Soil erosion and its management in the current environment

 

मानव सम्यता का अस्तित्व प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। उनमें मिट्टी, प्रकृति की एक अनुपम भेंट है। प्रकृति इसका संरक्षण वनस्पतियों के माध्यम से करती हैं। प्रकृति ने मिट्टी के संरक्षण के लिए जो कवच प्रदान किया है, उसे मानव हस्तक्षेप से क्षति पहुंच रही है। फलस्वरूप, मृदा क्षरण तेजी से होने लगाहै। भूमि कटाव की समस्या न केवल भारत में, बल्कि विश्वव्यापी है।

देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर में, 17 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर अर्थात 50 प्रतिशत से अधिक, भूमि, जल, वायु और स्थानविशिष्ट कारणों से प्रभावित हो रहा है। देश में 58 प्रतिशत भूमि की खेती वर्षा आधारित है और कुल क्षेत्र का लगभग 42 प्रतिशत भाग ही खेती के लिए उपलब्ध है, जो कि लगभग 135 करोड़ जनसंख्या की जीविका का सहारा है।

भौतिक रूप से मिट्टी के कणों का अपने स्थान से हटने व अन्य स्थान पर पहुँच जाने की क्रिया को भू-क्षरण कहा जाता है। प्रकृति के अनुसार, भू-क्षरण दो प्रकार के होते है-

1. प्राकृतिक कटाव: पादप आच्छादित भूमि में प्राकृतिक रूप से जल एवं वायु द्वारा भू-क्षरण को प्राकृतिक कटाव कहते हैं। इस प्रकार का कटाव मृदा निर्माण और मृदा नाश की क्रियाओं का समेकित परिणाम है। इस कटाव से कोई खास क्षति नहीं होती है।

2. त्वरित कटाव: जब भूमि के पादप कवच को पशुओं द्वारा चराकर, जंगल काटकर या जोतकर समाप्त कर दिया जाता है, तो भूमि निरावृत हो जाती हैं और भूमि पर वर्षा की बूदें उपरी मिटटी के कणों को अपने में मिला लेती है और इस तरह उपजाउ मिट्टी खेत से बह जाती है। निरावृत मृदा-कण वायु के साथ भी उड़ने लगते है। इस प्रकार के क्षरण को त्वरित कटाव कहते हैं। इसके कारण मिट्टी की उपजाऊ परत धीरे-धीरे घटती रहती है।

कारकों के अनुसार भूमि कटाव दो तरह के होते है -

1.जल द्वारा कटावः

जब वर्षा की बूंदे वनस्पति-रहित भूमि पर पड़ती है, तो वे मृदा कणों को एक दूसरे से अलग कर देती है। ये कण बिखर कर पानी के बहाव के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचते हैं। जल द्वारा भूमि के कटाव, और बह जाने की इस क्रिया को ‘‘जलीय क्षरण’’ कहा जाता है। जलीय कटाव निम्न प्रकार के होते हैं-

कण-छिटकाव क्षरण: यह कटाव की प्रारम्भिक अवस्था है। इसमें वर्षा की तीव्र गति से गिरती बूँदो के आधात से मिट्टी के कण अपने स्थान से छिटककर चारों ओर बिखर जाते हैं।

परत क्षरणः बूँदों द्वारा मिट्टी के कणों के बिखरने के पश्चात वर्षा का जल पूरे खेत से मिट्टी की एक पतली परत को बहाकर ले जाते है। इसे परत क्षरण की संज्ञा दी जाती है।

क्षुद्रनालिक क्षरणः वर्षा होने पर जल खेत के ढाल की ओर नन्ही-नन्ही धाराओं के रूप में बहने लगता है। ये धाराएं भूमि कटाव करती है और उंगलियों के समान पतली नालिकाओं का निमार्ण कर देती हैं। इन उथली नालिकाओं के रुप मे कटाव को ‘क्षुद्र नलिका क्षरण’ कहा जाता है।

अवनालिका क्षरणः जब क्षुद्र नालिका क्षरण की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है या उन्हें रोका न जाए और भूमि की ढाल अधिक होती है, तो पानी का बहाव एवं कटाव निरंतर बढता जाता है। तब ये नालिकाएं अधिक गहरी एवं चैडी़ होती जाती है। यह कटाव धारा के विपरीत दिशा में बढ़ता है। इस प्रकार की भूमि मे कृषिकार्य करना कठिन होता है।

जब ये अवनालिकाएं और अधिक गहरी एवं चैड़ी हो जाती हैं और इनके मध्य में कृषि योग्य भूमि नहीं रहती है, तब इन क्षेत्रों केा बीहड़ कहा जाता है, जो नदियों के किनारे में विशेष रूप में पाये जाते हैं।ये बीहड़ आकार एवं गहराई के अनुसार अंग्रेजी के ‘यू’ अथवा ‘व्ही’ आकार के होते हैं। ‘व्ही’ आकार के खादर ‘यू’ आकार के खादर की तुलना में कृषि की दृष्टि से अधिक कठिन हैं, क्योंकि ‘व्ही’ आकार मेंउपजाऊ मिट्टी अधिक कट जाती है।

केन्द्रीय भूमि एवं जल संरक्षण अनुसंधान केन्द्र, देहारादून मे यमुना के खादरों का नियंत्रित करने के लिए कर्यरत है। इसके अलावा केन्द्रीय भूमि एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान देहरादून में दून घाटी की समस्या के लिए स्थापित हैं।

भू-स्खलनः प्रायः इस प्रकार का क्षरण पर्वतीय क्षेत्रों में देखने को मिलता है। जब इन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है और चट्टाने नमी से संतृ्प्त हो जाती हैं, तो खड़े ढालों पर ढीली चट्टानें एव भूखण्ड स्खलित होकर नीचे लुढक जाते हैं। नदी नालां के किनारे होने वाले अपरदन एवं समुद्री किनारे पर होने वाला अपरदन भी बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके कारण जमीन की बर्बादी होती है, नहरे खराब हो जाती हैं तथा आर्थिक क्षति होती है।

2. वायु द्वारा कटावः-

वायु द्वारा कटाव में निम्नलिखित क्रियाएं होती हैं

सतह विसर्पण: भारत में भूमि का25 प्रतिशत भाग इस प्रकार के कटाव से प्रभावित होता है। इस क्रिया से प्रभावित कण का आकार 0.5-1.3 मि0मि0 तक होता हैं। वायु के दबाव से भूमि की सतह पर रेंगकर कण एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तिरित हो जाते हैं।

उच्छलन: जब वायु का दबाव सीधे मृदा कणों पर पड़ता है, तो वे अपने स्थान से ऊपर की ओर छिटकने लगते हैं और दूसरे स्थान पर गिर जाते हैं। जिसे स्थान पर मृदा कण गिरते हैं, वहाँ के कणों को भी छिटका देते हैं। इस क्रिया द्वारा मुख्यतः05-0.5 मि0मि0 आकार वाले कण प्रभावित होते हैं। मृदा क्षरण में भार की दृष्टि से 50-75 प्रतिशत मृदा कण इस क्रिया द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाये जाते हैं।

कण निलम्बन: इस प्रकार कि क्रियाओं में मृदा के छोटे-छोटे कण वायु के द्वारा वातावरण में लटकते रहते हैं और हजारों किलोमीटर तक स्थानान्तरित हो सकते हैं।

वायु द्वारा भूमि कटाव रोकने के मूल सिद्वांतः

  1. भूमि सतह के समीप वायु के गति को कम करना,
  2. मृदा कण-समूह का आकार बढ़ाना,
  3. भूमि की सतह को नम करना,
  4. भूमि को फसल आच्छादित रखना

भूमि कटाव को निम्न प्रकार से रोका जा सकता हैः-

(अ) कर्षण क्रियाएं

  • फसल चक्र में हरी खाद वाली फसले उगानी चाहिए। यह भूमि की उर्वरता, कणों के आकार एवं नमी की मात्रा बरकरार रखने में सहायक हैं
  • भूमि को कभी परती नहीं छोड़ना चाहिए।
  • भूमियों में जीवांश बहुल खादोंका उपयोग करना चाहिए।
  • फसलों की पंक्तियों को वायु के समकोण दिशा में बोना चाहिए।
  • फसल चक्र में दलहनी वाली फसल व घासों को शामिल करना चाहिए।
  • खेत की मिट्टी को अधिक भुर-भुरी नहीं करना चाहिए।

(ब) वायुरोधी वृक्ष पट्टियाँ:

वायु की गति को कम करने के लिए जिस दिशा में हवाएं चलती हैं उनकी समकोण दिशा में वृक्षों और झाड़ियों की सुनियोजित पट्टियाँ लगाते हैं। इससे भूमि कटाव कम हो जाता हैं और मिट्टी में नमी का वाष्पीकरण द्वारा ह्रास कम हो जाता हैं। वायुरोधी पट्टियों की लंबाई वृक्षों की ऊचाई से 30 गुनी रखते हैं।

पट्टियों की आपसी दूरी 3-4 मीटर एवं पौधों की आपसी दूरी 1-2 मीटर रखी जाती है। सघनता को ध्यान मेंरखते हुए पट्टियों में वृक्षों की ऐसी जातियाँ जिनमें कम से कम वायु गुजर सके उपयोग मेंलाई जाती है। इसके लिए बबूल, शीशम, नीम, पेापलर, जामुन, इमली, बेर, सिरस, अमलताश, बिलायती बबूल आदि का प्रयोग किया जा सकता हैं।

अतः हम कृषि तथा मानव सभ्यता के अस्तित्व से जुडें इस दो बुनियादी प्राकृतिक संसाधनों-मृदा एवं जल के विषय में गंभीरता से बिचार करें तथा उनका समुचित ढंग से उपयोग करें तो वह दिन दूर नही हैं कि हम इस देश की धरती पर फिर से ‘‘हरित क्रांति’’ ला सकेगें।


Authors:

डा.अजीत कुमार एवं डा. चन्दन कुमार झा

सहायक प्राध्यापक सह वैज्ञानिक,

मृदा विज्ञान विभाग, ईख अनुसंधान संस्थान,

डॉ आरपीसीएयू पूसा. 848125 समस्तीपुर- बिहार।

इमेल़ः This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

 

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