Increase in sugarcane production in Bihar with improved techniques

ईख की खेती बिहार के किसानों की अर्थव्‍यवस्‍था का आधारभूत स्‍तम्‍भ है। इस आधुनकि युग में गन्‍ना किसान, गन्‍ना शोध संस्‍थान, चीनी उद्योग व्‍यवस्‍था एवं गन्‍ना विकास विभाग के सामुहिक सक्रिय प्रयास से ही लक्ष्‍य को प्राप्‍त करना संभव है। किसानों के साथ चीनी मिलों की आर्थिक स्थिति में वृद्धि की काफी प्रबल संभावनाऐं हैं। गन्‍ने का उत्‍पादन प्रति एकड़ कम हो रहा है, आय घट रही है तथा उत्‍पादन लागत बढ़ रहा है। इसका मुख्‍य कारण आधुनकि तकनीक से खेती करने की विस्‍तृत जानकारी का अभाव है।

अभी भी गन्‍ने की खेती पुरानी पद्धति से बड़े पैमाने पर किसान बँधुओं द्वारा किया जा रहा है। अत: किसानों को उन्‍नत तकनीकों को अपनाकर खेती करने हेतु बड़े पैमाने पर जागरूक करने की आवश्‍यकता है ताकि प्रति ईकाई उत्‍पादकता में वृद्धि एवं उत्‍पादन लागत में कमी कर किसान एवं चीनी उद्योग की आर्थिक स्थ्तिी मजबुत हो सके एवं आत्‍म निर्भर बन सके। अन्‍य प्रदेशों के तुल्‍ना में बिहार प्रदेश की उत्‍पादकता बहुत कम है।

गन्‍ने की उत्‍पादकता कम होने के कई कारण है, जैसे कि अनुशांसित प्रभेदों की खेती ना होना, विभिन्‍न परिस्थितियों के लिए गन्‍ने के उपयुक्‍त प्रभेदों की कमी , रोप हेतु सही विधि तथा उचित समय का अनुसरण ना करना, कीट व्‍याद्यि से मुक्‍त बीज का ना होना एवं सही ढंग से बीज का उपचारित ना होना। मिट्टी में सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों की कमी, जैविक अंश की कमी एवं सही मात्रा में पोषक तत्‍वों की कमी, सिंचाई की अपर्याप्‍त सुविधा एवं वर्षा काल में जल जमाव की स्थिति बना रहना, खरपतवार का सही वक्‍त पर नियंत्रण ना करना, रोग एवं कीट नियंत्रण हेतु वक्‍त रहते समेकित निदान में कमी, खेटी फसल का सही ढंग से प्रबंधन का ना होना एवं मिट्टी जॉंच के आधार पर पोषक तत्‍वों का प्रयोग ना करना आदि। इसके और भी कई वजह है, परन्‍तु निम्‍न मुख्‍य बिन्‍दुओं पर ध्‍यान आकृष्‍ट किया जाय तब जाकर अन्‍य प्रदेशों की तरह भी अधिक उत्‍पादकता का लक्ष्‍य हासिल किया जा सकता है।

जहॉं तक क्षेत्रफल बढ़ाने का प्रश्‍न है यह तभी पूरा हो सकता है जब किसानों को लगातार गन्‍ने का उचित लाभकारी मुल्‍य प्राप्‍त होते रहे एवं अन्‍य सुविधाँए जैसे सिंचाई, सड़क, खाद एवं उर्वरक की पूर्ति, यांत्रिकरण, बिजली आदि भी मौजूद हो। गन्‍ने फसल का भविष्‍य काफी उज्‍जवल है, इसलिए की आने वाले समय में गन्‍ने की खेती सिर्फ चीनी उद्योग के लिए ही नहीं बल्कि ईथनाल, एवं बिजली उत्‍पादन भी एक अहम लक्ष्‍य होगा।

गन्‍ने की उत्‍पादकता लगभग 100 टन/हे० होनी चाहिए वह सिर्फ 65 टन/हे० है। खुँटी फसल का कुल ईख क्षेत्रफल लगभग 42 प्रतिशत हिस्‍सा है वही सिर्फ 35 प्रतिशत हिस्‍सा उत्‍पादन में है। इस तरह यह स्‍पष्‍ट है कि उत्‍पादकता की कमी, गन्‍ने का कम उत्‍पादन तथा किसानों को कम आर्थिक लाभ एक महत्‍वपूर्ण वजह है। अत: गन्‍ना किसान निम्‍न उन्‍न्‍त तकनीकों को अपनाकर अधिक से अधिक लाभ हासिल कर सकते है।

उत्‍तम एवं अनुशांसित प्रभेदों का चुनाव रोप हेतु प्रयोग करना चाहिए। पुराने किस्‍मों के रोगग्रस्‍त हो जाने पर या उपज क्षमता में कमी हो जाने पर व्‍यवसायिक दृष्टिकोण से उन प्रभेदों को खेती में उपयोग नहीं किया जाता है एवं उन प्रभेदों की जगह उत्‍तम किस्‍मों का प्रयोग किया जाता है अनुशांसित प्रभेदों को परिपक्‍वता के आधार पर दो भागों में बॉंटा गया है। आगात एवं मध्‍य पिछात समूह। बिहार प्रदेश के लिए उपयुक्‍त प्रभेदों में सी० ओ० पी० 9301, बी० ओ 153, बी० ओ 154, Rajendra Ganna-1, सी० ओ० पी०, 2061, सी० ओ० पी० 112, बी० ओ० 139 आदि उपयोग कर अधिक उपज एवं चीनी प्राप्‍त किया जा सकता है इन प्रभेदों में अधिक चीनी की मात्रा के साथ उपज क्षमता एवं खूँटी फसल की पैदावार की क्षमता भी अच्‍छी है।

मशीन द्वारा एक ऑंख की बीज गेंड़ी को काटकर अधिक क्षेत्रफल एवं तेजी से बीज के फैलाव हेतु गन्‍ने की खेती कर लाभ उठाया जा सकता है। एकल गॉंठ विधि द्वारा गन्‍ने की खेती हेतु 15-20 किंवटल गन्‍ने की आवश्‍यकता पड़ती है जबकि पारंपारिक विधि तीन ऑंख की गेड़ी से खेती करने पर 50-60 किवंटल बीज की आवशयकता होती है। एकल गॉंठ विधि से 70-80 प्रतिशत बीज की बचत होती है एवं अँकुरण 90 प्रतिशत से भी ज्‍यादा होती है।

एक गॉंठ विधि द्वारा रोप हेतु बीज दर कम लगने से बीज को एक जगह से दूसरे जगह तक ले जाने में परिवहन का खर्च कम लगता है एवं आसानी होती है। 8-10 माह का स्‍वस्‍थ ईख से एक ऑंख की गेंड़ी काटकर एक ग्राम कार्बेन्‍डाजीम फफुदनाशी एवं 0.5 मि०ली० ईमिडाक्‍लोप्रिड कीटनाशी प्रति ली० पानी के घोल में 30 मिनट तक उपचारित किया जाता है तथा उसके उपरान्‍त पौली बैग अथवा ट्रे में पौधा तैयार कर प्रत्‍यारोपण कर खेती की जाती है। इस विधि से खेती करते वक्‍त ध्‍यान देने वाली बातें है कि सिराउर खोलकर नाली में हल्‍की सिंचाई कर नमी बनाऐ रखना चाहिए। गॉंठ को नाली में रखते हुए हल्‍का दबा देना चाहिए, ऑंखे उपर की ओर होनी चाहिए एवं बीज को 3-4 से० मि० तक ही मिट्टी से ढ़ँकना चाहिए।

दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई आबादी एवं किसानों की प्रति व्‍यक्ति आय में गिरावट दुर करने, स्थिरता बनाये रखने एवं खाद्य पदार्थो की पूर्ती हेतु सह फसली खेती एक टिकाऊ विकल्‍प के रूप में पाया गया है। गन्‍ना लम्‍बी अवधि, दूरी पर कतारों में एवं सालभर का फसल है। गन्‍ने की रोप के उपरान्‍त, अँकुरण, स्‍थापना एवं बढ़वार लगभग 3-4 माह तक धीरे-धीरे होता है। इन 3-4 महीनों के दरमेयान पक्तियों के बीच में अन्‍य फसल जैसे गन्‍ने के साथ मुँग, सरसो, मटर, मसूर, गोभी, राजमॉं, धनिया, प्‍याज, लहसून, आलू, हरा चना आदि फसलों को सुगमता पूर्वक लगाया जा सकता है।

3-4 फीट की दुरी पर बुआई करने से पौधों को सूर्य की रोशनी निरन्‍तर प्राप्‍त होता रहता है, जिससे उपज में बढ़ोतरी होती है, कतारों की दुरी ज्‍यादा होने से अन्‍तरवर्ती फसल लेने एवं यांत्रिक विधि से कृषि कार्य में सुगमता होती है। इससे खर-पतवार का नियंत्रण होता है एवं साथ ही साथ कीट व्‍यधि का आक्रमण भी काफी कम हो जाता है। गन्‍ने के साथ सह फसली खेती करने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है साथ में वायुमंडल के नाईट्रोजन को भी स्थिर करने में सहायक होता है।

इस तरह सह फसल लगाने से किसानों को खेती का खर्च भी 3-4 माह में प्राप्‍त होता है जो कि लागत को कम करने में भरपूर सहायक होता है। अन्‍तरवर्ती खेती करने के लिए कृषकों को बिहार सरकार से अनुदान की भी व्‍यवस्‍था है जो कि एक गन्‍ना किसानों के लिए राहत और आय में वृद्धि का मार्ग है।

अधिक ईख एवं चीनी उत्‍पादन प्राप्‍त करने के लिए ईख में लगने वाले बिमारियों से बचाव करना अनिवार्य हो जाता है, क्‍योंकि रोग के आक्रमण के कारण उपज एवं चीनी की मात्रा में 10-15 प्रतिशत या उससे भी अधिक की कमी हो जाती है। अत: वक्‍त पर रोगों को पहचानकर उचीत निदान हेतु महत्‍वपूर्ण बिन्‍दुओं पर ध्‍यान देकर अधिक उत्‍पादन प्राप्‍त किया जा सकता है। गन्‍ने के फसल कटने के बाद खेत में बचे सूखी पत्तियों अथवा कटे-फटे अवशेवों को जमा करके नष्‍ट कर देना चाहिए साथ ही साथ गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई करना चाहिए जिससे कि ईख अवशेषों पर पलने वाले और भूमि के अन्‍दर के जीवाणु नष्‍ट हो जाते है।

प्रमाणित बीज एवं रोगमुक्‍त खेतों से स्‍वस्‍थ बीज को 0.1 प्रतिशत कार्बेनडाजीम फफुनदनाशी के घोल में 30 मिनट तक उपचारित कर ही रोप करना चाहिए। रोगग्रस्‍त खेतों में खूँटी फसल नहीं लेना चाहिए तथा उन खेतो में 2-3 वर्षों तक धनिया, लहसुन, सरसों, प्‍याज, धान, गेहूँ तथा अन्‍य सब्‍जी वाले फसलों को लगाना चाहिए। खेतों में जल जमाव की स्थिती में रोगों का प्रकोप बहुत तेजी से बढ़ता है अत: गन्‍ने के रोप के लिए ऊँची जमीन का चुनाव करें यदि यह संभव ना हो तो जल निष्‍कासन का उचित प्रबंधन अतिआवश्‍यक है।

किट नियंत्रण हेतु ईमिडाक्‍लोरपीड 0.5 मि० ली० प्रति ली० पानी के घोल से फसल पर छिड़काव करना चाहिए जिससे विषाणुजनित रोगों के फैलाव में कमी होती है कॉपर ऑक्‍सीक्‍लोराईड अथवा मैनकोजेब 3 ग्राम प्रति ली० घोल का छिड़काव करने से पर्ण धब्‍बा एवं गलित शिखा रोगों में कमी होती है।

दिन प्रतिदिन अधिक उपज प्राप्‍त करने हेतु खेतों में अत्‍याधिक मात्रा में रासायनिक खाद एवं दवा का अँधाधुन उपयोग से मिट्टी का उर्वरा शक्ति लगातार गिरता जा रहा है साथ ही साथ उत्‍पादन क्षमता में भी कमी होती जा रही है। अत: मिट्टी को स्‍वस्‍थ बनाये रखने के लिए मिट्टी जॉंच जरूर करना चाहिए। मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने एवं उत्‍पादन क्षमता में बढ़ोतरी के लिए कम्‍पोस्‍ट एवं गोवर की खाद, हरी खाद, जीवाणु खाद एवं रसायन खाद आदि का उपयोग कर कई समस्‍याओं का निदान किये जा सकते है एवं खेत को अधिक उपज प्राप्‍त करने हेतु बनाया जा सकता है।

ईख का बढ़वार जैसे-जैसे होता है, निचे की पत्तियॉं सुखने लगती है जिसे ट्रैस कहा जाता है इसमें जैविक कार्बन, नाईट्रोजन, फास्‍फोरस एवं पोटैशियम होता है। 6-7 महीने की अवधि वाले गन्‍ने में डी-ट्रेसिंग करने से हवा की आवाजाही होने लगती है जो कि ईख के बढ़वार हेतु उपयुक्‍त जलवायु का निर्माण करता है साथ ही साथ रोग एवं किट के प्रकोप में भी कमी होती है। ट्रैस को दो कतार के बीच में बिछाकर युरिया 50 किलो प्रति हेक्‍टेयर की दर से उपयोग करने से सूखी पत्तियॉं सँड़ जाती है एवं खाद के रूप में काम करती है।

मुरहन फसल की अपेक्षा खूँटी फसल की खेती कम लागत से कर अधिक आय प्राप्‍त की जा सकती है। परन्‍तु खूँटी फसल में सही से ध्‍यान ना देने एवं वक्‍त रहते उचित प्रबंधन ना करने से फसल की उपज में काफी कमी हो जाती है एक से अधिक खूँटी फसल लेने से लगभग मुरहन फसल के अपेक्षा खेती की तैयारी एवं बीज की लागत में लगभग 25-30 प्रतिशत तक की बचत होती है। वक्‍त रहते उन्‍नत तकनीक को अपनाकर अधिक आय प्राप्‍त की जा सकती है। उचित समय पर स्‍टवल सेविंग, रिक्‍त जगह को भरकर, मिट्टी एवं खूँटी का उपचार जैसे कि कटे हुए भाग पर कार्बेन्‍डाजीम 1 ग्राम प्रति ली० पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। खूँटी फसल में 4-5 सिंचाई की आवश्‍यकता होती है एवं खरपतवार को नियंत्रण करने के लिए अन्‍तरकर्षण करना चाहिए। साथ ही साथ 33 किलो/हे० की दर से फ्युराडान कीटनाशी उपयोग कर मिट्टी चढ़ा कर सिंचाई करनी चाहिए। रोग एवं कीटों के प्रबधन के साथ अधिक खूँटी क्षमता वाले प्रभेदों का चुनाव कर रोप करना चाहिए। मोरहन फसल की तुलना में खूँटी फसल पहले परिपक्‍व होते हैं अत: खूँटी फसल को सबसे पहले पेराई हेतु चीनी मिलों में आपूर्ति कर अधिक से अधिक लाभ उठा सकते हैं।

बिहार मे 10-15 रोग जो अकेले या मिलकर गन्‍ने फसल को आक्रांत करते हैं इनमें लालसर, सुखा एवं कालिका रोग प्रमुख: है जिनके वजह से उपज और चीनी की मात्रा में भारी गिरावट आ जाती है। ज्‍यादातर बिमारियों का प्रसार गन्‍ने के संक्रमित बीज गेड़ी द्वारा होती है वैसे बीज गेंड़ी की खेती करने से मिट्टी में जीवाणु स्‍थापित हो जाता है।

गन्‍ना लगाने से 15 दिन पहले 2 किलोग्राम ट्राईकोड्रमॉं कल्‍चर को 20 किलोग्राम कम्‍पोस्‍ट/जैविक खाद में मिलाकर उपयोग करना उचित होता है। प्रारंभिक अवस्‍था में यदि रोग का लक्षण दिखाई पड़ता है तो आक्रांत पौधों को जड़ सहित खेत से बाहर निकाल कर नष्‍ट कर देना चाहिए एवं जड़ के आस-पास कार्बेन्‍डाजीम अथवा थियोफिनेट मिथाईल/ग्राम प्रति ली० पानी के घोल से अच्‍छी तरह भिगोना (ड्रेन्चिंग) करना चाहिए जिससे की वर्षा या सिंचाई के पानी द्वारा संक्रमित खेंतों से स्‍वस्थ खेतों में रोगों के फैलाव कम होने में सहायक सिद्ध होता है।

अत: ग्रसित खेतों में फसल चक्र अपनाना चाहिए ऐसे खेतों की फसल को सबसे पहले काटकर चीनी मिलो में भेजना चाहिए तथा खूँटी फसल पहले काटकर चीनी मिलो में भेजना चाहिए तथा खूँटी फसल नहीं रखना चाहिए साथ ही साथ कम से कम 2-3 साल तक गन्‍ने को छोड़कर अन्‍य फसल जैसे गेहूँ, धान, हरी खाद (सनई,धँइचा) आदि को फसल चक्र के रूप में लेने के बाद ही ईख की रोपाई करनी चाहिए।

इस आधुनकि युग में उत्‍तक संवर्द्वन विकसित तकनीक का प्रयोग कर गन्‍ने की खेती करने में 15-20 कल्‍ले निकलते है, पौधे के एक जगह से दूसरे जगह स्‍थानांतरण होने से रोग रहित एवं स्‍वस्‍थ स्थिति में रहते है। इस तकनीक के पौधों से खेती करने पर कल्‍ले अधिक होने से प्रति एकड़ उपज में वृद्धि होती है साथ ही साथ चिनी की मात्रा में भी वृद्धि होती है जिससे किसान एवं चीनी मिलों को अर्थिक लाभ प्राप्‍त होता है।
गन्‍ना कृषक बन्‍धु उपरोक्‍त बिन्‍दुओं पर ध्‍यान केन्द्रित कर एवं योजनाबद्ध तरीके अपनाकर सफलता पूर्वक गन्‍ने की खेती कर कम लागत में अधिक उत्‍पादन ले सकते है तथा आर्थिक रूप से समृद्ध एवं आत्‍म निर्भर बन सकते है।


Authors:

मिन्नतुल्लाह एवं शिव पूजन सिंह
ईख अनुसंधान संस्थान
डा0 राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा
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