भिण्डी एवं मिर्च के प्रमुख रोगों का एकीकृत प्रबंधन

भिण्डी एवं मिर्च के प्रमुख रोगों का एकीकृत प्रबंधन

Integrated management of Major diseases of Okra and Chilli

1. भिण्डी में पाऊडरी मिल्डयू अथवा चूर्ण फंफूदी रोग

रोग के लक्षण –

यह भिण्डी का एक प्रमुख रोग है जो देरी से बोई गई फसल पर अत्यधिक संक्रमण करता है। रोग के लक्षण की शुरूआत पुरानी पत्तियों पर सफेद चकते के रूप में दिखाई देते है। ये चकते कुछ ही दिनो में ऊपर की और अन्य पत्तियों पर फैल जाते है।

संक्रमित पौधों की पत्तियों पर सफेद पाऊडर जैसा रोगजनक देखा जा सकता है जो पत्तियों के दानो तरफ तथा पौधे के सभी भाग पर (जड़ के अतिरिक्त) पर देखा जा सकता है बाद में पौधे का ऊपरी भाग पीला पड़कर सूखने लगता है। पौधे की वृद्वि कम जाती है। रोग प्रभाव से दाने सिकुड़े हुये प्राप्त होते हैं।

रोगजनक – एरीसाइफी सिकोरेसिएरम

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण –

रोग जनक खेत में संक्रमित पादप अवषेषों पर उतरजीवी रहने वाले क्लिस्टोथीसिया से एक मौसम से दूसरे मौसम मे खेत में पहुँचता है। परपोषी पौधो पर कवकजाल विद्यमान रह सकता है जो प्राथमिक निवेश द्रब्य का कार्य करता है । रोग जनक का द्वितीयक प्रसार वातोढ कोनिडियमों द्वारा होता है।

रोग के तीब्र विकास के लिये उच्च तापमान, निम्न आर्द्रता एवं वायु प्रवाह के साथ कम वर्षा सर्वाधिक अनूकुल कारक है। इस रोग के विकास के लिये १५ – २८  से० ग्रे० के बीच मध्य तापमान ६० प्रतिशत से कम मध्य अपेक्षित आर्द्रता तथा कम वर्षा अनुकूल होती है।

2. भिण्डी में पीला शिरा मोजेक

रोग के लक्षण –

पीला शि‍रा मोजैक भिडी का सबसे महत्वपूर्ण रोग है इसका प्रकोप लगभग सभी खेतों में देखने को मिल जाता है। इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु की फसलों में होता है। संक्रमित पौधों की पत्तियां पीली एवं सिकुड़कर मुड़ी हुई निकलती है अपेक्षाकृत मोटी सी शिराऐ संक्रमित पौधों में बनती है।

रोग का प्रकोप किसी भी समय हो सकता है इसकी सभी पत्तियों पीली सी हो जाती है और एैसे पौधों से पीले एवं छोटे फल प्राप्त होते है। रोगग्रसित पौधे दूर से अलग पीले दिखाई देते है।

रोगजनक – पीला शिरा मोजेक विषाणु

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण-

यह वायरस जनित रोग है छोटी सफेद मक्खी रोग के प्रसार में सहायक होती है इसका नाम बेमिसिया टैबकाई है। यह रोग भिण्डी के अतिरिक्त अन्य कुछ खरपतवारो से भी संक्रमित करता है कुछ संक्रमित पौधे पुरे खेत में संक्रमण करने के लिए पर्याप्त होते है यह वायरस खरपतवार अथवा जंगली भिण्डी की सहायता से अगले वर्ष तक उत्तरजीवी होते है।

3. मिर्च में आर्द्रपतन

रोग के लक्षण-

इस रोग में रोगजनक का आक्रमण बीज अंकुरण के पूर्व अथवा बीज अंकुरण के बाद होता है। पहली अवस्था में बीज का भ्रूण भूमि के बाहर निकलने से पूर्व ही रोगग्रसित होकर मर जाता है। मूलांकुर एवं परंकुर बीज से बाहर निकल आते फिर भी वे सड़ जाते है

दुसरी अवस्था में बीज अंकुर के बाद कम उम्र के छोटे पौधो के तनों पर भूमि से सटे तनों पर अथवा भूमि के अंदर वाले भाग पर संक्रमण हो जाता है जिससे जलसिक्त धब्बे बन जाते है और पौधा संक्रमित स्थान से टुट कर गिर जाता है पौधों में गलने के लक्षण भी दिखाई देते है। रोग का प्रकोप नम भूमि मे ज्यादा होता है।

रोगजनक – पिथियम, फाइटोफ्थोरा, स्क्लेरोशियम, फ्यूजेरियम आदि ।

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण-

रोगजनक भूमि में या पादप अवशेषों पर काफी समय तक जीवित रहता है। इन रोजनकों के जिवाणु जैसे पोषित कवकजाल स्क्लेरोशियम आदि प्रतिकुल मौसम में भी भूमि में पड़े रहतें है एवं अनकुल वातावरण निकलने पर उग जाते है तथा यही प्राथमिक निवेश द्रव्य का काम करते है। रोग के संक्रमण के लिए २५- ३०  डिग्री तापमान अनुकूल होता है।

4. श्यामवर्ण एवं फल सड़न

रोग के लक्षण- मिर्च का यह बहुत महत्वपूर्ण रोग है जिसका प्रभाव पत्तियों के साथ साथ फलों पर भी पड़ता है। संक्रमित फलों की बाजार मे कम कीमत प्राप्त होती है। इस रोग में पौधों की ऊपरी भाग सुखने लगता है यह प्रभाव पौधे की एक दो शाखाओं अथवा सभी शाखाओं पर हो सकता है इन सूखे हुए भाग की सभी पत्तियाँ सूखकर गिर जाती है इस अवस्था को डाईबैक कहते है।

सूखी हुई शाखाओं पर काले काले से अनेक बिन्दूनुमा रोगजनक की संरचनाएं बनती है जिसे एसरबुलाई कहते है। रोग पक रहे फलों पर ज्यादा आक्रमण करता है और छोटे छोटे गोल काले धब्बे बनाता है लेकिन ये फल पकने के साथ सूखी धास के समान बदरंग हो जाता। उग्र अवस्था मे संक्रमित फल सिकुड़ जाते है तथा उनका वजन कम हो जाता है।

रोगजनक – कोलेटोट्राइकम केप्सीकी

रोगचक्र एवं अनकुल वातावरण-

रोगजनक पौध अवशेष में विशेषकर गिरे हुये प्रभावित फलों पर मिट्टी में उत्तरजीवी रहता है रोगजनक का द्वितीय संक्रमण पौधों के प्रभावित भाग पर कोनिडिया द्वारा होता है जिनका प्रसार हवा तथा वर्षा की बूदों द्वारा होता है।

5. जीवाणु म्लानि

रोग के लक्षण-

संक्रमित पौधों की पत्तियाँ अचानक मुरझाकर नीचे की और झुक जाती है और अन्त में पुरा पौधा सूख जाता है। इसमें पत्तियों पर किसी प्रकार के धब्बे नही बनते है तनो को काट कर देखने पर इसमे संक्रमण को देखा जा सकता है।

रोगजनक – रालस्टोनियां सोलेनेसिएरम

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण-

खेत में नमी की अधिकता एवं अधिक तापमान रोक की संक्रामकता बढ़ाने के लिये अनूकूल होता है।

6. पर्ण चित्ती

रोग के लक्षण- इस रोग में पत्तियों, तनों व फलों पर छोटे गोलाकार जलसिक्त धब्बे बनते हैं। संक्रमित पौधों की पूरी पत्तियाँ पीली पड़ जाती है तथा गिर जाती है। जिससे पैदावार पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है।

रोगजनक- सर्कोस्पोरा कैप्सिकी

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण-

रोगजनक के विषाणु पौध अवशेषों में खेत में पड़े रहते है। नई फसल आने पर यह पौधों को संक्रमित करते है तथा एक बार संक्रमण हो जाने पर दूसरे पौधों में रोग का प्रभाव होता है। संक्रमण के लिये तीन दिन तक उच्च आर्द्रता अनुकूल पाई गई है। अधिक नाइट्रोजन तथा फास्फोरस युक्त खाद देने से रोग का प्रकोप बढ़ जाता है जबकि पोटाश से उसमे कुछ कमी आती है।

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों के अन्दर रोग जनक के बीजाणु शिशिरातिजीवी बने रहते है, जो नये मौसम में आरंभिक निवेश द्रव्य का कार्य करते है । अनुकूल वातावरण में कोनिडिया का अंकुरण जनन नलिका द्वारा होता है तथा आरंभिक संक्रमण होता है। द्वितियक संक्रमण पत्तीयों के धब्बों पर उत्पादित बहुसंख्यक कोनिडिया द्वारा होता है जो वायु, वर्षा के प्रवाह आदि द्वारा स्वस्थ पत्तीयों पर पहूचते हैं।

भिण्डी में समेकित रोग प्रबंधन

  • स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग करें।
  • गर्मी के दिनों में गहरी जुताई करे जिससे प्राथमिक संक्रमण कम हो जाता है।
  • खेत मे पाये जाने वाले फसल अवषेष एवं खरपतवार को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए।
  • स्वस्थ पौधें एवं दाग रहित फलों से ही बीज बनाऐं।
  • खेत में जल निकास का उचित प्रबंध अवश्य करें।
  • खेत में रोगों का संक्रमण ज्यादा होने पर लगातार एक ही खेत में भिण्डी की खेती से बचना चाहिऐ तथा उचित फसल चक्र को अपनाना चाहिऐ।
  • पीला शिरा मोजेक रोगरोधी प्रजातिया जैसे परभनी जी.७ अर्का अनामिका का चुनाव किया जा सकता है।
  • खेत में १०० किग्रा प्रति हेक्टेयर नीम की खली का प्रयोग भी काफी फायेदेमंद होता है।
  • मृदा जनित रोगों से बचाने के लिये बीज को थीरम 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज अथवा थीरम़़ ़कार्बेन्डाजीम (२़३) ३ ग्राम प्रति किलो बीज अथवा ऐप्रोन ४ ग्राम प्रति किग्रा बीज को उपचारित करें
  • खेत में चूर्णिल आसिता के के लक्षण दिखने के लक्षण दिखने पर हेक्साकोनाजोल १ मिली0ध्लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें अथवा गंधक का चूर्ण ३  ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर १० दृ १५  दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।
  • मोजेक संक्रमण के फैलाव के रोकने के लिये डाइमेथोएट की ५ मीली दवा १० लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। 

मिर्च में समेकित रोग प्रबंधन

  • स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग करें।
  • गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें।
  • खेत में जल निकास का उचित प्रबंध करें एवं संतुलित खाद का प्रयोग करें।
  • खरपतवार ,जो कि इस रोग के प्राथमिक निवश द्रब्य का काम करते है, खेत से निकाल देना चाहिए ।
  • जिन क्षेत्रो मे रोग ब्यापक रूप से लगता हेै कम से कम दो से तीन वर्ष का फसल चक्र्र अपनायें ।
  • मिर्च की रागरोधी प्रजातियाँ जैसे – वायरस रोधी – पूसा सदाबहार, अर्का हरिता, अर्का मेधना, अकी स्वेता, हिसार शामती, हिसार विजय पत्त सी-१ और फल सड़न रोधी – हिसार शक्ति, हिसार विजय, फूले मुक्ता
  • स्वस्थ पौधों से ही बीज का चुनाव करें।
  • मृदा का उपचार कैप्टान ०.३ प्रतिशत की दर से करें।
  • बीज को थीरम 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज अथवा थीरम़़ ़ कार्बेन्डाजीम (२़१) ३ ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें ।
  • बीजोपचार ट्राइकोडर्मा ५ ग्रामध्किग्रा बीज से करना भी लाभप्रद होता है।
  • रोग जनक मुक्त नर्सरी से ही पौधों की रोपाई करे।
  • फल विगलन के लक्षण दिखने पर कापर आक्सीक्लोराइड ०.३ प्रतिशत या डाइफेनोकोनाजोल ०.१ प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
  • खेत मे जीवाणु म्लानी का लक्षण दिखने पर स्ट्रेम्टोसाइक्लिन की १ ग्राम मात्रा १० लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
  • विषाणु से ग्रसित पौधों को देखते ही उखाड़कर जला दे ।
  • वायरस के संक्रमण के फैलाव के रोकने के लिये डाइमेथोएट की १ मीली दवा २ लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़कव करें।
  • कवकनाशी अथवा कीटनाशी का प्रयोग करने से पूर्व ही फल की तुड़ाई कर लें।

Authors

डा. दिनेश राय एवं  डा. संजय कुमार सिंह

पादप रोग विभाग, डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा,  बिहार समस्तीपुर

Email: drai1975@gmail.com

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