Importance of varieties selection and nursery management for improvement in paddy production

धान एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है विश्व की अधिकांश जनसंख्या (लगभग 60 प्रतिशत) द्वारा दैनिक भोजन में चावल का उपयोग भात, पोहा, मुरमुरा, लाई, आटे की रोटी के इत्यादि के रूप में किया जाता है। धान उत्पादन में चीन के बाद भारत का दूसरा स्थान है।

जैसा की हम जानते है कि हर खुशबूदार धान, बासमती धान नहीं होता लेकिन हर बासमती धान खुशबूदार होता है इसलिए धान (चावल) को दाने का आकार और गुणवत्ता के आधार पर मुख्यतः तीन श्रेणियों बासमती धान, सुगन्धित धान और असुगन्धित धान में बांटा जा सकता है।

भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पादित बासमती धान अपने अद्भुत गुणों जैसे दानों का आकार, सुगंध, अच्छा स्वाद, सुपाचय और अधिक समय तक इन्हीं गुणों का बने रहना जो कि व्यावसायिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

धान की अच्छी फसल के लिए जलवायु एंव मृदा

धान एक उष्ण तथा उपोष्ण जलवायु की फसल है। धान की अच्छी फसल के लिए उच्च तापमान (औसतन 20 से 37 डिग्री), लम्बे समय तक सूर्य की रोशनी, नमी एवम पर्याप्त पानी की उपलब्ध होना चाहिए।

अच्छी जल धारण क्षमता वाली मृदा, जिसका पीएच मान 5.0 से 9 के बीच होता है, में धान की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। मटियार चिकनी मृदा जिसका पीएच मान 5.0 से 8.5 हो सर्वोत्तम मानी जाती है।

किस्मों का चयन

अच्छे फसलोत्पादन में उन्नत किस्मों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। क्षेत्र की जलवायु, खेतों की मृदा एंव सिंचाई पानी की उपलब्धता के आधार पर रोग प्रतिरोधी धान की किस्मों का चयन करना चाहिए। रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है ।

रोगरोधी किस्मों में रोग नहीं लगते है जिससे उनके नियंत्रण के लिए रसायनिक दवाओं की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए रोग प्रतिरोधी किस्मों को उगाने से रसायनिक दवाओं के दुष्प्रभाव के साथ साथ इन पर होने वाले अतिरिक्त खर्च से भी बचा जा सकता है।

आजकल यूरोपीय संघ को निर्यात होने वाले बासमती चावल में फंफुदनाशी दवाओं विशेष रूप से ट्राईसाईक्लाजोल के अवशेष की अधिकतम मात्रा 0.01 पी.पी.एम. निर्धारित की गयी है अत: हमारी बासमती किस्मों का फंफुदजनित रोगों के प्रति रोग रोधी होना नितान्त आवश्यक हो गया है। ताकि फंफुदनाशी दवाओं के छिड़काव की आवश्यकता ही न पड़े।

इसलिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित धान की प्रमुख उन्नत किस्मों का विवरण आगे दिया गया है।

किस्म अनुमोदन वर्ष  पैदावार (क्वि./ए.) उपयुक्तता
पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, दिल्ली , पश्चिमी उत्तरप्रदेश, जम्मू एंव कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के मैदानी क्षेत्र।
पूसा बासमती 1  1989  22-26  सिंचित अवस्था में रोपाई के लिये उपयुक्त । 
उन्नत पूसा बासमती 1  2007  22-26  जीवाणु झुलसा रोग प्रतिरोधी, सिंचित अवस्था में रोपाई के लिये उपयुक्त। हरियाणा के फतेहाबाद एंव सिरसा जिलों में प्रचलित। 
पूसा बासमती 1121 2003  18-20 सर्वाधिक क्षेत्र में उगाई जाने वाली बासमती किस्म। पकाने के उपरांत अत्यधिक लम्बा दाना (लगभग 20-22 मि.मि. तक), सिंचित निचली भूमि में रोपाई के लिये उपयुक्त। 
पूसा बासमती 6 (पूसा 1401) 2008  25-30  सिंचित अवस्था में रोपाई के लिये उपयुक्त। हरियाणा के फतेहाबाद एंव सिरसा तथा पंजाब के भठिन्डा, बरनाला, मानसा एंव मुक्तसर जिलों में प्रचलित। 
पूसा बासमती 1509 2013  20-25  सिंचित अवस्था में रोपाई और सीधी बुवाई के लिए भी उपयुक्त। पकने की अवधि 115 से 120 दिन । 
पूसा बासमती 1609  2015  22-26  यह गर्दन तोड़ और पत्ती झोंका (ब्लास्ट) रोग के लिए प्रतिरोधी पहली बासमती प्रजाति है। पकने की अवधि 120 दिन है। धान – आलू फसल चक्र के लिए उपयुक्त। 
पूसा बासमती 1637  2016 22-26  यह पूसा बासमती-1 का सुधरा प्रारुप है जो झोंका रोग के लिए प्रतिरोधी है। पकने की अवधि 140 दिन और सिंचित अवस्था में रोपाई के लिये उपयुक्त है । 
पूसा बासमती 1728  2016  25-30  पूसा बासमती-6 (पूसा 1401) का सुधरा प्रारुप है जो जीवाणु झुलसा रोग प्रतिरोधी रोग के लिए प्रतिरोधी है। इसकी पकने की अवधि 150 दिन, सिंचित अवस्था में रोपाई के लिये उपयुक्त है। 
पूसा बासमती 1718 2017 20-22 पूसा बासमती-1121 का सुधरा हुआ प्रारुप है जो जीवाणु जनित झुलसा रोग के लिए प्रतिरोधी है। पकने की अवधि 140 दिन है।
पूसा सुगन्ध 5 2004 25-28 सिंचित क्षेत्रों में रोपाई के लिये उपयुक्त ।
पूसा 1612 2013 25-28 यह पूसा सुगन्ध-5 का सुधरा प्रारुप है जो झोंका रोग के लिए प्रतिरोधी है। यह जल्दी पकने (120-125 दिनों) वाली किस्म है। धान – आलू फसल चक्र के लिए उपयुक्त ।
पूसा 1592 2014 25-28 यह पूसा सुगन्ध-5 का सुधरा प्रारुप है जो जीवाणु झुलसा रोग प्रतिरोधी रोग के लिए प्रतिरोधी है। यह जल्दी पकने (120-125 दिनों) वाली प्रजाति है। धान–आलू फसल चक्र के लिए उपयुक्त।
पूसा आर. एच. 10 2001 28 यह संकर किस्म है जो सिंचित अवस्था में रोपाई के लिये उपयुक्त
पूसा 44 1993 28-30 पंजाब एंव हरियाणा में सर्वाधिक लोकप्रिय तथा केरल एंव कर्नाटका के लिए भी अनुमोदित । मृदा पी एच मान 5 से 8 वाली सिंचित निचली भूमि के लिये उपयुक्त ।

बीज की मात्रा एंव उपचार

चयिनत किस्मों का प्रमाणित बीज हमेशा किसी विश्वसनीय संस्थान से ही खरीदना चाहिए। सीधी बुआई के लिए 40 किलो प्रति एकड़ (100 किलो प्रति हेक्टर) बीज की मात्रा पर्याप्त होती है। पौधारोपण विधि के लिए बासमती किस्मों का 4 से 5 किलो बीज प्रति एकड़ (10 से 12.5 किलो प्रति हेक्टर) तथा असुगन्धित धान एवं संकर किस्मों के लिए 6 से 8 किलो बीज प्रति एकड़ (15 से 20 किलो प्रति हेक्टर) आवश्यक होता है।

बीज उपचार के लिए 10 प्रतिशत नमक के घोल में बीज डालकर हिलाएं, भारी एंव स्वस्थ बीज नीचे बैठ जाएंगे एवं हल्के बीच ऊपर तैरने लगेंगे, ऊपर तैर रहे बीजों को अलग कर देते हैं तथा नीचे बैठे बीजों को पानी में 2-3 बार धोकर बीज का उपचार करें।

बीजों को फंफूद एवं जीवाणु जनित रोगों से बचाने के लिए 15 ग्राम कैप्टन या 5 ग्राम एमिसान या 10 ग्राम बाविस्टिन (कार्बेन्डाजिम) और 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाईक्लीन का 10 लीटर पानी लेकर प्लास्टिक के टब में घोल बनाते है। इसमें 4 किलोग्राम बीज को 24 घंटे तक डुबोने के बाद जूट की भीगी हुई बोरियों से ढक दें एवं 24 घंटे बाद बुवाई करें। बीज को स्यूडोमोनास फ्लोरेसन्स एंव ट्राईकोडर्मा 10 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से भी उपचारित किया जा सकता है।

धान की नर्सरी बुवाई का समय एंव खेत की तैयारी

धान की बुवाई का उपयुक्त समय मई के तीसरे सप्ताह से लेकर जून के दूसरे सप्ताह तक होता है। बासमती धान की बुवाई 15 जून तक करनी चाहिये ताकि पकने के समय तापमान कम हो जो कि उच्च गुणवता वाले बासमती धान के उत्पादन के लिए आवश्यक होता हैं। जिस खेत में धान की नर्सरी की बुवाई करनी हो उसमें मार्च–अप्रैल में जब खेत खाली हो तो खेत में गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद 4-5 टन प्रति एकड़ की दर से अच्छी तरह मिला दे।

यदि खाद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो तो खेत में हरी खाद जैसे ढैंचा या सनई का उपयोग करें। नर्सरी की बुवाई के लिए सूत्रकृमि एंव भूमि जनित रोगों से मुक्त, समतल एवं अच्छे जल निकास वाले ऐसे खेत का चुनाव करते हैं जिसमें पिछले साल पौध नहीं लगाई गई हो एवं आस पास कोई छायादार पेड़ नहीं हो।

स्वस्थ एवं अच्छी पौध उत्पादन के लिए मृदा की जांच करवाना जरूरी होता है। मृदा की जांच से मृदा की उर्वरकता के बारे में जानकारी मिलती है जिससे संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन कर लम्बे समय तक मृदा उर्वरकता को टिकाऊ रखकर अधिक उत्पादन लिया जा सकता है। साथ ही उर्वरकों पर होने वाली अनावश्यक लागत को कम करके अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन करने पर फसल में कीट एंव बीमरियों का प्रकोप भी कम होता है जिससे स्वस्थ, गुणवतापूर्ण एवं अधिक फसल उत्पादन में मदद मिलती है।

धान की नर्सरी उगाने के लिए साधारण उपजाऊ जमीन में 1000 वर्गमीटर (25 सेंट या 40 मरला) क्षेत्रफल में लगभग 10-12 किलो नाइट्रोजन (22-25 किलो यूरिया), 5-6 किलो फास्फोरस (लगभग 32 किलो सिंगल सुपरफास्फेट या 12 किलो डीएपी), 5 किलो पोटाश (लगभग 9 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) तथा 2.5-3 किलो जिंक सल्फेट 21 प्रतिशत या 1.5-2 किलोग्राम जिंक मोनोहाइड्रेट 33 प्रतिशत का उपयोग करते है।

नर्सरी उगाने आखरी जुताई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस, पोटाश एंव जिंक की पूरी मात्रा मिट्टी में मिला देते हैं। लेकिन ध्यान रखें फोस्फोरस वाली खाद एवं जिंक को आपस में मिलाकर नहीं डालें इनको मिलाकर डालने से इनकी उपलब्धता पौधों को कम हो जाती है। नर्सरी में जड़गांठ सूत्रकृमि से बचाव के लिए (2-2.5 ग्राम/ वर्ग मीटर) 8 किलो प्रति एकड़ की दर से कार्बोफ्यूरान (फ्यूराडॉन 3जी) मृदा में मिला देते हैं।

धान की नर्सरी की बुवाई एंव देखभाल

नर्सरी की बुवाई के लिए तैयार किये हुए खेत को कद्दू (पडलिंग) करके छिड़कवां विधि से की नर्सरी बुवाई की जाती है। नर्सरी की मिट्टी को हमेशा नम बनाये रखने के लिए समय समय पर हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए। ध्यान रहे की सिंचाई हमेशा ठंडे मौसम (सुबह या शाम) में ही करें।

दिन में गर्म तापमान के समय नर्सरी में पानी खड़ा नहीँ रहना चाहिये नहीँ तो पानी गर्म होने से नर्सरी के जलने की सम्भावना रहती है। जहां तक संभव हो नर्सरी में सिंचाई शाम के समय ही करें।

धान की नर्सरी में खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण के लिए पौध की बुआई के 2 से 3 दिन अंदर 1 लीटर प्रति एकड़ या 50 मिलीलीटर प्रति 8 मरला की दर से (प्रेटीलाक्लोर 30.7 प्रतिशत) सोफिट या इरेजइन खरपतवारनाशी डालें या 16 -18 दिन की नर्सरी होने पर 800 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से कलिंचर (साइकिलोफोप ब्यूटाइल 10 प्रतिशत) दवाई का (6 मिलीलीटर/लीटर पानी) छिड़काव करें अथवा हाथ से निराई करें।

नर्सरी में पोषक तत्व प्रबंधन

आधारीय अनुप्रयोग किये गये उर्वरकों के बाद में पौध बुवाई के 10-15 दिन बाद 40 किलो यूरिया प्रति एकड़ की दर से डालें। कभी कभी अधिक फोस्फोरस युक्त या अधिक पीएच मान वाली मृदा में जिंक एंव लौह तत्व की उपलब्धता पौधों के लिए कम हो जाती है।

पौध में बुवाई के दुसरे सप्ताह में नर्सरी की पत्तियों में (हरिमाहीनता) पीले एंव सफेद रंग के लक्षण दिखाई देने लगते है जोकि लौह तत्व की कमी के कारण होता है। इसके उपचार के लिए 0.1 प्रतिशत आयरन-चिलेट या फैरस सल्फेट (1% फैरस सल्फेट + 0.5% चुना) का सप्ताह में दो बार पर्णीय छिडकाव करें।

इसके अलावा कभी कभी नर्सरी की पत्तियों में लौह की जंग के जैसे लक्षण दिखाई देने लगते है जोकि जिंक पोषक तत्व की कमी के कारण होता है जिंक पोषक तत्व की कमी होने पर 100 ग्राम जिंक-चिलेट का 150-200 लीटर पानी में प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें अथवा जिंक सल्फेट मोनोहाईड्रेट (0.5% जिंकसल्फेट मोनोहाईड्रेट + 0.25% चुना) का सप्ताह में दो बार पर्णीय छिडकाव करते है।
इसके अलावा अगर नर्सरी में किसी कीट या बीमारी का प्रकोप दिखाई दे तो धान की फसल पर कीट एंव बीमारी के नियंत्रण के लिए सिफ़ारिश की गयी दवाओं का प्रयोग करें।

पौध उखाड़ना एवं पौध की रोपाई करना

सामान्यतया 4 पत्ती अवस्था (20-25 दिन) की पौध खेत में लगाईं जाती है। पौध उखाड़ने से 1 से 2 घन्टे पहले नर्सरी में पानी लगा दें ताकि खेत की मिट्टी मुलायम हो जाये एंव पौधे उखाड़ते समय जड़ों को नुकसान नहीं हो साथ ही फालतू मिट्टी पौध की जड़ों के साथ नहीं निकले।

पौध उखाड़ने के बाद पौधों की जड़ों को अच्छी तरह साफ कर लें। उखाड़ी हुई पौध को अधिक देर तक धूप में न रखें उससे पानी में ही रहने दें। अगर उखाड़ते समय पौध में जस्ते की कमी के लक्षण दिखाई दे तो जड़ों को 0.5 प्रतिशत जिंक के घोल में 5 से 6 घंटे डुबोकर रोपाई करें इसके लिए खेत में एक छोटी सी क्यारी बनाकर उसमें पॉलिथीन सीट बिछाकर उसमें घोल बनाए और जड़ों को डुबोया रखें उसके बाद खेत में रोपाई कर दें।

पौध की रोपाई हमेशा 2 से 3 सेमी गहराई तक ही करनी चाहिये ज्यादा गहरी रोपाई करने से कल्ले कम निकलते है जिससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यदि पौध की पत्तियां अधिक लम्बी हो तो एक चौथाई पत्तियों को उपर से तोड़ दें ताकि रोपाई के बाद पौधा गिर कर मर नहीं जाये। इसके बाद उन्नत तकनिकी अपनाकर अच्छी तरह से धान की फसल की देखभाल करें।


Authors:

बिन्द्र सिंह, प्रोलय कुमार भौमिक, गोपाला कृष्णन एस. ओर देवेन्द्र सिंह
आनुवंशिकी संभाग, भा. कृ. अ. प.- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली – 110012

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