Effect of weather on major diseases of gram and their effective control
भारत विश्व का सबसे अधिक चना (लगभग 75%) उत्पादन करने वाला देश है| सारे भारत का लगभग तीन चौथाई उत्पादन तीन राज्यों –म.प्र., उ. प्र. तथा राजस्थान में होता है| भारत में मध्यप्रदेश चने की सर्वाधिक उत्पादन (उत्पादन का 47%) करने वाला प्रदेश है| चने की फसल एक अच्छी आमदनी वाली रवी की फसल है|
मध्यप्रदेश में चने की औसत उपज 864.0 kg/ha है जो देश में चने की औसत उपज से (932.0 kg/ha) और विश्व के औसत उपज (982.0 kg/ha) दोनों से कम है| चने के उत्पादकता में कमी के मुख्य कारक इसमें लगने वाले रोग तथा कीट हैं|
जैविक समस्यायें
विश्व के अलग अलग भागों में अब तक 175 रोग कारकों का पता चला है, जो फफूंद जीवाणु तथा विषाणु जनित होते हैं| मध्यप्रदेश में चने की प्रमुख रोगों में उकठा या उगरा, सूखा जड़ सडन, कालर/ग्रीवा सडन, बीज सडन तथा एस्कोकटा अंगमारी रोग प्रमुख हैं| ये सभी रोग फसल /पौधे की अलग अलग अवस्था तथा परिस्थिति में होता है| यदि किसी रोग का समय पर उपचार ना किया जाए तो, इससे उत्पादन प्रभावित होता है| चने में लगने वाले कुछ रोग, मौसम तथा उनसे नियंत्रण का वर्णन किया गया है|
चने में उकठा या उगरा रोग (फ्यूजेरियम विल्ट)
लक्षण-
यह रोग पौधावस्था से लेकर फली लगने तक कभी भी हो सकती है| इस रोग का प्रभाव खेत में छोटे छोटे टुकड़ो में दिखाई देता है| प्रारम्भ में पौधे की ऊपरी पत्तियाँ मुरझा जाती है| जड़ को तने की ओर चीर कर देखने पर ऊतकों में कवक जाल धागेनुमा काले रंग की सरंचना के रूप में दिखाई देता है|
मौसम : इस रोग के लिए अनुकूल मौसम निम्न है|
भूमि का तापमान सामान्य से ज्यादा होने तथा भूमि में नमी की कमी होने से यह रोग ज्यादा फैलता है| ज्यादा असर उथली भूमि या ऊंची भूमि में उगाये गये फसल में होता है| उपर्युक्त 24-25°C तापमान रोग उत्पन्न होने के लिए अनुकूल है हल्की बलुई मिट्टी में कम नमी की दशा में यह रोग ज्यादा फैलता है|
रोग नियंत्रण के उपाय
- दीर्घ फसल चक्र अपनाएं (3-4 वर्षो)
- ग्रीष्म कालीन (मई –जून) में गहरी जुताई करें|
- भूमि / हवा का तापमान ज्यादा (25-26°C) रहने पर बुवाई न करें|
- सड़ी हुई गोबर की खाद (FYM) 10-15 बैलगाड़ी / हेक्टेयर की दर से डालें|
- रोग रोधी जातियां /किस्म JG-315, JG-74, JG-218, JG-322, JG-130, JG-14, JG-11, RSV-896,RSV-888, विजय इत्यादि |
- थाइरम 0 ग्राम तथा कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें |
- ट्राईकोडर्मा विरीडी का पाउडर 0 ग्राम प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करें |
- 5/4 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा को 0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई से पहले प्रयोग करें|
- खडी फसल में लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू पी का2 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें|
चने का स्केलेरोटीनियां कॉलर रॉट तथा तना सडन/ ग्रीवा सडन (भूमि जनित)
कारण –स्केलेरोशियम रोटफसलाई
पौधावस्था से लेकर डेढ़ महीने की अवस्था में पाया जाता है| रोगग्रस्त पौधे पीले होकर मर जाते है तथा आसानी से उखाड़े जा सकते है| पौधे का ऊपरी भाग पीला होकर मर जाता है| रोग के लक्षण सबसे पहले लम्बे धब्बे के रूप में तने पर दिखाई देते है| जिन पर कवक जाल के रूप में दिखाई देती है| उग्र अवस्था में तना फट जाता है व पौधा मुरझाकर सूख जाता है| संक्रमित भाग पर काले काले गोल कवक के स्केलेरोशिया दिखाई पड़ते हैं| बुवाई 6 सप्ताह में शुरूआती दौर में दिखाई देती है| जमीन व पौधे के पास में सफेद ग्रोथ हो जाता है पौधे के आस पास सडन हो जाता है तथा पौधा जरा सी हवा में गिर जाता है|
मौसम
यह रोग नम जमीन में ज्यादा प्रभावी होता है|
इस रोग के लिए भूमि का तापमान यदि (25-30°C) से ज्यादा तथा भूमि में कम कार्बनिक तत्व हों तो यह रोग ज्यादा फैलता है|
नियंत्रण
- बोनी के समय तथा पौधावस्था में भूमि में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए !
- बोनी पूर्व रोगी फसल अवशेषों को जलाना चाहिए !
- गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें/ ग्रीष्म कालीन (मई –जून) में गहरी जुताई करें !
- गोबर की पकी खाद 10-15 बैलगाड़ी / हेक्टेयर डालें!
- रोग आने पर हल्की सिंचाई करें !
- बीजोपचार कार्बेन्डाजिम + मैन्कोजैब 2.0 ग्राम +1.0 ग्राम या ट्राईकोडर्मा विरीडी का पाउडर 10.0 ग्राम प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करें !
- पौधों को स्वस्थ रखें तथा जल निकासी की उचित व्यवस्था करें !
- रोग रोधी प्रजातियाँ लगाएं !
- खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्डाजिम + मैन्कोजैब (0.2 प्रतिशत घोल) बनाकर छिड़काव करें!
सूखा जड़ सडन (Dry root rot )
रोग के लक्षण-
फली बनने तथा दाना भरने की अवस्था में पौधे का सूखे घास के रंग का होना | जड़ो का काली होकर सड़ना एवं तोड़ने पर कड़क से टूट जाना| पौधे सूखकर मर जाते हैं| रोग ग्रस्त पौधे को उखाड़कर देखने पर जड व तने के जुड़ाव वाले स्थान से फफूंद की सफ़ेद वृद्धि दिखाई देते है मुख्य सहायक जडं सड जाता है| फूल तथा फली बनने के समय पत्ती तथा ताना भूरा रंग का हो जाता है|
अनुकूल मौसम-
भूमि में नमी की कमी | शुष्क व गर्म वातावरण
नियंत्रण
फसल अवशेष एवं भूमि में उपस्थति बीजानणुओ द्वारा (स्केलेरोशिया)
- रोग आने पर हल्की सिचाई करें|
- भूमि की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करें|
- फसल को शुष्क एवं गर्म वातावरण से बचाने हेतु समय से बोनी करें|
- रोग रोधी प्रजातियां - JG-11, JG-130, JG-63, CCV-10 इत्यादि का चयन करें |
- खड़ी फसल में जहां रोग दिखाई दे कार्बेन्डाजिम 1.0 ग्राम प्रति ली. या ट्राईकोडर्मा विरीडी 2.5kg/ha को 50 kg FYM मिलाकर छिटकाव करें !
- फसल चक्र अपनायें|
चने में एस्कोकईटा अंगमारी रोग
रोग के लक्षण-
यह बीज व भूमि जनित रोग है| यह फफूंद के द्वारा होता है| रोग के लक्षण फरवरी-मार्च में दिखाई देते हैं| ग्रसित पौधे के तने, पत्तियां व फलियों पर छोटे गोल व भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते है|
अनुकूल मौसम-
सामान्यत यह रोग दिसम्बर माह के अन्त या जनवरी के प्रथम सत्ताह में या जनवरी में फुल तथा फली बनने के समय पौधों को प्रभावित करता है|
आर्द्र मौसम High humidity एवं भूमि में ज्यादा नमी तथा सामान्य से कम तापमान रहने पर यह रोग तेजी से फैलता है आर्द्र मौसम में जब तेज हवाएं (फरवरी व मार्च माह) तथा तापमान 22 से 26°C के बीच होता है तब इस रोग का पौधों में तेजी से फैलता है |
रोग नियंत्रण
- गर्म पानी का उपचार 52°C, 10 मिनिट तक बीज उपचारित कर बोयें !
- ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करें, फसल चक्र अपनायें!
- बीमारी से ग्रस्त पौधों के अवशेषो को खेतों से हटायें!
- खड़ी फसल में कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम/लीटर पानी में या प्रोपीकोनाजोल 1.0 या मैन्कोजेब 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें !
- रोग रोधी प्रजातियां - C-215, C-325, C-727, JG-715, ICC-66, ICC-202, इत्यादि का चुनाव करें !
- बीजोपचार कार्बेन्डाजिम 1.0 ग्राम+ थायरम 2.0 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से करें|
चने में अल्टरनेरिया अंगमारी रोग
फफूंद अल्टरनेरिया, इस रोग का प्रकोप विगत वर्षों से प्रदेश में अधिक देखा जा रहा है !
रोग के लक्षण-
फूल तथा फली बनने की अवस्था में फसल बढ़वार अधिक होने पर इस रोग का प्रकोप होता है| प्रारम्भ में पौधे के नीचे की पत्तियों में पीलापन दिखाई देता है| पत्तियों पर छोटे गोल तथा बैगनी रंग के धब्बे बनते है| जो बाद में बड़े होकर भूरे रंग में बदल जाते है, जिससे पौधा कमजोर हो जाता है व फलियाँ बहुत कम लगती है| तने पर लम्बे एवं भूरे काले धब्बे बनते है|
रोग नियंत्रण
- अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि पर नियंत्रण रखें|
- संक्रमित पौधों को उखाड़कर जला दें !
- रोग दिखते ही मैन्कोजेब का 0.3 प्रतिशत या कार्बेन्डाजिम 75 wp 0.2 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें
- कॉपर आक्सीक्लोराइड 50 WP 3.0 ग्राम/लीटर या कार्बेन्डाजिम 75 wp 1.0 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें !
- रोग रोधी किस्म- गणगौर की बुवाई करें|
चने में गेरूआ (RUST) रोग Air born
यह रोग अत्यधिक आर्द्ता तथा कम तापमान में होता है|
उपचार
- मैन्कोजेब 2.5 ग्राम/लीटर या आक्सीकार्बोक्सीन 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें !
चने में चूर्णित आसिता (Powdery mildew) रोग
सफ़ेद पाउडर की तरह पत्तियों पर धब्बा प्रभावित पत्तियों का रंग परपल रंग का होकर मर जाता है| कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें !
चने के प्रमुख कीट
चने की इल्ली या घेंटी छेदक:
सामान्यत: इस कीट का ज्यादा प्रकोप फसल में दो बार होता है जिसे प्रथम व दुतीय पीक से जाना जाता है| इल्ली प्रकोप की सक्रियता के आंकलन हेतु 1 मीटर पौधों की कतार में 2 या 2 से अधिक इल्ली दिखाए देने पर कीटनाशकों का भुरकाव या छिड़काव करें| कीट सर्वेक्षण हेतु कम से कम 20 नमूने प्रति एकड़ में फूल तथा घेंटी आते समय लेना चाहिए|
प्रथम पीक : दिन का अधिकतम तापमान 25-27°C तथा न्यूनतम तापमान 09-14°C रहने पर इल्ली का प्रकोप ज्यादा होता है | साथ ही साथ आपेक्षिक आर्द्रता 45 प्रतिशत तथा 87 प्रतिशत के आस पास रहने पर भी इस कीट की सक्रियता बढ़ जाती है तथा फसल को ज्यादा नुकसान होता है |
दुतीय पीक: दिन का अधिकतम तापमान 30 से 34.5°C तथा न्यूनतम तापमान 13 से 16°C के बीच हो तो कीट की संख्या ज्यादा होती है|
नियंत्रण के उपाय :
- प्रारम्भिक अवस्था में एन.पी.वी. 250 एल.ई. प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिनों की अंतराल से तीन बार उपयोग में लेंवें|
- पक्षियों के बैठने के लिए खेतों में T टाईप की खूंटी लगाएं| 3-4 फुट लम्बाई के T आकार की 100 से 150 खूंटी प्रति हेक्टेयर लगाएं|
- खड़ी फसल में 50% फूल आने पर बी.टी. 1500 मि.ली. या नीम का तेल 700 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें या मिथाईल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण का 20-25 किलो. प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करें|
- NSKE 5% + 1% साबुन का घोल बनाकर छिड़काव करें|
- NPV @ 250-500 लीटर /हेक्टेयर या नीम का तेल 2.0 लीटर/हेक्टेयर
- न्यूकिलयर पॉली हाइड्रो वायरस एल.ई. या बैसीलस थूरिन्जियेंसिस का 1 kg /हेक्टेयर की दर से उपयोग करें|
- JG-315, JG-74 इत्यादि प्रजातियाँ लगाएं|
- फ्लूबेंडीमाइट 39.35% एस.सी. दवा की 100 ग्राम /हेक्टेयर की दर से उपयोग करें |
- इन्डोक्साकार्ब 14.5 एस.सी. 400 मि.ली. /हेक्टेयर की दर से उपयोग करें |
- ट्राईजोफास 40 ई.सी. 780 मि.ली. से 1200 मि.ली. /हेक्टेयर की दर से उपयोग करें |
चने की कट वर्म व दीमक
- बुवाई थालों में करें ताकि कट वर्म का पौध के उगने के समय कम हानि हो|
- क्विनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो. /हेक्टेयर की दर से बुबाई से पूर्व मिट्टी में अच्छे से मिला दें|
- स्प्रींकलर विधि से दिन में पानी लगाने से कीट के लार्वा जो पत्तियों में छिपे रहते है वो गिर जाते हैं जिसे चींटिया खा जाती हैं|
- NSKE @ 5% का उपयोग करें|
- प्रोफिनोफास 50 ई.सी. @ 1500 मि.ली. /हेक्टेयर की दर से उपयोग करें या क्विनालफॉस 25 ई.सी. 1000 मि.ली. /हेक्टेयर की दर से उपयोग करें |
अनुकूल मौसम
चने के इल्ली की सक्रियता दिसम्बर माह के मध्य अधिक होती है जब कि तापमान 13.7 से 28.2°C तथा सापेक्षिक आर्द्रता 51 से 98% रहती है|
दिन में सूर्य की धूप की अवधि 7-9 घंटे तथा कम हवा की गति 0.4 से 0.5 किलोमीटर/ घंटे के साथ शुष्क अवधि कट वर्म के संख्या वृद्धि के लिए अनुकूल होती है|
Authors:
अजय कुमार श्रीवास्तव , आर.एस.सिसोदिया, दीपक कोरडे एवं योगरंजन
कृषि मौसम इकाई
कृषि महाविद्यालय, टीकमगढ़ (म.प्र.)- 472001
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