Capsicum (Shimla mirch) seed production technique
उत्तम बीज उत्पादन, सब्जी उधाोग का प्रमुख आधाार है। सब्जी बीज उत्पादन एक विशिष्ट एवं तकनीकी कार्य है और बहुत कम किसान बीज उत्पादन क्षेत्र में कुशल और प्रशिक्षित होते है। इसी लिए देश मे उच्च कोटि के बीज की प्रयाप्त उपलब्ध्ता नही रहती। फलदार सब्जियों में शिमला मिर्च का एक विशिष्ट स्थान है।
हमारे देश में इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे शिमला मिर्च, कैप्सिकम (capsicum), स्वीट पेपर, सागिया मिर्च, वैजिटेबिल पैपरिका आदि। शिमला मिर्च का बीजोत्पादन कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं जम्मू कश्मीर में अधिाक होता है ।
शिमला र्मिच के आनुवंशिक शुध्दता, उचित अंकुरण क्षमता, रोगाणुओं से मुक्त स्वस्थ बीज को पैदा करने के लिये निम्नलिखित बातों को धयान में रखना आवश्यक है।
उन्नत जातियाँ
शिमला मिर्च की उन्नत किस्में कैलिपर्फोनिया वण्डर, येलो वण्डर, किंग आपफ नार्थ, स्वीट बनाना, बुलनोज, अर्का मोहिनी, अर्का गौरव, रूबी किंग आदि तथा पैपरीका की के.टी.पी.एल.-19 प्रचलित है। इन किस्मों के अलावा अब संकर जातियों ने पैदावार के लिये विशेष स्थान ले लिया है तथा हमारे देश में भी संकर जातियाँ प्रचलित हो रही हैं। संकर जातियाँ बनाने का कार्य भी किया जा रहा है।
शिमला मिर्च के बीजोत्पादन के लिए जलवायु
गर्म मौसम की फसल होने के कारण इसे लगभग 4 से 5 माह का पाला रहित समय चाहिये। पहाड़ी क्षेत्रों में इसे गर्मियों के मौसम में तथा मैदानी भागों में गर्मी व बरसात में उगाते हैं। इसके पौधो कम गर्म व आर्द्र जलवायु में अच्छी तरह विकसित होते है।
फसल पकते समय शुष्क जलवायु उपयुक्त रहती है। बीज के अंकुरण के लिये 16-29 ⁰C, पौधा की अच्छी बढत के लिये 21-27 °C व फलों के उचित विकास व परिपक्वता के लिये तापमान 320 ᵒC से अधिाक नही होना चाहिये, उचित तापमान का होना ही मिर्च के बीज की लाभकारी खेती के लिये एक विशेष आवश्यकता है।
भूमि का चयन
उत्तम बीज तैयार करने हेतु हर वर्ष भूमि को बदलना चाहिये, अगर ऐसा सम्भव न हो सके तो यह सुश्चित कर लेना चाहिये कि चयन की हुई भूमि में पहले सोलेनेसी वर्ग की सब्जी जैसे टमाटर, बैंगन या उसका बीज उत्पादन न किया गया हो। साथ ही साथ भूमि में खरपतवार कम हों व सिंचाई व पानी के निस्कारण की उचित व्यवस्था हो व आस पास के क्षेत्रा में कोई दूसरी किस्म की मिर्च का उत्पादन न किया जा रहा हो।
पृथक्करण दूरी
हालांकि मिर्च में स्वपरागण होता है परन्तु इसमें परपरागण 20-30 प्रतिशत तक हो जाता है। अत: पौधा लगाते समय इसको मिर्च की अन्य किस्मों से 200-400 मीटर की पृथकता दूरी पर लगाना चाहिये।
एक किस्म से दूसरी किस्म के बीच में उँचे पौधा वाली फसल जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा या सूरजमुखी के खेत लगे हों ये दूरी कम की जा सकती है। परन्तु किसी भी अवस्था में 100 मीटर से कम नही होना चाहिये।
बीज स्रोत
बीज शुध्द एवं उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए। बीज उत्पादन के लिये मानक या आधार बीज किसी प्रमाणित केन्द्र या संस्थान या विश्वविद्यालय से ही लेना चाहिए।
बुआई का समय एवं बीज की मात्रा:
पौधा तैयार करने के लिये नर्सरी की बुआई आंध्र प्रदेश व तमिल नाडु में मई माह के दूसरे पखवाड़े से मध्य जुलाई तक की जाती है। उत्तरी भारत में फसल को पाले से बचाने हेतु बसन्त ऋतु की फसल की बुआई फरवरी से मार्च तथा खरीफ फसल की बुआई जून-जुलाई में की जाती है।
शिमला मिर्च का बीजोत्पादन भारत में समशीतोष्ण क्षेत्रों में होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बुआई का उपयुक्त समय मार्च से अप्रैल है।
नर्सरी की बुआई के लिये प्रति हैक्टेयर 600 ग्राम शिमला मिर्च का बीज पर्याप्त होता है। एक हैक्टेयर में पौधा रोपण करने हेतु 10-12 नर्सरी की क्यारियाँ जो सात मीटर लम्बी, 1.2 मीटर चौड़ी व 15 से.मी. ऊँची हो पर्याप्त हैं। इनमें 5-6 से.मी. की दूरी में लाईन से जो 0.5 से.मी. गहरी हो बीज को उपचारित करने के बाद बोना चाहिये।
बीज को एग्रोसिन, थाईरम, कैप्टान आदि किसी एक से 2 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचार कर ही बोना चाहिये। नर्सरी की क्यारियाँ तैयार करते समय प्रति क्यारी 20 किग्रा. अच्छी सड़ी गोबर की खाद व प्रति वर्ग मीटर 100 ग्रा. 15:15:15 के अनुपात वाला एन:पी:के का मिश्रण अच्छी तरह मिला लेना चाहिये।
बीज बोने से पहले नर्सरी का उपचार कैफटाफ या फोल्टाफ के 3 ग्रा. प्रति ली. पानी का घोल बनाकर 5 ली. प्रति वर्ग मी. की दर से छिड़काव करना चाहिये। पौधो के अंकुरण के एक सप्ताह बाद पौधाशाला में कैप्टान या हैग्राकैप 3 ग्राम प्रति ली. पानी के धाोल से ड्रैन्चिंग करनी चाहिये।
इसके पूर्व बीज बोने के बाद नर्सरी को सुखी घास से ढक कर रखना चाहिये। पाँच दिन बाद जैसे ही अंकुरण दिखाई दे घास या पुआल को हटा देना चाहिये। अंकुरण के पश्चात 10-15 दिन के अंतराल में कैप्टान व ड़ाईथेन एम-45 का 1 ग्राम प्रति ली. का घोल छिड़काव करना बेहतर होगा।
अगर चेंपा दिखाई दे तो 0.1 प्रतिशत डाइमेथोएट का घोल का छिड़काव कर लेना चाहिये। पौधाशाला को खरपतवार से साफ व समय से गुड़ाई व सिंचाई तथा पौधों की थीनिंग करते रहना चाहिये।
खेत का आकार
खेत जहाँ तक सम्भव हो सके वर्गाकार होना चाहिये क्योंकि यांत्रिक मिश्रण की सम्भावना खेत की बाहरी पंक्ति में अधिाक होती है। अर्थात आयताकार खेत की अपेक्षा वर्गाकार खेत से शध्दता एवं अधिाक बीज प्राप्त होता है।
रोपाई का समय तथा विधि
खेत में पौधा रोपण करने से पूर्व पौधों को 8-10 घंटे पहले पानी की पौधाशाला में आवृति कर देने से पौधों का कठोरीकरण होना आवश्यक है। इसके बाद 8 घन्टे पूर्व खूब अच्छी तरह सिंचाई कर शाम के समय पौधा जो 8-10 से.मी. लम्बी हो या 4-6 पत्ते पौधा में आये हों को ही पौधारोपण हेतु निकालना चाहिये। पौधारोपण में पौधाों की रोपाई 45 × 45 से.मी. की दूरी पर करनी चाहिये।
खाद व सस्य क्रियायें
खेत की मिट्टी की जाँच कर लेने के बाद खाद की मात्रा में आवश्यकतानुसार बदलाव किया जा सकता है। अन्यथा खेत की तैयारी के समय 25-30 टन प्रति है. जैविक खाद तथा 100 किग्रा. नत्राजन, 50 किग्रा. फास्पफोरस व 100 किग्रा. पोटाश रासायनिक खादो का प्रयोग करना चाहिये।
फसल की रोपाई के 40 दिन बाद लगभग 50 किग्रा. नत्राजन खाद खड़ी फसल में पुन: देनी चाहिये। इसकी सफल खेती के लिये उचित समय पर निराई-गुड़ाई और सिंचाई प्रबन्धान करना अति आवश्यक है। खेत में जल के निकास का उचित प्रबन्धा करना बहुत ही आवश्यक है।
जहाँ हवा अधिाक चलती हो वहाँ पौधों की स्टेकिंग करनी आवश्यक है। बीज की पैदावार हेतु अगर पौधा से पहली, दूसरी व तीसरी फूल की कली को तोड़कर निकाल दिया जाये जो फलों की 118 प्रतिशत व बीज की 41.1 प्रतिशत वृध्दि पायी गई है। अत: यह क्रिया शिमला मिर्च के लिये तो अति आवश्यक है।
अवांछनीय पौधों को निकालना
बीज फसल का अच्छी तरह निरीक्षण करने के पश्चात सम्पूर्ण पौधों को इकाई मानकर (जो बीज बनाये जा रही किस्म से भिन्न हो) जड़ से निकाल देना चाहिये। निरीक्षण कम से कम तीन बार करना चाहिए अर्थात पौधा के बढत के समय पौधा के आकार पत्ती के रंग के आधार पर फिर फल लगते समय व प्रथम फल पकने के पूर्व अवांछनीय पौधा जो थोड़ी सी भी भिन्नता रखती हो निकाल देनी चाहिये।
फल पकने पर उनके रंग, आकार व गुणों के आधार पर उत्तम पौधों को छाँटना बीज की गुणवत्ता के लिये जरूरी है। फल तोड़ते समय विषाणु अंगमारी अथवा एन्थ्रेकनोज आदि रोगों से प्रभावित पौधों के फल बीज के लिये नही रखने चाहिये।
फलों की तुड़ाई एवं बीज निकालना
बोई गई किस्म के गुणों को प्रर्दशित करने वाले परिपक्व फल जो लाल रंग के हो गये हों को हाथों से तोड़कर इकठ्ठा कर लेना चाहिये। हाथो से तोड़ने पर फलों में रोगग्रस्त फल, विभिन्न आकार वाले अविकसित व छोटे फलों को अलग किया जा सकता है।
फलों को फैलाकर छायादार जगह में जहाँ बीज निकालने की सुविधा हो रख देना चाहिये। शिमला मिर्च के बीज तोड़े गये फलों को 2-3 दिन तक छाया में रखे फलों से आसानी से अलग किये जा सकते है। फलों को दो हिस्सों में काट लेते हैं व ऊपरी तने की तरफ लगने वाले हिस्से में प्लेसेन्टा में बीज होते हैं जिन्हे हाथ से या लकड़ी की कलम से रगड़ कर अलग कर लेते हैं
फिर किसी बरतन में हिलाकर इकठ्ठा कर लेते हैं। पानी में धोकर भी बीज निकाले जाते हैं परन्तु बीज निकालने के तुरन्त बाद बीज को सुखाने के लिये फैला दिया जाता है। अगर तुरन्त सूखने न दिया जाये तो बीज भूरा व खराब होने का डर रहता है।
शिमल र्मिच के बीज की पैदावार
शिमला मिर्च का अच्छा बीज औसतन अत्यधिाक 120 किग्रा. प्रति हैक्टेयर और उन्नत तकनीक से 220 किग्रा. प्रति हैक्टेयर तक पैदा किया जा सकता है। बीज की औसतन पैदावार 70-120 किग्रा. प्रति हैक्टेयर तक होती है।
बीज प्रमाणिकरण
बीज उत्पादन वाले खेत का बीज प्रमाणिकरण संस्था द्वारा प्रमाणित कराकर उसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित कर लेते है। बीज प्रमाणिकरण एक स्वतंत्रा एजेन्सी होने से बीज उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं जैसे खेत, पृथक्करण, बीज प्रसंस्करण आदि एक्सपर्ट कमेटी से कराते है। बीज उत्पादन वाली फसल को सही अवस्था में काटने से बीज की गुणवत्ता बनी रहती है।
शिमला र्मिच में फसल सुरक्षा
मिर्च के मुख्य रोग व कीट व्याधिायों को अगर बीज के बोने से लेकर पकने तक उचित उपचार किये जाये तो सफल सुरक्षित खेती की जा सकती है। मुख्यत: इनमें तीन प्रकार की व्याधिायाँ है, कीट, कवक, बैक्टीरिया एवं वाइरस तथा न फैलने वाली व्याधिायां (एबायोटिक)।
कीटों के उपचार के लिये इमिडाक्लोप्रीड 1-2 मिली. प्रति ली. पानी के घोल का छिड़काव कीट जैसे थ्रिप्स, माइटस, चेंपा, फल छेदक या हेयरी कैटरपीलर के लिये उपयुक्त है व पौधाशाला से ही चेंपा व माइट नुकसान करते है अत: इसका छिड़काव 15-20 दिन के अंतर में पौधाों की जाँच करने के पश्चात् प्रकोप दिखाई देने पर ही करना चाहिये। कीटनाशक दवा को बदलते रहना भी उचित है जैसे मैलाथियान, थायोडान, नुवान आदि।
इसके अलावा सूंड़ी पौधा को पौधारोपण के बाद जमीन की सतह के पास काटकर नुकसान पहुचाती है। इसकी रोकथाम के लिये 1 ग्राम प्रति पौधा लगाने के निशान मे 3 जी फ्रयूराडोन मिट्टी में अच्छी तरह मिला लेने से नुकसान काफी कम होता है।
कवक द्वारा फैलने वाली व्याधिायों के लिये फफूंदीनाशक दवाये जैसे डाइथेन एम-45 (2 ग्राम प्रति ली. पानी में मिलाकर) कापर आक्सी-क्लोराइड़ (2.5 ग्राम प्रति ली. पानी में मिलाकर) और घुलनशील सल्फर (सल्फैक्श 2 प्रतिशत) बीमारियों जैसे एन्थ्रेक्नोज, फल सड़ने तथा पाउडरी मिल्डयू लग जाने पर क्रमश: उपरलिखित दवाओं का छिड़काव करने से लाभ होगा।
बैक्टीरिया द्वारा फैलने वाली व्याधिायों पत्तियों में बैक्टीरियल स्पॉट, फलों का सड़ना व बैक्टीरियल विल्ट मुख्य है। इनके बचाव के लिये या तो प्रतिरोधाी किस्में लगाई जाये या बीज को मरक्यूरकि रसायन से उपचार करें। इसकी रोकथाम के लिये 0.1 प्रतिशत प्लान्टोमाईसीन का छिड़काव भी लाभदायक है। पौधों के बीच से खरपतवार हटाने व पौधाों के बीच हवा व सूरज की रोशनी का आवागमन ठीक हो तो व्याधिा कम रहती है।
विषाणु रोग मौजेक व लीफ कर्ल, कर्लीटाप आदि मुख्य है। विषाणु रोग से प्रभावित पौधों को जड़ से निकालकर नष्ट कर देना ही उचित है। खेत में उचित समय पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव भी करना इस रोग को फैलने से बचाता है। अन्यथा प्रतिरोधी किस्में ही लगानी होंगी। इस बात का भी धयान देना चाहिये कि मिर्च के खेत के पास अल्फा अल्फा, क्लोबर, खीरा, टोबेको व टमाटर की फसल नही नगी होनी चाहिये। यहाँ तक की मिर्च में काम करने वालों को अगर वो तम्बाकू का सेवन करतें हों तो काम करने से पहले हाथ धो लेने चाहिये।
एबायोटिक (न फैलने वाली व्याधिायां) में सनस्कैल्ड़ (धूप से जलना), छिल्के में दरार या व्यासम एण्ड़ रोट मुख्य है। इसके अलावा ओलों से भी नुकसान होता है अत: इसके रोकथाम के लिये क्रमश: तेज धूप, पानी का बराबर मात्रा में प्रयोग व नत्रजन खाद का कम उपयोग तथा फास्पफेट व कैल्शियम (डोलामाईट) का धयान रखना उचित होगा ।
Authors:
राम सिंह सुमन
भा.कृ.अ.प. – भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय स्टेशन, कटराईं (कुल्लू घाटी) हिप्र.
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