Karnal bunt disease of wheat: condition and direction
करनाल बंट टिलेशिया इंडिका नामक कवक से उत्पन्न होने वाला गेहूँ की फसल का एक मुख्य रोग है। यह रोग विशेष रूप से भारत के उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। यद्यपि आज तक भारत के उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में करनाल बंट की कोई महामारी दर्ज नहीं की गयी है किन्तु अति संवेदनशील गेहूँ की प्रजातियों में पुष्पावथा के समय (फरवरी-मार्च) में जब उच्च आर्द्रता होती है, तब 30-40 प्रतिशत तक गेहूँ की फसल करनाल बंट से संक्रमित पायी गयी है
अखिल भारतीय गेहूँ एवं जौ समन्वित अनुसन्धान परियोजना 2019 के तहत किये गये पोस्ट हार्वेस्ट सर्वे के दौरान कुल 7321 नमूनों में से 32.02 प्रतिशत नमूने करनाल बंट से संक्रमित पाए गए। अधिकतम संक्रमित नमूने हरियाणा (56.69%), जम्मू और पंजाब (क्रमशः 54.89% तथा 45.18 %) से पाए गए। जबकि मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों से लिए गए नमूनों में से कोई भी करनाल बंट से संक्रमित नहीं पाया गया।
10 राज्यों से लिए गए नमूनों में पोस्ट हार्वेस्ट सर्वेक्षण का विवरण तालिका 1 में प्रस्तुत किया गया है जिसमें प्रत्येक राज्य का औसत करनाल बंट संक्रमण सम्मिलित है। संक्रमित नमूनों का प्रतिशत भारतीय गेहूँ उत्पादन एवं व्यापार के लिए चिंता का विषय है और इस सन्दर्भ में एक मजबूत आंतरिक संगरोध ढाँचे की आवश्यकता को रेखांकित करता है.
पिछले कुछ वर्षों में संक्रमण की यह वृद्धि मुख्य रूप से मौसम के उतार चढाव और गेहूँ की मुख्य प्रजातियों में सम्पूर्ण प्रतिरोधिता तथा रोगजनक फफूँद की अनुकूलनशीलता के कारण हुई है। अधिक उपज के लिए यूरिया का व्यापक प्रयोग तथा अधिक सिचाई के कारण भी करनाल बंट रोग का प्रकोप अधिक पाया गया है.
भारत में ही नहीं बल्कि यूरोप और आस्ट्रेलिया जो अभी तक इस बीमारी से मुक्त हैं वहाँ भी नए भौगोलिक क्षेत्रों में इस बीमारी के स्थापित होने की अधिक सम्भावना व्यक्त की गयी है। यदि यह रोग आस्ट्रलिया में प्रविष्ट करता है तो प्रतिवर्ष गेहूँ की अर्थव्यवस्था का 17 प्रतिशत गेहूँ के व्यापार को प्रभावित करेगा। इसी तरह बाद के अध्ययन में और भी नुकसान की आशंका जताई गई जो 25 प्रतिशत तक हो सकती है.
टिलेशिया इंडिका नामक कवक पूरे विश्व में उच्च संगरोध महत्व की होने के कारण सबंधित जोखिम बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है जिसके कारण 70 से अधिक देशों में इसके विरुद्ध नियामक लागू किये गए हैं। अतः इस रोग से होने वाली आर्थिक हानि को प्रत्यक्ष उपज हानि के बजाय वैश्विक गेहूँ व्यापार के लिए नॉन-टैरिफ बैरियर के रूप में समझा जाना चाहिए।
भारत और मैक्सिको में करनाल बंट के कारण उपज के नुकसान की मात्रा का प्रतिशत 0.01-1 के बीच है। तीन प्रतिशत से अधिक संक्रमणयुक्त अनाज मानव उपयोग के लिए संस्तुतित नहीं किया गया है और इस प्रकार गेहूँ उत्पाद की गुणवत्ता ह्रास करने वाला करनाल बंट रोग कृषकों को अप्रत्यक्ष आर्थिक हानि का एक और मुख्य कारण है.
यह एक सुस्थापित तथ्य है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन फफूँद जनित रोगों की दर और तीव्रता दोनों ही बाधा रही है। करनाल बंट भी इससे अछूता नहीं है। मौजूदा पर्यावरणीय परिस्थितियों में परिवर्तन (उच्च तापमान, वर्षा चक्र में बदलाव, सूखा और कार्बन डाई ऑक्साइड का बढ़ता स्तर) उन क्षेत्रों में जँहा करनाल बंट की उपस्थिति है वहाँ न केवल संक्रमण चक्रों के लिए बाधित रहा है बल्कि रोग तीव्रता को भी पोषित कर रहा है। उदहारण के तौर पर कई जलवायु परिवर्तन मॉडलों द्वारा निरंतर और बहुत भारी वर्षा की घटनाओं की भविष्यवाणी की गयी है जो की टिलेशिया इंडिका के रोगकारक टिलियोस्पोर की उग्रता और उत्तरजीविता दोनों को ही बाधा देता है और परिणाम स्वरुप रोग विकसित होने की सम्भावना बहुत अधिक बढ़ जाती है।
कार्बन डाई ऑक्साइड की सांद्रता और वर्षा रासायनिक कवकनाशकों को अप्रभावी या आंशिक रूप से प्रभावहीन कर सकती है। यूरोप में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन करनाल बंट रोग उत्पन्न करने के लिए नये भौगोलिक क्षेत्रों को निशाना बना सकता है। हालांकि, एक सकारात्मक तथ्य यह भी है कि जलवायु परिवर्तन टिलेशिया इंडिका की पुनर्सयोंजन प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है और ऐसी परिस्थितियों में करनाल बंट रोग के स्थिरीकरण की उम्मीद के साथ रोग का प्रबंधन आसान हो सकता है.
करनाल बंट रोग का नामकरण हरियाणा राज्य के करनाल जिले के नाम पर किया गया है, जहाँ इसे सबसे पहले वर्ष 1931 में डॉ मनोरंजन मित्र ने खोजा था। यह बीमारी 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत तक उत्तरी भारत तक ही सीमित रही। उत्तर भारत में इसके फैलने का मुख्य कारण हरित क्रांति के शुरुआती चरण के दौरान देश के एक बड़े क्षेत्र में उगाई जाने वाली किस्में जैसे की सोनालिका, कल्याण सोना, WH147, C306, आदि और हरित क्रांति के दूसरे चरण की किस्में HD2009, WL711, UP262 आदि करनाल बंट के प्रति आनुवंशिक प्रतिरोध से मुक्त नहीं थी।
देशी किस्मों में संरचनात्मक बाधाएं जैसे की प्यूबिसेन्स, वैक्स आदि उपलब्ध थी जो की रोग कारक टिलियोस्पोर को गेहूँ के पौधे के ऊपर जमने और रोग विकसित करने से रोक लेती थी। हरित क्रांति के दौरान उगाई गयी मैक्सिकन उच्च उपज वाली किस्मों में इन गुणों का भाव होने के कारण करनाल बंट को उत्तर भारत में प्रसारित होने का अवसर मिला।
बड़े पैमाने पर फैलने से पैथोजन का विकास व उग्रता और तेज हो गई। इसके अलावा हरित क्रांति की अवधि में टिलेशिया इंडिका उन देशों में भी पहुँच गया जहाँ पहले इसका प्रकोप नहीं था। वर्तमान समय में करनाल बंट इराक, ईरान, नेपाल, पाकिस्तान, दक्षिणी अफ्रीका, मैक्सिको, संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्राजील में सामान्यत: पाया जाने वाला रोग बन गया है.
करनाल बंट के लिए प्रबंधन रणनीति:
करनाल बंट बीज, मिट्टी व हवा तीनों तरीकों से फैलने वाला कवक रोग है। परिणामस्वरूप प्रबंधन प्रोटोकॉल इन माध्यमों से रोगजनक संक्रमण की रोकथाम करने से सम्बंधित है। रोगमुक्त फसल लेने के लिए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए की बीज करनाल बंट से बिलकुल मुक्त हो।
संक्रमित मिट्टी में इनोकुलम को कम करने के लिए पाँच वर्ष के फसल चक्र (सर्दियों के मौसम में गैर अनाज फसलों) को अपनाने की सिफारिश की गयी है ताकि मिट्टी में पाँच वर्ष की अवधि में टिलियोस्पोर के बचे रहने की मात्रा कम से कम रह जाये। गहरी जुताई या मिट्टी को पॉलीथीन के साथ मल्चिंग करके तापमान को बढ़ा कर मिट्टी में इसका इनोकुलम कम किया जा सकता है।
फरवरी माह में वर्षा होते ही गेहूँ की फसल में पुष्पावस्था के समय टिलेशिया इंडिका का प्रकोप बढ़ता है। अत: इस रोग से फसल को बचाने हेतू बुवाई का उचित समय भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.
हालांकि, शत-प्रतिशत रोकथाम तो संभव नहीं है फिर भी इस रोग से काफी हद तक छुटकारा पाने के लिए रासायनिक कवकनाशी की संस्तुति भी की गयी है। इसमें मुख्यत: प्रोपिकोनाज़ोल (0.1%), ट्राइडिमेफोन (0.2%), मेन्कोजेब (0.25%), कार्बेन्डाजिम (0.1%) का छिड़काव दो बार करना चाहिए।
पहला पुष्पावस्था के दौरान तथा दूसरा एक हफ्ते बाद करना उचित रहता है। बीजोपचार के लिए सेरासन, थाइरम, जीनेब, ऑरिफेन्जिन, ऑक्सीकार्बोक्सिन, वेनोमिल, विटावेक्स, इत्यादि की 2.5 ग्राम प्रति किग्रा अनाज में बीज से उत्पन्न रोग की रोकथाम के लिए संस्तुति की गई है। करनाल बंट में बायोलॉजिकल प्रबंधन हेतू Tricoderma viride (5 ग्राम प्रति लीटर) की सिफारिश की गयी है। हालांकि करनाल बंट की रोकथाम का सबसे आसान, आर्थिक और पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ तरीका यही है कि गेहूँ की करनाल बंट प्रतिरोधी किस्मों को ही उगाया जाये।
यद्यपि टिकाऊ और आनुवंशिक प्रतिरोध की पहचान और उच्च उपज किस्मों में इसका अनुक्रमण (Introgression) समय और संसाधन दोनों की मांग करता है। इसका कारण यह है की करनाल बंट प्रतिरोध बहुत सारे जीन मिलकर नियंत्रित करते हैं जो अलग-अलग किस्मों में से एक किस्म में इक्कठे किये जाने आवश्यक होते हैं। प्रजनन प्रकिया में करनाल बंट रोधी पौधों का चयन भी एक कठिन कार्य है जिसके लिए अनुभवी होना बहुत ही जरूरी है।
करनाल बंट के क्षेत्र में प्रतिरोधी जननद्रव्य का विकास:
उच्च उपज वाली गेहूँ की किस्मों में करनाल बंट के प्रतिरोधी अनुक्रमण (Introgression) के लिए प्रजनन 1980 के दशक में पहली बार मक्का एवं गेहूँ सुधार के अन्तर्राष्ट्रीय केंद्र (CIMMYT) में शुरू किया गया था। वार्षिक करनाल बंट स्क्रीनिंग नर्सरी का गठन भारत, चीन, ब्राजील और सिंथेटिक हाइब्रिड गेहूँ से पहचाने गए प्रतिरोधी स्थाई स्रोतो से किया गया था।
वर्तमान में करनाल बंट के प्रतिरोधी स्थायी स्रोत गेहूँ में उपलब्ध हो चुकें हैं। HD29, HD30, W485, W1786, KBRL10, KBRL13, KBRL22, ML1194, WL3093, WL3203, WL3526, WL3534, HP1531, ISD227-5 अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर करनाल बंट प्रतिरोधी किस्में भी उपलब्ध हैं जिनमें से Arivechi M92, Navoja M2007, INIFAP M97 आदि। भारतीय गेहूँ अनुसन्धान परियोजनाओं के तहत देश के विभिन्न गेहूँ उत्पादक क्षेत्रों के लिए करनाल बंट प्रतिरोधी किस्में अनुशंसित की गयी हैं।
इनमें से HD4672, DWH5023, WL1562, WH1097, WH1100, HDP1731, RAJ1555, PBW502, PBW343, WH542, KRL283 इत्यादि प्रमुख हैं। सात प्रतिरोधी जननद्रव्य स्टॉक्स ALDAN ‘S’/IAS58, CMH 77.308, H567.71/3*PAR, HD29, HP1531, W485, KBRL57 आदि हैक्साप्लोइड बैक ग्राउंड में अनुक्रमण के लिए करनाल बंट रोधी किस्मों के विकास के लिए उपयोग में लाये जा रहे हैं।
देश के विभिन्न स्थानों में अखिल भारतीय गेहूँ एवं जौ सुधार कार्यक्रम के तहत अग्रिम किस्म ट्रायल (AVT) के द्वारा प्रत्येक वर्ष करनाल बंट प्रतिरोधी लाइनों की पहचान की जाती है और इन परीक्षणों के तहत विभिन्न क्षेत्रों के लिए करनाल बंट प्रतिरोधी किस्मों को अनुशंसित किया जाता है।
वर्ष 2019 के दौरान पहचान की गयी करनाल बंट प्रतिरोधी लाइनों में DBW252, DBW273, DBW14, DBW173, DBW187, DBW301, DBW304, DBW93, DPW621-50, HD3277, HD3293, HD3345B, HD2932, HD3059, HD3086, HD3226, HD3298, HI1544, HI1612, HI1634, HS507, HS673, K1317, KRL210, MACS6696, MACS5052, MACS6222, MP3336, NIAW3170, PBW781, PBW822B, PBW823B, PBW752, PBW757, PBW820, PBW821, PBW824, UAS3002, UP3041, UP3043, VL3019, VL3021, WH1239, WH1080, WH1124, WH1142 इत्यादि हैं।
प्रजनन कार्यक्रमों में शामिल करने के लिए जैनेटिक स्टॉक्स की भी पहचान की जा रही हैं। ऐसा ही एक उदाहरण HI 8774 का है जो पीला रतुआ और चूर्ण आसिता के साथ-साथ करनाल बंट के लिए भी प्रतिरोधी है.
यद्यपि करनाल बंट प्रतिरोधी किस्मों का विकास मुख्य रूप से हैक्साप्लोइड गेहूँ में करनाल बंट के प्रति अनुवांशिक प्रतिरोध की सीमित परिवर्तनशीलता, विरासत की मात्रात्मक प्रकृति और रोग प्रतिरोध के लिए स्क्रीनिंग करने पर पर्यावरण के प्रभाव के कारण मुश्किल सिद्ध हुआ है, जिस कारण वर्षों से करनाल बंट प्रतिरोध प्रजनन में कम सफलता मिली है। इसीलिए गेहूँ में करनाल बंट के प्रतिरोधी किस्मों के विकास हेतू करनाल बंट प्रतिरोधी जीन की पहचान, मैपिंग और टैगिंग बहुत ही महत्वपूर्ण है.
करनाल बंट अनुसन्धान एवं विकास का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी सामने आ रहा है। यह करनाल बंट रोग को अंतर्राष्ट्रीय संगरोध विनियमों से मुक्त करने का प्रयास है और इसका नेतृत्व मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा किया जा रहा है जिसने करनाल बंट से मुक्त देशों को गेहूँ के निर्यात में प्रतिबंधित करने वाले इन विनियमों के कारण आर्थिक नुकसान कासामना किया है। अब तक ताइवान, इंडोनेशिया, होंडुरा, वियतनाम व उरुग्वे ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के अनुरोध पर अपनी संगरोध सूची से टिलेशिया इंडिका को नियंत्रण मुक्त कर दिया है.
भारत में प्रत्येक वर्ष गेहूँ उत्पादन के नए कीर्तिमान स्थापित किये जा रहें हैं। गेहूँ उत्पादन के सन्दर्भ में भारत अब उस स्थान पर है जहाँ से वह भविष्य का गेहूँ निर्यातक देश बन सकता है। किन्तु इस महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए गेहूँ सुधार कार्यक्रम में करनाल बंट प्रतिरोध को मुख्य रूप से सम्मिलित करना, आंतरिक संगरोध को और अधिक मजबूत करना और वैश्विक स्तर पर करनाल बंट को नियामक मुक्त करवाना प्राथमिकताओं में शामिल करना अत्यंत आवश्यक है.
तालिका: वर्ष 2018-19 के दौरान भारत के विभिन्न राज्यों से गेहूँ की फसल से लिए गए करनाल बंट के नमूनों का विश्लेषण
State | संक्रमित नमूने | संक्रमित नमूने | संक्रमित नमूने (%) | अनाज संक्रमण का औसत (%) |
पंजाब | 2809 | 1269 | 45.18 | 0.1 – 12.14 |
हरियाणा | 1318 | 747 | 56.69 | 0.05 – 14.0 |
राजस्थान | 300 | 123 | 41.0 | 0.1 – 21.9 |
उत्तराखंड | 1189 | 58 | 4.88 | 0.1 – 5.0 |
जम्मू | 206 | 113 | 54.85 | 0.1 – 8.24 |
उत्तर प्रदेश | 129 | 34 | 26.36 | 0.1 – 10.0 |
मध्य प्रदेश | 285 | 0 | 0 | 0 |
महाराष्ट्र | 341 | 0 | 0 | 0 |
गुजरात | 692 | 0 | 0 | 0 |
कर्नाटक | 52 | 0 | 0 | 0 |
कुल | 7321 | 2344 | 32.02 | 0.05 – 21.9 |
स्रोत: ICAR-IIWBR
Authors:
राजेन्द्र कुमार, संतोष कुमार बिश्नोई, जगदीश कुमार, ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह
भारतीय गेहूँ एंव जौ अनुसन्धान संस्थान, करनाल
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