर / त्योहार/ विवाह, आदि पर खेजड़ी की सांगरी की सब्जी बनाना अति उत्तम व अच्छी शकुनभरी मानते है| इसकी लकड़ी से ईमारती फर्नीचर भी बनाये जाते है| इसकी लकड़ी स्थानीय लोगो के लिए ईधन का मुख्य स्त्रेंत है| खेजड़ी राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष भी है|
थार रेगिस्तान मे खेजड़ी को उन्न्त करने की तकनीक
वानस्पितिक प्रर्वधन तकनीक :
प्राकृतिक रूप से खेजड़ी का प्रवर्धन बीज द्वारा ही होता है| इस प्रकार प्रवर्धित पेड़ों में फलियाँ (सांगरी) 10-12 वर्ष की आयु के बाद ही लगती हैं| इनकी वानस्पतिक बढ़वार, फली उत्पादकता तथा गुणवत्ता में भी काफी विभिन्नता पाई जाती है|
इस जैव-विविधता में से फली की गुणवत्ता के आधार पर उत्तम पेड़ों का चयन करके खेतो मे लगाकर वानस्पतिक प्रवर्धन विधि द्वारा देशी खेजड़ी के पेड़ों को शीघ्र ही अच्छी गुणवत्ता वाली फलियों देने वाले पेड़ों मे बदला जा सकता है।
केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर द्वारा हाल ही में विकसित की गई वानस्पतिक प्रवर्धन विधि “पेच कलिकायन तकनीकी” खेजड़ी वृक्ष के शीघ्र एवं उत्तम प्रवर्धन के लिए सबसे अच्छी विधि मानी गई है| इस विधि के अनुसार वानस्पतिक प्रवर्धन तकनीक द्वारा तीन प्रकार से खेजड़ी-बाग विकसित किए जा सकते हैं:-
- नर्सरी में कलिकायन किए हुए खेजड़ी के पौधों को खेत में वांछित दूरी पर लगाकर|
- खेत में जंगली खेजड़ी के मूलवंत वांछित दूरी पर लगाने के एक या दो वर्ष बाद चिन्हित उत्तम कलम से उन पर कलिकायन करके|
- खेत में स्वत: या स्वस्थानिक उगाये गये बीजू पेड़ों पर चिन्हित उत्तम खेजड़ी की कलम से शीर्ष / स्वस्थानिक कलिकायन करके|
वानस्पतिक प्रवर्धन की इन तीनों विधियों द्वारा बाग लगाने के लिए मूलव्रन्त की तैयारी, कलम का चुनाव एवं कलिकायन विधि का वर्णन निम्न प्रकार से है|
(अ) मूलव्रन्त की तैयारी :
कलिकायन हेतु नर्सरी अथवा खेत अथवा खेत में मूलव्रन्त तैयार कर लिए जाते हैं| नर्सरी में मूलव्रन्ततैयार करने के लिए पॉलिथीन की 30 x 15 सेमी की थैलियों (नलियों) को गोबर की खाद, बालू रेत एवं चिकनी मिट्रटी के मिश्रण से भर दिया जाता है तथा जून-जुलाई में किसी अच्छी खेजड़ी से प्राप्त बीज की बुवाई कर देते हैं|
बीज उगने तक इन नलियों को फव्वारे विधि से सिंचाई की जाती है| यह जंगली बीजू पौधे लगभग एक वर्ष के होने पर पौधशाला में ही इन पर कलिकायन कर देते हैं| एक वर्ष के तैयार मूलव्रन्त को चयनित दूरी पर खेत में रोपित कर स्थापित होने के बाद भी उन पर कलिकायन किया जा सकता है|
मूलव्रन्तहेतु जंगली पौधे किसी अन्य नर्सरी से भी प्राप्त किए जा सकते है| नर्सरी में कलिकायन एक या दो वर्ष तक की आयु के पौधों पर किया जा सकता है|
स्वस्थानिक (इन सीटू) कलिकायन तकनीक द्वारा खेजड़ी का बाग लगाने हेतु प्रक्षेत्र् में उचित दूरी पर बीजों की बुवाई कर मूलव्रन्ततैयार कर उन पर कलिकायन करना उत्तम पाया गया है| खेत में स्वस्थानिक कलिकायन दो वर्ष या अधिक आयु के पौधों पर भी किया जा सकता है|
(ब) कलिकायन के लिए कलम का चुनाव :
उत्तम गुणवत्ता वाली फली वाले मातृवृक्ष (मदर ट्री) से कलिका कलमों (साइन स्टिक) का चुनाव करना चाहिए| मातृवृक्ष की नवम्बर-दिसम्बर में कांट-छांट करना बहुत जरूरी है जिससे कि उनसे निकले नए कल्लों से कलिकायन के लिए उपयुक्त कलमें प्राप्त की जा सके|
कांट-छांट न करने पर पुरानी टहनियों में फूल आते हैं तथा कलिकायन के लिए उपयुक्त कलियां नहीं मिल पाती हैं| अच्छी कलिका कलमों का चुनाव करते समय निस्चित करें कि उनमें स्वस्थ, हरी एवं कुछ फूली हुई कलियाँ हो| काटी गई कलमों को गीले बोरी के टाट में लपेटकर रखा जाए|
(स) कलिकायन करना :
कलिकायन मई से सितम्बर तक किया जा सकता है| प्रात:काल अथवा सांयकाल में की गई कलिकायन अधिक सफल होती है|
कलिकायन हेतु तैयार जंगली मूलवंत झाड़ी में से 1-2 मुख्यतने छांट कर अन्य को निकाल देते हैं| इन चुने हुए तनों अथवा कल्लों से निकली भााखाओं को काटकर निकाल दें तथा उनके सिरों को कलिकायन करने के नि चित स्थान से कुछ ऊपर से काट दें|
अब कलिकायन हेतु नि चित स्थान से 2.5 x 1.0 सेमी छाल की पेच इस प्रकार निकालें कि छाल के निचले चिकने पदार्थ (केम्बिनयम) पर खरोंच न आए| मातृवृक्ष के कली सहित पेच को तुरन्त मूलवृंत पर से निकाले पेच के स्थान पर ठीक से स्थापित करके पॉलिथीन की पटटी द्वारा कस कर बांध दें|
कलिका 3-4 सप्ताह में प्रस्फूटित होने लगती है| इस बीच तथा इसके बाद वर्ष भर मूलवृंत से निकले जंगली फुटाव को निरन्तर हटाते रहें| लगभग 5-6 माह में कलिकायन द्वारा प्रवर्धित अच्छी गुणवत्ता वाली खेजड़ी का वृक्ष तैयार हो जाएगा|
2.0-2.5 वर्ष की आयु के स्वस्थानिक मूलवृन्तों पर किये गये कलिकायन में तेजी से वानस्पतिक वृद्घि होती है और इस तरह 4 वर्ष की अल्पायु में ही फलन प्रारम्भ हो जाता है|
चित्र : कलिकायीतित उन्नत खेजड़ी वृक्ष चित्र : देशी खेजड़ी वृक्ष
(द) शीर्ष कलिकायन :
इस विधि का प्रयोग खेजड़ी के पुराने जंगली पेड़ों को उत्तम गुणवत्ता की फली देने वाले वृक्षों में परिवर्तित करने हेतु किया जा सकता है|
अधिक पुराने वृक्षों पर शीर्ष कलिकायन करने के लिए दिसम्बर माह में वृक्षों की कांट-छांट करनी होती है| इससे उनमें नए कल्ले फूटते हैं जिन पर उपयुक्त समय पर (मई से सितम्बर) कलिकायन की जा सकता है|
शीर्ष कलिकायन हेतु पेड़ के मुख्य तने को भूमि की सतह से 1-1.5 मीटर ऊँचाई पर काट दें| इसमें पेड़ की 2-3 मुख्य भााखाओं को भी काटा जा सकता है| कुछ समय बाद इनमें कई नए कल्ले विकसित हो जाएंगे| इनमें से कुछ कल्ले कलिकायन के लिए चुनकर अन्य को काट दें|
मुख्य तने पर 2-3 तथा शाखा पर 2 कल्ले रखना कलिकायन के लिए पर्याप्त होता है| फिर उपरोक्त तरीके से इन शाखाओ पर शीर्ष कलिकायन करके बड़े देशी पौधे को भी उन्नत पौधे मे बदला जा सकता है।
Authors
Dr. S. R. Meena*, Dr. Mukesh Kumar Jatav, Dr. B. R. Chaudhary, and Dr. S. K. Maheshwari
Central Institue for Arid Horticulture, Bikaner- 334 006, Rajasthan
(Indian Council of Agricultural Research)
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