प्रचुर मात्रा में मसूर उत्पादन के लिए उन्नत खेती
रबी मौसम में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में मसूर का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इसके दानों में 24-26% प्रतिशत प्रोटीन, 3% प्रतिशत वसा, 2% प्रतिशत रेशा, 57% प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, कैल्सियम 68 मिली ग्राम/ 100 दाने, स्फुर 300 मिलीग्राम / 100 दाने, लौह तत्व 7 मिलीग्राम / 100 दाने, विटामिन C 450 IU पाई जाती है।
इन विशेषताओ के कारण इसका उपयोग दाल के अलावा अन्य कई प्रकार के व्यंजनों में , पूर्ण दाने या आटे के रूप, में किया जाता हैं।
मसूर की खेती के लिए भूमि एवं खेत की तैयारीः-
मसूर की खेती प्रायः सभी प्रकार की भूमियों मे की जाती है। किन्तु दोमट एवं बलुअर दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। जल निकास की उचित व्यवस्था वाली काली मिट्टी मटियार मिट्टी एवं लैटराइट मिट्टी में इसकी अच्छी खेती की जा सकती है।
खेत की तैयारी के लिये वर्षाकालीन फसल की कटाई के बाद भूमि में उपलब्ध नमी के अनुसार एक या दो बार देशी हल या बरवर से जुताई कर मिट्टी भुरभुरी बना ली जाती हैं। इसके तुरन्त बाद पाटा चला कर खेत समतल करने से नमी सुरक्षित रहती हैं एवं बुवाई के समय बीज एक समान गहराई पर बोया जाता हैं।
जिससे बीज का अंकुरण भी अच्छा होता हैं। हल्की अम्लीय (4.5.- 8.2 पी.एच.) की भूमियों में मसूर की खेती की जा सकती है। परन्तु उदासीन, गहरी मध्यम संरचना, सामान्य जलधारण क्षमता की जीवांष पदार्थयुक्त भूमियाँ सर्वोत्तम होती है।
मसूर का बीज एवं बुआईः
असिचिंत क्षेत्रों में मसूर बोनेे का उचित समय अक्टूबर माह का अंतिम सप्ताह है जब कि सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर माह के प्रथम या द्वितीय पखवाड़े तक इसकी बोनी की जा सकती है परन्तु विलम्ब से बुवाई करने पर उपज प्रभावित होती है। उतेरा बोनी का समय मानसूनी वर्षा एवं धान की फसल पकने पर निर्भर होता हैं। ऐसी परिस्थिति में मसूर की बोनी, धान फसल की कटाई के 4-7 दिन पहले छिड़काव विधि से करते हैं।
सामान्यतः बीज की मात्रा 40 कि.ग्रा. प्रति हें. क्षेत्र में बोनी के लिये पर्याप्त होती है। बीज का आकार छोटा होने पर यह मात्रा 35 किलों ग्राम प्रति हें. होनी चाहियें। बडें दानों वाली किस्मों के लिये 50 कि.ग्रा. प्रति हें. उपयोंग करें।
सामान्य समय में बोआई के लिये कतार से कतार की दूरी 30 सें. मी. रखना चाहियें। देरी से बुआई के लिये कतारों की दूरी कम कर 25 सें.मी. कर देना चाहियें एवं बीज को 6 सें.मी. की गहराई पर उपयुक्त होती है।
मसूर की उन्नत किस्म का चुनाव
अच्छे उत्पादन के लिये गुणवत्ता वाला साफ, बीमारी व खरपतवार के बीज रहित बीज का उपयोग करना चाहिये। उन्नत किस्म का बीज जिसकी अंकुरण क्षमता अच्छी हो, किसी प्रतिष्ठित संस्था से लेना चाहिए। उन्नत प्रजातियों का विवरण निम्नानुसार हैं:-
क्र. | प्रजातियां | पकने कीअवधि | औसत उपज(क्वि./हे.) | अन्य विषेषतायें |
1 | जे.एल. 1 | 120 | 12-15 | सिंचित एवं वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त, पाला व उकठा रोग सहनशील, दाने बड़े व भूरे काले रंग के। |
2 | जे.एल. 3 | 110-115 | 13-15 | दाना बड़ा एवं हल्के भूरे रंग का, उकठा रोग प्रतिरोधक एवं सूखा सहनशील, सम्पूर्ण विंध्य क्षेत्र के लिये उपयुक्त। |
3 | पन्त 4076 | 115-120 | 10-15 | उकठा रोग निरोधक, दाना बड़े आकार का सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के लिये उपयुक्त। |
4 | के-75 (मल्लिका) | 115-120 | 10-12 | दाना छोटा, सम्पूर्ण विंध्य क्षेत्र अर्थात् सीहोर, भोपाल, विदिशा, नरसिंहपुर, सागर, दमोह एवं रायसेन आदि जिलों के लिए उपयुक्त। |
5 | पन्त एल-4 | 135-140 | 15-20 | गेरूआ व सूखा निरोधक |
6 | सीहोर 74-3 | 120-125 | 10-15 | मध्य भारत के लिये उपयुक्त |
फसल को विभिन्न बीज जनित रोगों जैसे उकठा रोग से बचाने के लिये बुवाई से पहले बीज का उपचार थाइरम 2 ग्राम तथा कार्बोनडाज़िम एक ग्राम या वाविस्टीन 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करना चाहिये।
इसके बीज को 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर एवं 5 ग्राम पी.एस.बी. कल्वर प्रति किलो बीज से भी उपचारित करने से पौधों के जड़ो में जड़ ग्रंथिया (रूट नाडूलस) अधिक बनने से पौधों का विकास अच्छा होता हैं।
मसूर उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरक
खेत की मिट्टी परीक्षण के अनुसार खाद एवं उर्वरक देना लाभप्रद होता है । यदि गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद या कम्पोस्ट उपलब्ध हो तब 5 टन/हेक्टेयर की दर से खेत में अच्छी तरह मिलाना चाहिये
असिंचित क्षेत्रों में
- 15-20 किलो नत्रजन
- 30-40 किलो स्फुर
- 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना चाहिये।
सिंचित फसल में
- 20-25 किलो नत्रजन
- 50-60 किग्रा फास्फोरस
- पोटाश 20-30 किग्रा प्रति हेक्टेयर
उर्वरक , बुवाई के समय ही खेत में संस्थापन विधि द्वारा दे दिया जाता है।
मसूर के पौधों की वृद्धि जस्ते की कमी से भी प्रभावित होती है। जस्ते की कमी दूर करने के लिए, 5% जिंक सल्फेट व 25% चूने के घोल का छिड़काव खड़ी फसल में आवश्यकतानुसार करना चाहिए
मसूर फसल मे सिंचाई
सामान्यतः मसूर की खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों में की जाती हैं परन्तु फसल की क्रान्तिक अवस्था जैसे फल्ली बनने या फल्ली में दाना बनने पर एक हल्की सिंचाई करना फायदेमंद होता है।
सिंचित अवस्था में फसल की आवश्यकता व मौसम अनुसार पहली सिंचाई पौधों में शाखाये निकलने पर यानि बुआई के 40-45 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई फल्ली बनते समय पर स्प्रिकलर या बहाव विधि से (हल्की) करना चाहिये।
सिंचाई के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि खेत में जल की अधिकता न हों। पानी खेत में ठहरने पर उपज में कमी आती है, क्योंकि नाइट्रोजन स्थिरीकरण अवरुद्ध होने के कारण पौधे पीले पड़ जाते है
मसूर मे खरपतवार नियंत्रण
फसल में खरपतवार की उपलब्धता अनुसार बुवाई के 20-25 दिन व 40-45 दिन बाद निंदाई-गुड़ाई, खुरपी या हेंड़ हो या डोरा चलाकर करना चाहिये इससे खरपतवार का नियंत्रण होगा तथा भूमि में वायु संचार होने से पौधों की वृद्धि एवं विकास भी अच्छा होगा।
खरपतवार के रसायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डी-मिथेलिन या फ्लूक्लोरोलिन 0.75 किलो ग्राम को 500 लीटर पानी में मिलाकर एक हेक्टेयर में घोलकर छिड़काव कर मिट्टी में मिलाने से खरपतवारों के प्रकोप से बचा जा सकता हैं। खरपतवार नाशी के उपयोग के समय खेत में पर्याप्त मात्रा में नमीं उपलब्ध होना चाहिए।
मसूर मे पौध संरक्षण
मसूर फसल में लगने वाले कीट व रोग नियंत्रण के लिये समय पर पौध संरक्षण उपाय अपनाना चाहिये।
मसूर के कीट
मसूर के कीट माहो, एफिड एवं थ्रिप्स तथा फल्ली छेदक इल्ली आदि का प्रकोप होता हैं। इन कीटों के नियंत्रण के लिये मोनोक्रोटोफास या मेटासिस्टाक्स (1.5 मि.ली.) या क्वीनालफास (1 मि.ली.) प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिये। आवश्यकता पड़ने पर पुनः छिड़काव 10-15 दिन के अन्तर पर करें।
मसूर के रोग
मसूर के रोगों में उकठा तथा गेरूआ प्रमुख रोग है। उकठा रोग नियंत्रण के लिये रोग रोधी प्रजाति जैसे जे.एल.3 या एल 4076 के बीज बोनी के लिये उपयोग करें अन्यथा बुवाई से पहले बीज उपचार थाइरम 3 ग्राम या थाइरम 1.5 ग्राम+बेविस्टीन 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें।
गेरूआ रोग के नियंत्रण के लिये डाइथेन एम-45, 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिये। प्रभावित क्षेत्रों में मसूर की एल 4076 गेरूआ निरोधक जाति का उपयोग करें।
मसूर की कटाई, गहाई एवं उपज
जब फसल की फल्लियाँ सूखकर पीली पड़ जावे तब कटाई करना चाहिये । कटाई में विलम्ब करने से फल्लियों के गिरने व चिटकने का भय होता हैं एवं उत्पादन भी प्रभावित होता हैं।
कटाई उपरान्त फसल को 2-3 दिन धूप में सुखाकर बैलों द्वारा दावन कर या फसल की मोटी परत पर टेªक्टर चला कर गहाई करना चाहिये। बाद में प्राकृतिक हवा या उड़ावनी के पंख की सहायता से दाना एवं भूसा अलग कर लेना चाहिये।
उन्न्त किस्म एवं उत्पादन तकनीक अपनाने से असिंचित अवस्था में 10-20 क्विंटल तथा सिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल / हेक्टेयर दाना प्राप्त किया जा सकता हैं। भण्डारण के लिये बीज को अच्छी तरह सुखायें जिससे बीज में 8-10 प्रतिशत से अधिक नमीं न हों।
Authors:
सुषमा,युशमा साओ,गीतेश्वर सिंह वर्मा
मृदा विज्ञान विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर ( छ.ग.) 492012.
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