Integrated management of major diseases and insects of spinach

पत्ती वाली सब्जिया, मानव आहार की प्रमुख घटक है। हरी पत्ती वाली सब्जियों में आयरन, कैल्सियम, बीटा कैरोटीन, विटामिन सी, राइबोफ्लोबीन एवं फोलिक अम्ल की प्रचुर मात्रा होती है। इसके अतिरिक्त आयरन एवं खनिज तत्व भी पाये जाते हैं। पालक की पत्तियों कोें प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत माना जाता है।

इसमें पाये जाने वाले प्रोटीन की गुणवत्ता इसके आवश्यक अमीनो अम्ल विषेश रूप से लाइसिन की अधिक मात्रा होने के कारण अच्छी होती है। पालक का औषधीय महत्व भी है। यह यकृत एवं प्लीहा के रोगों को दूर करने में भी सहायक सिद्ध होता है तथा यह वर्धक (पुष्टई) का भी काम करता है।

पत्ती वाली सब्जियों में पालक अति महत्वपूर्ण सब्जी हैै और इसका विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में भी प्रयोग किया जाता है। इसकी खेती प्रमुख रूप से महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, बिहार तथा उत्तर प्रदेश में की जाती है।

पालक का पौधा एक वर्षीय शाकीय होता है। बीज उत्पादन की दृष्टि से इसके पौधे द्विवर्षीय होते हैं। प्रारंभिक अवस्था में पौधे हरे मुलायम तने वाले होते हैं।

पालक की खेती 

पालक की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जाती है। लेकिन जिनमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा ज्यादा हो तथा जल निकास की समुचित व्यवस्था हो वैसी भूमि काफी लाभदायक सिद्ध होती है। साधारणतया दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए काफी अच्छी मानी जाती है।

बिहार एवं उत्तर प्रदेश में सामान्तया पालक की तीन बार बोआई की जाती है। तपमान एवं नमी की अवस्था यदि अच्छी रही तो 10-12 दिन में अंकुरण हो जाने की संभावना रहती है।

  1. जून -जुलाई माह में।
  2. सितम्बर - अक्टूबर माह में।
  3. अप्रैल - मई माह में।

पालक फसल की बुआई के लि‍ए 20 - 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की आवश्‍यकता होती है।

बोआई के समय मिट्टी में नमी की कम मात्रा हो तो हल्की सिंचाई की जरूरत होती है। क्योंकि बीज जमाव के समय पर्याप्त मात्रा में नमी होनी चाहिए। 3-5 दिनों के अन्तराल पर ग्रीष्म ऋतु में उगाई जाने वाली फसलों में की जानी चाहिए।

पालक की प्रमुख किस्में: पालक की प्रमुख किस्में निम्नलिखित है - आलग्रीन, पूसा हरित, पालक नं0-51-16, एच0 एस0 23, पूसा ज्योति, पूसा पालक, पंत कम्पोजिटी-1 पूसा भारती, सिलवर, अर्का अनुपमा, इत्यादि।

पालक के प्रमुख रोग व कीट

1. आर्द्रगलन (कारक:- पीथिएम प्रजाति):

आर्द्रगलन पालक की एक प्रमुख बिमारी है जो कि नर्सरी में नई पौधों को काफी नुकसान पहुँचाते है तथा आर्थिक क्षति काफी होती है। इसके प्रकोप से नवजात पौधे मर जाते हैं तथा नीचे से मुड़ जाते है।

नियंत्रणः-

जल -जमाव से पौधो को बचाना चाहिए। बोआई के पूर्व बीज को ट्राइकोड्रमा नामक जैविक से उपचारित करना लाभदायक सिद्ध होता है। नर्सरी का स्थान रोगमुक्त तथा उपचारित मृदा में ही करना चाहिए। बोआई से पूर्व बीज को कैप्टान या थिरम से 2-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

2. पत्ता धब्बा (कारकः- सर्कोस्पोरा बेटीकोला):

यह बीमारी पालक में सर्कोस्पोरा बेटीकोला नामक फफुंद के द्वारा होते है। संक्रमण के कारण पत्तियों पर बहुत से संकेन्द्रीय छोटे-छोटे भूरे रंग के वृताकार धब्बे बन जाता है। आरम्भिक अवस्था मे ये धब्बे एक दूसरे से अलग होते है परन्तु आगे चलकर ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं।

नियंत्रणः-

बोआई से पूर्व बीज को उपचारित करें। ब्लाइटाक्स दवा के3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना लाभदायक होता है। डाइथेन जेड 78 दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।

3. पर्ण चित्ती (कारक:- फाइलोस्टिक्टा प्रजाति):

यह रोग पालक फाइलास्पिक्ता प्रजाति नामक फफूंद के कारण होता है। रोग का लक्षण हल्के पीले रंग के सूक्ष्म बिन्दु के रूप में प्रकट होते है।

नियंत्रणः-

फसल चक्र की विधि को अपनाना चाहिए। पौधों के अवशेषों को जलाकर खेत को साफ सुथरा करके रखना चाहिए। प्रभावित फसल पर डाइथेन जेड 78 के3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।

4. मृदृरोमिल आसिता ( कारक:- पेरोनोस्पोरा इफ्फुसा):

पालक में यह रोग पेरोनोस्पोरा इफ्फुसा नामक कवक के द्वारा होते है। रोग का लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रूई की तरह उभरे हुए सफेद या पीले रंग के फफूंदी के रूप में प्रकट होता है। और बाद की अवस्था में धब्बे आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं। रोग की उक्त अवस्था में पत्तियां सूख जाती हे।

नियंत्रण:-

रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करनी चाहिए। ब्लाइटाक्स की3 प्रतिशत की घोल का छिड़काव करना लाभदायक सिद्ध होता है।

5. श्वेत किट्र ( कारक:- एलब्यूगो आक्सीडेन्टेलिस):

यह रोग एलब्यूगो आक्सीडेन्टेलिस नामक कवक के कारण होता है। रोग के लक्षण सफेद फफोले के समान अनियमित गोलाकर स्फोट के रूप में प्रकट होते है। रोग पत्तियों की निचली सतह पर आरम्भ होता हे। रोग की उग्र अवस्था में रोग जनक फफूंद की सफेद बीजाणु पालक की पत्तियो पर फैल जाती हे। जिससे पत्तियां सूख जाती है।

नियंत्रण:-

फसल चक्र की विधि को अपनाना चाहिए। प्रभावित फसल पर डाइथेन जेड 78 की3 प्रतिशत घोल का 10 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें। रिडोमिल 0.2 प्रतिशत का छिड़काव 10-15 दिनों के अन्तराल पर करें।

6 . पत्ती खाने वाला कीटः-

वयस्क पतंगा हल्के रंग का होता है जिसकी लम्बाई पंखों सहित लगभग 35 मि0मि0 होती है। मादा का पंख विस्तार सहित लगभग 40.0 मि0मि0 होती है। इसके अगले जोड़ी पंखों पर भूरे बिन्दु होते हैं जो कि धारीदार रेखाएँ बनाते हैं तथा ऊपर की तरफ काले रंग के तिकोने धब्बे होते हैं। नीचे वृक्काकार धब्बा पाया जाता है।

पिछली जोड़ी पंख सफेद हल्के रंग के होते हैं तथा बाहरी सिरे पर काली धारी की किनारी होती है। इस कीट का पिल्लू अण्डे से निकलकर पत्तियों के हरे पदार्थ को खुरचकर खाता है।

7 लाही कीट

यह हरे पीले रंग का छोटा कीट है। कीट पंखदार और पंखरहित, दोनों ही प्रकार के होते हैं। ये सदैव चूर्णीमोम से ढ़के रहते हैं जो कि इनका हरा रंग छिपाये रखता है। इनकी कूणिकाएँ छोटी और गहरे रंग की होती है। उदर पर टूटी-फूटी, गहरे रंग की धारियाँ होती हैं जो कि मोमी आवरण में छिपी रहती हैं।

इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़, दोनों ही पौधों को क्षति पहुँचाते हैंै। लाही चिपके होने से तथा बाहरी पत्तों के पीले पड़ जाने से पालक का बाजार भाव कम हो जाता है।

8. सैन्य कीटः-

इस कीट का वयस्क बादामी रंग का पुष्ट पतंगा होता हैं इसकी देह बालों से भरी होती है। इस कीट की पिल्लू अवस्था हानिकारक होती हैं एंव ये पालक की पत्तियों तथा तने को काटकर क्षति पहुँचाते है। ये भूमि की सतह के ऊपर के हिस्से से पौधे की पत्तियों को खाते है और उनमें केवल मध्यशिरा ही शेष रह जाती है। पिल्लू प्रायः रात्रि के समय बाहर निकलते है। दिन में दरारों अथवा ढेलों में छिपा रहता है।

9. कटवा सूड़ीः-

वयस्कपतंगा भूरे रंग का होता है जिसका आकार6 से0मी0 पंख विस्तार सहित होता है। अगले दोनों पंखों पर विशेष प्रकार के चिन्ह होते हैं। इसका पिल्लू भूरे रंग का होता है। यह दिन में भूमि के अन्दर दरारों में छिपे रहते है एवं शाम के समय जब अंधेरा होने लगता है, निकलकर पौधों को जमीन के पास से काटकर गिरा देते है एवं फिर उसे खाते है। यह कीट खाता कम है परन्तु नुकसान अधिक पहुँचाता है क्योंकि इसके द्वारा खाया गया पौधा सूख जाता है।

10. क्राउन माईटः-

ये माइट एक सूक्ष्मदर्शी जीव है जिसकी चार जोड़ी टाँगें होती हैं। ये पत्तियों की निचली सतह पर पायी जाती हैं तथा ऊपर से जाल द्वारा सुरक्षित रहती हे। ये जाल वयस्क माइट द्वारा बनाया जाता है।

वयस्क तथा निम्फ देानों ही कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं। फलतः पत्तियों पर पीली चित्तियाँ पड़ जाती हैं। पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती है। अधिक प्रकोप होने पर पौधा मर जाता है।

पौधे की अवस्था के अनुसार पालक में समेकीत कीट प्रबंधन

1. बुआई से पूर्व कीट प्रबंधन

परम्परागत कीट नियंत्रण:-

भूमि की जुताईः- कीटों का जीवन-चक्र परोक्ष रूप से भूमि संरचना, रसायनिक संगठन, नमी, तापक्रम एवं अन्य सूक्ष्म-जीवों की उपस्थिति पर निर्भर करता है। भूमि की जुताई मिट्टी में पाये जाने वाले कीटों की सख्या कम करने में  सहायक होती है।

फसलों के बोने के समय में थोड़ा परिवर्तनः-प्रायः प्रत्येक कीट की क्रियशीलता का अपना निश्चित समय होता है जबकि उसका प्रकोप अधिक होता है अतः फसल कीे बुआई का समय कीटों के आक्रमण होने वाली क्षति को सीधे प्रभावित करता है।

एक निश्चित समय पर फसल बोने से कीटों के अण्डे देने की अवस्था को बचाया जा सकता है, इसके साथ ही जब कीट क्रियशील होंगे उस समय पौधा बड़ा तथा आक्रमण सहन करने की क्षमता पर पहुँच चुका होता है।

फसल एव खरपतवार के अवशेषों को नष्ट करना:- प्रायः यह देखा गया है कि फसल कटाई  के पश्चात उसके अवशेषों को खेतों मे ही छोड़ दिया जाता है जो कि उनमें पल रहे कीटों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

इसके साथ ही यदि खेतों के आसपास खरपतवार लगे रहते हैं तो बहुत से कीट फसल कट जाने के बाद भी उन्हीें में अपना जीवन निर्वाह करते हैं। यदि फसल के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दिया जाये या जला दिया जाये तो उनमें पल रहे कीट नष्ट हो जाते है।

कीटनाशक नियंत्रणः-

नीम या पोंगामिया की खल्ली का एक एकड़ में 1000 कि0ग्रा0 या फ्रेस मड़ का प्रयोग एक एकड़ में 2 टन की दर से करें।

2. बुआई के समय कीट प्रबंधन

कीट प्रतिरोधी जातियों से तात्पर्य फसलों की ऐसी जातियों से है जिन पर कीटों का प्रकोप ही नहीं होता अथवा कम होता है या उनमें कीटों के प्रकोप सहन करने की क्षमता होती है। स्वस्थ्य एवं साफ बीजों को ही बोना चाहिए ताकि फसल में बीज द्वारा कीटों का विस्तार न हो। पंक्तियों के बीच में   लगभग 20 से0मी0 दूरी रखे । गर्मियों में 4 से 5 दिनांे और सर्दियों में 8 से 10 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करें। अत्यधिक नेश्रजन का प्रयोग न करें, इससे कीटों का प्रकोप बढ़ता है। अंतरा-पौध रोपण से भी कीटों के प्रकोप से बचा जा सकता है, जैसे कि लग्यूमिनोसी कुल का पौधा।

3. वानस्पतिक अवस्था में कीट प्रबंधन

परम्परागत कीट नियंत्रणः-

फसल तथा खरपतवार के अवशेषों को नष्ट करते रहना चाहिए। सन्तुलित मात्रा में खाद का प्रयोग करना चाहिए। सिंचाई का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए जब पौधा नाजुक अवस्था में हो। खेतों में जल निकासी की सुविधा होनी चाहिए क्योंकि जल प्रभाव से रोग और कीट का प्रकोप बढ़ जाता है।

अगर खेतों में परजीवी कीट दिखे तो रसायनिक दवा का प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि ये कीटों की संख्या को नियंत्रित करते रहते हैं।

यांत्रिकीय विधिः-

रोग ग्रस्त और कीट से संक्रमित पौधों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें। अगर पत्तियो में अण्डे या पिल्लू दिखे तो उन्हें हाथों से इकट्ठा करके नष्ट कर दें। पीली स्टिकी ट्रेप का प्रयोग करें 4 से 5 प्रति एकड़।

लाइट ट्रेप प्रति एकड़ एक ट्रेप का प्रयोग शाम 6 से 10 बजे रात तक करे । फेरोमोन ट्रेप की सहायता से लगातार सर्वेक्षण करते रहना चाहिए। वर्ड पर्च की सहायता से भी आप कीटों के प्रकोप को कम कर सकते हैं। 20 वर्ड पर्च प्रति एकड़ लगाए।

जैविक नियंत्रणः-

पत्ती खाने वाले कीट और सैन्य कीट का प्रकोप होने पर अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा चिलोनिस या ट्राइकोग्रामा पेरीटीयोसम का 25 हजार अण्डा प्रति एकड़ 15 दिन के अन्तराल पर 4-5 बार खेत में अवश्य छोडे़ं।

कटुआ कीट के लिए अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा प्रजाती का प्रयोग 20 हजार अण्डा प्रति एकड़ 15 दिन के अन्तराल पर अवश्य करें।

कीटनाशक से नियंत्रणः-

पत्ती खाने वाले कीट और सैन्य कीट का प्रकोप होने पर नीम सिड् करनल का सत 4 प्रतिशत का प्रयोग आक्रमण होने की अवस्था में करें। नीम तेल 5 मि0ली0 और साथ में स्टिकर  0.5 मि0ली0 प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

डायमेथोएट 30 ई.सी. कीटनाशक दवा की 1.5 मि.ली. प्रति ली0 पानी की दर से पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए अथवा मिथाइल डेमेटन 25 ई.सी. 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

लाही के लिए 1 कि.ग्रा. तम्बाकू को 10 ली. पानी में 30 मिनट तक उबाले और उस मिश्रण को 30 ली0 बना लें और उसमें 100 ग्राम साबुन मिला कर 5 मि0ली0 प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

लाही का प्रकोप अधिक हो तो ऐसीफेट 1 ग्राम प्रति लीटर पानी या इमिडाक्लोप्रिड 1 मि.ली. प्रति 3 ली0 पानी की दर से छिड़काव करें।

माइट्स के रोकथाम के लिए डाइकोफाल 18.5 ई.सी. या क्विनालफास 25 ई.सी. का 1-1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

 


Authors

नागेन्द्र कुमार1, अनिल कुमार2, हरिचन्द2

1कीट विभाग, राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, बिहार, पूसा (समस्तीपुर)

2ईख अनुसंधान संस्थान, राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, बिहार, पूसा (समस्तीपुर)

Email: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.