Major Insects, pests and Diseases of Khejri tree in desert areas of Rajasthan
थार रेगिस्तान में उगने वाली वनस्पतियों में खेजड़ी का वृक्ष एक अति महत्वपूर्ण वृक्ष है| यह थार निवासियों की जीवन रेखा कहलाती है| यह भारतवर्ष के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से जानी जाती है जैसे दिल्ली में इसें जाटी के नाम से जाना जाता है, पंजाब व हरियाणा में जॉड़, गुजरात में सुमरी, कर्नाटक में बनी, तमिलनाडुं में बन्नी, सिन्ध में कजड़ी एवं राजस्थान में इसे खेजड़ी के नाम से पुकारा जाता है|
सुखे व अकाल जैसी विपरित परिस्थितियों का इस पर कोई असर नहीं पड़ता बल्कि ऐसी परिस्थितियों में मरूक्षेत्र् के जन-जीवन की रक्षा करती है| खेजड़ी की पत्तीयां (लूंग/ लूम) पशुओं के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण पोष्टिक आहार है तथा वे इसे बहुत ही चाव से खाते है|
इसकी सांगरी (फली) बहुत पोष्टिक व स्वादिष्ट होती ह। खेजड़ी का वृक्ष दलहन कुल होने के कारण ये भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते है| साथ में ही खेजड़ी के वृक्ष उच्च कोटि की पौष्टिक सांगरी प्रदान करती हैं|
खेजड़ी की पकी संागरियों में औसतन 8-15 प्रोटीन, 40-50 प्रतिशत कार्बोहाइडे्रट, 8-15 प्रतिशत शर्करा, 8-12 प्रतिशत रेशा, 2-3 प्रतिशत वसा, 0.4-0.5 प्रतिशत कैल्सियम, 0.2-0.3 प्रतिशत लौह तत्व तथा अन्य सुक्ष्म तत्व पाये जाते हैं जोकि मानव व पशुओं के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही गुणकारी हैं| खेजड़ी से उच्च कोटि की गुणवत्ता वाली लूंग (पित्तयाँ) प्राप्त होती हैं जो राजस्थान के शुष्क क्षेत्रें में पशुपालन का मुख्य आधार है|
इस तरह से शुष्क क्षेत्रें में खेजड़ी का वृक्ष जनजीवन व पशुधन के लिए जीवन रेखा का काम करती है| यहां के स्थानीय लोग किसी भी शुभअवसर / त्योहार/ विवाह, आदि पर खेजड़ी की सांगरी की सब्जी बनाना अति उत्तम व अच्छी शकुनभरी मानते है| इसकी लकड़ी से ईमारती फर्नीचर भी बनाये जाते है| इसकी लकड़ी स्थानीय लोगो के लिए ईधन का मुख्य स्त्रेंत है| खेजड़ी राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष भी है|
खेजड़ी को नुकसान पहूंचाने वाले प्रमुख कीडे, रोग तथा उनकी रोकथम के उपाय
वर्षा कम होने तथा भू जल स्तर में आई गिरावट के कारण खेजड़ी की जड़ों मे पानी कम होता जा रहा है और जड़ क्षेत्र् का तापक्रम बढ़ता जा रहा है| ऐसी परिस्थितियों में जड़ें कमजोर होती जा रही हैं और उनकी रोगरोधी क्षमता भी घटती जा रही है, जिससे जड़ों पर कई तरह की कवक (फफूंदी) व कीट आक्रमण कर देते हैं|
बढ़ते कृषि मशीनीकरण के कारण भी खेजड़ी की जड़ों की प्राकृतिक व्यवस्था को पहुँचती है जो खेजड़ी के सूखने तथा बीमारियों को फैलाने में सहायक का कार्य करता है|खेजड़ी के बड़े वृक्षों का सूखने का जो प्रत्यक्ष कारण जो सामने आए हैं उनमें से प्रमुख कारण हैं - खेजड़ी जड़ छेदक कीट का प्रकोप एवं कवक (फफूंदी) का संक्रमण|
खेजड़ी जड़ छेदक कीट जिसका वैज्ञानिक नाम है “सेलोस्टर्ना स्काब्रेटोर (कोलियोप्टेरा सिरेम्बाइसिडी)”। इस कीट की लटें खेजड़ी की कमजोर जड़ों की छाल में अन्दर घुस जाती है और जड़ों को खाती हुई उनमें आड़ी-तिरछी सुरंग बनाती है तथा जड़ों के अन्दर घुसती जाती है| अन्दर ही अन्दर जड़ो को खाती रहती है| जब ये लटें बड़ी हो जाती हैं तो वे मुख्य जड़ो को खाने लगती हैं और उनमें भी सुरंग बना डालती हैं|
फिर धीरे धीरे जड़ें खोखली होने से पेड़ की जड़ो का संवहन तंत्र् टूटने लगता है| धीरे धीरे ये लटें जड़ों के संवहन तंत्र् को खाकर नष्ट कर देती हैं जिससे पौधो में भोजन पानी का आवागमन बंद हो जाता है और पौधा पूर्णरूप से सूख जाता है|
कई बार तो ये कीट सुरंग बनाकर पेड़ के मुख्य वृंत में भी सुरंग बना कर काफी ऊँचाई तक चले जाते हैं और सम्पूर्ण पेड़ को जड़ सहित खोखला कर देते हैं| पेड़ की जड़ों को खोदने पर पता चला है कि इस जड़ छेदक कीट की लटें 3 से 15 मीटर तक की गहराई तक जमीन एवं जड़ों में आराम से रह सकती हैं|
जड़ छेदक मादा कीट जमीन में अण्डा देती हैं जिनसे अनुकूल परिस्थितियों में छोटे छोटे लार्वे निकलते हैं और आगे चलकर लट के रूप में खेजड़ी की जड़ों पर आक्रमण कर देते हैं| ये लटें बाद में प्रौढ़ मादा में बदल जाती हैं और फिर जमीन व खेजड़ी के पेड़ों की जड़ों में अण्डे देती हैं जिनसे समय आने पर लार्वा निकलकर लट में बदल जाते हैं| ये क्रम लगातार चलता रहता है|
खेजड़ी के वृक्ष सूखने का दूसरा कारण है- कवकों (फफूंदी) का खेजड़ी की जड़ों पर संक्रमण| शोध कार्यों से पता चला है कि खेजड़ी की जड़ों पर आक्रमण करने वाली कवकों की प्रमुख प्रजातियाँ हैं, गैनोडर्मा/गाईनोडर्मा, फ्यूजेरियम, रहीजक्टोनिया, आदि|
गैनोडर्मा कवक को देशी भाषा में विषखोपरा या भंफोड़ा भी कहते हैं| सितम्बर-नवम्बर माह मे खेजड़ी, की जड़ों एवं तने के बीच में से छतरीनुमा आकार के भुफोड़ा बनते दिखाई देते हैं जो गैनोडर्मा कवक के संक्रमण के कारण होते है|
ये भंफोडे़ शुरूआत में मुलायम होते हैं परन्तु बाद में कठोर एवं चौकलेट रंग के हो जाते हैं| इस कवक के संक्रमण के कारण पौधों के संवहनतंत्र् के समान कार्यों में खराबी होने लगती है और अगले अगस्त सितम्बर के महीने में पेड़ की पित्तयाँ पीली पड़ने लगती हैं और बाद में धीरे धीरे पूरा पेड़ सूख जाता है|
दीमक का आक्रमण भी खेजड़ी के पौधों को सुखाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है|
जड़ छेदक कीट का नियंत्र्ण :
खेजड़ी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाने वाला कारक है, जड़ छेदक कीट|
इसकी रोकथाम के लिए वर्षाकालीन दिनों में स्वस्थ्य पेड़ों पर एण्डोसल्फान 35 ई.सी. 4-7 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें ताकि जड़ छेदक कीट के प्रौढ़ भृंगें मर जाएं| जड़ों में उपस्थित कीट की लटों, भृंगों, आदि को मारने के लिए पेड़ की जड़ों में क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई. सी. (15-20 मि.ली. प्रति पेड़ के हिसाब से) व कार्बनण्डजिम 20 ग्राम के साथ कॉपर आक्सीक्लोराइड 40-45 ग्राम प्रति पेड़ के हिसाब से पानी में घोलकर पेड़ के चारों ओर डालें ताकि तने तथा जड़ों मे उपस्थित कीट, लटें व भृंगे मर जावें|
वर्षाकाल में जड़ छेदक कीट के प्रौढ़ भृंगों को प्रकाशपाश या खेतों में आग जलाकर प्रकाश की तरफ आकर्षित करक, नष्ट कर दें| सूखे एवं संक्रमित पेड़ों को तुरन्त उखाड़कर जला दें ताकि उनमें उपस्थित कीट की लटें एवं कवक जलकर नष्ट हो जावें|
कवक नियन्त्र्ण :
कवक (फफूंदी) से होने वाले संक्रमण/ बीमारियों से खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए 20 ग्राम बॉवस्टिन तथा 40 ग्राम ब्लाइटोक्स को 20 लीटर पानी में घोलकर खेजड़ी के पेड़ की जड़ों में डे्रन्चीग करें| इस प्रक्रिया को हर 15 दिन बाद 2-3 बार दोहरावें|
इस तरह कवक के संक्रमण को काफी हद तक रोका जा सकता है| यदि हम बीजों से खेजड़ी के पौधे तैयार करते हैं तो उनको भी बॉवस्टिन या अन्य किसी भी कवकनाशी दवाईयों से उपचारित करके ही बोयें| संक्रमित खेजड़ी को उखाड़ कर जला दें|
साथ में ही संक्रमित खेत की जड़ों/तनों पर बने भंफोडो को भी एकत्र्ित करके जला दें ताकि कवक का संक्रमण दूसरी स्वस्थ्य खेजडि़यों पर न हो पायें|
दीमक पर नियन्त्र्ण :
खेजड़ी वृक्ष पर दीमक का प्रकोप होने पर भी वे सूख जाते हैं| दीमक के प्रकोप को रोकने के लिए खेजड़ी के तने पर एक -दो फुट की ऊँचाई तक क्लोरोपाईरिफॅास तथा चूने का घोल बनाकर लेप कर दें|
भूमिगत दीमक के नियन्त्र्ण के लिए पेड़ के तनों व जड़ों के पास खाई खोदकर उसमें क्लोरोपाईरिफॅास या फोरेट या एन्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण को मिट्टी के साथ मिलाकर खाई में भर दें जिससे कि दीमक या उसकी लटें मर जावें या दोबारा पैदा नहीं हो पावे|
खेजड़ी के वृक्ष की उचित छंगाई
खेजड़ी के वृक्षो की छंगाई करते समय 4-5 बड़ी शाखाओं को सुरक्षित छोड़ देना चाहिए अर्थात उन्हें छंगना (काटना) नहीं चाहिए
एक दो वर्ष के अन्तराल पर ही पेड़ की छँगाई करनी चाहिए या वृक्ष के निचले दो तिहाई भाग की छँगाई करनी चाहिए और ऊपर के एक तिहाई भाग को सुरक्षित छोड़ देना चाहिए ताकी वृक्ष प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन नियमित रूप से बनाता रहे|
Authors
Dr. S. R. Meena*, Dr. Mukesh Kumar Jatav,Dr. S. K. Maheshwari and Dr. B. R. Chaudhary
Central Institue for Arid Horticulture, Bikaner- 334 006, Rajasthan
(Indian Council of Agricultural Research)
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