07 Nov अपशिष्ट से समृद्धि: बायोगैस, बायोफर्टिलाइज़र और गौ-उत्पाद
Waste to Prosperity: Biogas, Biofertilizers and Cow Products
सदियों से पशुधन भारतीय कृषि की रीढ़ माना गया है। गाय, बैल और भैंस केवल दूध, खेतों में काम करने की ताक़त और सुरक्षा ही नहीं देते, बल्कि एक ऐसी चीज़ भी देते हैं जिसकी असली कीमत अक्सर नज़रअंदाज़ कर दी जाती है – गोबर और गौमूत्र। परंपरागत रूप से ग्रामीण घरों में इनका अनेक तरीकों से उपयोग किया जाता रहा है। गोबर को उपले बनाकर ईंधन के रूप में जलाया जाता था, खेतों में प्राकृतिक खाद की तरह डाला जाता था या घरों की दीवारों और फर्श पर लगाया जाता था ताकि घर ठंडा रहे और कीड़े-मकौड़ों से बचाव हो।
गौमूत्र को आँगन में छिड़ककर कीटाणुनाशक के रूप में प्रयोग किया जाता था और कभी-कभी फसलों पर छिड़काव करके कीटों से बचाया जाता था। यह सब दर्शाता है कि किसान बहुत पहले से ही पशु अपशिष्ट के महत्व को समझते थे, जिसे आज आधुनिक विज्ञान ने भी प्रमाणित किया है। लेकिन समय के साथ जब रासायनिक खाद, कीटनाशक और रसोई गैस (एलपीजी) का उपयोग बढ़ा, तब इन उप-उत्पादों की अनदेखी शुरू हो गई।
कई किसानों ने गोबर और गौमूत्र को बेकार समझकर बस गोशाला के पीछे ढेर लगाना शुरू कर दिया या नालियों में बहा दिया। इससे खेती की लागत तो बढ़ी ही, साथ ही अपशिष्ट प्रबंधन और प्रदूषण की समस्या भी खड़ी हो गई। हाल के वर्षों में, देशभर के शोध संस्थानों और प्रगतिशील किसानों ने फिर से गोबर और गौमूत्र में छिपी असीम संभावनाओं को खोज निकाला है।
वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि गोबर पोषक तत्वों और लाभकारी जीवाणुओं से भरपूर होता है, वहीं गौमूत्र में ऐसे खनिज और सक्रिय तत्व पाए जाते हैं जो पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देते हैं और प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। यदि इनका सही उपयोग किया जाए तो इन्हें ऊर्जा के लिए बायोगैस, मिट्टी की सेहत के लिए जैविक खाद, टिकाऊ खेती के लिए वर्मी-कम्पोस्ट, और यहाँ तक कि औषधीय महत्व वाले हर्बल उत्पादों में बदला जा सकता है।
यही सोच “कचरे से खजाना (Waste to Wealth)” की अवधारणा को जन्म देती है – एक ऐसा सरल परंतु शक्तिशाली विचार जिसमें गोशाला से निकलने वाली कोई भी चीज़ व्यर्थ नहीं जाती, बल्कि हर उपज को एक संसाधन में बदल दिया जाता है। इस विचार को अपनाकर किसान महंगे रसायनों पर अपनी निर्भरता घटा सकते हैं, घर के ईंधन खर्च में बचत कर सकते हैं, अतिरिक्त आमदनी का स्रोत बना सकते हैं और साथ ही पर्यावरण संरक्षण में भी योगदान दे सकते हैं।
यह लेख आपको उन व्यावहारिक तरीकों और सफलता की कहानियों से परिचित कराएगा जो दर्शाते हैं कि किस प्रकार गोबर और गौमूत्र को मूल्यवान उत्पादों में बदला जा सकता है। साथ ही इसमें यह भी बताया जाएगा कि किसान खेत स्तर पर छोटे-छोटे इकाई लगाकर किस तरह से उस चीज़ को, जिसे कभी बेकार माना जाता था, एक स्थायी आय और समृद्धि का साधन बना सकते हैं।
गोबर और गौमूत्र के पारंपरिक उपयोग
पीढ़ियों से भारतीय गाँवों में गोबर और गोमूत्र का दैनिक जीवन में उपयोग होता आया है। ग्रामीण संस्कृति और सतत जीवनशैली में इनका विशेष स्थान रहा है। गोबर के उपले प्रायः चूल्हों में ईंधन के रूप में प्रयोग किए जाते थे, जो कम खर्चीला और पर्यावरण–अनुकूल ऊर्जा स्रोत थे। गाँव के घरों की दीवारों और फर्श पर गोबर और मिट्टी का लेप किया जाता था, जिससे घर ठंडे रहते थे और कीड़े-मकौड़ों से भी सुरक्षा मिलती थी।
किसान खेतों में गोबर को सीधे खाद के रूप में डालते थे, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती थी और रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। इसी प्रकार, गोमूत्र का प्रयोग फसलों की सुरक्षा हेतु प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में किया जाता था, साथ ही इसका धार्मिक और पूजा–अर्चना में भी विशेष महत्व रहा है। भले ही ये पारंपरिक उपयोग सरल प्रतीत होते हों, लेकिन इन्हीं ने आधुनिक जैव–ऊर्जा, जैविक खेती और सतत कृषि पद्धतियों की नींव रखी।
वैज्ञानिक दृष्टि से गोबर और गोमूत्र का महत्व
आधुनिक विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि हमारे पूर्वजों का ज्ञान कितना गहरा और दूरदर्शी था। गोबर और गोमूत्र में ऐसे पोषक तत्व एवं जैव सक्रिय यौगिक पाए जाते हैं, जो न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ाते हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गोबर में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम (एनपीके) जैसे मुख्य पोषक तत्वों के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें करोड़ों लाभकारी सूक्ष्मजीव होते हैं, जो मिट्टी की उर्वरता और उसकी संरचना को सुधारते हैं। वहीं, गोमूत्र में यूरिया, खनिज और प्राकृतिक हार्मोन पाए जाते हैं, जो पौधों की वृद्धि को प्रोत्साहित करते हैं। इसके अलावा, इसमें जीवाणुरोधी और फफूंदरोधी गुण भी होते हैं, जिससे फसलें कीट और बीमारियों से सुरक्षित रहती हैं।
यदि देखा जाए तो एक वयस्क गाय प्रतिदिन लगभग 10–15 किलोग्राम गोबर और 8–10 लीटर गोमूत्र उत्पन्न करती है। इसका अर्थ है कि यदि किसी किसान के पास केवल 5 गायें भी हों, तो वह प्रतिवर्ष हजारों रुपये मूल्य का जैविक संसाधन प्राप्त कर सकता है। इनका समझदारी से उपयोग करके किसान महंगे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम कर सकता है, लागत घटा सकता है और मिट्टी तथा पर्यावरण दोनों को सुरक्षित रख सकता है। इस प्रकार गोबर और गोमूत्र केवल परंपरा का प्रतीक नहीं, बल्कि आधुनिक टिकाऊ खेती का आधार भी हैं।
गाय के गोबर से बायोगैस उत्पादन
गाय के गोबर का सबसे आशाजनक और पर्यावरण-अनुकूल उपयोग इसे बायोगैस में बदलना है। बायोगैस एक स्वच्छ ईंधन है, जिसमें मुख्य रूप से मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड होती है। यह तब बनती है जब गोबर को एक बंद टैंक (जिसे बायोगैस डाइजेस्टर कहते हैं) में रखा जाता है और वहाँ यह ऑक्सीजन रहित वातावरण में एनारोबिक डाइजेशन प्रक्रिया से गुजरता है।
यह प्रक्रिया सरल होते हुए भी अत्यंत प्रभावी है। सबसे पहले ताजा गोबर को पानी के साथ मिलाकर स्लरी तैयार की जाती है। इस स्लरी को डाइजेस्टर में डाला जाता है, जहाँ स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव गोबर को विघटित करते हैं और उप-उत्पाद के रूप में मीथेन गैस निकलती है। यह मीथेन गैस डोम या ड्रम में इकट्ठा की जाती है और पाइप के माध्यम से सीधे रसोई तक पहुँचाई जा सकती है या बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन के लिए भी उपयोग की जा सकती है।
स्लरी के रूप में बचा हुआ पदार्थ व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि पोषक तत्वों से भरपूर जैविक खाद के रूप में खेतों में प्रयोग किया जाता है, जिससे “वेस्ट टू वेल्थ” का एक टिकाऊ चक्र पूरा होता है।
किसानों और परिवारों की जरूरतों के अनुसार विभिन्न प्रकार के बायोगैस संयंत्र उपलब्ध हैं। फिक्स्ड डोम प्लांट, जो आमतौर पर भूमिगत बनाया जाता है, मजबूत और टिकाऊ होता है और गाँवों में व्यापक रूप से अपनाया जाता है।
दूसरा लोकप्रिय मॉडल है फ्लोटिंग ड्रम प्लांट, जिसमें एक चलायमान ड्रम गैस को इकट्ठा करता है और गैस की मात्रा को देखना आसान हो जाता है। वहीं, छोटे परिवारों के लिए जो केवल 2–3 मवेशी पालते हैं, कॉम्पैक्ट बायोगैस यूनिट विकसित की गई हैं। ये पोर्टेबल सिस्टम किफायती होते हैं और सीमित जगह में आसानी से लगाए जा सकते हैं, जिससे नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग घरेलू स्तर तक संभव हो पाता है।
किसानों के लिए बायोगैस उत्पादन के लाभ बहुआयामी हैं। सबसे पहले, यह महंगी एलपीजी सिलेंडर या प्रदूषणकारी लकड़ी पर निर्भरता को कम करता है, जिससे आर्थिक बचत होती है और पर्यावरण की रक्षा होती है।
बायोगैस एक धुआँ-रहित ईंधन प्रदान करती है, जो खासकर ग्रामीण महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए वरदान है, क्योंकि उन्हें अब धुएँ से होने वाली सांस की बीमारियों का सामना नहीं करना पड़ता। उप-उत्पाद के रूप में प्राप्त जैविक स्लरी खेतों की उर्वरता बढ़ाती है, रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता घटाती है और फसल उत्पादन में सुधार करती है।
बड़े पैमाने पर देखा जाए तो बायोगैस संयंत्र ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, गोबर के सही प्रबंधन को बढ़ावा देने और गाँवों में स्वच्छता बनाए रखने में भी सहायक होते हैं। इस प्रकार, बायोगैस उत्पादन न केवल ग्रामीण परिवारों को ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनाता है बल्कि सतत कृषि और पर्यावरण संरक्षण का एक शक्तिशाली साधन भी है।
गोबर और गौमूत्र से जैविक उर्वरक उत्पादन
रासायनिक उर्वरकों ने निश्चित रूप से फसल उत्पादन में बढ़ोतरी की है, लेकिन इनके अत्यधिक और लंबे समय तक उपयोग ने कई दुष्प्रभाव भी छोड़े हैं। किसान अक्सर देखते हैं कि उनकी मिट्टी कठोर हो गई है, उसकी उर्वरता कम हो गई है और लाभकारी जीव जैसे केंचुए लगभग समाप्त हो गए हैं। साथ ही, खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे लाभ कम होता जा रहा है। ऐसे समय में गोबर और गौमूत्र से बने उर्वरक किसानों के लिए एक टिकाऊ और कम लागत वाला विकल्प प्रस्तुत करते हैं। ये न केवल मिट्टी की सेहत को बहाल करते हैं बल्कि उपज और मुनाफ़ा भी बढ़ाते हैं।
केंचुआ खाद (Vermicompost)
सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है वर्मी कम्पोस्टिंग, जिसमें गोबर और खेत के जैविक कचरे को केंचुए की मदद से पौष्टिक खाद में बदल दिया जाता है। प्रक्रिया सरल है: सबसे पहले एक छायादार गड्ढा या सीमेंटेड टैंक तैयार किया जाता है। इसके तल पर सूखी पत्तियों या भूसे की परत बिछाई जाती है। इसके ऊपर ताज़ा गोबर और फसल अवशेषों का मिश्रण डाला जाता है। फिर इसमें Eisenia foetida या स्थानीय नस्ल के केंचुए डाले जाते हैं। मिश्रण को बोरी से ढक दिया जाता है और नमी बनाए रखने के लिए नियमित रूप से पानी छिड़का जाता है। लगभग 45–60 दिनों में गहरा दानेदार वर्मी कम्पोस्ट तैयार हो जाता है, जो नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर होता है। यह खाद मिट्टी की संरचना सुधारती है, जल धारण क्षमता बढ़ाती है, केंचुओं की संख्या स्वाभाविक रूप से बढ़ाती है और बाज़ार में 5–10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचकर अतिरिक्त आमदनी भी देती है।
तरल खाद – जीवामृत और पंचगव्य
ठोस खाद के अलावा किसान अब तरल खादों का महत्व भी समझ रहे हैं, जिनमें जीवामृत और पंचगव्य प्रमुख हैं।
- जीवामृत गोबर, गौमूत्र, गुड़, बेसन और पानी से तैयार किया जाता है। यह मिट्टी में सूक्ष्मजीवों को बढ़ाता है और पौधों की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है।
- पंचगव्य (गाय के पाँच उत्पाद – गोबर, गौमूत्र, दूध, दही और घी से बना) एक पत्तियों पर छिड़कने वाला घोल है जो वृद्धि प्रवर्धक (growth promoter) के रूप में काम करता है।
ये दोनों ही घोल सस्ते, आसानी से खेत पर बनने वाले और रासायनिक खाद व कीटनाशकों के विकल्प के रूप में बेहद कारगर हैं।
गौमूत्र का उपयोग
गौमूत्र स्वयं भी एक शक्तिशाली उर्वरक है। इसमें यूरिया, पोटैशियम, सल्फर और अन्य खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसे पानी में (1:10 अनुपात में) मिलाकर फसलों पर छिड़का जा सकता है। इससे पौधों को प्राकृतिक खाद मिलती है, साथ ही यह कीट-प्रतिरोधक के रूप में काम करता है और माहू, जेसिड तथा इल्ली जैसे कीटों से बचाव करता है। इसके अलावा, गौमूत्र बीज अंकुरण बढ़ाता है, फूल आने में मदद करता है और पौधों की समग्र वृद्धि को प्रोत्साहित करता है। कई प्रगतिशील किसान, जिन्होंने गोबर और गौमूत्र आधारित खादों का प्रयोग शुरू किया है, अपनी पैदावार में 20–30% तक की बढ़ोतरी और मिट्टी की बेहतर सेहत की रिपोर्ट कर रहे हैं।
गौमूत्र का कृषि से परे उपयोग
गौमूत्र केवल खेती तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका उपयोग अनेक क्षेत्रों में किया जा रहा है। आयुर्वेद में गौमूत्र (गोमूत्र) को स्वास्थ्यवर्धक तरल माना गया है। आज पतंजलि जैसी कंपनियाँ और कई गौशालाएँ गौमूत्र आसव से हर्बल टॉनिक, गोलियाँ और सिरप तैयार कर रही हैं, जिन्हें रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और औषधियों के जैव-वर्धक (bio-enhancer) के रूप में बाजार में उपलब्ध कराया जा रहा है। घरेलू उपयोग में भी गौमूत्र से बने उत्पाद लोकप्रिय हो रहे हैं।
गौमूत्र आधारित फर्श साफ़ करने वाले उत्पाद (जैसे “गोमूत्र फिनाइल”) पर्यावरण के अनुकूल विकल्प बनते जा रहे हैं। इसी प्रकार, मच्छर भगाने वाले उत्पाद और कीटनाशक स्प्रे भी गौमूत्र से विकसित किए जा रहे हैं। पशु-चिकित्सा और मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी इसके लाभ सामने आए हैं। शोध से पता चला है कि गौमूत्र में रोगाणुरोधी और एंटीऑक्सीडेंट गुण मौजूद हैं।
किसान इसका उपयोग पानी में मिलाकर गोठों की सफ़ाई में कर सकते हैं, जिससे मक्खियों और संक्रमण की समस्या कम होती है। इस प्रकार, अक्सर व्यर्थ जाने वाला और प्रदूषण फैलाने वाला गौमूत्र भी एक मूल्यवर्धित उत्पाद के रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
गोबर और गौमूत्र, जो पहले केवल अपशिष्ट माने जाते थे, अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण और परंपरागत ज्ञान के मेल से किसानों के लिए कमाई और टिकाऊ खेती का साधन बन सकते हैं। इनसे न केवल बायोगैस और जैविक खाद तैयार की जा सकती है, बल्कि आयुर्वेदिक उत्पादों और घरेलू उपयोग की वस्तुएँ भी बनाई जा सकती हैं। इससे खेती की लागत घटती है, मिट्टी की सेहत सुधरती है और पर्यावरण की रक्षा होती है। “कचरे से समृद्धि” की यह सोच ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे सकती है।
Authors:
डॉ. अंजलि, डॉ. मेघा पांडे, डॉ. एस. महाजन, डॉ. सुरेश कुमार, डॉ. एस. साहा, डॉ. ए.एस. सिरोही, और डॉ. एन. चंद
आईसीएआर – केंद्रीय पशु अनुसंधान संस्थान
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