रोहरु-शिमला में सेब के उत्पादन और विपणन के दौरान किसानों को कठिनाइयाँ

रोहरु-शिमला में सेब के उत्पादन और विपणन के दौरान किसानों को कठिनाइयाँ

Problem faced by the farmers of Rohru-Shimla in the production and marketing of apple crop

हिमाचल प्रदेश मुख्य रूप से एक समशीतोष्ण पहाड़ी राज्य है जो वाणिज्यिक समशीतोष्ण फलों जैसे कि सेब, आड़ू, बेर, खुबानी, अखरोट, स्ट्रॉबेरी और चेरी इत्यादि के उत्पादन के लिए जाना जाता है। हिमाचल प्रदेश के 12 जिलों में से शिमला, कुल्लू, किन्नौर, मंडी, सिरमौर और चंबा में सेब का उत्पादन होता है और इन जिलों में से शिमला और कुल्लू सेब के उत्पादन की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण जिले हैं।

रोहरु शिमला जिले का एक पहाड़ी खंड है जो कि सेब के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। रोहरू देशांतर 77.45° और 77.75° E और अक्षांश 31.12° और 31.20° N के बीच स्थित है। सेब की खेती इस खंड की ग्रामीण जनता के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस खंड की अधिकांश ग्रामीण आबादी सेब की फसल द्वारा प्राप्त आय पर निर्भर करती है।

सेब की खेती करते समय और इस फसल को अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचाने के लिए यहाँ के किसानों को विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सेब उत्पादन और विपणन में आने वाली समस्याओं की पहचान करने के लिए 100 किसानों का सर्वेक्षण किया गया और उनके द्वारा दी गयी मूल्यवान जानकारी का उपयोग निष्कर्ष निकालने में किया गया।

सेब की खेती के दौरान कठिनाइयाँ:

उपजाऊ स्वस्थ मिट्टी किसी भी फसल के उत्पादन का प्रमुख कारक है और जैविक खाद के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। हालांकि जैविक खाद की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध नही हैं और खाद को खेतों तक ले जाने के लिए श्रमिकों की भी कमी हैं। इसके साथ ही सेब के पौधों की कटाई, छंटाई, तुड़ाई, पौध संरक्षण आदि के लिए भी कुशल श्रमिकों की कमी है।

किसी भी फसल का उत्पादन उसकी किस्म पर निर्भर करता हैं और फल देने वाली उन्न्त किस्म के साथ साथ उन्न्त परागण किस्में लगाना भी आवश्यक हैं। रोहरु में आमतौर पर रॉयल डीलिसियस, रेड डीलिसियस, गोल्डन डीलिसियस, रेड चेफ आदि किस्मों को उगाया जाता है। बगीचे में खरपतवार भी सेब के पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए हानिकारक हैं।

सेब की फसल में अनेक प्रकार के रोग जैसे कि क्लियरविंग मोठ रोग, सफ़ेद रूईया कीट रोग, पपड़ी रोग, पाउडरी मिल्ड्यू, रूट बोरर आदि लग जाते हैं जिसके कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। हालांकि इन रोगों से बचाव के लिए बहुत सारे कीटनाशक उपलब्ध हैं लेकिन नकली कीटनाशक की बिक्री भी किसानों के लिए एक समस्या है।

पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन जैसे कि तापमान में वृद्धि, अनियमित बर्फबारी, असामान्य वर्षा के कारण पानी कि कमी, ओलावृष्टि आदि ने किसानों कि कठिनाइयाँ बढ़ा दी हैं। तापमान में अनियमित उतार चढ़ाव पौधों के विकास के महत्वपूर्ण चरणों में बाधा उत्पन्न करता है जिससे सेब की उत्पादकता में कमी आती हैं।

ओलावृष्टि से सेब के पौधों और फलों की गुनवता को नुकसान पहुंचता है। गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त तनों और शाखाओं को काटना आवश्यक है और संक्रमण के स्रोतों को कम करने के लिए गिरे हुए फलों को भी बाग से हटा देना चाहिए।

ओलों से होने वाले नुकसान पेड़ों और फलों को कीट और बीमारी से संक्रमित कर देते हैं, इसलिए ओलावृष्टि के बाद सावधानीपूर्वक प्रबंधन महत्वपूर्ण है।

सेब की फसल के मूल्यवर्धन के दौरान कठिनाइयाँ:

किसान अपनी फसल को मंडी में ले जाने से पहले, सेब के आकार के आधार पर उसकी छँटाई करते हैं और उन्हे अलग अलग वर्गों में विभाजित करके अलग अलग पेटियों में बिक्री के लिए रखते हैं। छँटाई, आमतौर पर श्रमिकों द्वारा हाथ से की जाती है, लेकिन कुशल श्रमिकों की कमी होने के कारण इस प्रक्रिया पर काफी असर पड़ता है।

सबसे कम ग्रेड वाले सेब के लिए मंडी में अच्छी कीमत नही मिल पाती है। सेब की प्रकृति नाजुक होने की वजह से, इस के लिए अच्छी पैकिंग करना आवश्यक है ताकि परिवहन के दौरान फलों को कम से कम नुकसान हो।

फलों में कैरेज के दौरान क्षति होने के परिणामस्वरूप मूल्य में गिरावट हो जाती हैं। इस के अतिरिक्त अपर्याप्त भंडारण सुविधाएं न होना भी एक गंभीर समस्याएं है।

सेब की फसल के परिवहन के दौरान कठिनाइयाँ:

फसल का विपणन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो सेब को अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचाती है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण किसानों को मंडी तक अपनी फसल पहुंचाने के लिए काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अधिकतर किसानों के बगीचे तक सड़क नही हैं, इसलिए उन्हें अपनी फसल को सड़क तक पहुंचाने के लिए श्रमिकों या जानवरों का सहारा लेना पड़ता हैं।

फसल को बगीचे से मंडी तक के परिवहन में एक गंभीर समस्या बहुत सारे बिचौलियों का शामिल होना भी है जिसके कारण किसानों को अपनी फसल के मूल्य का वास्तविक हिस्सा नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार हैं।  इसके अलावा विपणन लागत भी बहुत अधिक है। इसलिए अधिकतर किसान अपनी फसल को स्थानीय मंडी या नजदीक मंडी में बेचते हैं।

कुछ लोग अपनी फसल ठेकेदारों को भी बेचते हैं लेकिन उन में से कई किसानों को आंशिक भुगतान के रूप में ही अपनी फसल का कुल मूल्य मिल पता हैं। इसलिए इस प्रकार की विपणन नीति बनाना आवश्यक है जिससे किसानों को लाभकारी कीमतें मिल सके।


Authors:

भारती1, राहुल बनर्जी1, पंकज दास1, रजनी चौधरी2, स्मृति बंसल3, गीता वर्मा3

1भाकृअनुप – भाकृसांअनुसं, नई दिल्ली 110012

2उत्तरी शीतोष्ण अनुसंधान केंद्र, भाकृअनुप – केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, गरसा, हिमाचल प्रदेश

3डॉ वाई एस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश

 1Email: bhartibhardwaj69@gmail.com

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