Mushroom cultivation - an additional source of income 

भारत में मशरूम उत्पादन का इतिहास लगभग तीन दशक पुराना है परंतु लगभग 10-12 वर्षो के दौरान मशरूम उत्पादन में लगातार वृध्दि दर्ज की गई है।

बस्तर क्षेत्र में धान का अधिक रकबा होने के कारण पर्याप्त मात्रा में धान का पैरा प्रतिवर्ष निकलता है, जिसका मात्र 2-3 फीसदी हिस्सा जानवरों के खाने के काम में लाया जाता है, शेष खलियानों, घरों, बाडियों आदि में व्यर्थ रह जाता है जि‍सका उपयोग मशरूम की खेती में कि‍या जा सकता है।

बस्तर का अधिकांश भाग असिंचित एवं एक फसली होने के कारण दिसम्बर माह के पश्चात् यहां रोजगार की समस्या उत्पन्न हो जाती है ऐसे मे मशरूम की खेती ग्रामीण महिलाओं, बेरोजगार युवकों, कृषि मजदूर आदि के लिए रोजगार तथा अतिरिक्त आय का साधन बन सकता है क्‍योकि‍ बस्तर संभाग में प्राचीन काल से ही खाद्य मशरूमों का प्रयोग हो रहा है और यहां के जन समुदाय द्वारा इसे  पसंद किया जाता है।

बस्तर में क्षेत्रा में बच्चों एवं गर्भवती महिलाओं में कुपोषण कि समस्या देखने को मिलती है। मशरूम एक मात्र एैसा खाद्य है जिससे सेवन से सभी प्रकार के पौष्टिक तत्व मानव शरीर में पहुंचते है जिससे कुपोषण को हटाया जा सकता है।

सामान्य बोलचाल की भाषा में मशरूम को खुंभ, खुंभी, भमोडी एवं गुच्छी आदि कई नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे मशरूम के नाम से जाना जाता है। यह एक साधारण पौध संरचना है जो फफूंद कहते है, मूलत: मशरूम दो भागों में बंटा रहता है

पहला भाग छतरी तथा दूसरा भाग डंडी के रूप में रहता है, दोनों भाग ही खाने योग्य होते है। छतरी छोटी-छोटी कोशिकाओं का समूह होता है, जबकि डंडी की रचना डोरीदार होती है।

मशरूम को सड़े हुए जैविक पदार्थो जैसे खाद, भूसा, पुआल आदि पर उगाते है। मशरूम में अन्य पौधों से अलग जो विशेषता है वह यह है कि इन्हें सूर्य के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

मशरूम अपने उच्च स्तरीय खाद्य मूल्यों के कारण ही सम्पूर्ण विश्व में अपना एक विशेष महत्व रखता है। मशरूम में काफी मात्रा में प्रोटीन, फोलिक एसिड, विटामिन तथा मिनरल होते है। फोलिक एसिड का रक्तालपता (एनीमिया) को दूर करने में अपना चिकित्सीय महत्व है।

मशरूम में चमतकारी गुण होने के कारण इनमें कार्बोहाइड्रेट्स की मात्रा कम पाई जाती है। जो कि भार घटाने में महत्वपूर्ण है। मशरूम आहार के तौर पर उपयोग में लाया जाता है तथा फोलिक एसिड की उपस्थिति होने के कारण मशरूम एनीमिक रोगीयों के लिए लाभप्रद है। मशरूम पौष्टिक, रोगरोधक, स्वादिष्ट तथा विशेष महक के कारण आधुनिक युग का एक महत्वपूर्ण खाद्य आहार है।

मशरूम का फलनकाय के मांसल होने, उसमें ग्लुटामिक अम्ल की उपस्थिति होने एवं स्पर्श करने पर गुदगुदा होने के कारण अधिकांश लोग इसे मांसाहार समझते है जो कि सर्वथा गलत है। मशरूम एक शुध्द शाकाहारी भोज्य आहार है। यह प्राकृतिक कृषि अवशिष्टों जैसे गेहूं का भूसा, पैरा कुट्टी, सरसों का भूसा, कोदों, कुटकी, रागी, मक्का, कपास आदि अवशेषों पर आसानी से उगाया जा सकता है।

मशरूम के फलनकाय में असंख्य बीजाणू होते है जो प्रकृति में अनुकूल वातावरण मिलने पर पुन: मशरूम को जन्म देते है। अत: मशरूम उत्पादन के परिणामस्वरूप प्राप्त फलनकाय पूर्ण रूप से शुध्द शाकाहारी है जिसमें किसी भी प्रकार का कोई संदेह की गुंजाइश नहीं है।

बस्तर अंचल में विभिन्न प्रकार के मशरूम उत्पादन तकनीक निम्न है:-

आयस्टर मशरूम :-

आयस्टर मशरूम को ढिंगरी के नाम से भी जाना जाता है। इस मशरूम की खेती लगभग वर्षभर की जा सकती है। इसके लिये अनुकूल तापक्रम 20-30 डिग्री सेन्टीग्रेट तथा आपेक्षित आद्रता 70-90 प्रतिशत होती है। बस्तर अंचल के मौसम व जलवायु को दृष्टिगत रखते हुये आयस्टर मशरूम की खेती वैज्ञानिकों की राय में ग्रामीणों के उत्थान की एक सरल व सस्ती तकनीक है।

आयस्टर मशरूम उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक :-

  • 100 लीटर पानी में 5 ग्राम बाविष्टिन दवा एवं 125 मि.ली. फार्मेलिन को ठीक से मिला देते है।
  • 12 किलों गेहॅूं भूसा या धान की पैरा कुट्टी को 14-15 घंटे तक उपरोक्त दवा में भिगोते है।
  • उपचारित भूसे/पैरा कुट्टी को टोकनी या जाली के ऊपर पलट दे जिससे पानी पूरी तरह निकल जाए। निथारी गई पैराकुट्टी को साफ पालीथीन शीट पर 2-3 घंटे के लिए फैला देते है।
  • उपचारित भूसा/पैरा कुट्टी जब भीगकर 40 किलो वजन कम हो जाता है उसमें 3 प्रतिशत् की दर से मशरूम स्पाँन (बीज) को मिलाते है।
  • 4 किलो स्पाँन मिले भूसे या पैरा कुट्टी को 5 किलो क्षमता की पालीथीन में भरकर नाईलान रस्सी से बांध कर थैली के नीचे भाग पर सूजे द्वारा 4-5 छिद्र कर दिया जाता है।
  • बैग रखने के 24 घंटे पहले कमरों को 2 प्रतिशत् फार्मेलिन से उपचारित किया जाता है तत्पश्चात् उपचारित कमरों में बीज युक्त थैलों को रेक पर रखते है। लगभग 15-20 दिन में कवकजाल पालीथीन में फैल जाता है।
  • कवकजाल फैले हुऐ थैलों से पालीथीन को काट कर हटा दिया जाता है। फिर नाइलोन रस्सी से बांध कर इन बंडलों को रैक में लटका दिया जाता है।
  • लटके बंडलो पर साफ पानी से हल्का छिड़काव करें एवं कमरे का तापक्रम 24-28 डिग्री तक एवं आर्द्रता 85-90 प्रतिशत तक बनाये रखें। प्रकाश के लिए 3-4 घंटे के लिए खिड़कियों को खोल दें या टयूबलाईट को 4-6 घंटे तक जलाये रखें।
  • मशरूम कलिकायें 2-3 दिन में बन जाती है जो 3 से 4 दिन में तोड़ने योग्य हो जाती है।
  • मशरूम कलिकायें जब पंख की आकार की हो जायें तब इन्हें मरोडकर तोड़ लिया जाता है।
  • दूसरी फसल पहली तुडाई के 6-7 दिन बाद तैयार हो जाती है एवं तीसरी फसल दूसरी तुडाई के सात दिन बाद तैयार हो जाती है।

पैरा मशरूम :-

बस्तर अंचल में इस मशरूम को फुटू के नाम से जाना जाता है। यह बरसात के मौसम में प्राकृतिक रूप से पुराने धान के पुवाल/पैरावट में जुलाई से अक्टूबर के मध्य निकलता है। यह मशरूम मटमैले रंग के रूप में दिखाई देते है जो कुछ समय पश्चात् छत्तेनुमा संरचना में परिवर्तित हो जाते है।

पैरा मशरूम उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक :-

  • धान पैरा के 5 फीट लम्बे एवं 1/2 फीट चौड बंडल तैयार करें। इन बंडलों को 14 से 16 घंटों तक 2 प्रतिशत कैल्शियम कार्बोनेट युक्त साफ पानी में भिगाते है। इसके पश्चात् पानी निथार कर इन बण्डलों के ऊपर गर्म पानी डालकर पैरा को निर्जीवीकृत किया जाता है।
  • उपचारित बंडलों से पानी को निथार दिया जाता है तथा एक घण्टे बाद 5 प्रतिशत् की दर से बीज मिलाया जाता है।
  • बीजयुक्त बंडलों को अच्छी तरह से पालीथीन सीट से 6 से 8 दिनों तक ढंका जाता है। इस समय कमरे का तापमान 32-34 डिग्री बनाये रखा जाता है।
  • कवक जाल फैल जाने के बाद पालीथीन शीट को हटाया जाता है तथा बंडलों में हल्का पानी का छिड़काव किया जाता है। इस दौरान कमरे का तापक्रम 28 डिग्री से 32 डिग्री तथा 80 प्रतिशत् नमी बनाये रखते है।
  • पैरा मशरूम की कलिकायें 2 से 3 दिन में बनना प्रारम्भ हो जाती है।
  • 4 से 5 दिन के भीतर मशरूम तुडाई हेतु तैयार हो जाती है।

दूधिया मशरूम :-

यह मशरूम अन्य मशरूम की तुलना में अधिक तापक्रम 25-35 से.ग्रे. पर उगाया जा सकता है। इस मशरूम को रिले फसल के रूप में अर्थात जब अन्य मशरूम के लिए उपयुक्त वातावरण मौजूद न हो, उस परिस्थिति में लिया जा सकता है। इस मशरूम की उत्पादन तकनीक सस्ती व सरल है एवं इसमें कम्पोस्ट की आवश्यकता नहीं होती है। इस मशरूम का आकार बहुत ही आकर्षक होता है एवं सफेद दूध के समान रंग होने से “दुध छत्ता”के नाम से भी जाना जाता है। इसमें खनिज तत्व भी अधिक मात्रा में मौजूद होते है।

दूधिया मशरूम उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक:-

  • फार्मेलिन 135 मि.ली. एवं 5 ग्राम बाविष्टीन दवा को 100 लीटर पानी में अच्छे से मिलाये।
  • दवा मिश्रित पानी में 12 से 14 किलो गेंहूँ भूसा या पैरा कुट्टी भिगाये एवं पालीथीन साट से ढंक दें।
  • 8 से 10 घंण्टे बाद भीगे हुऐ उपचारित भूसे को टोकर या लोहे की जाली में ढंक कर अतिरिक्त पानी को निथार दिया जाता है ।
  • निथारे गए भूसे को साफ जगह पर पालीथीन सीट के ऊपर छायादार जगह में 2 घंटे के लिये फैला दिया जाता है जिससे अतिरिक्त नमी हवा से सूख जायें।
  • भीगे भूसे का वजन लगभग 40 किलों हो जाता है इसे 10 भाग में विभाजित किर लिया जाता है।
  • 5 किलों क्षमता की थैली में भूसे को 4 प्रतिशत् की दर से परत विधि द्वारा बिजाई करते हुऐ भरें एवं नाईलोन रस्सी से थैली का मुंह बांध दे एवं थैली के निचले हिस्से में सूजे से 4-5 छिद्र बना दें।
  • थैली रखने के 24 घंटे पहले कमरों को 2 प्रतिशत् फार्मेलीन से छिड़काव करें। बीजयुक्त थैली को 28 से 32 डिग्री तापमान से छिड़काव करें। बीजयुक्त थैली को 28 से 32 डिग्री तापमान में रख दे। लगभग 22 से 25 दिन में फफूंद थैली में फैल जाता है। इसे स्पानिंग कहते है।
  • कवकजाल फैले हुऐ वैगों में केसिंग मिट्टी (5-6 दिन पहले, खेत की मिट्टी एवं रेत का 1:1) को 2 प्रतिशत् फार्मेलिन से उपचारित करने के बाद 4-5 से.मी. की परत चढायें। इस दौरान कमरे का तापमान 28 से 30 डिग्री बनाये रखें।
  • मशरूम कलिकाऐं (पिन हेड) 5 से 6 दिन में बनने लगता है। इस अवस्था में कमरे का तापमान 30-32 डिग्री बनायें रखे तथा बैंगों में पानी का हल्का छिड़काव करें।
  • पिन हेड आने के 4 से 6 दिन बाद दूधिया मशरूम पूर्णतया विकसित हो जाता है। पूर्ण विकसित मशरूम की तुड़ाई करें।
  • पहली तुड़ाई के 8 से 10 दिन बाद पुन: दूधिया मशरूम की फसल तैयार हो जाती है। इसी प्रकार तीसरी फसल प्राप्त करें।

Authors:

श्वेता मण्डल, लेखराम वर्मा एवं डॉ. जी.पी.आयाम

कृषि विज्ञान केन्द्र, जगदलपुर , बस्तर (छ.ग.)

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