फलीदार सब्जियाँ के पांच प्रमुख रोग तथा उनका समेकित रोग प्रबंधन

फलीदार सब्जियाँ के पांच प्रमुख रोग तथा उनका समेकित रोग प्रबंधन

Five Major Diseases of Podded Vegetables and their Integrated Disease Management

मानव आहार में सब्जियों का विशेष महत्व है। सब्जियों में विटामिन, कार्बोहाड्रेट, प्रोटीन तथा खनिज प्रदार्थ पर्याप्त मात्रा में पाये जाते है जो शरीर को स्वस्थ्य बनाने एवं रोगों से लड़ने में काफी सहायता करती है। फलीदार सब्जियां जैसे सेम, लोबिया इत्यादि, आयरन का एक बड़ा स्रोत है और इसमें कई खनिज तत्व काफी मात्रा में पाए जाते है ।

यह मांस, पनीर तथा अन्य वसीय खाद्यों के पाचन के दौरान बने अम्लो के निस्प्रभावित करने में सहायक है । इसमें घुलनशील फाइबर कोरोनरी हार्ट रोग को कम करती है एवं फलीदार सब्जियों में कैलोरी कम होने के कारण मोटापा भी कम करने में सहायक होती है ।

भारत में फलीदार सब्जियों की प्रति व्‍यक्ति उपलब्‍धता केवल 37 ग्राम प्रतिदिन है, इसलिए प्रोटीन की आवश्‍यकता को पूरा करने में 54 ग्राम प्रतिदिन तक इसके उत्‍पादन में वृद्धि करने की नितांत आवश्‍यकता है।

फलीदार सब्जियों के उत्पादन को बढाने के लिए यह आवश्यक है कि इसकी वैज्ञानिक खेती की जाय एवं इसमें लगने वाले रोग से बचाए जिससे किसान भाई का काफी नूकसान होता है । इस लेख में फलीदार सब्जियों में लगने वाले रोगों के पहचान, रोग के लिए अनुकूल वातावरण एवं उनका समेकित प्रबंधन विस्तार से दिया जा रहा है ।

1. आर्द्रपतन

रोग के लक्षण:  

सब्जियों के नर्सरी में एवं शुरूआत में इस तोग से काफी नूकसान होता है। रोग में रोगजनक का आक्रमण बीज अंकुरण के पूर्व अथवा बीज अंकुरण के बाद होता है । पहली अवस्था में बीज का भ्रूण भूमि के बाहर निकलने से पूर्व ही रोगग्रसित होकर मर जाता है ।

मूलांकुर एवं प्राकूंर बीज से बाहर निकल आते फिर भी वे सड़ जाते है दुसरी अवस्था में बीज अंकुर के बाद कम उम्र के छोटे पौधों  के तनों पर भूमि से सटे तनों पर अथवा भूमि के अंदर वाले भाग पर संक्रमण हो जाता है जिससे जलसिक्त धब्बे बन जाते है और पौधा संक्रमित स्थान से टुट कर गिर जाता है पौधों में गलने के लक्षण भी दिखाई देते है । रोग का प्रकोप नम भूमि मे ज्यादा होता है ।

रोगजनक : पिथियम, फाइटोफ्थोरा, स्क्लेरोशियम, फ्यूजेरियम आदि ।

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण :

रोगजनक भूमि में या पादप अवशेषों पर काफी समय तक जीवित रहता है। इन रोजनकों के जिवाणु जैसे पोषित कवकजाल स्क्लेरोशियम आदि प्रतिकुल मौसम में भी भूमि में पड़े रहतें है एवं अनकुल वातावरण निकलने पर उग जाते है तथा यही प्राथमिक निवेश द्रव्य का काम करते है।

2. श्यामवर्ण

रोग के लक्षण :-

इस रोग के लक्षण फलियों पर गहरे – भूरे रंग के काले धंसे हुये दाग के रूप में दिखाई देते है बीच का रोगग्रस्त भाग दाग के समान होता है जो बाद मे कवक के बीजाणु उत्पन्न होने कारण गुलाबी रंग का हो जाता है ।

रोग का प्रकोप पत्ती तथा तना पर भी देखे जा सकते है इसके बीच का भाग गहरा भूरा और किनारे चमकीले लाल, पीले या नारंगी होता है । संक्रमण के कारण पत्तियों के अन्दर बने बीज पर भी संक्रमण हो जाते है जिस पर भूरे धब्बे देखे जा सकते है।

रोगजनक :- कोलेटोट्राइकत लिडेंमुथिएनम

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण :-

रोग बीज जनित है इसका प्रसार एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र संक्रमित बीज द्वारा होता है।

3. किट्ट

रोग के लक्षण :-

रोग के लक्षण पत्तियों, फलियों, तनों एवं शाखाओं पर देखे जा सकते है । सर्वप्रथम पत्तियों की निचली सतहः पर उभरे हुये हल्के पीले रंग के धब्बे दिखाई देते है । संक्रमण बढ़ने पर धीरे -धीरे धब्बों का रंग गाढ़ा भूरा या काला हो जाता है जो रोगजनक की टीलियम अवस्था है। कई धब्बों के आपस में मिलने से पत्तियाँ पीली होकर सूख जाती है।

रोगजनक :– यूरोमाइसीज फैजियोली, यूरोमाइसीज

रोगचक्र एवं अनुकूल वावावरण :-

रोगजनक संक्रमण है जो अपना जीवन चक्र सेम पर ही पूरा करता है।यह एक एकाश्रयी कवक है तथा मृदा में रोगग्रस्त पादप अवशेषों पर टिलियम अवस्था में उत्तरजीवी रहता है तथा कभी-कभी बीज के साथ भी रह सकती है।

किट्ट का द्वितीयक प्रसार प्रमुख रुप से ईशियम बीजाणु द्वारा होता है, क्योंकि ये पत्तियों को सक्रमित करने के बाद पुनः ईशियम पैदा करते हैं। जबकी 250 सेल्सियस तापमान पर संक्रमण होने से यूरिडियम बनते हैं।

4. चारकोल विगलन

रोग के लक्षण :-

इस रोग में संक्रमित पौधों की जड़े अथवा भूमि के निकट तने पर काले रंग के कुछ धंसे हूए दाग बनते है। जिससे जड़े व तना सड़ जाता है। पौधों की पत्तियाँ पीली पड़कर एक या दो दिन में मुरझा जाती है। अनुकूल वातावरण में संक्रमित पौधों की जड़े सड़ने के कारण शीघ्र मर जाते है जिससे काफी हानि होती है।

रोगजनक :- मैक्रोफोमिना फैजिओलिना

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण :-

रोगजनक एक वर्ष से दुसरे वर्ष मिट्टी में गिरी हुई पत्तियों, पौध अवशेषों में उत्तरजीवित रहता है। रोगजनक का फैलाव पानी द्वारा होता है। स्क्लेरोशियम इनकी सुप्ता अवस्था है जिसके द्वारा विपरीत परिस्थितयों में उत्तरजीवी बना रहता है। रोगजनक प्रयोगों में बीजजनित भी देखा गया है।

5. जीवाणुज अंगमारी

रोग के लक्षण :-

रोगग्रस्त पौधों की पत्तियों पर जलीय धब्बे बनते है तथा संक्रमण बढ़ने पर यह विकृत होकर गिर जाती है। रोग का प्रभाव फलियों और तनों पर भी होता है। जिस पर कुछ दबे हुये भूरे रंग के धब्बे बनते है। संक्रमित फलियों की बीज सिकुड़ जाते है। संक्रमित तनों से पीला या सफेद तरल प्रदार्थ का स्राव होता है जो जीवाणु के होने का प्रमुख लक्षण है।

रोगजनक :- जैन्थोमोनाज कम्पेस्ट्रिस उपजाति फैजिओलाई

रोगजक्र एवं अनुकूल वातावरण :-

रोगजनक बीज के सतह पर अथवा बीज के आंतरिक भाग में अनेक वर्षों तक रहता है। रोगजनक जीवाणु पौध अवशेषों में भी आसानी से फसल तक उत्तरजीवी रहता है। रोग बीज अंकुरण के साथ ही बीज पत्तों पर पहूँचकर संक्रमित करता है प्रभावित पौधों की बाह्य सतह पर रोगजनक जीवाणु रिसता है जिसका प्रसार वर्षा के पानी अथवा कीड़ों द्वारा होता है।

6. मोजेक

रोग के लक्षण :-

रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों पर पिले रंग के धब्बे दाने के आकार के दिखाई देते है कुछ ही दिनों में पीले दाग बढ़ने लगते तथा हरे पिले चकते पत्तियाँ पर बन जाते है। संक्रमित पत्तियों लम्बी तथा सकरी होती है।

रोग पौधों में नई पत्तियों प्रारम्भ में ही कुर्बरता के लक्षण प्रर्दर्शित करती है। प्रभावित पौधों में फलियां बहुत कम बनती है तथा बीज सिंकुड़े हुऐ प्राप्त होते हैं।

रोगजनक :- बीन मोजेक विषाणु

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण :-

यह एक वायरस जनित रोग है। इस वायरस का संचार बीज या मिट्टी द्वारा नहीं होता है। रोग का संचार सफेद मक्खी बेमिसिया तैबकाई द्वारा होता है। केवल 15 मिनट में यह वायरस ग्रहण कर लेती है और 15 मिनट में ही निवेशन करती है।

फलीदार सब्जियाँ (सेम, लोबिया इत्यादि) में समेकित रोग प्रबंधन

  • स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग करें।
  • खेत के आसपास उगे खरपतवारों को उखाड़कर जला दे एवं साफ सफाई रखें।
  • अधिक पानी एवं खराब जल निकास से बचा जाना चाहिये।
  • खेत में संतुलित खाद का प्रयोग करे एवं जल निकास का उचित प्रबंध करे।
  • खेत में 100 किग्रा नीम की खली/ हेक्टेयर का प्रयोग करे ।
  • मृदा का उपचार कैप्टान / 0.3 % की दर से करें।
  • मृदा में ट्राइकोडर्मा 5-10 किग्रा/हेक्टेयर की दर से मिलाने पर मृदा जनित रोगों को कम किया जा सकता है।
  • खेत में आर्द्रपतन अथवा श्यामवर्ण रोग के लक्षण दिखने पर कार्बेन्डाजीम की 1 ग्राम/लीटर पानी की दर से 12 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।
  • किट्ट का प्रकोप विखाई देने पर जिनेब 75 प्रतिशत नामक दवा की 5 किलोग्राम  मात्रा को 800-1000 लीटर पानी मे घोल बना कर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करने से रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।
  • खेत में चारकोल विगलन के लक्षण दिखने पर हेक्साकोनाजोल 1 मिली /लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव से इस रोग का नियंत्रण हो सकता है।
  • जीवाणु अंगमारी से बचाव के लिये स्ट्रेप्टोसाइक्लिन रसायन के 100 मिलीग्राम प्रतिलीटर पानी के घोल चिपकने वाले प्रदार्थ के साथ 10-15 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करें।
  • विषाणु से ग्रसित पौधों को देखते ही उखाड़कर जला दें।
  • वायरस के संक्रमण के फैलाव के रोकने के लिये डाइमेथोएट की 1 मीली दवा 2 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

Authors

 दिनेश राय एवं वी के तिवारी

सहायक प्राध्यापक, पादप रोग विभाग, 

डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार

Email: drai1975@gmail.com

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