फसल सुधार में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार है, भारत की लगभग 65-70 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है, लेकिन इस बदलते परिवेश में जहाँ बढ़ती आबादी के कारण कृषि जोत सिकुडती जा रही है, वहीं बदलती हुई जलवायुवीय परिस्थितियों ने कृषि स्थति को और भयावाह बना दिया है। कहीं पानी की कमी के कारण बुवाई पर रोक है, तो कहीं अधिक पैदावार की वजह से उपज की पर्याप्त कीमत नहीं मिल पा रही है।

हरित क्रांति ने उपज तो बढ़ा दी है, लेकिन बदलते वक्त में खेती के सामने अलग चुनौतियां भी पैदा कर दी हैं। ऐसी खोज जरूरी है, जो क्लाइमेटिक जोन और पानी की उपलब्धता को देखते हुए कृषि उत्पादकता को बढ़ा सके।

घटते प्राकृतिक संसाधनों और बढ़ती आबादी की खाद्य सुरक्षा को देखते हुए कृषि क्षेत्र की चुनौतियां बढ़ गई हैं। आधुनिक कृषि हमेशा भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे प्रमुख क्षेत्र रहा है इसके अतिरिक्त भारत गेहूं, चावल, दालें, मसालों और कई उत्पादों के दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक के रूप में उभरा है। आज कोई भी क्षेत्र तकनीकी से अछूता नहीं है। इसमें कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर पूरा मानव जीवन चक्र निर्भर करता है और इसमें तकनीकी का अहम योगदान है।

देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की 15% से अधिक हिस्सेदारी है। भारत सरकार कृषि क्षेत्र में सुधार और ग्रामीण विकास के लिए बेहतर मार्ग बनाने के लिए नई पहलों और कृषि कार्यक्रमों के साथ आ रही है। लेकिन अधिकांश भारतीय किसान अभी भी मूल्यवान जानकारी और आवश्यक संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण उन्नत कृषि प्रौद्योगिक से अवगत नहीं है।

जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology)

जैव प्रौद्योगिकी एक नई तकनीक नहीं है। लेकिन यह एक आवश्यक उपकरण है जिसमें अभी तक अधिक संभावना प्रकट नहीं हुई है जबकि यह किसानों को उन्नत कृषि पद्धति का उपयोग करके कम क्षेत्र पर अधिक भोजन पैदा करने की शक्ति प्रदान करता है जो पर्यावरण के अनुकूल है, इसके अलावा, जैव प्रौद्योगिकी पौधो और पशु निर्मित अपशिष्ट का प्रयोग करके खाद्य पदार्थों की पौष्टिक सामग्री में सुधार कर सकती है।

आणविक जीव विज्ञान के उदय के साथ डीएनए आधारित प्रौद्योगिक में कृषि उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार और फसल प्रजनन कार्यक्रमों की दक्षता में असाधारण क्षमता दिखाई है। डीएनए आधारित आणविक मार्करो से वुयत्पत्र उत्पादों का दुनिया भर में व्यवसायीकरण किया जा रहा है।

जैव प्रौद्योगिकी और अनुवंशिक संशोधन प्रौद्योगिकी की भूमिका

कृषि उत्पादन को बढ़ाना -

जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करके विकसित नई फसलों में पारंपरिक प्रजातियों की तुलना में प्रति क्षेत्र अधिक उत्पादन करने की क्षमता है। इसका अर्थ है कि छोटी जोत से अधिक उत्पादन और साथ में मुनाफे में वृद्धि।

कीटों के खतरे को कम करना -

कीट अन्य स्रोतों की तुलना में कृषि अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा हैं। फसलों के लिए बड़े खतरों को खत्म करने के लिए वैज्ञानिकों ने कीटों के उन्मूलन में मदद करने के लिए जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए अभिनव तरीके अपनाए हैं। उदाहरण-विसंक्रमित कीटों का विकास जो फसलों के लिए कम खतरा पैदा करता है। या फिर ठज फसलें जैसे बीटी कपास, बीटी सरसों।

नई किस्मों की खोज-

मौजूदा प्रजातियों की तुलना में नई किस्म की प्रजातियों में हमेशा अधिक मांग होती है। जैव प्रौद्योगिकी द्वारा नई प्रजातियां बनाई जा सकती हैं जो किसानों के लिए अधिक लाभ पैदा कर सकती हैं। उदाहरण- बासमती चावल की नई किस्में अधिक दाम लेती हैं।

जलवायु सहनकारक फसलें-

कभी-कभी ऐसे फसलों को विकसित करना आवश्यक होता है जो प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में अपने आप को बनाए रख सकते हो । इससे किसान खुद को फसल की हानि से होने वाले नुकसान से बचा सकेगा। उदाहरण- जल प्रतिरोधी धान लगातार बारिश की जरुरत से निपट सकता है।

पोषण क्षमता में वृद्धि-

ऐसी फसलें विकसित की जा सकती हैं जो पोषक रूप से दृढ़ हों। यह सुनिश्चित करेगा कि सूक्ष्म पोषक तत्व सभी उपभोक्ताओं तक पहुँच सकें और उनके स्वास्थ्य को लाभ पहुँचा सकें। इन फसलों का निर्माण जैव प्रौद्योगिकी की मदद से किया जाता है। उदाहरण- सुनहरा चावल, गोल्डन राइस।

संक्रमण रहित पौधे-

मेरिस्टेम संवर्द्धन थर्मोथरैपी के साथ रोग रहित फसलों का उत्पादन किया गया है।

जीन का स्थानांतरण-

जीन अभियांत्रिकी का सफलतापूर्वक प्रयोग पौधों में कीट, विषाणुओं एवं शाकनाशकों के प्रतिरोध हेतु तथा संग्रहित प्रोटीन में सुधार हेतु जीनों के स्थानांतरण द्वारा किया गया है। इस प्रक्रिया में एग्रोबैक्टीरियम का टी.आई. प्लाज्मीड् उपयोग में लाया जाता है और इसकी मदद से जीन स्थानांतरित होता है।

होमोजाइगस लाईन प्राप्त करना-

यह एक गुणित पौधों में गुणसूत्रों को दूना कर प्राप्त किया गया है। चीन में यह चावल और गेहूं के लिए किया गया है। जर्मप्लाज्म संरक्षण पदार्थों को द्रव नाइट्रोजन में -196°C रखकर किया जाता है। इस प्रक्रिया का प्रयोग क्लोनली प्रजनित पौधों के संरक्षण हेतु किया जाता है। जैसे- कंद

भ्रूण का बचाव-

भ्रूण का संवर्धन जीवित हाइब्रीड प्राप्त करने के लिए किया गया है। तीव्र क्लोनल गुणन मेरिस्टेम कल्चर से फलदार पौधे एवं वन के पौधे का गुणन किया जाता है। जैसे- आम, टीक।

आयातक से शुद्ध निर्यातक के रूप में भारत का उदय-

भारत में अनुवंशिक संशोधन प्रौद्योगिकी के लाभ तुरंत ही नज़र आए और ये बेहद प्रभावोत्पादक भी थे। जब से कृषि क्षेत्र को आनुवंशिक रूप से संशोधित कपास (बीटी कपास) के लिये खोला गया हैए देश नकदी फसल कपास के प्रमुख उत्पादकों में से एक के रूप में उभरा है और चार-पाँच वर्षों से भी कम समय में ही इसका शुद्ध निर्यातक बन गया है।

विभिन्न गुणों का योग-

ट्रांसजेनिक या आनुवांशिक रूप से संशोधित बीज ऐसे बीज होते हैं जिनमें अन्य प्रजातियों से निकाले गए जीन को शामिल करके कुछ गुणों का योग किया जाता है। बीज के स्वाद, रंग, गुणवत्ता, पोषण मूल्य में सुधार करने और उन्हें सामान्य पादप रोगों के लिये प्रतिरोधी बनाने अथवा कपास के पौधों पर हमला करने वाले बोलवर्म जैसे कीटों को दूर करने के लिये इनमें कई विशेषताओं का योग किया जा सकता है। 

जीन एडिटिंग

हाल ही में एक नई जीन संपादन प्रणाली, जिसका नाम क्लस्टर्ड रेगुलर इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिंड्रोमिक रिपीट (CRISPR)/ Cas9 तकनीक है, ने भी फसल की गुणवत्ता में सुधार करने में सफलता प्राप्त की है। यह अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण फसल सुधार के लिए सबसे लोकप्रिय उपकरण बन गया है।

जीन एडिटिंग की तमाम प्रणालियों के बीच इमैनुएल कारपेंटियर और जैनिफर डूडना के द्वारा विकसित किए गए CRISPR-Cas9 सिस्टम को उचित और तेज तरीका माना गया है। अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, चीन और ब्राजील के वैज्ञानिक CRISPR-Cas9 सिस्टम को अपनाते हैं।

जेनेटिक मोडिफाइड गेहूं

गेहूं की एक नई किस्म ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया है खास बात यह है कि गेहूं की नई किस्म कैंसर का खतरा घटाने के लिए बहुत सहायक है, इसमें एसपर्जिन नाम के अमीनो एसिड की मात्रा को घटाया गया है

गेहूं की नई किस्म की जांच करने पर एक्रेलामाइड की मात्रा दूसरी सामान्य गेहूं की किस्म से 90 प्रतिशत तक कम है, इस नई किस्म से लोगों के खान-पान और पैकेज फूड से एक्रेलामाइड का खतरा कम होगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक जब सामान्य गेहूं से ब्रेड को बेक्ड या रोस्ट किया जाता है, तो इसमें मौजूद एसपर्जिन कैंसर फैलाने वाले तत्व एक्रेलामाइड में बदल जाता है, इसकी वजह से कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

जीन टैगिंग तथा मैपिंग

आणविक स्तर पर अनेक उपयोगी जीन जैसे बीमारी से प्रतिरोधक, शर्करा निर्माण में सहायक तथा अन्य अजैविक प्रतिकूल परिस्थितियों से मुकाबला करने वाले सहायक जीन इत्यादि गुणसूत्र के खास स्थान (लोसाई) पर केन्द्रित रहते हैं।

ऐसे जीन को विशेष प्रकार के आणविक तथा जैव रासायनिक मार्कर की मदद से जीन टैगिंग किया जाता है। इस कार्य में आरएफएलपी, आरएपीडी, एएफएलपी एसएसआर, सिम्पल न्यूक्लियोटाइड पॉलीमार्फिज्म, (एसएनपी) का भी उपयोग किया जाता है।

महत्वपूर्ण उपलब्धियां

बार्नसए शदरफोर्ड एवं बोथा ने सन् 1997 में एल्डाना, मोसाएक और स्मट के लिए 54 पॉलीमॉर्फिक आरएपीडी मार्कर की पहचान संबंधित विस्तृत जानकारी को प्रतिपादित किया था। अमेरिका तथा ब्राजील के दो प्रसिद्ध जैव आणविक वैज्ञानिक, डीण् सिल्वा और ब्रेसियानी ने सन् 2005 में क्यूटीएल टैगिंग के लिए ईएसटी द्वारा आरएफएलपी मार्कर का उपयोग किया ।

आजकल शोध द्वारा माइक्रो आरएनए चिन्हित किए जा रहे हैं। इसका जैविक तथा अजैविक त्रास की प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने वाले जीन के एक्सप्रेशन में मुख्य योगदान होता है। नवीन सीक्वेंसिंग तकनीकी, कम्प्यूटेशनल सुविधा तथा कम्पेरेटिव जीनोमिक्स के द्वारा इन समस्याओं  का प्रभावी ढंग से समाधान किया जाता है ।

ट्रांसजेनिक तकनीकी की मदद से इन दिनों दूसरे किसी जीव के व्यावसायिक रूप (जैसे सूखा जल प्लाविता आदि सहनशील तथा रोग प्रतिरोधी इत्यादि) से लाभकारी जीनों को आणविक मार्कर के लिए उपयोग में लाया जाता है।

भविष्य की संभावनाएं

विश्व में कृषि क्षेत्र में प्रजातियों के उन्नयन में लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। इन दिनों प्रजातियों के विकास तथा अनुसंधान संबंधित खर्चे में कटौती  की दिशा में नवीन तकनीकों को बड़े स्तर पर अपनाया जा रहा है। जीनोमिक्स के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के आणविक तथा जैव रासायनिक मार्कर संबंधित ज्ञान को विश्व स्तर  पर लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थान लगातार सराहनीय कार्य राष्ट्रहित में निष्पादित किए जा रहे हैं।

मार्कर से अनेक आनुवंशिक समस्याओं के समाधान में सफलता मिलती है। फिंगरप्रिटिंग से विविध प्रजातियों की पहचान संबंधित सभी वैज्ञानिक सूचनाओं (जैविक डाटाबेस) को आसानी से सुरक्षित रखा जाता है। ऐसे शोध कार्य की बदौलत पौधों को प्रक्षेत्र में उगाए जाने वाले खर्चे से बचा जा सकता है और वांछित प्रजातियों के नव सृजन में सफलता मिलती है।

हालांकि महंगे प्रयोगशाला संबंधित रखरखाव जैसे डिजिटल उपकरणए रसायन, कम्प्यूटर इत्यादि के अलावा प्रशिक्षित कौशलपूर्ण मानव संसाधन अनेक कारण से इसकी लोकप्रियता के लिए जिम्मेदार है। जीनोटाइपिंग तथा डाटा माइनिंग में मार्कर बहुत ही कारगर साबित हो सकता है।

एसएसआर तथा एसएनपी डाटामाइनिंग की जबरदस्त लोकप्रियता को देखते हुए इन दिनों कृषि वैज्ञानिक फसलों के विविध स्वरूप जैसे अतिसूक्ष्म (नैनो) प्रौद्योगिकीय इत्यादि शोध कार्य में मार्कर ज्ञान को सबसे विश्वसनीय माना गया है।


Authors

Ms. Kiran Devi1 and Dr. Sonia Sheoran2

  1. 1. SRF (ICAR Project), 2. Senior Scientist

ICAR-Indian Institute of Wheat and Barley Research, Karnal

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