Techniques for producing nutritional and beneficial fruits of lemon
नीबू में ए, बी और सी विटामिनों की भरपूर मात्रा होती है। इसमें -पोटेशियम, लोहा, सोडियम, मैगनेशियम, तांबा, फास्फोरस और क्लोरीन तत्त्व तो हैं ही, प्रोटीन, वसा और कार्बोज भी पर्याप्त मात्रा में हैं।विटामिन सी से भरपूर नीबू शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ एंटी आक्सीडेंट का काम भी करता है और कोलेस्ट्राल भी कम करता है।
नीबू में मौजूद विटामिन सी और पोटेशियम घुलनशील होते हैं, जिसके कारण ज्यादा मात्रा में इसका सेवन भी नुकसानदायक नहीं होता। रक्ताल्पता से पीडि़त मरीजों को भी नीबू के रस के सेवन से फायदा होता है। यही नहीं, नीबू का सेवन करने वाले लोग जुकाम से भी दूर रहते हैं।
गर्मी के मौसम में हैजे से बचने के लिए नीबू को प्याज व पुदीने के साथ मिलाकर सेवन करना चाहिए। लू से बचाव के लिए नीबू को काले नमक वाले पानी में मिलाकर पीने से दोपहर में बाहर रहने पर भी लू नहीं लगती। इसके अलावा इसमें सेलेनियम और जिंक भी होता है। गले में मछली का कांटा फंस जाए तो नीबू के रस को पीने से निकल जाता है।
नींबू की खेती केे लिए जलवायु
कागजी निम्बू की खेती के लिए उष्ण कटिबंधीय और नमीयुक्त गर्मी का मौसम उपयुक्त है। पाला और जोड़ की हवा से मुक्त वाले क्षेत्रों को अच्छा माना जाता है । इसके साथ-साथ इन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 750 mm से ज्यादा नहीं होनी चाहिए । निम्बू की अच्छी वृद्धि और इसके अच्छे उत्पादन के लिए 20-32 डिग्री से. तक के तापमान की आवश्यकता होती है ।
नींबू की खेती केे लिए मिट्टी
नीबू की खेती को लगभग सभी तरह की भूमि पर सफलतापूर्वक किया जा सकता है । नींबू जाति के फलों के लिए हल्की एवं मध्यम उपज वाली दोमट और बलुई दोमट मिट्टी जहाँ जल-प्रणाली का उत्तम प्रबंध किया गया हो उपयुक्त रहती है।
निम्बू के पौधों के लिए भूमि की गहराई लगभग 2.5 मी. या इससे ज्यादा होनी चाहिए। नींबू वर्गीय फलों के लिए 6.5-7.0 पी.एच. वाली मिट्टी सबसे अच्छी रहती है। लवणीय या क्षारीय मिट्टियाँ तथा एसे क्षेत्र जहाँ पानी ठहर जाता हो, नींबू जाति के फलों के लिए उपयुक्त नहीं माने जाते है।
नींबू का प्रवर्धन एवं प्रसार
नींबू के पेडों को मुख्यत: कलिकायन एवं कुछ हद तक ग्राफ्टिंग विधि द्वारा प्रसारित किया जाता है। इनके प्रवर्धन के लिए 'टी' कलिकायन का तरीक़ा सबसे अच्छा है। इसके लिए सितम्बर-अक्तूबर के महीने अति उत्तम पाए गए हैं।
कागजी नींबू को मुख्य रूप से बीज अथवा गूटी द्वारा प्रसारित किया जाता है। जबकि लेमन के पौधे गूटी, दाबा या कलम द्वारा तैयार किये जाते है।
मूलवृन्त
नींबू में डिक्लाइन की समस्या गंभीर होती है अत: इनमें उपयुक्त मूलवृंत का प्रयोग भी किया जाता है जिन पर बडिंग या ग्राफ्टिंग द्वारा अच्छी गुणवत्ता के पौधे तैयार किये जा सकते हैं।
मूलवृन्त उगने के लिए फल से निकले हुए ताजे बीज अगस्त-सितम्बर के महीने में बोने चाहिए। यदि बुआई में देरी हो जाये तो ठण्ड के कारण अंकुरण अच्छा नहीं होता है। हालाँकि स्थान विशेष के लिए तरह-तरह के मुल्वृन्तों का मानकीकरण हुआ है। परन्तु उत्तर भारत में 'जंभीरी' और 'कर्णा खट्टा' उत्तम पाए गए हैं।
नींबू के बाग़ की स्थापना
बाग़ लगाने के लिए उचित दूरी पर 3 x 3 x 3 फीट आकर के गड्ढे खोद लिए जाते हैं। इनमें बरसात के ठीक पहले गोबर की सड़ी हुई खाद, या कंपोस्ट खाद, 20 - 25 कि०ग्रा० प्रति गड्ढे के हिसाब से डालनी चाहिए। दीमक के प्रकोप से बचने हेतु प्रत्येक गड्ढे में 200 ग्राम क्लोरवीर की धूल डालें।
जो पौधे कलिकायन द्वारा तैयार किये जाते हैं वे लगभग एक साल में रोपाई योग्य हो जाते हैं। साधारणतः नींबू के पौधों को 4 - 5 मी. दूरी पर लगाये जाते हैं। पौधे लगाने के लिए बरसात का मौसम अति उत्तम है। परन्तु मार्च एवं अप्रेल में भी पौधे सफलतापूर्वक लगाये जा सकते हैं।
पौधे लगाते समय गड्ढे के मध्य से थोड़ी मिट्टी हटाकर उसमें पौधा लगा देना चाहिए और उस स्थान से निकली हुई मिट्टी जड़ के चारों ओर लगाकर दबा देनी चाहिए। जुलाई की वर्षा के बाद जब मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए तभी पौधा लगाना चाहिए। पौधे लगाते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जमीन में इनकी गहराई उतनी ही रहे जितनी रोप में थी। पौधे लगाने के बाद तुंरत ही पानी दे देना चाहिए।
नींबू की उन्नत किस्मे –
नींबू या लेमन की निम्न प्रजातियॉं प्रमुखता से उगाई जाती है।
नेपाली ओवलांग, पंत लेमन-1, आसाम लेमन (गंधराज), सीडलेस, बारामासी
नींबू की सिंचाई
रोपाई के तुंरत बाद बाग़ की सिंचाई करें। सिंचाई करने की सबसे उपयुक्त विधि 'रिंग' रीति है जिसमें पौधों की सिंचाई उनके आस-पास घेरा बनाकर की जाती है। गर्मियों के मौसम में हर 10 या 15 दिन के अंतर पर और सर्दियों के मौसम में प्रति 4 सप्ताह बाद सिंचाई करनी चाहिए।
हर सिंचाई में पानी इतनी ही मात्रा में देना चाहिए जिससे भूमि में पानी की आर्द्रता 4-6 प्रति शत तक विद्यमान रहे। बरसात के मौसम में अतिरिक्त पानी निकालने की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए।
सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि सिंचाई का पानी पेड़ के मुख्य तने के संपर्क में न आए। ड्रिप सिचाई विधि सबसे अच्छी रहती है। इसके द्वारा पानी की बचत एवं उर्वरको का उपयोग होता है।
नींबू की निराई – गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
नींबू जाति के फलों वाले बागों को कभी भी गहरा नहीं जोतना चाहिए। क्योंकि इन पेड़ों की जड़ें ज़मीन की उपरी सतह में रहती हैं और गहरी जुताई करने से उनके नष्ट होने का खतरा रहता है। बागों में खरपतवारों की रोकथाम की जाए तो ज्यादा अच्छा है।
खरपतवार नियंत्रण विभिन्न तरीकों से किया जाता है, जैसे: मल्चिंग, व्यक्तिगत रूप से और खरपतवारनाशियों के द्वारा। आजकल प्लास्टिक मल्चिंग सामान्य रूप से की जाती है।
विभिन्न खरपतवारनाशियों जैसे:- सिमाज़ीन (4 किलो / हैक्टेयर ), ग्लाइफोसेट ' 4 ली / है , पेराकुआट (2 ली./ है) आदि का उपयोग खरपतवार नियंत्रण में करते है या 2.5 लीटर ग्रेमेक्सोन को 500 लीटर पानी में घोल कर छिड़कने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार तथा वार्षिक घासें नष्ट की जा सकती हैं।
नींबू के पौधों की काट-छांट
वानस्पतिक अवस्था में पौधों में उचित ढांचा निर्माण अत्यंत जरूरी होता है, अत: उनकी उचित काट-छांट भी करनी चाहिए। पौधों का अच्छा विकास हो इसके लिए उनकी छंटाई क्यारियों की अवस्था से ही शुरू हो जाती है। पौधे की लगभग सभी उपरी और बाहर निकलने वाली शाखाओं को काट दिया जाना चाहिए और इस प्रकार लगभग 45 से०मी० लम्बाई का साफ़ और सीधा तना ही रहने दिया जाना चाहिए।
समय-समय पर सभी रोग-ग्रस्त, टूटी हुई अनेकों शाखाओं वाली और सुखी लकडी वाली टहनियों को निकलते रहना चाहिए। जिस जगह पर कली जोड़ी है उसके ठीक नीचे से निकलने वाली प्ररोहों को उनकी आरंभिक अवस्था में ही हटा देना चाहिए।
जिन स्थानों पर शाखाएँ काटी गयी हों, वहां पर बोर्डो नामक रसायन की लेई बना कर लगा दें। यह लेई एक कि०ग्रा० कॉपर सल्फ़ेट, 1.5 कि०ग्रा० बुझा चुना, और 1.5 लीटर पानी को मिलकर तैयार की जा सकती है.
नींबू मे खाद एवं उर्वरक
पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व भी देना जरूरी होता है। नींबू की खेती में सड़ी हुई गोबर की खाद को हर साल दिया जाता है । पहले साल में 5 कि.ग्रा. दुसरे साल में 10 कि.ग्रा. तीसरे साल में 20 कि.ग्रा. और इसी तरह हर साल पिछले साल का दोगुना खाद देना होता है । इसके साथ ही साथ फल देने वाले पौधों को जिंक सल्फेट (200 ग्रा./पौधा) तथा बोरान (100 ग्रा./पौधा) भी दिया जाना चाहिए।
उर्वरकों की उपरोक्त मात्र का उपयोग साल में तीन बार फरवरी, जून और सितंबर में, क्रमशः तीन बराबर मात्रा में दिया जाता है। तीनों बार उर्वरक देने के बाद सिंचाई करें।
गोबर की खाद नवम्बर-दिसम्बर के महीनों में डालनी चाहिए। उर्वरक की अच्छी मात्रा नये कल्ले निकलने के समय तथा हल्की मात्रा फल लगने के बाद देने से अच्छी उपज मिलती है।
नींबू के पौधों में पुष्पन
नींबू वर्गीय फलों में मुख्यत: फरवरी-मार्च में फूल आते हैं, परन्तु नींबू में सितम्बर-अक्टूबर में भी फूल आते हैं नींबू वर्गीय फलों की सबसे विराट समस्या है फलों का झड़ना। फूल और फलों का गिरना मुख्या रूप से अंडाशय के निष्क्रिय होने, निषेचन क्रिया न होने तथा पोषक तत्वों की कमी एवं नमी की कमी अथवा उतार-चढ़ाव के कारण होता है।
परिणाम स्वरूप मात्र 8-10 प्रतिशत फूल ही फल के रूप में विकसित हो पाते हैं। अत: अच्छी फसल के लिए पौधों पर फल लगने के बाद प्लैनोफिक्स (2 मि.ली./5 ली.) एवं जिंक सल्फेट (5 ग्रा./ली.) का 2-3 छिड़काव करना चाहिए साथ ही साथ पौधों को पर्याप्त पोषण, नमी तथा कीड़ों एवं बीमारियों का रोकथाम भी करना चाहिए।
फलों की तुड़ाई एवं उपज
खट्टे नींबू के पौधों में एक साल में कई बार फल लगते है । नींबू एवं लेमन 150-160 दिन में परिपक़्व हो जाते है। नींबू एवं लेमन की तुड़ाई हरी परिपक़्व अवस्था पर की जाती है, ताकि उनकी अम्लता उच्चतम स्तर पर बनी रहे। नींबू एवं लेमन के पौधे से 2000-3000 फल / वर्ष प्राप्त किया जा सकता है।
संतरा, मौसमी, ग्रेपफ्रूट के फल 7-8 महीनों में तैयार होते हैं। अत: फलों की तोड़ाई उनकी उपयोगिता, गुणवत्ता, बाजार मांग आदि के आधार पर सुनिश्चित करना चाहिए। सामान्यत: संतरा एवं नारंगी फल परिपक़्व होने में 240-280 दिन लेते है।
परिपक़्व फलों की 2 से 3 तुड़ाई 10 से 15 दिन के अंतराल पर (फलों के रंग परिवर्तन अवस्था पर) की जाती है। संतरा एवं नारंगी के पौधे से 700-800 फल फल/वर्ष प्रति पौधे से प्राप्त किया जा सकता है। किन्नों के पूर्ण विकसित पौधे से 2000-2500 फल / वर्ष प्राप्त किया जा सकता है।
नीबू के प्रमुख कीट एवं प्रबंधन
नीबू का सिला
यह कीट बसंत एवं वर्षा ऋतु में पौधे पर आक्रमण करता हैं। यह कीट नयी पत्तियों और कलियों से रस चूस जाते है । इस कीट के प्रकोप सेपत्तियां गिरने लगती है । इस कीट से एक तरह का चिटचिटा पदार्थ निकलता है जिस पर काली मोल्ड जम जाती है । इसके नियंत्रण के लिए 0.05% मेलाथियान, 0.25% पैराथियान घोल का छिड़काव करना चाहिए।
निम्बू कि तितली
यह कीट नर्सरी के पौधों को काफी नुकसान पहुंचाती है । इसके इल्ली पत्तियों को खा जाते है । निम्बू कि तितली से नियंत्रण के लिए अपने खेतो में नीम के काढ़ा का छिडकाव करना चाहिए । कीड़ों को चुन कर मारने तथा पौधों पर मोनोक्रोटोफास/मेथाईल पैराथियान (0.2%) के छिड़काव से इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
माहू कीट
माहू कीट फूलो व पत्तियों के सारे रस चूस जाते है जिससे फूल व पत्ते दोनों हीं कमजोर होकर गिरने लगते है । इस कीट के नियंत्रण हेतु खेतो में नीम का काढ़ा का छिड़काव करना चाहिए ।
पत्ती माइनर
ये छोटे शलभ या डिम्ब होते है,जो पत्तियों एवं प्ररोहों पर अण्डे देते है। ये पत्तियों में पदातिक अवस्था में छेद करता है ,जिससे वे मुरझाने लगती है। वर्षा ऋतु में इसका प्रकोप बढ़ जाता है।
निकोटिन सल्फेट या नीम की खली का घोल (1किलो प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर) या क्विनैल्फोस (1.25 मिलीलीटर) या मोनोक्रोटोफॉस (1.0 मिलीलीटर / 1 लीटर पानी के साथ ) के छिड़काव द्वारा रोकथाम कर सकते हैं।
साइट्रस थ्रिप्स – इसका रोकथाम फल की बेरी अवस्था पर 1.5 मिली लीटर डाइमेथोएट या मोनोक्रोटोफॉस 1 मिली लीटर/ लीटर पानी के साथ छिड़काव करे।
नीबू के प्रमुख रोग एवं प्रबंधन
कैंकर रोग –
यह रोग विशेष रूप से निम्बू पर हीं लगते है । इस रोग से शाखाएं और फल दोनों हीं ग्रसित हो जाते है । इस रोग के नियंत्रण हेतु रोग से ग्रसित शाखाओ को पौधों से छाट कर अलग कर देना चाहिए । उसके बाद कटे हुए सभी शाखाओ पर ग्रीस लगा दिया जाता है ।
गोदार्ती रोग –
यदि इस रोग का आक्रमण तने पर हो तो इस रोग को गोदार्ती तना बिगलन कहा जाता है । इस रोग के प्रकोप से छाल में से गोंद की तरह एक पदार्थ निकालता है जिससे छाल भूरे रंग की हो जाती है और उसमे दरारे होने लगती है ।
इसके रोग से बचने हेतु खेत में से जल निकलने का अच्छा प्रबंध करना होगा और साथ हीं इस बात का भी ध्यान रखना होगा की सिंचाई का पानी तने के संपर्क में नहीं आने चाहिए । इस रोग से ग्रसित भाग को किसी तेज़ धार वाले चाकू से छिल कर फिर उसके ऊपर से ग्रीस लगा दें ।
विष्णु रोग –
इस रोग के वजह से पत्तियों पर हरे रंग की महीनता नज़र आने लगती है । इसके अलावा पत्तियां और टहनियां सुख जाती है ।
नीम्बू का कैंकर –
यह एक बैक्टीरियल रोग हैं जो जेन्थोमोनास साइट्री द्वारा पैदा होती हैं । इस बीमारी में सबसे पहले पिला सा दाग पड़ता हैं तथा बाद में भूरे रंग में बदल जाता हैं। नीम्बू के फलों पर खुरदरे भूरे रंग के दाग पड़ जाते हैं। फल भद्दे नजर आने के कारन बाजार में कीमत कम मिलती हैं।
कागज़ी नीम्बू में यह रोग ज्यादा लगता हैं। । कैंकर के नियंत्रण हेतु स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट (500-1000 जीबीएम) का 2-3 छिड़काव 15 दिनों पर करें।
फायटोफ्थोरा गमोसिस –
यह रोग बहुत से कवकों द्वारा पैदा होती हैं लेकिन फायटोफ्थोरा द्वारा अधिक फैलती देखी गयी हैं। इस बीमारी में तने से गोंद जैसी वस्तु बाहर निकलने लगाती हैं। तत्पश्चात तने में बड़ी बड़ी दरारें पड़ने से छाल नीचे गिरने लगती हैं तथा पेड़ की उपज घट जाती हैं।
प्रभावित भाग को ऊपर से छीलकर 450 ग्राम जिंक सल्फेट, 450 ग्राम कॉपर सल्फेट, 900 ग्राम चूने को 9 लीटर पानी में घोलकर लगाना चाहिए।
एन्थ्रक्नोज –
यह कोलेटोट्राइकम स्पी. के कवक द्वारा पैदा होता हैं। इसमें पत्तिया एवं शाखाएँ धूसर हो जाती हैं कुछ महीने बाद पूरा पौधा सूख जाता हैं। फलों के डंठल पर आक्रमण होने से फल गिरने लगते हैं ।
पेड़ की सूखी टहनियों को काटकर जला देना चाहिए तथा पौधों पर वर्ष में 2-3 बार बोर्डो मिश्रण या कार्बेन्डाजिम (1ग्राम /लीटर ) का छिड़काव करना चाहिए।
Authors
पुनेश्वर सिंह पैकरा, गणेशी लाल शर्मा और संगीता चंद्राकर
फल विज्ञान विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर ( छ.ग.)
Email: