सब्जियों में समेकित रोग, कीट एवं फसल प्रबन्धन

सब्जियों में समेकित रोग, कीट एवं फसल प्रबन्धन

Integrated disease and pest management in Vegetable crops.

भारत मे  भिन्न-भिन्न जलवायु होने के कारण हर प्रकार की सब्जियाँ उगाई जाती है। सब्जी उत्पादकता कम होने का प्रमुख कारण सब्जियों की फसल में लगने वाले रोग एवं कीट हैं।

सब्जियों में रोग उत्पन्न करने के लिए बहुत से रोगकारक जैसे- कवक, जीवाणु, विषाणु, फाइटोप्लाज्मा, सूत्रकृमि इत्यादि जिम्मेदार हैं, जिनकी वजह से सब्जी के उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में कमी आती है। सब्जियों में अधिकतर रोग, कवकों द्वारा उत्पन्न होता है।

पौध तैयार करने से लेकर उत्पादन, भण्डारण एवं विपणन तक सूक्ष्मजीवों द्वारा होने वाली व्याधियाँ सब्जी उत्पादन में मुख्य बाधाएँ हैं।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुये यह सबसे बड़ी चुनौती है कि सब्जी को निर्यात करने के लिए उत्तम गुणवत्तायुक्त तथा नाशीजीव रसायनों से मुक्त पैदा किया जाए। यह सिर्फ एकीकृत रोग प्रबन्ध की तकनीकी से ही सम्भव है।

फोमोप्सिस वेक्सान्स नामक कवक द्वारा होता हैबैंगन ( Brinjal ) की फसल के रोग:

बैंगन का फोमोप्सिस झुलसा रोग:

यह रोग फोमोप्सिस वेक्सान्स नामक कवक द्वारा होता है। पौधशाला में पौधों की पत्तियों में स्पष्ट हल्के भूरे रंग के गोल धब्बे बन जाते हैं जो ज्यादातर निचली पत्तियों में होता है।

ज्यादातर धब्बे कागज की तरह होकर फट जाते हैं और पत्तियों में छिद्र बन जाता है। पौधशाला तथा रोपाई के बाद मुख्य फसल में धब्बों के बनने में समानता होती है। तनों पर यह रोग नीचे की तरफ से गाँठ के आस-पास से शुरू होता है जहाँ कि सूखे एवं दबे हुए गलन के लक्षण दिखते हैं।

शुरूआत में तो केवल पौधों के ऊपर का छिलका सूखता है, लेकिन बाद में पूरी टहनी सूख जाती है। संक्रमित फलों से सारे बीज भी अन्दर से संक्रमित हो जाते हैं जिससे यह आगामी फसल में आन्तरिक बीजजन्य हो जाता है।

प्रबन्धन

  • रोगमुक्त करने के लिए कार्बेन्डाजिम फफूँदनाशक की 5 ग्राम/किलो बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
  • रोग की तीव्रता टहनी तक न पहुँचे इसलिए अगस्त के अंतिम सप्ताह के पूर्व पौध रोपण न किया जाए।
  • अनाज वाली फसलों का फसल चक्र अपनाएँ।
  • संक्रमित फसल के अवशेषों, फलों इत्यादि को इकट्ठा करके जला देना चाहिए।
  • पौध रोपण के 10-15 दिन बाद एवं फूल लगते समय तथा बीज वाली फसल में 0 ग्राम कार्बेन्डाजिम/लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

बैंगन का राइजोक्टोनिया जड़ गलनः

यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक कवक से होता है। अगस्त-सितम्बर के महीने में यह रोग अधिक उत्पन्न होता है। रोग तने पर मिट्टी के समीप वाले भाग से शुरू होकर जड़ की ओर आगे बढ़ता है।

शुरू में मिट्टी के समीप तने का छिलका मुलायम और फिर उत्तक गलन शुरू होता है एवं पौधा मुरझा कर सूख जाता है। यह रोग पानी लगने वाले खेतों में या उचित जल निकास न होने से ज्यादा लगता है।

प्रबन्धन

  • गर्मी की जुताई फिर सिंचाई और पुनः गर्मी की जुताई करना चाहिए जिससे रोगाणु सक्रिय होकर मर जाएँ।
  • जुलाई-अगस्त में हरी खाद को खेत में पलटने के बाद 0 किग्रा0/हे. ट्राइकोडर्मा जैविक फफूँदनाशी का प्रयोग करना चाहिए जिससे मिट्टी के सभी रोगाणु मर जाएं।
  • ज्वार, बाजरा एवं गेहूँ के लम्बे समय तक का फसल चक्र अपनाना चाहिए।
  • संक्रमित पौधों को उखाड़कर इकट्ठा करके जलायें एवं घासों को निकाल कर खेत की सफाई अवश्य करनी चाहिए।
  • रोगाणुओं की जमीन में संख्या एवं मिट्टी के प्रकार के अनुसार 0 से 10.0 ग्राम/किग्रा0 बीज की दर से ट्राइकोडर्मा चूर्ण द्वारा बीजोपचार करें।
  • रोपाई पूर्व पौधों की जड़ों को ट्राइकोडर्मा चूर्ण के 0 ग्राम/लीटर पानी की दर से घोल में 10 मिनट तक रखना चाहिए तथा रोपाई के 10-15 दिन बाद जड़ों के पास इस घोल से भिगोना चाहिए।
  • कार्बेन्डाजिम 0 ग्राम/लीटर पानी के जलीय घोल द्वारा तने के पास भिगावें जिससे तत्काल राहत मिल सके, लेकिन इसके प्रयोग से पूर्व ट्राइकोडर्मा का आकलन आवश्यक होता है।

बैंगन का तने का पट्टा गलन (कालर राट) :

यह रोग स्केलेरोशियम रोल्फसाई के कारण होता है। इस परजीवी का विस्तार बड़ा है जिसके कारण यह टमाटर, बैंगन, लोबिया, मिर्च, राजमा, लौकी, तरोई, कद्दू, मूली और सूरन में गंभीर समस्या उत्पन्न करता है। इसके प्रारम्भिक लक्षण में जमीन के समीप तने का छिलका गल जाता है।

प्रभावित भाग पर सफेद रंग का कवक स्पष्ट दिखाई देता है। तने के आधार के संक्रमित हो जाने की वजह से पूरा पौधा जमीन के पास से गिर जाता है या फिर पीला पड़कर उकठ जाता है। यह रोग आगामी फसल में जमीन पर गिरे हुए स्केलेरोशिया द्वारा फैलता हैं

प्रबन्धन

  • धान, मक्का, ज्वार, बाजरा का फसल चक्र सावधानीपूर्वक अपनाएँ क्योंकि इस कवक के संक्रमण का दायरा बहुत अधिक है।
  • खरपतवारों को पूरी तरह निकालकर खेतों को साफ रखना चाहिए।
  • गोबर की खाद एवं मिट्टी इत्यादि खेत में मिलाने से पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए की यह पहले से संक्रमित न हो।
  • गर्मियों में प्रभावित खेत की सिंचाई करके फिर जुताई करना चाहिए जिससे सक्रिय हुए स्केलेरोशिया अंकुरित होकर नष्ट हो जाए।
  • हरी खाद को खेत में पलटने के बाद ट्राइकोडर्मा चूर्ण 0 किग्रा0/हे. की दर से बुरकाव करना चाहिए।
  • रोपाई के पहले पौधों की जड़ों को 0 ग्राम ट्राइकोडर्मा/लीटर पानी के घोल में उपचारित करना चाहिए।
  • हमेशा अमोनियम नाइट्रेट उर्वरक का प्रयोग नत्रजन के लिए करें।
  • खेत की सफाई हेतु संक्रमित पौधों को जड़ सहित सुबह के वक्त उखाड़ना एवं इकट्ठा करके जलाना चाहिए।
  • बुआई के 20 दिन बाद 0 ग्राम/लीटर पानी की दर से ट्राइकोडर्मा को जलीय घोल के तने को भिगोकर तर करें।
  • शीघ्र नियंत्रण के लिए 0 ग्राम कॉपरआक्सीक्लोराइड/लीटर पानी की दर से एवं उसके 5 दिन बाद 1.0 ग्राम कार्बेन्डाजिम/लीटर पानी की दर से कालर भाग को भिगा देना चाहिए। भिगोने का कार्य शाम के समय करना चाहिए।

सोलेनेसी सब्जियों में जीवाणु उकठा:

यह रोग रालस्टोनिया सोलेनेसिएरम जीवाणु से उत्पन्न होता है। यह मुख्यतया उपोष्ण एवं समषीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में जहाँ मौसम आर्द्र-गरम होता है अधिक देखा जाता है। यह रोग सामान्यताः मिर्च, टमाटर, बैंगन एवं शिमला मिर्च में लगता है।

पौधों की पत्तियाँ मुरझाने लगती हैं। प्रभावित पौधों की जड़, तना या क्राउन भाग से अनुप्रस्थ काट काटने पर संवहन बण्डल से हल्के सफेद रंग का अपेक्षाकृत कम पारदर्शी जलश्राव देखा जाता है जिनमें जीवाणु बहुतायत होते हैं। रोगाणु मिट्टी में ही रहता है एवं लम्बे समय तक उसी में बना रह सकता है।

पौधों में जीवाणु मुख्यताः अन्तःसस्य क्रियाओं द्वारा होने वाले घावों एवं सूत्रकृमि द्वारा होने वाले सूक्ष्मछिद्रों से प्रवेश  करता है। अपेक्षाकृत अधिक मृदा नमी एवं तापक्रम तथा अम्लीय भूमि इस रोग के लिए अनुकूल होता है।

प्रबन्धन

  • रोग सहनशील प्रजातियाँ ही उगाना चाहिए क्योंकि रसायनों का प्रयोग न तो उचित है और न आर्थिक तौर पर लाभप्रद है।
  • संक्रमित क्षेत्र को एक वर्ष तक खाली रखने एवं डिस्क से गर्मी में जुताई करने से फसल अवशेष आसानी से सूख जाते हैं और जीवाणु की संख्या में कमी आ जाती है।
  • मिट्टी में प्रतिकारक जीवाणुओं, नीम की खली एवं कार्बनिक पदार्थो के प्रयोग से भी अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
  • इस रोग से बचाव के लिए मिट्टी का पी.एच. उदासीन करने की व्यवस्था करनी चाहिए क्योंकि अम्लीय मिट्टी में अधिक रोग लगता है।
  • भूमि को जल जमाव से बचाना चाहिए तथा भूमि में अच्छे जल निकास की व्यवस्था भी इस रोग के खिलाफ लाभदायक होता है।
  • अनाज वाली फसलों के साथ लम्बा फसल चक्र जिसमें बैंगन वर्गीय सब्जियों को न शामिल करना काफी लाभदायक होता है।

brinjal - बंझा रोग (लिटिल लीफ)बैंगन का बंझा रोग (लिटिल लीफ):

इस रोग का प्रमुख लक्षण, पत्तियों का अधिकाधिक छोटा हो जाना, गुच्छा बनना, पौधों का छोटी झाड़ीयुक्त हो जाना तथा गाँठों के बीच का भाग छोटा हो जाना इत्यादि है।

पत्तियाँ छोटी और पर्णवृंत अपेक्षाकृत कम कड़े रह जाते हैं। इनका रंग हल्का हरा, छूने में मुलायम और चिकना हो जाता है। फल यदि बनते हैं तो बहुत छोटे रह जाते हैं।

बैंगन के फल का बैंगनी रंग न होकर संक्रमण के बाद सफेद हो जाता है। प्रारम्भिक अवस्था में संक्रमण हो जाने पर पूरा पौधा बाँझ हो जाता है जिसमें फूल-फल नहीं लगते हैं।

यह रोग फाइटोप्लाज्मा नामक रोगाणु से होता है जो लीफ हापर कीट द्वारा प्रसारित किया जाता है। ऐसा देखा गया है कि अगेती रोपाई (जून-जुलाई) किए गए पौधों में यह रोग अधिक लगता है।

प्रबन्धन

  • रोगवाहक कीटों के नियंत्रण के लिए अन्तः प्रवाही कीटनाशक रसायनों (इमीडाक्लोप्रिड 5 मिली./ली. पानी)का छिड़काव करना चाहिए।
  • रसायनों का प्रयोग शुरू करने के पहले प्रभावित रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।
  • रोगवाहक लीफ हापर से बचने के लिए उचित होगा कि अगस्त के अन्तिम सप्ताह के पहले रोपाई न करें।
  • रोग के लक्षण प्रकट होते ही टेट्रासाइक्लीन 100 मिग्रा0/लीटर पानी के दर से घोल कर 10-12 दिन के अन्तर पर दो बार छिड़काव करना चाहिए जिससे रोगाणुओं की वृद्धि पौधों में न हो सकें।

तना एवं फल छेदक कीट:

यह बैंगन का प्रमुख कीट है। मादा तितली बैंगन की पत्तियों, मुलायम तनों, कलियों और फलों पर अण्डे देती हैं जो फटने के बाद नवजात सुण्डी बनकर अन्दर प्रवेश कर जाता है। इसके फलस्वरूप तना का ऊपरी भाग मुरझा कर लटक जाता है। फल वाली कलियाँ इनके प्रकोप से सूख जाती हैं। विकसित फल के अन्दर कीड़ा होने के कारण खाने के योग्य नहीं रह जाते हैं।

प्रबन्धन

  • तना बेधक द्वारा ग्रसित तनों को सुंड़ी सहित तोड़कर मिट्टी में दबा देना चाहिए। यह क्रिया हर हफ्ते में एक बार करना चाहिए।
  • फेरोमोन ट्रेप लगाकर वयस्क कीटों का सामूहिक ढँग से आकर्षित कर नष्ट करने से खेत में अण्डों की संख्या में काफी कमी हो जाती है।
  • नीम गिरी 4 प्रतिशत का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल पर फसल में छिड़काव लाभकारी सिद्ध हुआ है।
  • कोर्बोसल्फान 0 मि.ली. या कार्टाप हाइड्रोक्लोराइड 1.0 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर पन्द्रह दिन के अन्तराल पर बदल-बदल कर छिड़कना चाहिए।
  • ग्रसित फलों को तोड़कर उनके अन्दर की सूड़ी को नष्ट करके और सूखी पत्तियाँ हटाकर खेती करने से तना एवं फल बेधक का प्रकोप कम हो जाता है।

टमाटर फसल के रोग:

अगेती झुलसा:

यह रोग अल्टरनेरिया सोलेनाई के कारण होता है। जिसमें पत्तियों के किनारे के भाग एवं क्राउन भाग पर अनियंत्रित धब्बे दिखाई देते हैं। अगेती झुलसा के लक्षण पौधों के सभी भाग में दिखाई देते हैं। सर्वप्रथम संक्रमण कलियों पर आता है।

धीरे-धीरे धब्बे फल के अग्रभाग की तरफ बढ़ते हैं तथा फल और पुँज के जुड़ाव के बीच तक गोलाई बनाते हैं। फलों पर धब्बे गहरे, भूरे, दबे हुए, अस्पष्ट लगातार घेरे के रूप में दिखाई देते हैं।

प्रबन्धन

  • रोगों के बीजाणु को प्रभावित रूप से कम करने के लिए अन्य फसलों का फसल चक्र आवश्यक है जिसमें सोलेनेसी कुल शामिल न हो।
  • नीचे की प्रभावित पत्तियों तथा फसल अवशेष को जलाकर खेत साफ रखना चाहिए।
  • इस रोग की रोकथाम के लिए मेन्कोजेव 2 ग्राम/लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर आठ दिन के अन्तराल पर फूल आने के बाद दो बार छिड़काव करना चाहिए।

पछेती झुलसा:

यह रोग फाइटोफ्थोरा इनफेस्टान्स के कारण होता है। भारत में यह रोग दिसम्बर-जनवरी के महीने में दिखाई देता है। रोग पत्तियों के अग्र भागों और फलों पर आते हैं। झुलसी पत्तियों पर हल्के भूरे, भीगे, मृत उत्तक दिखते हैं। नम और बादली मौसम में पत्तियों के निचले प्रभावित क्षेत्रों के पास मृदरोमिल सफेद कवक बनता है।

झुलसा से प्रभावित कच्चे व पके फलों पर हरे एवं भूरे रन्ध्रयुक्त गद्देदार उत्तक हो जाते हैं, जिसको काटने पर खास गंध आती है।

प्रबंधन

  • खेत में पर्याप्त जल निकास की व्यवस्था करें तथा घनी रोपाई न करें।
  • पौधे के संक्रमित भाग और फलों को इकट्ठा करके जला देना चाहिए।
  • ठंडे, बादली और धुंध मौसम में 5 ग्राम मैंकोजेब/लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए, लेकिन छिड़काव का अन्तर 6-7 दिन का होना चाहिए।
  • संक्रमण के दो दिन के अन्दर मेटलक्सिल + मैंकोजेब दवा की 0 ग्राम/लीटर पानी की दर से एक बार छिड़काव प्रभावी होता है, लेकिन छिड़काव दुबारा नहीं करना चाहिए।
  • टमाटर में फाइटोफ्थोरा रोगों को कम करने के लिए पौधों को सहारा देकर ऊपर चढ़ाना चाहिए।

जटिल पर्ण कुंचन (लीफ कर्ल):

यह रोग सितम्बर से नवम्बर माह में सर्वाधिक आता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियाँ नीचे की ओर मुड़ी हुई, अनियमित, गुरचन, ऐंठन, हल्की पीली हो जाती है।

बाद में इस तरह से संक्रमित पौधों में फूल एवं फल नहीं बनते है। ज्यादातर खेतों में पर्ण कुंचन विषाणु एवं तम्बाकू मोजैक विषाणु साथ-साथ पाए जाते हैं। अतः दोनों के मिश्रित लक्षण पौधों पर प्रकट होते हैं।

प्रबन्धन

  • फसल तथा आसपास के क्षेत्रों का खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए।
  • सफेद मक्खी से बचाव हेतु पौधशाला में नाइलान जाली के अन्दर पौध तैयार करना चाहिए।
  • बीज को गरम पानी या 2 प्रतिशत ट्राईसोडियम फास्फेट के घोल में 25 मिनट भिगोकर शोधन करना चाहिए।
  • रोपाई के समय जड़ को इमिडाक्लोप्रीड 25 प्रतिशत घोल यानि 2.0 मिली./लीटर पानी की दर से बना कर 30 मिनट तक डुबा लें।
  • संक्रमित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।

फल छेदक कीटः

यह कीट टमाटर के छोटे फलों में छेद करके उसके गूदे को खाता है जिससे फलों में सूराख बन जाता है तथा पूरा फल नष्ट हो जाता है।

प्रबन्धन

  • टमाटर की रोपाई के समय 16 पंक्ति के बाद दो पंक्ति गेंदा की लगानी चाहिए। गेंदे के फूल पर कीट के अण्डा देने के बाद उसे तोड़कर जला दें।
  • ट्राइकोकार्ड अण्डा परजीवी 5 लाख अण्डे/हे. की दर से 15 दिन के अन्तराल पर फूल लगाने के समय लगाना चाहिए।
  • एच.एन.पी.वी. (300 एल.ई.) एक किग्रा गुड़ तथा 1 प्रतिशत चिपकने वाले पदार्थ को पानी में घोलकर 10 दिन के अन्तराल पर दोपहर बाद 3 बार छिड़काव करें।

मिर्च के रोग:

मिर्च में डाईबैक रोग कोलेटोट्राइकम कैपसिसी एवं कोइनोफोरा कैपसिसी कवकों द्वारा होता डाईबैक एवं एन्थे्रक्नोज: 

मिर्च में डाईबैक रोग कोलेटोट्राइकम कैपसिसी एवं कोइनोफोरा कैपसिसी कवकों द्वारा होता है जबकि एन्थे्रक्नोज केवल कोलेटोट्राइकम कैपसिसी द्वारा होता है।

ऊपरी मुलायम शाखाओं से यह रोग प्रारम्भ होता है और नीचे की ओर बढ़ता है। कोइनोफोरा के ग्रसित पौधों के गलित भागों जैसे पत्तियाँ एवं अग्रभाग में स्पष्ट काले बीजाणुधानी बन जाते हैं। जैसे-जैसे संक्रमण बढ़ता है शाखाएँ ऊपर से नीचे की ओर बढ़ते हुए सूख जाती हैं।

हरे फलों की बजाय लाल फलों पर लक्षण ज्यादा दिखता हैं। छोटा, अनियमित, दबा हुआ हल्का भूरा धब्बा पके फलों पर बनता हैं।

तोड़ाई के समय लगभग स्वस्थ दिखने वाले फलों में सूखते वक्त रोग के लक्षण दिखने लगते हैं। प्रथम फलत में यह रोग ज्यादा आता है। संक्रमित फलों के अन्दर बीजों तक रोगाणु फैल जाते है।

प्रबन्धन

  • मिर्च की रोपाई अगस्त के दूसरे पखवारे में करने से एन्थे्रक्नोज का संक्रमण बहुत कम हो जाता है।
  • बुआई के पूर्व 0 ग्राम कोर्बेन्डाजिम/किलो बीज की दर से बीजोपचार करें।
  • पौधशाला के पौधों पर रोपाई के 2 दिन पूर्व 0 ग्राम कार्बेन्डाजिम/लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें।
  • सुबह के समय मृदुरोमिल गलित भागों को थोड़ा स्वस्थ भागों सहित काटकर इकट्ठा करके जला देना चाहिए।
  • फूल आने के समय 0 ग्राम कार्बेन्डाजिम/लीटर पानी तथा 9 दिन बाद कॉपरआक्सीक्लोराइड की 3.0 ग्राम/लीटर पानी के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए।
  • अग्रस्त शाखाओं एवं कलियों को रोपाई एवं पुष्पन के समय यथासम्भव छति से बचाव करें।
  • प्रथम फलत के मिर्चों को बीज के लिए कभी भी न रखें।

पर्णकुंचन विषाणु (गुरचा रोग):

मिर्च में लीफ कर्ल विषाणु जनित रोग मुख्यतया सी.एम.वी., टी.एम.वी. एवं जेमिनी विषाणुओं द्वारा होता है।

पत्तियों का छोटा रह जाना, शिराओं का छोटा हो जाना, एवं पौधों का छोटा रह कर झाड़ीनुमा दिखना इसके प्रमुख लक्षण हैं।

पत्तियों की शिराओं में वाहृय वृद्धि हो जाने के कारण निचले तल पर शिराए स्पष्ट एवं मोटी दिखती हैं।

प्रबन्धन

  • बीज को 5 ग्राम इमिडाक्लोप्रिड/किलो बीज की दर से बीजोपचार करें।
  • सफेद मक्खी से बचाव हेतु पौधशाला को नाइलान जाली के अन्दर उगाना चाहिए।
  • इस रोग से प्रभावित न होने वाली, लम्बी बढ़ने वाली फसलें जेसे-ज्वार, बाजरा, मक्का इत्यादि की बैरियर फसल के रूप में उगाना चाहिए।
  • पुष्पन अवस्था तक मेटासिस्टाक्स 0 मिली./लीटर पानी के घोल की दर से 10 दिन के अन्तराल पर नियमित छिड़काव करें।
  • प्रारम्भिक अवस्था में ही रोगी पौधों का उखाड़कर जलाना चाहिए।

थ्रिप्स ओर माइट जनित गुरचा:

मिर्च का यह गुरचा, विषाणुजनित गुरचा से भिन्न होता है। पत्तियां नीचे की तरफ पतली होकर मुड़ जाती हैं। एवं निचला भाग चमकीला तथा हल्के रंग का हो जाता हैं। पौधों की ऊपरी पत्तियां बिल्कुल छोटी हो जाती हैं तथा निचले सतह पर हल्के पीले रंग के बहुत छोटे थ्रिप्स तथा सफेद रंग के माइट दिखायी पड़ते है।

प्रबन्धन

  • बीज का शोधन इमिडाक्लोप्रिड 70 प्रतिशत दवा का 0 ग्राम/किलो बीज की दर से बीजोपचार करें ।
  • घुलनशील गंधक 0 ग्राम/लीटर की दर से घोल बनाकर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर एकान्तरित छिड़काव करते रहें।

गोभी वर्गीय सब्जियाँ में रोग

मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू):

भारत में उगाई जाने वाली गोभी वर्गीय फसलों में पत्ता गोभी तथा फूलगोभी प्रमुख है। यह बीमारी पेरोनोस्पारो पैरासिटिका कवक द्वारा होता है। रोग पौधशाला से फूल बनने तक कभी भी लग सकता है। सूक्ष्म, पतले बाल जैसे सफेद कवक तन्तु पत्ती के निचली सतह पर दिखते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर जहाँ कवक तन्तु दिखते हैं वहीं पत्तियों के ऊपरी सतह पर भूरे नेक्रोटिक धब्बे बनते हैं जो रोग के तीव्र हो जाने पर आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं।

प्रबन्धन

  • पूर्व फसल के अवशेषो केा जलाकर खेत की सफाई्र, रोगमुक्त बीजों का चयन एवं फसल चक्र अपनाना इस रोग के रोगाणु की प्रारम्भिक संख्या कम करने में बहुत सहायक है।
  • मैन्कोजेब कवकनाशी की 5 ग्राम/लीटर पानी की दर से रोग की प्रारम्भिक अवस्था में 6 से 8 दिन के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें ।
  • मेटालेक्सिल + मैन्कोजेब कवकनाशी की 0 ग्राम/लीटर पानी के घोल की दर से रोग की अधिक प्रखरतायुक्त दशाओं में केवल एक बार छिड़काव करना चाहिए।
  • कवकनाशी के जलीय घोल को पत्तियों पर चिपकने के लिए 5-1.0 मिली./लीटर पानी की दर से स्टिकर का प्रयोग अवश्य करें।

अल्टरनेरिया पर्णदाग:

अल्टरनेरिया पर्णदाग फूलगोभी में बढ़वार की प्रारम्भिक अवस्था में जबकि पत्तागोभी में बाद की अवस्थाओं में आता है। यह बीमारी अल्टरनेरिया ब्रैसिकी तथा अल्टरनेरिया ब्रैसिसीकोला दोनों से होता है। पर्णदाग निचली पत्तियों पर गोल, भूरे धब्बे बनते हैं जिसमें छल्लेदार रिंग स्पष्ट दिखती है। आर्द्रतायुक्त मौसम में इन्ही धब्बों पर काले बीजाणु बन जाते हैं फूलगोभी के खाने वाले भाग पर भी काले धब्बे बनते हैं। बीज की फसलों में पुष्पक्रम तथा फलीयाँ बुरी तरह प्रभावित होती हैं। पत्तागोभी की ऊपरी पत्तियाँ संक्रमित हो जाती हैं।

प्रबन्धन

  • संक्रमित निचली पत्तियों को सुबह के समय तोड़कर इकट्ठा करके जला देने पर रोग का असरदार प्रबन्धन होता है।
  • शाम के समय मैन्कोजेव कवकनाशी की 0 ग्राम/लीटर पानी की दर से तथा 0.1 मिली स्टीकर के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

जीवाणु काला गलन (ब्लैक राट):

यह रोग जैन्थेमोनास पीवी कम्पेसट्रिस जीवाणु द्वारा होता है। पत्तियों के किनारों से प्रारम्भ होकर मुख्य शिरा की ओर स्पष्ट आकार का पीला धब्बा बढ़ता है। अधिक संक्रमण की दशा  में पत्तियाँ चारों तरफ से पीली दिखाई देती है।

खेत में फसल के दौरान यदि आँधी के साथ ओलावृष्टि हो जाती है तो रोग की प्रबलता बहुत बढ़ जाती हैं। जीवाणु पर्णरन्ध्रों द्वारा, बीजपत्रों में प्रवेश करते हैं।

स्वस्थ पौधों में यह रोग, पत्तियों के किनारों पर स्थित जल निकास छिद्रों द्वारा कीट जनित घावों द्वारा, संक्रमित मिट्टी द्वारा, ओला वृष्टि के बाद घावों द्वारा, अन्त:सस्यी कृषि क्रियाओं के दौरान एवं रोपाई के लिए प्रयुक्त पौध द्वारा फैलता है।

प्रबन्धन

  • अगले वर्ष प्रयोग हेतु स्वस्थ पौधों के बीज का चुनाव करें।
  • उष्ण जल या स्ट्रेप्टोसाइक्लीन की 0 ग्राम/10 लीटर पानी के घोल द्वारा 30 मिनट तक बीजोपचार करें।
  • सरसों वर्गीय सब्जियों को फसल चक्र में न शामिल करें।
  • संक्रमित निचली पत्तियों को दोपहर बाद जब जीवाणुयुक्त ओस की बूँदें सूखी रहती हैं, तब तोड़ लें और इकट्ठा करके जला दें।
  • पौधशाला के स्थान को हर वर्ष बदलते रहना चाहिए।
  • जैवनियंत्रक जीवाणुओं का मिट्टी में प्रयोग करना चाहिए।
  • 10-15 दिन के अन्तराल पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन की 0 ग्राम/6 लीटर पानी की दर से या कासुगामाइसिन की 2.0 ग्राम/लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।
  • स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0 ग्राम/10 लीटर पानी एवं कापर आक्सीक्लोराइड 3.0 ग्राम/लीटर के मिश्रण को 0.5-1.0 मिली चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिलाकर भी एक बार प्रयोग करें।

हीरक पृष्ठ एवं स्पोडोप्टेरा कीट:

इस दोनो कीट का प्रकोप फूलगोभी की फसल पर ज्यादा होता है। इन कीटों के लार्वा पत्तियों की निचली सतह को खाते है और छोटे-छोटे छिद्र बना देते हैं। स्पोडोप्टेरा पत्तियों को जालीदार बना देता है।

प्रबन्धन

  • शुरू की अवस्था में स्पोडोप्टेरा की लार्वी एकसाथ झुंड में रहती है तब पत्ती को तोड़कर जला देना चाहिए।
  • हर 25 लाइन गोभी के चारो तरफ दो लाइन सरसों या चाइनीज पत्तागोभी की बुवाई करना चाहिए जिससे इस कीट का प्रौढ़ आकर्षित होकर उसी पर अण्डा दे।
  • 5 प्रतिशत नीम की गिरी का घोल बनाकर 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए।
  • गोभी की खेती बहुत अगेती या पछेती जब तापक्रम अधिक हो तब नहीं करें क्योंकि इसी समय इन कीटों का प्रकोप सबसे अधिक होता हैं।

Authors

आशीष कुमार गुप्ता*, चन्द्रभान सिंह, बिनोद कुमार एवं परमानंद परमहंस

भा॰ कृ॰ अनु॰ प॰ – भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रिय केन्द्र पूसा, समस्तीपुर बिहार-848 125

*Email: ashish.pathology@gmail.com

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