Increase income by doing animal husbandry with Khejdi or Sangri farming

Increase income by doing animal husbandry with Khejdi or Sangri farming

खेजड़ी या सांगरी की खेती के साथ पशुपालन कर आय बढ़ाएं 

राजस्थान का सतह क्षेत्र 342290 वर्ग किलोमीटर है जबकि थार 196150 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ है। यह राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 60% से अधिक है। मानव आबादी 17.5 मिलियन है जिसमें से 77% ग्रामीण और 23% शहरी हैं।

इस क्षेत्र में उत्पादन और जीवन समर्थन प्रणाली जैव-संबंधी और पर्यावरणीय सीमाओं से बाधित है । जैसे कि कम वार्षिक वर्षा (100-400 मिमी)  मानसून आने से पहले, बहुत अधिक तापमान (45 से 47 डिग्री तापमान) और औसतन बहुत तेज हवा और आँधियाँ जो कि 8 से 10 किलोमीटर की रफ़्तार से चलती है जिससे की स्वेद-वाष्पोतसर्जन (वार्षिक 1500 से 2000 मिमी) बहुत अधिक होता है ।

यहां की मृदा रेतीली, कंकरीली एवं लवणीय होती है जिसमे पोषक तत्व भी बहुत कम होते है और करीब 58 प्रतिशत रेत के टिल्ले है जिसमे खेती करना किसानों के लिए और भी मुश्किल होता है । राजस्थान मुख्यत: एक कृषि व पशुपालन प्रधान राज्य है, अल्प व अनियमित वर्षा के बावजूद, यहाँ लगभग सभी प्रकार की फ़सलें उगाई जाती हैं।

रेगिस्तानी क्षेत्र में बाजरा, कोटा में ज्वार व उदयपुर में मुख्यत: मक्का उगाई जाती हैं। राज्य में गेहूँ व जौ का विस्तार अच्छा-ख़ासा (रेगिस्तानी क्षेत्रों को छोड़कर है। ऐसा ही दलहन (मूंग, मोठ, चना, मटर, सेम व मसूर जैसी खाद्य फलियाँ), गन्ना व तिलहन के साथ भी है।

चावल की उन्नत किस्मों को भी यहाँ उगाया जाने लगा है। चंबल घाटी’ और ‘इंदिरा गांधी नहर परियोजनाओं’ के क्षेत्रों में इस फ़सल के कुल क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हुई है।

थार मरुस्थल में पशुपालन का किसानों की आय बढ़ाने में महत्व

राजस्थान की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि कार्यों एव पशुपालन पर ही निर्भर करती है, तथा कृषि के उपरान्त पशुपालन को ही जीविका का प्रमुख साधन माना जा सकता है । राजस्थान में प्राय: सूखे की समस्या रहती है। इसी वजह से पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध नहीं हो पाता। राज्य के मरुस्थलीय और पर्वतीय क्षेत्रों में भौगोलिक और प्राकृतिक परिस्थितियों का सामना करने के लिये एकमात्र विकल्प पशुपालन व्यवसाय ही रह जाता है ।

राज्य में जहाँ एक ओर वर्षाभाव के कारण कृषि से जीविकोपार्जन करना कठिन होता है, वहीं दूसरी ओर औद्योगिक रोजगार के अवसर भी नगण्य हैं। ऐसी स्थिति में ग्रामीण लोगों ने पशुपालन को ही जीवन शैली के रूप में अपना रखा है। पशुपालन व्यवसाय से राज्य की अर्थव्यवस्था अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष घटकों से लाभान्वित होती है। पशुपालन देश के ग्रामीण क्षेत्रों में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है जिससे कृषि पर निर्भर परिवारों को अनुपूरक आय प्राप्त होती है।

हाँलाकि यहाँ का अधिकांश क्षेत्र शुष्क या अर्द्ध शुष्क है, फिर भी राजस्थान में बड़ी संख्या में पालतू पशू हैं व राजस्थान सर्वाधिक ऊन का उत्पादन करने वाला राज्य है। ऊँटों व शुष्क इलाकों के पशुओं की विभिन्न नस्लों पर राजस्थान का एकाधिकार है। राजस्थान में पशु-सम्पदा का विषेश रूप से आर्थिक महत्व माना गया है। राज्य के कुल क्षेत्रफल का 61 प्रतिशत मरुस्थलीय प्रदेश है, जहाँ जीविकोपार्जन का मुख्य साधन पशुपालन ही है। इससे राज्य की शुद्ध घरेलू उत्पत्ति का महत्त्वपूर्ण अंश प्राप्त होता है।

राजस्थान में देश के पशुधन का 7 प्रतिशत था, जिसमें भेड़ों का 25 प्रतिशत अंश पाया जाता है। पशुसम्पदा की दृष्टि से राजस्थान एक समृद्ध राज्य है। यहाँ भारत के कुल पशुधन का लगभग 11.5 प्रतिशत मौजूद है। क्षेत्रफल की दृष्टि से पशुओं का औसत घनत्व 120 पशु प्रति वर्ग किलोमीटर है जो सम्पूर्ण भारत के औसत घनत्व (112 पशु प्रति वर्ग किलोमीटर) से अधिक है। पशुओं की बढ़ती हुई संख्या अकाल और सूखे से पीड़ित राजस्थान के लिये वरदान सिद्ध हो रही है।

आज राज्य की शुद्ध घरेलू उत्पत्ति का लगभग 15 प्रतिशत भाग पशु सम्पदा से ही प्राप्त हो रहा है । राजस्थान में देश के कुल दुग्ध उत्पादन का अंश लगभग 10 प्रतिशत होता है।राज्य के पशुओं द्वारा भार-वहन शक्ति 35 प्रतिशत है । भेड़ के माँस में राजस्थान का भारत में अंश 30 प्रतिशत है । ऊन में राजस्थान का भारत में अंश 40% है। राज्य में भेंड़ों की संख्या समस्त भारत की संख्या का लगभग 25 प्रतिशत है ।

थार मरुस्थल की जीवन रेखा खेजड़ी का किसानों की आय बढ़ाने में महती भूमिका

खेजड़ी शुष्क और अद्र्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला बहुउपयोगी वृक्ष है। यह लेग्यूमिनेसी कुल का फलीदार पेड़ है। रेगिस्तान में जब खाने को कुछ नहीं होता, तब खेजड़ी चारा देता है, जो ‘लूंग’ कहलाता है। इसके  फूल को ‘मींझर’ व फल को ‘सांगरी’ कहते हैं।

ज्येष्ठ के माह में यह पेड़ हरा भरा रहता है। गर्मी के मौसम में जानवर राहत पाने के लिए इसी पेड़ के नीचे आते है। इस पेड़ से बने चारे को लूंग कहते है जबकि इसका फूल मींझर कहलाता है। इसके फल को सांगरी कहते है यह फल सूखने के बाद खोखा बन जाता है जो एक सूखा मेवा है।

इस पेड़ की लकड़ी मजबूत होती है जो किसानों के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनाया जाता है। इसकी पत्तियां उच्च कोटि के चारे के लिए प्रख्यात है। खेजड़ी की पत्त्तियों का चारा बकरी, ऊंट और दूसरे पशु बड़े चाव से खाते है। इसके कच्ची फलियों (सांगरी) की बाजार में खासी मांग रहती है।

बाजार में सांगरी 500-600 रूपये प्रतिकिलो के भाव से मिलती है। लेग्यूमिनेसी कुल को पेड़ होने के कारण यह वायुमंडल से नत्रजन स्थिरीकरण भी करता है। खेजड़ी के पेड़ो में सूखारोधी के अलावा सर्दियों में पडऩे वाले पाले और उच्च तापमान सहन करने की असीम क्षमता है। इन विशेषताओं को देखते हुए वर्षा आधारित खेती करने वाले किसानों के लिए खेजड़ी का उत्पादन सोने पर सुहागा साबित हो सकता है।

हरे चारे का उत्पादन लगभग 59 क्विंटल प्रति वृक्ष प्राप्त किया जा सकता है। खेजडी के बारे में एक बहुत पुरानी कहावत है कि जिस किसान के पास 1 पेड़ खेजड़ी, एक बकरी और एक ऊंट हो वह अकाल में भी जीवनयापन कर सकता है।

अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे। इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

लूंग और सांगरी का पौषकीय महत्व

खेजड़ी से मिलने वाली लूंग में 14-18 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 15-20 प्रतिशत रेशा और 8 प्रतिशत खनिज लवण पाये जाते है। खनिज लवणमें कैल्शियम और फॉस्फोरस की अधिकता होती है।

कच्ची सांगरी में औसतन 8 प्रतिशत प्रोटीन, 28 प्रतिशत रेशा, 2 प्रतिशत वसा, 0.4 प्रतिशत कैल्शियम और 0.2 प्रतिशत आयरन तत्व पाया जाता है। बात करे पक्की फलियों में मौजूद पोषक तत्व की तो 8-15 प्रतिशत प्रोटीन, 40-50 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 15 प्रतिशत शर्करा और 9-21 प्रतिशत रेशा होता है।

खेजड़ी आधारित कृषि प्रणाली से फसलों की उत्पादकता पर प्रभाव

जनसँख्या वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनो का अत्यधिक रूपसे दोहन हुआ है जिससे हमारे पर्यावरण एवं पारिस्थतिकी संतुलन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है, अतः इक्कीसवीं सदी में हमे बढ़ती हुई जनसँख्या के लिए भोजन, रेशा, ईंधन की आपूर्ति एवं घर बनाने के लिए लकड़ी की आवश्यकता पूर्ती करने के लिए मिश्रित कृषि प्रणाली की जरूरत है ।

जिसमे पेड़ों के साथ साथ साथ फसल उत्पादन को भी कम संसाधनों से लिया जा सके इसके अलावाए लेगुमिनोसी वंश के वृक्षों के नीचे फसल उत्पादकता में भी वृद्धि होती है, क्योंकि ये वृक्ष वातावरण की नत्रजन को मृदा में स्थिरीकरण कर भूमि की उर्वरता बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देते है और ये वृक्ष शुष्क क्षेत्रों में अधिक तापमान से पानी का भूमि की सतह से एवं वाष्पोतसर्जन से भाप बन कर उड़ने वाले पानी को भी रोकने में सहायक होते  है

अनुसंधानकर्ताओं ने यह सिद्ध किया किया है कि खेजड़ी के साथ चारा, दलहन एवं तिलहन फसलों को लगाने से उत्पादकता में वृद्धि होती है जिससे की किसानों को पशुओं के लिए चारा और  मनुष्यों के लिए अधिक फसल का उत्पादन मिलता है इसके साथ साथ रेगिस्तान में मरुस्थल के विस्तार को  रोकने में भी अहम भूमिका अदा करते है ।

खेजड़ी आधारित कृषि प्रणाली में वृक्षों के बीच एकवर्षीय फसलों की उत्पादकता अकेले उगाने वाली फसों की तुलना में अधिक प्राप्त हुई । वृक्ष और फसल के बीच नमी और सूर्य के प्रकाश के लिए कम प्रतिस्पर्धा हुई इसके अलावा खेजड़ी की जड़ें जमीन में बहुत गहराई में जाती है, जिससे की मृदा की नमी  में भी सुधार होता है और खेजड़ी वृक्षों की  भी एकवर्षीय फसलों पर सही प्रभाव देखा गया जो की अधिक उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ ।

खेजड़ी आधारित कृषि प्रणाली में अनाज एवं चारे  का अधिक उत्पादन होने से मुनाफा भी अधिक हुआ क्योंकि इसमें एकवर्षीय फसलों के साथ साथ खेजड़ी से भी फल और चारे की आपूर्ति होने से उत्पादकता बढ़ी जिससे की  अतिरिक्त लाभ हुआ ।

खेजड़ी वृक्ष का वृक्ष घनत्व (पेड़ प्रति है. ) से भी फसलों की उत्पादकता पर प्रभाव पड़ता है इसलिए हमें खेजड़ी को एक निश्चित अनुपात में लगाना चाहिए ताकि इसके साथ में लगाने वाली एकवर्षीय फसलों की उतापद्क्ता पर गलत प्रभाव  ना हों ।

एक शोध में यह दर्शाया गया है की खेजड़ी के २०८ वृक्ष प्रति हेक्टेयर में लगाने से मूंग फसल की उत्पादकता में वृद्धि होती है । फसलों की उत्पादकता के साथ-साथ खेजड़ी का मृदा की उर्वरता पर भी प्रभाव पड़ता है एक शोध में यह निष्कर्ष निकला गया है की अगर हम बिना खेजड़ी के फसल उगाते है तों मृदा के उर्वरा स्टार में कमी आती है वही अगर खेजड़ी के साथ फसल लगाई जाती है तों मृदा में प्राथमिक और सूक्ष्म तत्वों की मात्रा में वृद्धि होती है 

जिससे खेत की उर्वरता भी बनी रहती है और मरुस्थलीकरण को रोकने में भी मदद मिलती है अत: किसानों को हमेशा खेजड़ी के साथ उपयुक्त फसलों का चुनाव करके लगाना चाहिए ताकि आय बढ सकें । जैसे जैसे खेजड़ी वृक्ष से दूर जाते है वैसे वैसे फसल की उत्पादकता पर प्रभाव पड़ता है, खेजड़ी वृक्ष के नीचे,  पौधों की संख्या, पौधों की ऊंचाई, पौधे प्रति पौधे और फली की लंबाई अधिक होती है क्योंकि खेजड़ी दलहन वाली फसलों के साथ नमी और प्रकाश के लिए प्रतियोगिता नही होती है,

एकवर्षीय फसलें उपरी सतह से नमी और पोषक तत्व ग्रहण करती है वही खेजड़ी निचली सतह से पोषक तत्व और नमी लेती है जिससे फसलों के साथ प्रतियोगिता नही होती और दोनों को एक साथ आसानी से लिया जा सकता है  खेजड़ी  गर्म शुष्क वातावरण में छाया के साथ  मिट्टी की उर्वरता बढ़ता है और छाया से सकारात्मक प्रभाव होता  है।

मृदा में बहुत प्रकार के सूक्ष्म जीव पाए जाते है जो की मिटटी की उर्वर शक्ति को प्रभावित करते है, शोधकर्ताओं के अनुसार खेजड़ी एक ऐसा वृक्ष है जिसको खेत में लगाने से मृदा में पाए जाने वाले लाभदायक सूक्ष्म जीवों की संख्या में वृद्धि होती है,  जिससे खेत की उर्वरता शक्ति और उत्पादकता बढती है । अत: हम यह कह सकते है खेजड़ी मरुस्थल में रहने वाले लोगों के लिए एक वरदान है जिसको लगाकर किसान अपनी आय बढ़ा सकते है और आसानी से पशुपालन भी कर सकते है ।

यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि खेजड़ी अपने आसपास के फसलों को उपयुक्त पारिस्थितिकीय स्थितियां प्रदान करता है जिससे शुष्क क्षेत्रों में होने वाली फसलों की वृद्धि और उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता  है।

क्योंकि खेजड़ी से फसलों में  फल्लियों की संख्या, चारे वाली फसलों में कल्लों की संख्या में बधवार होती है, इसके अलावा इस वृक्ष से  ग्रामीण को विभिन्न उपयोगी उत्पाद प्राप्त होते  है इसलिए शुष्क क्षेत्रों में टिकाऊ खेती करने  के लिए, इस बहुउद्देशीय वृक्ष प्रजाति को कृषि-वानिकी प्रथाओं में संरक्षित और बढ़ावा दिया जाना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा संख्या में लगाना चाहिए ताकि फसलों की उत्पादकता के साथ साथ मरुस्थल के प्रसार को रोकने में भी मदद मिल सके ।

अत: थर मरुस्थल में किसान और पशुपालक खेजड़ी को लगाकर दलहन फसलों में उत्पादकता वृद्धि के साथ-साथ चारे का भी उत्पादन ले सकते है जिससे की यहाँ के किसानो की आय बढाने में खेजड़ी एक महती भूमिका अदा कर  सकता है ।


लेखक

बी. लाल1, सरोबना सरकार1, आर. एल. मीणा1, प्रियंका गौतम2

1भाकृअनुप -केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसन्धान संस्थान, अविकानगर, राजस्थान

2भाकृअनुप – राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसन्धान केंद्र, बीकानेर, राजस्थान

 

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