पटसन के रोग तथा इनका प्रबंधन

पटसन के रोग तथा इनका प्रबंधन

Diseases of the jute and its management

पटसन का वानस्पतिक नाम कोरकोरस केपसुलेरिस तथा को. आलीटोरियस है जो कि स्परेमेनियोसी परिवार का सदस्य है। विश्‍व में कपास के बाद पटसन दूसरी महत्वपूर्ण वानस्पतिक रेशा उत्पादक वाणिज्यिक फसल है।

पटसन की खेती मुख्यतया बंगलादेश, भारत, चीन, नेपाल तथा थाईलैंड में की जाती है। भारत में पश्‍ि‍चम बंगाल, बिहार, असम इत्यादि राज्यों में पटसन कि खेती की जाती है। देश में पटसन का क्षेत्रफल 8.27 लाख हैक्टेयर है। वही इसका उत्पादन 114 लाख गांठ है।

पटसन की फसल में कई प्रकार के जैविक व अजैविक कारकों से रेशे के उत्पादन में कमी आती है। जैविक कारकों के अन्तर्गत तना सड़न रोग इसके उत्पादन में सबसे बड़ी बाधा है जो मैक्रोफोमिना फैसियोलीना नामक कवक से होता है।

पटसन का तना सड़न रोगतना सड़न रोग:

रोग के लक्षणः

इस रोग का प्रकोप अधिक मृदा नमी, मध्यम तापमान एवं उच्च आर्द्रता होने पर अधिक होता है। यह रोग मृदु गलन, पर्ण झुलसा व तना सड़न के रूप में फसल की विभिन्न आवस्थाओं में दिखाई देता है। मृदु गलन रोग फसल के अंकुरण एवं पौध वाली अवस्था में ज्यादा होता है। इस रोग में तनों पर भूरे रंग के धब्बे व काले रंग की लाइने बन जाती है। जो आपस में मिलकर पूरे तने के रेषे को नश्ट कर देती है।

एपिडेमियोलॉजी

इस रोग के फैलाव में अम्लीय मृदा , अधिक मृदा आर्द्रता, उच्च तापमान व कार्बनिक तत्वों (जिवांषों) की कमी वाली मृदायें जैसे कारक सहायक होते हैं। तना सड़न मृदा एवं बीज जनित एक रोग है।

इस रोग के जनक मृदा में उपस्‍थि‍त कार्बनिक अपषिश्टों में स्कलेरोसिया के रूप में कई वर्षेा तक रहता है। अतः उपयुक्त फसल चक्र को अपनाने से इसके रोग चक्र को तोड़ा जा सकता है। क्योंकि उस दशा में इसकी जीविका हेतु पौशक पौधे उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।

रोकथाम एवं उपचार:-

  1. अम्लीय मृदा में इस रोग का फैलाव अधिक होता है। इसलिए मिट्टी में डोलोमाईट या चूना 2-4 टन/ हैक्टर की दर से बुवाई के पहले डालकर मृदा पी.एच. का प्रबंधन करना चाहिए।
  2. बुआई हेतु पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25-30 सें.मी. तथा पौध से पौध की दूरी 5-6 सें.मी. रखनी चाहिए।
  3. पटसन – धान – गेहूँ या पटसन – धान – सरसों के फसलचक्र को अपनाना चाहिए।
  4. बीज की बुआई से पहले कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज से बीजोपचार करें व पर्णीय छिड़काव हेतु कापरआक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यू.पी. के 5 ग्रा./लीटर का 15 दिन के अंतराल पर 3-4 बार छिड़काव करें।
  5. ट्राईकोडर्मा विरिडी (रोगरोधी कवक) का 10 ग्रा./कि.ग्रा. बीज से बीजोपचार करने से इस रोग का जैविक नियंत्रण होता है।
  6. रोगरोधी किस्मों जैसे-जे.आर.ओ.-524, जे.आर.ओ.-632, एस.-19, ओ.आई.एन.-125, 754, 651, 853 की बुआई करने इससे इस रोग को रोका जा सकता है।

इस रोग के अलावा पटसन में अन्य रोग भी लगते हैं, जो इस प्रकार हैं:-

जूट का एन्थ्रेक्नोजजूट का एन्थ्रेक्नोज:

इस रोग का प्रकोप पौधे के तनों पर काले धब्बे जैसे दिखाई देना शुरू होता है। जो धीरे धीरे तने को पूरा ढ़ॅक लेता है तथा उसमें दरार पैदा कर देता है। एन्थ्रेक्नोज रोग से रेशे की गुणवत्ता में कमी हो जाती है।

पौधों की घनी कैनोपी, तापक्रम 35 से.ग्रे., ज्यादा वर्षा एवं सापेक्षिक आर्द्रता का अधिक होना एन्थ्रेक्नोज रोग के प्रकोप को अधिक फैलाने में सहायक हैं।

रोकथाम एवं उपचार:-

काॅपर आॅक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यू.पी. 5 – 7 ग्राम/ली. या कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. 2 ग्राम/ली. का पर्णीय छिड़काव एन्थ्रेक्नोज रोग के प्रबंधन में सहायक है।

पटसन का काली पट्टी रोग:

इस रोग का प्रकोप मुख्यतया पौधों के तनों के निचले भागों पर अधिक होता है, जिससे तनों पर काले-काले धब्बों दिखाई देने लगते हैं। इन काले धब्बाेें में काले रंग का चूर्ण भरा होता है जो रोग को फैलाने में सहायक होता है। मुख्यतया इस रोग का प्रकोप ऐसे स्थान पर ज्यादा होता है जहां के वातावरण में गर्म तथा आर्द्र जलवायु अधिक होती है।

रोकथाम एवं उपचार:-

इस रोग का प्रबंधन मुख्यतया बीजोपचार से संभव है। कार्बेण्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. 2 ग्रा./कि.ग्रा. या काॅपरआॅक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यू. पी. 5-7 ग्राम/ली. या मेन्कोजेब का 4-5 ग्रा./ली. के छिड़काव से इसको फैलने से रोका जा सकता है।

हुगली / विल्ट / जीवाणु उकठा रोगहुगली / विल्ट /जीवाणुवीय उकठा रोग:

यह रोग मुख्यतया जीवाणु से फैलता है  जिसके प्रकोप से रोग ग्रसित पौधाेें की पत्तियां मुड़ जाती है तथा नीचे से ऊपर की और झड़ती जाती है। इस रोग से पौधे सूख जाते हैं। रोग ग्रसित पौधे के संवहन बन्डल भूरे रंग में तब्दील हो जाते है। इसे हाथ से दबाने पर जीवाणुवीय स्राव बाहर आने लगता है।

जिन स्थानों पर आलू तथा पटसन के फसल चक्रण को अपनाया जाता है। वहां पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। गर्म व आर्द्र जलवायु इस रोग के संक्रमण में सहायक होती है।

रोकथाम एवं उपचार:-

पटसन के उकठा रोग के प्रबंधन हेतु पटसन – आलू फसल चक्र कीी जगह पटसन – धान या पटसन – धान – गेहूं का फसल चक्र अपनाना चाहिए। फसल चक्र में सोलेनेसियस एवं कुकुरबिटेसियस फसलों को अगले 2-3 वर्षो तक नहीं उगाना चाहिए।

पटसन मौज़ेकपटसन मौज़ेक:

संक्रमित पौधों की पत्तियों में हरे पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। इस रोग से ग्रसित पौधे बौने रह जाते हैं। यह विशाणु रोग रोगवाहक कीट (सफेद मक्खी) बेमिसिया टैबासाई से फैलता है।

इस कीट के प्रबंधन हेतु कीटनाशी इमिडाक्लोप्रिड 0.1 प्रतिशत का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए।

जूट का मृदु गलन:

रोग से ग्रसित पौधों के निचले तनों के हिस्से में भूरे रंग के जलसिक्त धब्बे, सफेद कवकीय तन्तु के साथ-साथ सरसों के दाने जैसे स्केलेषिया से ढक जाते हैं। अधिक आर्द्रता तथा उच्च तापक्रम इस रोग के संक्रमण को बनाने में अनुकूल पाये गये हैं। 

इस रोग का प्रबंधन काॅपरआॅक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यू. पी. का 5-7 ग्रा./ली. का तनों पर छिड़काव करके किया जा सकता है।

पटसन फाइटोप्लाजमा रोग:

इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियाँं के गुच्छे में बदल जाती है। तना के ऊपर का भाग मोटा हो जाता है। रोगग्रसित पौधे बोने रह जाते हैं।यह रोगवाहक कीट (लीफ हाॅपर) से फैलता है।रोग से ग्रसित पौधे को खेत से उखाड़ कर जला देना चाहिए।

इस प्रकार उपरोक्त पटसन के रोगों की पहचान तथा इनका प्रबंधन करके पटसन रेषा उत्पादन में होने वाली हानियों से किसानों भाईयों केा बचाया जा सकता है।


Authors:

पी. एन. मीणा एवं सुब्रत सतपथी

भाकृअनुप-केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेषा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, कोलकाता

ईमेलः pnshera@yahoo.co.in

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