आलू मे सुत्रकृमि की समस्या, लक्षण एवं प्रबंधन

आलू मे सुत्रकृमि की समस्या, लक्षण एवं प्रबंधन

Problem, symptoms and management of Nematodes in potato      

आलू की सबसे पहले आधुनिक खेती दक्षिणी पेरू और उतरी पश्चिमी बोलीविया के क्षेत्र मे 8000 से 5000 ईसा पुर्व की गई थी। इसके बाद यह दुनिया मे यह मुख्य फसल के रूप मे फैल गई। विश्व उत्पादन में मक्का, चावल और गेहुॅ के बाद आलू चैथी सबसे महत्वपुर्ण फसल है। तथा यह फसल दुनिया भर में उगाई जाती है।

वर्तमान मे ताजे कंद का उत्पादन 19.5 करोड़ हैक्टेयर से 321 मिलियन टन है। उच्च कंद उपज को बनाए रखने के तरीके खोजने, पानी और पोषक तत्व उपयोग दक्षता में सुधार आलू उत्पादको के लिए बढ़ी चुनौती है। विकसित और विकासशील देशो में आलू में ड्रिप सिचाई और उर्वरक सिचांई तकनीकी रूप से व्यावाहारिक और आर्थिक रूप से लाभकारी साबित हुआ है।

आलू उत्पादन का 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा विश्व के प्रमुख क्षेत्रो एशिया और यूरोप मे होता हैै। एशिया की बड़ी आबादी दुनिया के आलू की आपूर्ति का लगभग आधा हिस्सा उपभोग करती है जो कि 2005 में प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 25 किलो था।

आलू विकासशील देशो में गरीब और भुख के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करने मे मजबूत भूमिका निभाता है। ताजा और संसाधित भोजन दोनों के रूप में आलू की मागं बढ़ रही है।

कई निमेटोड प्रजातियां आलू के पौधो को सुक्रमित करती है, जैसे – सुनहरा पुठी सुत्रकृमि, जड़ गांठ सुत्रकृमि, फाॅल्स जड़ गांठ सुत्रकृमि और लेजन निमेटोड आदि। यह प्रमुख निमेटोड प्रजातियां है। जो आलू में आर्थिक नुकसान करती है।

पुठी सुत्रकृमि

सुनहरा पुठी सुत्रकृमि, ग्लोबोडेरा पैलिडा और ग्लोबोडेरा रोस्टोकियेनसिस पुठी सुत्रकृमि आलू उगाने वाले क्षेत्रों में मुख्य समस्या है एंडिस मूल क्षेत्र से अब यह कुछ समशीतेाष्ण क्षेत्रों और ऊंचाई वाले उष्ण कटिबन्ध क्षेत्रों में फैल गये है जहां ये पैदावार काफी कम कर सकते है।

पुठी सुत्रकृमि जीवाणु और वर्टिसिलीयम विल्ट के संक्रमण की संभवना और बढ़ा देता है।

लक्षणः

विशिष्ठ लक्षण पौधे के उपरी भाग मे प्रकट नही होते है कम वृद्धि, छोटी पौध पीली और जल्दी मुरझाना एक सामान्य लक्षण है। जड़े और कभी-कभी कंद केवल विशिष्ठ लक्षण प्रदर्शित करते है सफेद या पीले गोलाकार शरीर की फिमेल (व्यास मे 0.5 – 1.0 मिमी) दिखाई देती है।

यह बाद मे भुरे रंग मे बदल कर पुठी बनाती है जिसमें अण्डे होते है जो कई वर्षो तक जिंदा रहते है। पुठी सुत्रकृमि कंद के साथ चिपकी मिट्टी, कृषि मशीनरी और उपकरण से फैलता है।

ग्लोबोडेरा पैलिडा और ग्लोबोडेरा रोस्टोकियेनसिस पुठी सुत्रकृमि

सुनहरा पुठी सुत्रकृमिप्रबधनः-

अनाज वाली फसलोें के साथ अदला-बदली और लंबे समय तक खेत खाली छोड़कर इसकी संख्या कम की जा सकती है विभिन्न किस्मों में भिन्न सहिष्णुता और धुमिल उपचार उपयोगी और बहुत मंहगा है अन्य सुत्रकृमि रसायन से अस्थायी सकारात्मक प्रभाव हो सकता है।

आलू का पुठी सुत्रकृमि की एक सिमित परपोषी श्रेणी (आलू, टमाटर, बैंगन और जंगली सोलेनम स्पी) है इसलिए सबसे व्यावहारिक दृष्टिकोण से फसल चक्र मे गैर-परपोषी फसले जैसे अनाज और चारे वाली फसले तथा आलू की पुठी सुत्रकृमि प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिये। धुमन भी प्रभावी तरीका है।

एक अतिरिक्त उपाय के रूप में रोग ग्रसित क्षेत्रों से नये क्षेत्रों में तथा अन्य महाद्वीपो में प्रसार को रोकने के लिए संगरोध नियमों में मिट्टी, मशीनरी और मिट्टी ग्रसित उपकरण तथा पौध सामग्री को प्रतिबंधीत करता हैं।

जड़ गांठ सुत्रकृमि, मेलोडोगायनी स्पीः-

लगभग सभी फसलो पर आक्रमण करने वाला जड़ गांठ सुत्रकृमि मुख्यतः गर्म क्षेत्रों मे पाया जाता है। रेतीली मिट्टी में क्षति विषेष रूप से गंभीर होती है। निमेटोड के संक्रमण से जीवाणु, फफूद सहित अन्य रोगजनकों के संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। गर्म जलवायू मे सुत्रकृमि के गंभीर प्रकोप बढ़ने की संभावना आलू की खेती मे रहती है।

लक्षणः-

पौधे के उपरी भाग के लक्षण विशिष्ट नही होते है। कमजोर शीर्ष, कम विकास तथा क्लोरोटिक पते जो गर्म मौसम मे जल्दी मुरझा जाते है। संक्रमित जड़े भिन्न आकार की गांठे बनाती है कंद भी संक्रमित हो सकते है। संक्रमित कंद गांठे, विकृति और आंतरिक लक्षण सुत्रकृमि ग्रसित दिखाई देते है अधिक संख्या में सूत्रकृमि संक्रमण पौधे की प्रांरम्भिक मृत्यु का कारण होता है।

प्रबधंनः-

सुत्रकृमि की संख्या और नुकसान विभिन्न कृर्षि प्रकियाओं से कम किया जा सकते है। जैसेः- फसल चक्र अनाज फसलो के साथ, लंबे समय तक खाली छोड़ना और अधिक मात्रा में जैविक उर्वरक देना। मिट्टी धुमन अधिक मंहगा है। सुत्रकृमि रसायनों से अस्थायी सकारात्मक प्रभाव हो सकता है।

जड़ गांठ सुत्रकृमि

आलू कंद में जड़ गांठ सुत्रकृमिफाल्स जड़ गांठ सुत्रकृमि, नेकोरस स्पीः-

फाल्स जड़ गांठ सुत्रकृमि मूल रूप से ठंडे क्षेत्रो में पाया जाता है

लक्षणः-

उपरी भाग के विशिष्ट लक्षण नही होते है। संक्रमित पौधा कमजोर दिखाई देता है। जड़ो पर गांठे मोती की माला की तरह विशिष्ट लक्षण है गांठे जड़ गांठ सुत्रकृमि के समान होती है लेकिन यह रोग एक अलग क्षेत्र में पाया गया है सुत्रकृमि कंद की त्वचा के नीचे जिवित  रहता है और सूखी मिट्टी में रहकर रोग प्रसार करता है।

प्रबंधनः-

अनाज के साथ फसल चक्र तथा लंबे समय तक खाली रखना सुत्रकृमि की संख्या कम करता है धुमन अधिक प्रभावी और महंगा है। अन्य सुत्रकृमि रसायनो से अस्थायी सकारात्मक प्रभाव हो सकता है।

लेजन निमेटोड, प्रटिलंेकस स्पीः-

रूट लेजन निमेटोड ठंडे क्षेत्रो मे पाया जाता है गंभीर संक्रमण उत्पादन कम कर सकता है लेजन निमोटोड जिवाणु तथा फंफूद रोगजनकों के संक्रमण बढ़ा देता है।

लक्षणः-

रूट लेजन निमेटोड प्रवासी अन्तः परजीवी है अधिक संख्या काॅर्टिकल रूट उत्तकों में भूरे रंग के घाव बनाते है संक्रमित कंद बैंगनी भूरे रंग की पिपंल्स, पस्चुल, और मर्ट जैसे दिखाई देते है जो कि बाजार मूल्य को कम करते है। पौधे का ऊपरी भाग कम विकसित होता है।

प्रबंधनः-

समय पर कटाई और ठंडे स्थानों पर संरक्षित करना सुत्रकृमि की क्षति कम करते है। संक्रमित कंदो को बीज के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। बीज कंद को सुत्रकृमि रसायन से या गर्म पानी (50वब तापमान पर 45-60 मिनट) से उपचार प्रभावी है।

 


Authors:

सरेाज यादव एवं जयदीप पाटिल’

सूत्रकृमि विज्ञान विभाग, कृषि महाविद्यालय, चै. चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय  हिसार – 125 004

’एल पी यू, जलंधर फगवाडा, पंजाब 144411

लेखक ई मेलः rajhau99@gmail.com

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