Use of plastic culture in agriculture
जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। हमारी कृषि भी प्लास्टिक से अछूती नहीं रह पाई है। वर्तमान मे कृषि मे अच्छी पैदावार लेने के लिए प्लास्टिक सामग्रियो का उपयोग तेजी से बड रहा है और दुनिया भर में खाद्य उत्पादन के लिए उपयोग किया जा रहा है।
कृषि मे प्लास्टिक सामग्रियों का परिचय 1940 के दशक में प्रशिक्षक ई.एम.एम. एम्र्ट द्वारा विकसित किया गया था जो एक बागवानी के वैज्ञानिक है जिनको प्लास्टिक ग्रीनहाउस के पिता माना जाता है। एम्र्ट ने कृषि मे प्लास्टिक कल्चर द्वारा होने वाले लाभ के बारे में बताया। कृषि मे पहली बार प्लास्टिक का इस्तेमाल एम्मर्ट द्वारा ग्रीन हाउस बनाने के लिए किया था और उस समय के अधिक विशिष्ट ग्लास ग्रीनहाउसों को प्रतिस्थापित किया गया था।
कृषि मे प्लास्टिक कल्चर को बढ़ावा देने के लये 1981 में केमिकल और पेट्रो रासायनिक विभाग द्वारा एक समिति गठित की गई थी और फिर इसे कृषि मंत्रालय (एमओए) से जोड़ा गया था। भारत में 1981 के बाद से प्लास्टिक का उपयोग खेती में होने लगा, जो मुख्य रूप से प्लास्टिक की खेती पर केंद्रित थी। इस प्रकार कृषि में प्लास्टिक का उपयोग किया जाने लगा
प्लास्टिक कल्चर खेती पांच प्राथमिक अवधारणाओं पर आधारित है
- प्लास्टिक हस्तक्षेप के माध्यम से बागवानी और कृषि में प्लास्टिक को बढ़ावा देना और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना।
- देश में प्लास्टिक की खेती के प्रचार के लिए उपयुक्त उपाय की सिफारिश करना ।
- खेती के लिए ड्रिप, सिंचाई आदि के उपयोग में वृद्धि करना
- पोस्ट फसल प्रबंधन सुनिश्चित करना ।
- इसके प्रति आर एंड डी गतिविधियों को बढ़ावा देना
आज प्लास्टिक कल्चर ही है जिसके चलते सुदूर उत्तर भारत एवं उत्तर पूर्वी भारत के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र जैसे श्रीनगर, लेह, लद्दाख, शिलाँग इत्यादि क्षेत्रों में साग-सब्जियों, कट-फ्लावर की खेती एवं फलोत्पादन संभव हो सका है। इसके प्रयोग से रेगिस्तान की ऊबड़-खाबड़ एवं बेकार पड़ी जमीन पर वहाँ के किसान वहीं की विपरीत आबोहवा एवं दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों में न केवल साग-सब्जियों एवं फल-फूलों की व्यवसायिक खेती कर रहे हैं।
खेती में आज प्लास्टिक का उपयोग कई रूप में हो रहा हैं। जैसे-सिंचाई के उपकरणों में, पॉली हाउस में, पॉली टनेल, शेड, नेट हाउस में, पलवार या मल्च के तौर पर, प्लास्टिक ट्रे के रूप में और प्लास्टिक से बने सोलर ड्रायर के रूप में।
वर्तमान मे प्लास्टिक कल्चर खेती की पैदावार और परिणामी कृषि आय बढ़ाने के लिए सबसे अधिक मांग की जाने वाली तकनीक है। यह अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि विशेष रूप से कृषि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (जीडीपी) में 14% योगदान देती है जबकि 50% से अधिक आबादी सीधे या परोक्ष रूप से आजीविका के लिए निर्भर है। इसके अलावा, प्रमुख मॉनसून सीजन के दौरान वर्षा की अनियमित प्रकृति भी राष्ट्रीय आय को जोखिम में उजागर करती है।
भारत वैश्विक आबादी का 18%, भूमि क्षेत्र का 2.4% और 4% जल संसाधनों का समर्थन करता है जिससे पानी का न्यायिक उपयोग और अधिक सर्वोपरि हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (यूएनएफओओ) द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, कृषि (सिंचाई और पशुधन) भारत में 90% से अधिक ताजा जल निकासी के लिए जिम्मेदार है, जो वैश्विक औसत से ऊपर है।
कृषि में प्लास्टिक का मुख्य उपयोग जल प्रबंधन में है, जिसे काफी आवश्यक, वैज्ञानिक रूप से सिंचाई तकनीक अर्थात माइक्रो सिंचाई के माध्यम से महसूस किया जा सकता है। प्लास्टिक की खेती के द्वारा पानी की बर्बादी में कमी, बाहरी एजेंटों से प्रदूषण की रोकथाम और मिट्टी के कटाव को कम किया जा सकता है। प्लास्टिक उत्पादन के प्रभावी उपयोग के माध्यम से कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
परंपरागत खेती के तरीकों की तुलना में आधे से कम पानी का उपयोग करके, कम जमीन पर दो से तीन गुना अधिक फसलों को प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक युग में प्लास्टिक का उपयोग के हर क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है और कृषि जगत भी इससे अछूता नहीं रहा हैं। लोहे एवं लकड़ी का उपयोग कम हुआ हे।
कृषि कार्यों में प्लास्टिक का प्रयोग:
सिंचाई में प्लास्टिक :
पानी की किल्लत दिनों दिन एक प्रकार की गंभीर समस्या बनती जा रही है और ऐसे में कृषक वर्ग भी इस समस्या से अछूता नहीं हैं। हमारे देश के ज्यादातर किसान इस समस्या से जूझ रहे है। दिनों दिन जमीन में पानी का स्तर गिरता जा रहा है। ऊपर से पानी का यू ही बेकार में बह जाना इस समस्या को और जटिल बना देता है।
प्लास्टिक तकनीक के अंतर्गत एच डी पी ई (हाई डेनसिटी पॉली इथाइलीन पॉलीमर) एवं एल डी पी ई (लो डेनसिटी पॉली इथाइलीन पॉलीमर) पाइपों का इस्तेमाल कर कई तरीकों से सिंचाई की जा रही हैं। इस से पानी की बचत के साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों में बढ़ोत्तरी होती है।
स्प्रिंकलर या फव्वारा सिंचाई :
इस विधि में फव्वारों द्वारा पौधों पर पानी बारिश की फुहार जैसा गिरता है। ऊँची-नीची जमीनों पर आसानी से खेती की जा सकती है क्योंकि इस विधि द्वारा पौधों की सिंचाई की जा सकती है। खुली सिंचाई की अपेक्षा फव्वारा विधि में पानी की बचत होती है।
इसमें फसल के मुताबिक स्प्रिंकलर को सही दूरी पर लगा दिया जाता है। पम्प के इस्तेमाल से पानी तेज बहाव के साथ स्प्रिंकलर के ऊपर लगी नोजल से फुहार बन कर बाहर गिरता है। स्प्रिंकलर, मिनी स्प्रिंकलर, मिस्टर एवं पॉप अप इत्यादि आजकल चलन में है। फसल के अनुसार इनका चयन एवं उपयोग किया जाता है।
बूंद-बूंद सिंचाईः
बूंद-बूंद सिंचाई तकनीक के अन्तगर्त पानी को पौधों की जड़ों में उनकी जरूरत के अनुसार बूंद-बूंद गिरा कर पहुँचाया जाता है। इस तरीके में पानी के स्रोत (ट्यूबवेल प्लास्टिक या सीमेंट का टैंक) से एक मोटी मुख्य पाईप जुड़ी होती है और इससे सबमेन पाईप लाईन निकलती है उसे लेटरल कहते हैं। जो पूरे खेत में बिछी होती है और इन लेटरल पर बारीक छेद कुछ अंतराल (दूरी) पर ऊपर या अंदर लगे होते हैं जिन्हें ड्रिपर्स कहते हैं।
जहाँ से बूंद-बूंद पानी निकलता हैं, जो की पौधों की जड़ां के आस-पास की जमीन को गीला करते हैं। ड्रिपर्स दो प्रकार के होते हैं ऑन-लाईन ड्रिपर्स एवं इन-लाईन ड्रिपर्स।
ऑन-लाईन ड्रिपर्स फलों के बगीचों में जहाँ पौधों की दूरी एक मीटर से ज्यादा होती है, उपयोग लिया जाता है और एक मीटर से कम दूरी होने पर इन-लाईन ड्रिपर्स लगाए जाते हैं। खासतौर पर सब्जियों एवं फूलों के उत्पादन के दौरान इनका उपयोग होता है।
फर्टिगेशनः
पानी में खाद या रसायनिक उर्वरक मिलाकर बूंद-बूंद सिंचाई द्वारा पौधों की जड़ो के आस-पास जरूरत के अनुसार देना फर्टिगेशन कहलाता है। इसके लिए ड्रिप सिंचाई के अलावा फर्टिगेशन टैंक या वेन्चुरी का प्रयोग किया जाता है।
इस फर्टिगेशन विधि को अपनाकर किसान अपनी मेहनत, समय एवं धन की बचत कर सकते हैं। साथ ही अच्छी गुणवत्ता एवं अधिक मात्रा में उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं वो भी बिना प्रदूषण बढ़ाए।
ड्रम किट ड्रिप सिंचाईः
इस तरीके से जरूरत के मुताबिक जगह-जगह सौ या डेढ़ सौ लीटर वाले मजबूत प्लास्टिक के ड्रमों को 3 मीटर ऊँचे सिमेंट के स्टैंड पर रख दिया जाता है। इन ड्रमों से पानी को निकलने के लिए लगाए पाइपों में गेट वॉल्व व फ़िल्टर लगाए जाते हैं ताकि जरूरत नही होने पर गेट वॉल्व को बंद कर पानी की सप्लाई को रोका जा सके। जहाँ कम बरसात होती है उस क्षेत्र की बागवानी फसलों के लिए यह तरीका किसी वरदान से कम नहीं है।
प्लास्टिक मल्चः
जमीन पर उठी हुई क्यारियाँ बनाकर उसपर प्लास्टिक की काली या दूधिया या चाँदी के रंग वाली परत बिछा दी जाती हैं। इसे ”प्लास्टिक मल्च“ कहते है। आमतौर पर 25 माइक्रोन मोटाई वाली परत मल्च के लिए उपयुक्त रहती है।
इससे मिट्टी में नमी ज्यादा समय तक बनी रहती है, जिससे बूंद-बूंद वाली सिंचाई तकनीक में और भी कम पानी लगता है क्योंकि पानी का वाष्पोत्सर्जन रूक जाता है। खरपतवार नहीं उग पाते हैं जिससे निराई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है इस प्रकार समय एवं धन की बचत होती है।
सिल्वर ब्लैक मल्च का उपयोग करते समय सिल्वर सतह को ऊपर रखा जाता है और काली सतह अंदर की तरफ रखी जाती है। इससे पानी की बचत एवं खरपतवार नियंत्रण में सहायता होती है और कीट-पतंगों का प्रकोप भी कम होता है। इसलिए सिल्वर ब्लैक मल्च ज्यादा प्रचलन में है।
प्लास्टिक थैलियाँ एवं नर्सरी लगाने वाली प्लास्टिक ट्रे:
ट्रे (प्रो ट्रेज)रू आज बागवानी या दूसरी फसलों की नर्सरी तैयार करते समय फूलों व सब्जियों के लिए 10-15 सें.मी. व फलों के लिए 15-20 सें.मी. आकार की थैलियाँ इस्तेमाल की जाती हैं। साथ ही नर्सरी उगाने वाली प्लास्टिक ट्रे का प्रयोग साग-सब्ज़ियों की नर्सरी (पौध) तैयार करने के लिए किया जाता है। इसके मुख्य लाभ इस प्रकार हैं-
- पोलिथीन बैग (प्लास्टिक थैलियाँ) के पौधे में अगर बीमारी लगे तो उसी पौधे पर असर होता है। और उसे आसानी से उठाया जा सकता है। इसके अलावा पौधों को आसानी से कहीं भी लाया व ले जाया जा सकता है।
- नर्सरी ट्रे में सभी पौधों की बढ़वार बहुत अच्छी एवं समान रूप से होती हैं।
- पौधों की जड़ों का विकास बहुत अच्छा होता है, जिससे ये तुरंत जमीन (मिट्टी) में स्थापित हो जाते हैं।
इस तरीके से बीजों का अंकुरण भी बढ़िया होता है और पौधे कम मरते हैं।
ग्रीन हाउस:
लोहे के पाइपों या लकड़ी से बना एक ऐसा ढ़ाँचा है जो कि एक पारदर्शी आवरण से ढका होता है जिसमें से सूर्य की किरण जो कि पौधों के लिए उपयुक्त पाई जाती है अंदर आ सकती है। विशेषतौर से 400 से 700 नैनों मी. वेवलेंथ वाली किरणें जिसकी हम प्रकाश सक्रिय किरणें कहते हैं।
पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए उपयुक्त होती है। अगर यह पारदर्शी ढ़कने की सामग्री प्लास्टिक परत (पॉलीथिन शीट) काम में ली जाती है तो इसे पॉली हाउस कहते हैं। पॉली हाउस में कट फ्लावर की खेती, गुलाब, जरबेरा, कारनेसन, गुलदाउदी और (रंगीन शिमला मिर्च) की खेती की जाती है। अगर यह पारदर्शी ढ़कने की सामग्री शेड-नेट की जाली है तो उसे शेड-नेट कहा जाता है।
शेड-नेट हाउस में रंगीन शिमला मिर्च, चेरी टमाटर, ब्रोकरी, लेट्यूस, लाल गोभी, हरा धनिया और सब्जियों की पौध, फलों की पौध एवं जंगली पौधों की नर्सरी तैयार करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। पॉली हाउस एवं शेड-नेट हाउस घर की तरह ढांचे के आकार का होता है। जिसे 200-400 माइक्रोन मोटाई वाली सफेद/पीली प्लास्टिक परत से ढका जाता है।
यह ढांचा हरित-ग्रह प्रभाव के अनुसार काम करता हैं। जिसमें आबो हवा को काबू में करके बेमौसमी फसलों को भी उगाया जा सकता है। वास्तव में प्लास्टिकल्चर ने खेती में कई बदलाव किए हैं जिनसे पैदावार को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।
प्लास्टिक कल्चर के लाभः
मिट्टी का तापमान बढ़नाः
सर्दियों मे मृदा का तापमान बहुत कम हो जाता है । सब्जियों मे प्लास्टिक मल्च उपयोग करने से मृदा तापमान मई वर्धि । ब्लैक मल्च द्वारा 2 इंच की गहराई तापमान 4 से 5 डिग्री फारेनहाइट, व् स्पष्ट मल्च के द्वारा 8 से 10 डिग्री फारेनहाइट तापमान मे वर्दी होती ह जो की सर्दियों मई अति आवश्क है।
मिट्टी की कठोरता मे कमी:
प्लास्टिक मलच द्वारा नीचे की मिट्टी ढीली, भुरभुरी और अच्छी तरह वायुमंडलीय संतुलन बना रहता है । जड़ो के पास पर्याप्त ऑक्सीजन और माइक्रोबियल गतिविधि बनी रहती है।
उर्वरक का लीचिंग कम होना:
पानी मल्च से गुजरता है, जिसके परिणामस्वरूप उर्वरक का अधिकतम उपयोग होता है। फसलों को गिरने से बचाता है: मलच द्वारा अतिरिक्त पानी बह जाता है और इससे फसलो को खड़े रहने मे मदद मिलती है और अतिरिक्त पानी के तनाव भी नहीं रहता है।
फसलों को गिरने से बचाता है:
मलच द्वारा अतिरिक्त पानी बह जाता है और इससे फसलो को खड़े रहने मे मदद मिलती है और अतिरिक्त पानी के तनाव भी नहीं रहता है।
वाष्पीकरण मे कमी:
मृदा मे पानी प्लास्टिक के मल्च के नीचे से नहीं बचता है। मल्च पर पौधे की वृद्धि अक्सर कम से कम दो बार होती है जो सामान्य मिट्टी पर नहीं होती है। परिणाम स्वरुप बड़े पौधों को अधिक पानी की आवश्यकता होगी, इसलिए नक़्क़ाशी सिंचाई के लिए एक विकल्प नहीं है।
खरपतवार की समस्याएं मे कमी:
ब्लैक एंड आईआरटी प्लास्टिक मल्च पंक्ति में अच्छी खरपतवार नियंत्रण प्रदान करता है।
पानी की बचत:
प्लास्टी कल्चर द्वारा पानी की काफी बचत होती हैड्। बूंद बूंद सिचाई द्वारा 40 -70% स्पिन्क्लेर सिचाई द्वारा 30-40% पोंड लाइन द्वारा 100% ग्रीन हाउस द्वारा 60-85% व् प्लास्टिक मल्च द्वारा 40-60% पानी की बचत होती है.
फसलो मे वृद्धिः
प्लास्टिक मलच द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) जो एक गैस जो प्रकाश संश्लेषण में प्रमुख महत्व का है। प्लास्टिक के नीचे सीओ 2 के बहुत उच्च स्तर का निर्माण होता है, क्योंकि फिल्म इसे बचने की अनुमति नहीं देती है।
इसे पौधों के लिए प्लास्टिक में बने छेद के माध्यम से आना पड़ता है और “चिमनी प्रभाव“ बनाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सक्रिय रूप से बढ़ती पत्तियों के लिए प्रचुर मात्रा में सीओ 2 की स्थानीयकृत सांद्रता होती है।
लेखक :
*अनीता मीणा , जीतेन्द्र कुमार ,* कमलेश कुमार, माधुरी मीना एवम नीतु मीना
*भाकृअनुप. : केन्द्रीय शुष्कु बागवानी संस्थामन, बीछवाल, बीकानेर
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