दुधारू पशुओं के लिए आहार प्रबंधन 

डेयरी व्यवसाय के लिए उत्तम नस्ल के साथ-साथ आहार प्रबंध अति आवश्यक है। उचित आहार प्रबंध से न केवल पशु अधिक दूध देते हैं बल्कि उसकी शारीरिक बढ़वार, प्रजनन क्षमता एवं स्वास्थ्य पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। लाभप्रद डेयरी व्यवसाय हेेतुु पशु को बचपन से लेकर वृद्धि की विभिन्न अवस्थओ, प्रजनन काल एवं उत्पादन काल के दौरान समुचित पोषण उपलब्ध होना चाहिए।

बछड़े-बछड़ियों की उनकी आरंभिक अवस्था में वृद्धि एवं मृत्यूू, गर्भकाल में माँ केे आहार प्रबंधन से प्रभावित होता है । बछड़ियों को जन्म के 2 घंटे के अंदर माँ का खीस पिलाना आवश्यक है। खीस की मात्रा निर्धारण बछड़ियों के शारीरिक भार पर निर्भर करता है। जब बछड़ियों को माँ के साथ रखा जाता हैं, तो आवश्यकतानुसार वे माँ से पोषण ले लेती हैं। परन्तु यदि कृत्रिम विधि से पाला जा रहा है, तो इस बात का महत्व और भी अधिक हो जाता है।

आरंभिक अवस्था में दूध बच्चे के लिए सम्पूर्ण आहार का कार्य करता है इसलिए उसे समुचित मात्रा में दूध उपलब्ध होना चाहिए। नवजात के पालन - पोषण में सबसे महत्वपूर्ण स्थान खीस पिलाने का है। खीस न मिलने से बछड़े-बछियों में रोगो से लड़ने की क्षमता का विकास नही हो पाता हैै, साथ ही बीमार होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः नवजात बछड़ों की प्रथम दो से तीन दिनों के जीवन में खीस पिलाने का विषेष महत्व होता है।

कभी-कभी किसी कारणवस जैसे - गाय केे बिमार होने पर या अकस्मात मर जाने पर या थन में चोट लगने पर नवजात को अगर सीधे थनों से खीस उपलब्ध न हो तो दूसरे गाय या भैस की खीस पिलानी चाहिए। इस अवस्था में जब बच्चों को माँ से अलग करना पड़े तो एक चैड़े बर्तन में खीस या दूध निकालकर पिलायें।

खीस में भिगोंकर हाथ की अंगूलियाँ बच्चें के मुँह में डालें। बछड़ा अंगूली चुसेंगा तथा उसका मुँह धीरे-धीरे खीस के पास ले जाऐं। जब बच्चें का मुँह खीस के सतह को छूने लगे तब अंगुली को भी खीस में डूबा दंे। बछड़ा अंगुली तो चूसेगा साथ ही खीस भी उसके मुँह में जाने पर वह तेजी से चूसना शुरू कर देगा।

बछड़ों को खीस न मिलने पर समतुल्य प्रतिपूरक आहार देना चाहिए । जिसमे दो अण्डा $ एक औंस अरण्डी का तेल $ आधा किलोग्राम दूध 4 से 5 दिनो तक देना चाहिए। नवजातों को अत्यधिक खीस एक बार में नही पिलाकर दिन में दो से तीन बार देना चाहिए। एक दिन में इसके भार का 2.5 प्रतिशत मात्रा में ही खीस देनी चाहिए। बछड़े-बछड़ियों मेें विकास को सुनिश्चित करने हेतु उम्र के दूसरे महीने से उन्हें दाना युक्त आहार के साथ सुपाच्य हरे चारे भी संतुलित मात्रा में उपलब्ध करा देना चाहिए।

इस प्रकार पाले गए बछड़े-बछड़ियों का शरीर भार छः महीने की उम्र में 100-125 किलो तक हो जाता है। इस उम्र में इन पशुओं का यदि समुचित आहार प्रबंध सुनिश्चित हो जाए तो उनका शारीरिक विकास निरंतर होता रहा है। इस अवस्था में उनकाेे पर्याप्त हरे चारेे के अलावा नियमित रूप से प्रोटीन युक्त दाना भी उपलब्ध होना चाहिए। दाने में प्रोटीन की मात्रा 20-22 प्रतिशत एवं कुल पाच्य पदार्थ 72-75 प्रतिशत तक होनी चाहिए।

इस समय बछड़ियों में 500-600 ग्राम वृद्धि प्रतिदिन सुनिश्चित करने हेतु उन्हें 1.5 किलो दाना प्रतिदिन खिलाने की आवश्यकता होती है, इसके अतिरिक्त 10 - 15 किग्रा अच्छा चारा भी खिलाना चाहिए। सूखे व हरे चारे की मात्रा क्रमशः एक एवं दो के अनुपात में रखना चाहिए।

अच्छी देखभाल से बछड़ियों का शरीर-भार एक साल की उम्र तक 150-225 किलो तक हो जाता है और 18 महीने की उम्र तक यह वनज बढ़कर 225 से 300 किलो तक होने पर पशु गर्मी दिखा देता है।

छोटी नस्ल के पशु जैसे देशी एवं जर्सी नस्ल आदि 200-225 किलो वनज तक पहुँचने के बाद गर्भघारण योग्य हो जाते हैं, परन्तु गर्भधारण योग्य उम्र भारी नस्लों जैसे होल्सटीन, हेड-डेन आदि में 275-325 किलो होती हैैै। यह उम्र भैंसों में 300 - 325 किग्रा हो सकती है। गोपशु लगभग 16-18 महीने में एवं भैंसें करीब 22-24 महीने में इस वनज तक पहुँच जाती हैं।

बछड़ियों में गर्भधारण करने के उपरान्त से ही उचित पोषण की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। ऐसी बछड़ियों का शारीरिक भार भी पूर्ण विकसित नहीं होता अतः उन्हें स्वयं के अनुरक्षण एवं शरीर में पल रहे बच्चे के संपोषण के अलावा शारीरिक वृद्धि हेतु भी उचित पोषण की आवश्यकता होती है।

गाभिन पशु के प्रारंभ के 5-6 महीने में बच्चे की बढ़वार हेतु विशेष अतिरिक्त राशन की आवश्यकता नहीं होती परन्तु अन्तिम 2-3 महीनों में माँ के गर्भ में बच्चा तेजी से बढ़ता है अतः इस दौरान उसे समुचित मात्रा में अतिरिक्त आहार की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में कितना अतिरिक्त आहार दिया जाए इसका निर्धारण उसकी शारीरिक दशा देखकर करना चाहिए।

पशु के शरीर में इतना पोषक तत्वों का संचय हो कि बच्चे का पूर्ण भरण-पोषण करने हेतु पर्याप्त हो तथा ब्यांत की प्रारंभिक अवस्था में जब पशु की आहार ग्रहण करने की क्षमता काफी कम होती है, दूध देने हेतु भी पर्याप्त हों। अधिक दूध देने में सक्षम गायों एवं भैंसो का इस अवस्था में समुचित पोषण उनकी आने वाली ब्यांत में अधिक दूध उत्पादन दे सकने की क्षमता पर बहुत असर डालता है।

सम्पूर्ण ब्यांत की अवधि में दुधारू पशुओं का समुचित पोषण डेयरी पालन व्यवसाय की रीढ़ है। सबसे महत्वपूर्ण काल ब्यांत की शुरूआत का काल होता है क्यांेकि इस अवधि में दिया गया पोषण यह निर्धारित करता है कि पशु अपनी क्षमतानुसार उत्पादन करने में सक्षम है या नहीं।

पशु के ब्याने के बाद आहार

  • ब्याने के बाद पशु को तत्काल कार्बोहाइड्रेटस चारा जैसे - मक्का खिलाना चाहिए।
  • ब्याने के 3-4 दिनों तक तैलीय खल्लियाँ न दें।
  • दाने की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए जिससे एक या दो सप्ताह में मादा अपनी निर्वाह एवं उत्पादन की आवश्यकतानुसार अधिक से अधिक दाना खा सकें।
  • ब्याये पशु को गेहूँ का दलिया, गुड़, सोठ और अजवाइन आदि को मिलाकर हल्का पकाकर खिलाना चाहिए।
  • पशु को गुनगुना पानी पीने के लिए इच्छानुसार दें।
  • पशुशाला की सफाई फिनाइल/किटाणुनाषक/निसंक्रामक की घोल से करें।
  • पशु को पूर्ण आहार क्षमता तक शीघ्र पहुँचे हेतु सुपाच्य एवं अधिक उर्जा घनत्व वाले आहारीय पदार्थाें का अधिक प्रयोग करना लाभप्रद होता है, अतः इस दौरान पशु को संतुलित आहार दें।
  • पशुपालक सही और संतुलित आहार से पशु को दूध उत्पादन क्षमता तक शीघ्र पहुँचा सकते हैं ।
  • एक बार जब पशु अधिकतम दूध उत्पादन तक पहुँच जाए तो पशु की खुराक दूध उत्पादन के स्तर के अनुरूप निश्चित की जानी चाहिए।
  • चारे से दूध लेना सबसे सस्ता होता है, अतः भरपूर हरे एवं सूखे चारे का प्रयोग पशु आहार में अवश्य करें।
  • जीवन निर्वाह राशन के अतिरिक्त गाय को दूध उत्पादन के लिए 3 लीटर दूध पर प्रति दिन 1 किलो दाना-मिश्रण तथा भैंसों को 2.5 लीटर दूध पर 1 कि0ग्रा0 दाना दिया जाता है।
  • एक गाय को प्रतिदिन 50-60 ग्राम खनिज मिश्रण तथा 100 कि0ग्रा0 भार पर प्रतिदिन 8-10 नमक ग्राम देना चाहिए।
  • 10 कि0 ग्रा0 दूध देने वाली पशुओं के लिए एक दिन का औसत राशन 10-12 कि0ग्रा0 हरा चारा और 5-6 कि0ग्रा0 भूसा और 3.5 कि0ग्रा0 दाना मिश्रण है।
  • जब भी दाने में परिवर्तन करें, धीरे-धीरे करें, अचानक परिवर्तन करने से पशु के पाचनतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
  • दुधारू पशुओं को समय-समय पर कैल्शियम युक्त औषधियाँ अवश्य देते रहना चाहिए। जिससे मिल्क फीवर, दूध की कमी आदि होने का भय नहीं रहता है।
  • अधिक उत्पादन हेतु पशुओं के आहार में वसा/तेल का प्रयोग भी 300-400 ग्राम प्रति पशु प्रति दिन किया जाना चाहिए जो कि दाने की खल से पशु को मिल जाता है।
  • पशु के आहार को सुनिश्चित करते समय उसकी शारीरिक दशा पर पैनी नजर रखनी चाहिए, पशु न अधिक कमजोर हो और न ही अधिक मोटा होना चाहिए।

साथ ही इन बातों का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए कि पशु ब्याने के समय अत्याधिक मोटा न हो जाये, क्योंकि अधिक मोटे पशु में बयाने के दौरान एवं ब्याने के बाद की परेशानियों के होने की संभावनाएँ काफी बढ़ जाती हैं।

कभी-कभी गाभिन पशु को अधिक आहार खिलाने से बछड़े-बछड़ियों का आकार बहुत बढ़ जाता है और पशु को ब्याने के समय परेशान होती है। यह परेशानी सामान्य तौर पर मोटे पशु को अधिक होती हैं। अधिक मोटे पशु में ब्याने के बाद पशु की आहार ग्रहण करने की क्षमता काफी कम हो जाती है।

संतुलित पशु आहार और उसके महत्व

पशु आहार में प्रमुख तत्व हैं, उर्जा, प्रोटीन, वसा, विटामिन व खनिज पदार्थ। विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के लिए इन तत्वों की आवश्यकता अलग-अलग होती है। संतुलित पशु आहार के लिए आवश्यक है कि यह तत्व भोजन में पर्याप्त मात्रा में पशु को अनुरक्षण के लिए उसके शरीर भार के अनुसार राशन में दिया जाना चाहिए ।

देश के अधिकतर पशुओं को उनकी आवश्यकता के अनुसार पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता। देश में आहार मात्रा की कमी के साथ-साथ इसकी गुणवत्ता में भी कमी है। पशुओं को खिलाने के लिए अधिकतर किसान सूखे चारों का अधिक प्रयोग करते हैं जिसमें प्रोटीन, उर्जा प्रदान करने वाले तत्व, खनिज पदार्थ व विटामिन की कमी होती है।

ऐसे आहार पर पाले गए पशुओं में कई तत्वों की कमी के कारण भार वृद्धि दर में कमी, परिपक्वता में देरी, गर्मी में न आना, दो ब्यांतों के बीच अधिक अंतर, प्रजनन में कमी गर्भपात आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

इसी प्रकार नर पशुओं के कुपोषण से उनके शारीरिक भार में कमी, वीर्य में शुक्राणुओं का अभाव, टैस्टोस्टरीन हारमोन का असंतुलन व काम प्रवृति में कमी के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। प्रजनक सांड़ों को उसके प्रजनन हेतु उनकी निर्वाह आवश्यकता से 25-30 तक अतिरिक्त राशन और देना चाहिए।

पशु आहार में उर्जा का महत्व

पशु आहार में सबसे अधिक मात्रा उर्जा देने वाले तत्वों की होती है। उर्जा का शारीरिक विकास, परिपक्वता, प्रजनन दर, ब्यांत आयु आदि पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जिन पशुओं के आहार में उर्जा कम होती है, उनमें शारीरिक भार वृद्धि दर कम होने से परिपक्वता की आयु में देरी हो जाती, जिसके फलस्वरूप पशुओं में प्रजनन दर भी घट जाती है। गाभिन पशुओं को संतुलित उर्जा वाले चारे न मिलने पर गर्भपात भी हो सकता है।

उर्जा का महत्व ब्यांत के पश्चात और ज्यादा हो जाता है ताकि दुग्ध उत्पाद ठीक से हो सके। दुग्ध उत्पादन पर दुष्प्रभाव के साथ-साथ कम आहार पर रखे पशुओं में ब्यांत के बाद डिम्ब उत्सर्जन क्रिया में भी विलंब हो जाता है। ब्याने के उपरांत पशु ऋणात्मक उर्जा में रहता है एवं उर्जा देने वाले तत्वों की कमी से केट®सिस हो सकता है।

यदि इस समय उसे प्रोटीनयुक्त संतुलित आहार न दिया जाए तो प्रजनन संबंधित हारमोन इस्ट्रोजन, प्रोजिस्ट्रोन इत्यादि का संतुलन खराब हो जाता है जिसमें पशु गर्भ धारण करने में काफी समय लेता है।  पशुओं के आहार में अधिक उर्जा होने पर भी प्रजनन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और डिम्ब ग्रंथियों में वसा जमा हो जाती है। साँड़ सुस्त हो जाते हैं और वीर्य में कमी आ जाती है।

यदि आहार में प्रोटीन अच्छी किस्म की नहीं है तब भी आमाशय में रहने वाले सूक्ष्म जीवाणु घटिया किस्म की प्रोटीन को उत्तम प्रोटीन में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं। लेकिन इससे मिथयोनीन, नाईसीन इत्यादि अमीना एसिड की आवश्यकता पूरी नहीं होते हैं। इन अमीनो एसिड को साँड़ों को देने से वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या व गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी हो जाती है।

आहार में कम प्रोटीन होने पर बछड़ियों में मदकाल के लक्षण देर से प्रकट होते हैं वे अधिक सर्विस देने से गाभिन होती है। प्रोटीन की आवश्यकता गाभिन पशुओं में भ्रूण की वृद्धि के कारण ज्यादा होती है। इसलिए गर्भित पशु में बच्चे के विकास हेतु 6 माह या इससे अधिक अवधि की गर्भवती बछिया व देशी गाय को अतिरिक्त आहार के रूप में 1.0 किल¨ग्राम दाना तथा भैंस में  1.5 किल¨ग्राम दाना देनी चाहिए।

पशु आहार में खनिज लवण एवं विटामिन का महत्व

पशु आहार में खनिज लक्षण व विटामिन शारीरिक वृद्धि, दुग्ध उत्पादन एवं प्रजनन हेतु महत्वपूर्ण है। खनिज लवण मुख्यतः कैल्शियम, फास्फोरस, काॅपर, कोबाल्ट, जिंक, मैगनीज और आयोडीन प्रजनन से संबंध रखते हैं। दूध में कैल्शियम ज्यादा होता है इसलिए आहार में कैल्शियम और फास्फोरस संतुलित मात्रा (2ः1) में होनी चाहिए।

इन दोनों लक्षणों की कमी से परिपक्वता में देरी, मदकाल का देर से होना आदि हो जाता है। फास्फोरस की कमी से साँड़ों में वीर्य बनना कम हो जाता है। लवणों की कमी से पशु मे अनियमित गर्मी, क्षीण मद लक्षण और अमद की अवस्था दर्शाते हैं।

गाभिन पशु के लवणों की कमी गर्भपात व भ्रूणकुपोषण का कारण बन सकती है या कमजोर व मृत बच्चे पैदा हो सकते हैं। गाभिन पशुओं को अंतिम दो महीनों में 1000 मिली ग्राम विटामिन ‘इ‘ प्रतिदिन देने से ब्यांत के पश्चात उनमें थनैला रोग की संभावना कम हो जाती है तथा प्रजनन क्रिया सुचारू ढ़ंग से काम करता है। 

वयस्क पशुओं के आहार में 30-50 ग्राम प्रतिदिन अच्छी किस्म का खनिज मिश्रण दुग्ध उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता ठीक रखता है। बछड़े व बछड़ियों को 15-20 ग्राम खनिज लवण दूध के साथ प्रतिदिन देने से भार वृद्धि दर अच्छी हो जाती है और बच्चे बीमार नहीं होते हैं।

हरे चारे में बीटा-कैराटीन की मात्रा 250-750 मिली ग्राम प्रति किल¨ग्राम तक होती है। पशु को दिन में 3-4 किलो हरा चारा देने से उसकी विटामिन ‘ए‘ की आवश्यकता पूरी हो जाती है जो पशु को गर्मी में लाने और रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में सहायक है।


Authors:

बिभा कुमारी, रणवीर कुमार सिन्हा एवं निशांत प्रकाश

कृषि विज्ञान केन्द्र, लोदीपुर, अरवल

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