Watermelon (Citrulus lanatus Thunb.) farming an instrument to increase rural income  

Watermelon (Citrulus lanatus Thunb.) farming an instrument to increase rural income  

तरबूज की खेती ग्रामीण आय बढ़ाने का एक अच्‍छा साधन  

तरबूज़ ग्रीष्म ऋतु की फसल है । इसका फल बाहर से हरे रंग के होते हैं और अंदर से लाल होते है। ये पानी से भरपूर व मीठे होते हैं। इसे मतीरा  और हदवाना भी कहा जाता है। तरबूज भारत मे बहुत लोकप्रि‍‍‍य फल है। बाजार मेें तरबूज की अच्‍छेे भाव आसानी से मि‍ल जाते है अत: कि‍सानो की आय बढाने मे तरबूज की खेती एक अच्‍छाा साधन हो सकता है। 

तरबूज की खेती के लि‍ए भूमि :

तरबूज की फसल के लिए बलुई दोमट जमीन बेहतर होती है। इसी वजह से नदियों के किनारे की दियारा जमीन इस के लिए सब से अच्छी मानी जाती है। जमीन में जलनिकासी और सिंचाई का अच्छा इंतजाम होना चाहिए। जलभराव से इस फसल को काफी नुकसान पहुंचता है। परीक्षणों के मुताबिक पाया गया है कि दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7 के बीच हो तरबूज की खेती के लिए ज्यादा बढि़या होती है।

खेत की तैयारी :

सब से पहले खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। उस के बाद 3-4 जुताइयां कल्टीवेटर या देशी हल से करके मिट्टी को खूब भुरभुरी बना लेना चाहिए। नमी की कमी होने पर पलेवा जरूर करना चाहिए।

तरबूज की बुआई :

तरबूज की फसल पानी नहीं बर्दाश्त कर पाती है, लिहाजा इसे थोड़ा ऊपर 1 मीटर लंबे और 1 मीटर चौड़े रिज बेड में बोना चाहिए। इससे भी अच्छा होगा कि बीजों को अलग अलग किसी बर्तन जैसे मिट्टी के प्याले वगैरह में रख कर तैयार करें, इस से पौधे ज्यादा तंदुरुस्त होंगे।

तरबूज के बीजों के जमाव के लिए 21 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे का तापमान सही नहीं होता है। यह पाले को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। इस की बढ़वार के लिए ज्यादा तापमान की जरूरत होती है। इसी वजह से इसकी बोआई देश में अलग अलग समय पर की जाती है।

उत्तरी भारत के मैदानी भागों में तरबूज की बोआई जनवरी के शुरुआती दिनों से लेकर मार्च तक की जाती है। उत्तर पूर्वी और पश्चिमी भारत में इस की बोआई नवंबर से जनवरी तक की जाती है। दक्षिणी भारत में इस की बोआई दिसंबर से जनवरी महीनों के दौरान की जाती है।

बोआई करने से पहले बढि़या अंकुरण के लिए बीजों को पानी में भिगो दें। इसके बाद किसी फफूंदीनाशक दवा जैसे कार्बेंडाजिम, मैंकोजेब या थीरम से बीजशोधन करें। आमतौर पर छोटे बीज वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 2-3 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं।

बड़े बीजों वाली किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 5 किलोग्राम बीज लगते हैं। जिस किस्म का बीज बारीक होता है। वो बीज एक से डेढ़ किलो काफी है। जिस किस्म का बीज मोटा होता है उसके दो किलो बीज एक एकड़ मैं डालना चाहिए।

तरबूजे की बुवाई के समय दूरी भी निश्चित होनी चाहिए। लम्बी बढ़ने वाली जाति के लिए 3 मी. कतारों की दूरी रखते हैं तथा बेड़ों की आपस की दूरी 1 मीटर रखते हैं। एक बेड़ में 3-4 बीज लगाने चाहिए तथा बीज की गहराई 4-5 सेमी. से अधिक नहीं रखनी चाहिए।

कम फैलने वाली जातियों की दूरी 1.5 मी. कतारों की तथा बेड़ों की दूरी 90 सेमी. रखनी चाहिए। बगीचों के लिये कम क्षेत्र होने पर कम दूरी रखने की सिफारिश की जाती है। 

शुगर बेबी के लिए ढाई से तीन मीटर चौड़ाई की बेड़ों पर बीज लगाये और बीज से बीज का फासला साठ सेंटीमीटर रखें।

खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग :

तरबूजे को खाद की आवश्यकता पड़ती है। गोबर की खाद 20-25 ट्रौली को रेतीली भूमि में भली-भांति मिला देना चाहिए। यह खाद क्यारियों में डालकर भूमि तैयारी के समय मिला देना चाहिए। 80 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टर देना चाहिए तथा फास्फेट व पोटाश की मात्रा 60-60 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से देनी चाहिए।

फास्फेट व पोटाश तथा नत्रजन की आधी मात्रा को भूमि की तैयारी के समय मिलाना चाहिए तथा शेष नत्रजन की मात्रा को बुवाई के 25-30 दिन के बाद देना चाहिए।

खाद उर्वरकों की मात्रा भूमि की उर्वरा शक्ति के ऊपर निर्भर करती है। उर्वरा शक्ति भूमि में अधिक हो तो उर्वरक व खाद की मात्रा कम की जा सकती है। बगीचों के लिये तरबूजे की फसल के लिए खाद 5-6 टोकरी तथा यूरिया व फास्फेट 200 ग्राम व पोटाश 300 ग्राम मात्रा 8-10 वर्ग मी. क्षेत्र के लिए पर्याप्त होती है।

फास्फेट, पोटाश तथा 300 ग्राम यूरिया को बोने से पहले भूमि तैयार करते समय मिला देना चाहिए। शेष यूरिया की मात्रा 20-25 दिनों के बाद तथा फूल बनने से पहले 1-2 चम्मच पौधों में डालते रहना चाहिए। 

तरबूज की उन्नत किस्मे :

शुगर बेबी – इसके बीज एक से डेढ़ किलो काफी है। जिस किस्म का बीज मोटा होता है उसके दो किलो बीज एक एकड़ मैं डालना चाहिए। इस बीज की पैदावार 70 क्वेंटल / एकड़ होती है।

न्यू हेम्पसाइन मिडगेट – यह किस्म गृह-वाटिका के लिये बहुत ही उपयुक्त होती हैं। इसके फल 2-3 किग्रा। के होते हैं। फल अधिक लगते हैं। छिलका हल्का हरा काली धारियों के साथ होता है। गूदा लाल, मीठा होता है।

आसाही-पामाटो इस किस्म के फल मध्यम आकार के, छिलका हल्का हरा होता है । गूदा लाल, मीठा तथा फल के छोटे बीज होते है । फल 6-8 कि.ग्रा. वजन के होते हैं तथा 90-100 दिनों में तैयार हो जाते हैं।

दुर्गापुरा केसर इस किस्म का विकास उदयपुर वि०वि० के सब्जी अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुर जयपुर, राजस्थान द्वारा किया गया है यह तरबूज़ की किस्मों के विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण उपलब्धि है। फल का भार ६-७ किग्रा० तक होता है। फल हरे रंग का होता है, जिस पर गहरे हरे रंग की धारियाँ होती है। गूदा केसरी रंग का होता है, इसमें मिठास १० प्रतिशत होती है।

संकर किस्में मधु, मिलन, मोहिनी।

खरपतवार :

खरपतवारों की रोकथाम के लिए बोआई के बाद व जमाव से पहले या नर्सरी में तैयार किया हुआ पौधा है, तो पौधरोपण के कुछ ही दिनों बाद पेंडीमेथलीन दवा की 3.5 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। समय समय पर निराई गुड़ाई भी करते रहना चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन:

सिंचाई की मात्रा, मिट्टी के प्रकार, तापमान एवं मौसम पर निर्भर करती है। 5-6 दिन मे एक बार सिंचाई जरूर करनी चाहिए। भारी मिट्टी मे पर्याप्त अंतराल पर सिंचाई करने से वानस्पतिक वृद्धि को बढ़ावा मिलता है। जड़ क्षेत्र मे तथा पौधे के निचले भाग मे ज्यादा पानी देने से जड़ गलन तथा फल सड़न की समस्या हो सकती है अत: सिंचाई प्रबंधन अत्याधिक महत्वपूर्ण है।

प्रमुख रोग एवं नियंत्रण :

म्रदुरोमिल (डाउनी मिल्ड्यू) – यह रोग अधिकांशतः वर्षा,नमी एवं गर्मी वाली जगहों में होता है। रोग ग्रस्त पौधों के लक्षण –

  • पत्तियों के उपरी भाग में पीले धब्बे दिखाइ पड़ते है।
  • व निचले भाग में बैगनी रंग के धब्बे दिखाइ पड़ते है।
  • पत्तिया सुख कर गिजाती है।

नियंत्रण –

  • फसल के साथ खरपतवार न उगने देवे
  • उचित फसल चक्र अपनाये
  • थायोफिनेट मिथाईल का 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिडकाव करें।

चूर्णित आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू ) – सामान्तः चूर्णित आसिता रोग सूखे मौसम में अधिक होता है ग्रसित पौधे की लक्षण –

पुराणी पत्तियों के निचले भाग में सफेद धब्बे दिखाई देते है समय के साथ साथ धब्बे का आकर बडने लगता है।

  • पत्तियों के दोनों भागों (उपरी व निचले) में सफेद पाउडर की तरह परत जमने लगती है।
  • पत्तिया पीली पड जाती है और सामन्य वृध्दि रुक जाती है।

नियंत्रण –

  • खरपतवार न उगने देवे।
  • बीज उपचारित कर बोआई करें।
  • उचित फसल चक्र अपनाये।
  • घुलनशील सल्फर का 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिडकाव करें।
  • कार्बेन्डाजिन 50 % डब्लू.पी. का 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिडकाव करें ।

 

फ्यूजेरियम विल्ट – यह रोग अंकुरण से लेकर किसी भी अवस्था पर प्रभावित कर सकता है पौध अवस्था में आद्र गलन होकर पौधा मरजाता है परिपक्त अवस्था में पत्ती पर शीर्ष जलन के लक्षण आते है तथा पौधा झुलसने लगता है। 

नियंत्रण –

  • बोने से पहले बीज को 2-5 ग्राम बेविस्टीन से उपचारित करें ।
  • मृदा में मृदा में 0.3 % केप्टान दवा का छिडकाव कर मिला दें ।

 

अन्थ्रेक्नोस – इसका आक्रमण खीरे में मुख्य रूप से गर्म व नए मौसम में अधिक होता है। यह फफूंद से होने वाला रोग है ग्रसित पौधे की लक्षण –

  • पत्तियों पे भूरे रंग के गोल धब्बे पड़ने लगते है।
  • खीरे में लाल भूरे धब्बे बनते है ।
  • धब्बों के कारण पत्तिया झुलसी हुई दिखाए पड़ती है ।

नियंत्रण –

  • बीज उपचारित कर बोआई करें
  • खरपतवार न उगने देवे
  • उचित फसल चक्र अपनाये
  • टेब्युकोनाजोल 20 ई.सी. का 2 मि.ली. की दर से छिडकाव करें।

 

विषाणु रोग – यह विषाणु द्वारा फैलने वाला रोग है जो की रस चुसक कीट द्वारा फैलता है  जिसे मोजेक विषाणु रोग कहते है। ग्रसित पौधे की लक्षण –

  • पत्तियों में पीले धब्बे पड़जाते है व पत्तिया सिकुड़ जाती है तथा पत्तिय पीली होक्कर सुख जाती है।
  • फल आकर में आड़े टेड़े व छोटे रह जाते है ।

नियंत्रण –

  • रोग रहित बीजो का उपयोग करे
  • रोग रोधी किस्मो का चयन करे
  • रोग ग्रस्त पोधे को उखाड़कर जला देवे
  • यह रोग अफीड के द्वारा फैलता है अतः कीटनाशी डाइमेथोएट 30 ई.सी. 1 मि.ली./ली या एमिडाक्लोप्रिड 200 एस एल की 3 मि.ली./ली से उपचार करें ।

प्रमुख कीट एवं नियंत्रण :

रेड पम्पकिन बीटल यह लाल रंग का कीट होता है जो की बेल वाली सभी सब्जियों को छती पंहुचाता है तथा पत्तियों के बीच के भाग को कुतरता है यह कीट बुआई के बाद अंकुरण के तुरंत बाद छती पहुचाता है।

नियंत्रण –

  • 5 मि.ली. प्रति लीटर की दर से नीम तेल का छिडकाव करें।
  • 2 मि.ली. प्रति लीटर की दर से क्लोरोपाईरीफास का छिडकाव करें।
  • 0 मि.ली. प्रति लीटर की दर से इंडाक्सीकार्व का छिडकाव करें।

फल की मक्खी – यह मक्खी घरेलु मक्खी के आकर की ही होती है जो कि फलो में छिद्र कर उसमे अंडे देती है अंडे फल के अन्दर ही फुट जाते है जिससे निकले मैगट फल के अन्दर से गुदे को खाते रहते है अतः कीट ग्रसित फल साड  जाते है।

नियंत्रण –

  • 3 प्रति एकड़ की दर से मिथाईल युजिनॉल प्रपंच लगायें।
  • इंडाक्सीकार्ब 0 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से छिडकाव करें।
  •  

एफिड – यह हरे रंग के सुक्ष्म कीट होते है जोकि पौधे कोमल भाग से रस चूसते है,

कीड़े आकर व संख्या में जल्दी बड़ते जाते है, पत्तिय पीली पड़ जाती है।

नियंत्रण –

  • रोकथाम हेतु 5 मि.लि. प्रति लीटर की दर से नीम तेल का छिडकाव करें।
  • रासायनिक नियंत्रण हेतु थायोमिथाक्सीन 25 % डब्लू.जी. की 3 ग्राम प्रति लीटर का छिडकाव करे।

तरबूज फसल की उपज :

तरबूज की पैदावार किस्म के अनुसार अलग-अलग होती है। साधारणत: तरबूजे की औसतन पैदावार 800-1000 क्विंटल प्रति हेक्टर फल प्राप्त हो जाते हैं।

तरबूज का भंडारण :

तोड़ाई करने के बाद तरबूज के फलों का भंडारण 1 हफ्ते से ले कर 3 हफ्ते तक 2.20 डिगरी सेंटीग्रेड से 4.40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और वायुनमी 80-85 फीसदी होने पर किया जा सकता है.


Authors:

रोमिला खेस्स, एन.आर. रंगारे*

उधान शास्त्र विभाग, कृषि महाविद्यालय, रायपुर

*उधान शास्त्र विभाग, कृषि महाविद्यालय, जबलपुर

 Email: romilaxess8@gmail.com

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