गन्ने की फसल में सस्य प्रबंधन

गन्ने की फसल में सस्य प्रबंधन

Agronomy Management in Sugarcane Crop
डॉ. ललिता राणा
गन्ना भारत में महŸवपूर्ण औद्योगिक फसलों में से एक है। गन्ना भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में महŸवपूर्ण योगदान देती है। गन्ना उत्पादित करने वाले क्षेत्रों में गामीण अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से गन्ने की फसल एवं चीनी या संबद्ध उद्योग से जुड़ी हुई है।
देश की बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप सन् 2030 तक शर्करा पदार्थों की प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष आवश्यकता 35 किग्रा0 तक पहंुॅंच जाने का अनुमान है जिसमें 20 किग्रा0 चीनी व 15 किग्रा0 गुड़ एवं खण्डसारी सम्मिलित है। अतः इनकी पूर्ति के लिए अधिकतम गन्ना उत्पादन तथा चीनी परता प्राप्त करने की महती आवश्यकता है।  
गन्ना के लिए उपयुक्त मौसम
गन्ना एक उष्णकटिबन्धीय पौधा है। लगभग 28-320 से0 तापमान पर गन्ने की वृद्धि अच्छी होती है। 
खेत की तैयारी-
गन्ने की खेती के लिए लगभग 2-3 बार गहरी जुताई करनी चाहिए। उसके बाद 1 से 2 बार पाटा लगाना चाहिए। 
बुआई का समय –
गन्ना की फसल लगभग 10 से 18 महीने की होती है। बुआई का समय मौसम के द्वारा निर्धारित होता है। उपोष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों मंे गन्ने की बुआई का समय शरदकाल (अक्टूबर), बसन्त काल, (फरवरी-मार्च) एवं ग्रीष्म काल (अप्रैल से मई) में होता है। 
बीज दर –
बीज दर लगभग 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है। 
बीज उपचार –
बुआई से पहले गन्ने के टुकड़ों को कार्बेन्डाजिम या बाविस्टीन के घोल में लगभग 10 मिनट तक 1 ग्रा0 प्रति लीटर पानी की दर से उपचार करें। 
पंक्ति से पंक्ति की दूरी
सामान्यतः 90 से0 मी0 की दूरी पर गन्ने की बुआई की जाती है।  आजकल कुछ गन्ना कृषक पंक्ति से पंक्ति की दूरी 120 से0 मी0 रखते है।
बुवाई विधियाॅं 
किसी भी विशेष बुवाई विधि का उद्देश्य मिल योग्य गन्ने की वांछित संख्या तथा अधिक लम्बाई, मोटाई व वजन प्राप्त करना होता है। गन्ने की उत्पादकता में मिल योग्य गन्ने की संख्या का योगदान 40% होता है जबकि लम्बाई, मोटाई व वजन का क्रमशः 27, 3 व 30% योगदान है। इस प्रकार अगर 100 टन प्रति हेक्टेयर गन्ने का उत्पादन लेना है तो मिल योग्य गन्नों की संख्या 1 लाख व हर गन्ने का वजन 1 किलोग्राम होना चाहिए।
 
इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये हमारे देश में गन्ना बोने की कई विधियाॅ प्रचलित है जिसमें समतल विधि सबसे अधिक  प्रयोग में लायी जाती है। गन्ने की उपज एवं चीनी परता बढ़ाने के लिए बुआई की नवीनतम विधियां विकसित हुई हैं। बुआई की नई विधियों में ‘‘रिंग-पिटष्का विकास वांछित दोनों उद्देश्यों के लिए सर्वाधिक हुआ है। रिंग-पिट विधि द्वारा गन्ना लगाने से मिल योग्य गन्ना ’मूल प्ररोह’ से ही बनते हैं जो कि लम्बे, मोटे व भारी होते है एवं इनका विकास भी एक जैसा होता है जिससे चीनी परता  में बढ़ोत्तरी होती है। 
नाली विधि में गन्ने के जमाव के उपरान्त फसल के क्रमिक बढ़वार के साथ मेंड़ो की मिट्टी नाली में पौधे की जड़ पर गिराते जाते हैं जिससे देर से निकलने वाली अवांछित कल्लों की संख्या कम होती है और मुख्यरूप से ’मूल प्ररोह’ ही विकसित होकर मिल योग्य गन्ना बनते हैं जिससे चीनी परता में बढ़ोत्तरी होती है। 
 
फर्ब विधि में लगभग 50-60 से0 मी0 का उत्थित क्यारी बनाया जाता है एवं गेहँू की तीन पंक्तियों को 17 से0 मी0 की दूरी पर नवम्बर या दिसम्बर माह के प्रथम सप्ताह में बुआई करते हैं। गन्ने की बुआई भी नवम्बर महीने में 80 से0 मी0 की दूरी पर स्थित नालियों में गेहँू की बुआई के तुरन्त बाद की जाती है। इस विधि में लगभग 25 से 30ः पानी की बचत होती है। 
गन्ना की उन्नत किस्में
को0 0238, को0 लख0 94184, को0 पीवि0 08212, को0 पू0 09437, को0 118, को0 जे0 85, को0 89003, को0 एस0 767, को0 एच0 119, बी0 ओ0 91, बी0 ओ0 110, बी0 ओ0 153, बी0ओ0 154, को0पू0 9301, को0 पू0 16437, बी0 ओ0 137, राजेन्द्र गन्ना 1 एवं बी0 ओ0 139 इत्यादि हैं। 

राजेन्द्र गन्ना 1बी.ओ. 153को.पू. 9301

राजेन्द्र गन्ना 1                                                      बी.ओ. 153                                                     को.पू. 9301

   
पेाषक तत्व प्रबन्धन 
गन्ना काफी मात्रा में पोषक तत्वों का दोहन करती  है। अतः गन्ने की उपज व गुणवत्ता दोनो बनाये रखने के लिए विभिन्न पोषक तत्वों का उचित मात्रा व अनुपात में फसल को देना अति आवश्यक है। उत्तर भारत में सामान्यतः नेत्रजन, फाॅस्फोरस एवं पोटेशियम 150ः60ः60 या 150ः85ः60 किग्रा/हे0 के अनुपात में देते हैं।
संस्तुत पोषक तत्वों में से फाॅस्फोरस एवं पोटेशियम की पूरी मात्रा एवं नत्रजन की एक तिहाई मात्रा बुआई के समय ही कूड़ मंे डाल देते हैं।
शेष नेत्रजन की मात्रा कल्ले निकलते समय एवं फिर उसके 1 माह के अंतराल पर खेत में पौधे की जड़ के पास। नत्रजन के साथ-साथ मृदा की जाॅंच के आधार पर फाॅस्फोरस एवं पोटेशियम का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। फाॅस्फोरस पौधों में अधिक नेत्रजन के प्रभाव को संतुलित करता है।
सिंचाई प्रबन्धन 
एक कि0 ग्रा0 चीनी बनाने के लिए लगभग 1000 से 2000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। अच्छी चीनी परता व उत्पादन के लिये 6-7 सिंचाइयाँ (2 सिंचाई वर्षा उपरान्त) करना लाभप्रद पाया गया है।
सारिणी -1ः गन्ने के जीवन चक्र का पानी के आवश्यकतानुसार विभाजन
समय  अवस्था
रोप के 60 दिनों तक अंकुरण एवं जमीन से पौधे का निकलना 
60 से 120 दिनों तक कल्ला निकलने की अवस्था में
120 से 250 दिनों तक  बढ़वार
250 से 365 दिनों तक परिपक्तवता
पानी की सबसे ज्यादा आवश्यकता कल्ले निकलने एवं बढ़वार के समय होती है। 
सीमित सिंचाई साधनों की स्थिति में स्किप फरो एक नाली छोड़कर विधि द्वारा सिंचाई करने से 30% पानी की बचत होती है एवं गन्ने की पैदावार 10-15% तक बढ़ जाती है (सारिणी -2)।  बूंद-बूंद (ड्रिप) सिंचाई से पानी की बचत के साथ-साथ गन्ने की पैदावार 20-30% व चीनी परता 0.2-0.6%  तक बढ़ जाता है।  
खरपतवार नियंत्रण 
गन्ना फसल में पंक्तियों की अधिक दूरी, 3-4 माह तक कम बढ़वार एवं ज्यादा खाद का उपयोग होने के कारण अक्सर खरपतवारों का आक्रमण होता है। 
गन्ने में अनियंत्रित खरपतवार 40% सिंचाई जल व 40% नेत्रजन का शोषण करके गन्ने की उपज में 40% कमी कर देती है एवं गन्ना के साथ प्रकाश, स्थान एवं वायु के लिए प्रतिस्पर्धा करते है जिसके कारण गन्ने की पैदावार मे कमी आती है। इसके अलावा खरपतवार के प्रकोप से गन्ने में रेशे की मात्रा बढ़ जाती है व रस की गुणवत्ता भी घटती है।
गन्ने की उपज एवं चीनी परता बढ़ाने हेतु खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है। गन्ने की सिंचाई के बाद पहले बथुआ, मोथा, नूणिया व चैलाई आदि की संख्या बढ़ जाती है, इसके बाद बरसात का मौसम होते ही घास खरपतवार जैसे कि दूव, मकड़ा इत्यादि उगने शुरू हो जाते हंै।
खरपतवार नियंत्रण का समय सही फसल की विजाई के समय पर निर्भर करता है। वसंतकालीन फसल में खरपतवार नियंत्रण फसल की बिजाई के क्रमशः 60 दिन बाद व फसल में 120 दिन तक करना चाहिए।
यदि इस दौरान गन्ने की फसल को खरपतवारों से न बचाया जाये तो बाद की अवधि मे किये गये सभी प्रयास व्यर्थ जाते हैं। गन्ना फसल में खरपतवारों का नियंत्रण रासायनिक पर्दाथों के द्वारा किया जाता है (सारिणी-2)।
सारिणी-2: गन्ना में खरपतवार नियंत्रण
खरपतवारनाशी दर (सक्रिय तत्व कि0 ग्रा0 या लीटर/हे0) व्यवहार का समय
ग्लाइफोसेट (राउण्ड अप) $ 2ः अमोनियम सल्फेट 2.0  बुआई के पहले
आॅक्सीफ्लोरफेन (गोल) 0.75 बुआई के तीन दिन बाद
एट्राजिन (आटैªक्स) 2.0-3.0 बुआई से 2-3 दिनों के अन्दर 
मेट्रव्यूजिन (सेन्काॅर) 1.5-2.0 बुआई से 2-3 दिनों के अन्दर
2,4 डी0 एस्टर 0.5-1.25  बुआई के 55-60 दिनों बाद
  
ईख में लगने वाले कीट 
गन्ना उत्पादक को कीटों के आपात, क्षति के लक्षण एवं उनके पहचान की जानकारी आवश्यक है। गन्ना की फसल अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक अवधि की होने के कारण कीटों के आक्रमण की सम्भावना भी अधिक हो जाती है। सामान्यतः इस फसल को विभिन्न अवस्थाओं में एक दर्जन से भी अधिक कीटों का आक्रमण पाया गया है। ईख के हानिकारक कीटों को क्षति के आधार पर इन्हें तीन वर्गो में विभाजित किया गया है। प्रथम छिद्रक कीट, द्वितीय रसचूसक कीट एवं तृतीय भूमिगत कीट।
ईख में लगने वाले कीट
नियंत्रणः
परजीवी में टेलीनोमस जाति, ट्राइकोग्रामा किलोनिस, कोटेसिया प्लेवीपस, आइसोटिमा जवेन्सिम, स्टुरमियापसिम इनफरेन्स, स्टीनोव्रेकान जाति का छिद्रक कीट, एपीरीकेनिया मेलानोल्यका का पायरिला तथा फेरोएिकमनस हारनी का शक्ल कीट के नियंत्रण में विशेष योगदान है। रोपनी के 45 दिन बाद अण्ड परजीवी ट्रायकोग्रामा किलोनिस की 50,000 अण्डा 10 दिन के अन्तराल पर प्रति हे0 की दर से 4-6 बार खेत में छोडें़। भूमिगत कीटों से बचाव के लिए खली एवं पलेवा के साथ निम्विसिडीन  0.5ः  या नीम केक 2 टन/हे0 का प्रयोग करें। दीमक एवं गड़ार के लिए व्यूभेरिया वेसियाना फफूंद 1 × 109 ब्थ्न्ध्उस / 2 से 3 कि0ग्रा0/हे0 के दर से इस्तेमाल करना चाहिए। रसचुसक कीटों के लिए मेट्रीजियम लेकानी या मेटारीजियम एनीसोप्ली फफूंद 1 × 109 ब्थ्न्ध्उस / 2 से 3 कि0ग्रा0/हे0 के दर से इस्तेमाल करना चाहिए। जी0भी0 विषाणु 1.5 × 1013 ओ.बी./हे0 तीन से चार बार कल्ला छिद्रक के रोक-थाम हेतु प्रयोग किया जा सकता है।
गन्ने को क्षति करने वाले प्रमुख रेाग 
भारतवर्ष में गन्ने की फसल में लगभग 100 से ज्यादा बिमारियाँ पाई गई हैं। कठिन मेहनत अधिक पूंजी लगाये जाने एवं उन्नत कृषि क्रियाओं के अपनाने के बाबजुद अगर गन्ने फसल में रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है तो करीब 15-20: तक चीनी की मात्रा में कमी हो जाती है। अतः फसल को वक्त रहते रोगों से बचाना अनिवार्य हो जाता है, जिससे की अधिक से अधिक उपज एवं चीनी प्राप्त किया जा सके।
रोकथाम
मिट्टी मंे ट्राइकोडर्मा का व्यवहार, नीम, करंज, अंडी या महुआ की खल्ली में से किसी एक खल्ली के 2.5 क्विंटल को चूर्ण कर लें तथा उसमें ट्राइकोडर्मा पाउडर जो एक जैव नियंत्रक है का 2.5 किलोग्राम अच्छी तरह मिला लंे।
फिर उसमें हल्का पानी  का फुहारा दे कर नम करके किसी छायादार जगह में 4 दिनों के लिए रख दें। खेत की अंतिम जुताई के समय इसे एक हेक्टेयर मंे मिलाकर जुताई कर पाटा दे दें।
विषाणुजनित रोगों का प्रसार एक कीट लाही (एफिड) द्वारा होता है। इन रोगों के प्रसार को रोकने हेतु डाइमेथोएट 30:  ई0 सी0 का 1.5 मि0 ली0/लीटर जल या इमिडाक्लोप्रिड 17.8: एस0 एल0 का 0.5 मि0 ली0/लीटर जल के घोल का ईख फसल पर छिड़काव किया जाना चाहिए। 
यदि ईख फसल पर पर्ण धब्बा, गलित शिखा तथा मध्य नाड़ी पर लालसर की उग्रता अधिक हो तो फसल पर काॅपर आॅक्सीक्लोराईड 50ः डब्ल्यू0 पी0 का 3 ग्राम/लीटर जल या मैंकोजेब 75: डब्ल्यू0 पी0 का 2.5 ग्राम/लीटर जल में घोल बनाकर फसल पर 15 दिन के अंतराल पर तीन छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के लिए 1 हेक्टेयर ईख फसल के लिए 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। 
मिट्टी चढ़ाना 
गन्ने में मिट्टी चढ़ाना एक महत्वपूर्ण सस्य क्रिया है। मानसून शुरू होते ही मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जाता है। मिट्टी चढ़ाने से देर से निकलने वाले कल्लों की संख्या कम हो जाती है। खेत में खरपतवारों का नियंत्रण होता है तथा गन्ना गिरने से बच जाता है। इसके फलस्वरूप मूल प्ररोहों एवं प्राथमिक किल्लों से बनने वाले मिल योग्य गन्नों की संख्या अधिक होती है जिससे चीनी परता में बढ़ोŸारी होती है (सारिणी-3)।
सारिणी 4ः मिट्टी चढ़ाने से पोल प्रतिशत पर प्रभाव

  उपचार

  बुाआई के 55 से 60 दिनों बाद

अक्टूबर

दिसम्बर

बिना मिट्टी चढ़ाये 13-30 15-78
एक बार मिट्टी चढ़ाना 13-71 16-32
दो बार मिट्टी चढ़ाना 13-84 16-45
सहफसली खेती 
शरदकालीन गन्ना से बसंत कालीन गन्ने की अपेक्षा 10-15% अधिक उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ 0.1 से 0.5 इकाई चीनी का परता भी बढ़ जाता है। परन्तु शरदकालीन गन्ने के अन्तर्गत क्षेत्रफल केवल 15-20% तक ही सीमित है।
शरदकालीन गन्ने में अन्तः फसली खेती से ही इसका क्षेत्रफल बढ़ाया जा सकता है। शरदकालीन गन्ने के साथ आलू, चना, मसूर, राजमा, तोरी, गाजर, लहसून इत्यादि फसल ली जाती हैं एवं वसंतकालीन गन्ने के साथ मूंग दाल, उरद दाल एवं भिन्डी की फसल ली जाती है। 
 
इसके लिए अधिक आय एवं कम अवधि वाली फसलों को गन्ने के साथ अन्तः फसल के रूप मेें लगाकर मृदा की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, उत्पादन लागत कम करने एवं उत्पादन पद्धति को टिकाऊ बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान सम्भव है। 
कटाई प्रबन्धन 
उपोष्ण क्षे़त्र में औसत चीनी की परता लगभग 8 से 9ः के मध्य होता है जो कि कम है। चीनी परता कम होने का एक मुख्य कारण उचित ढंग से गन्ने की कटाई का न होना भी है। अतः अधिक चीनी परता के लिये उपयुक्त कटाई क्रम का अपनाना अति आवश्यक है। अगात प्रभेद की कटनी 15 नवम्बर तथा मध्य पिछात प्रभेदों की कटनी जनवरी के प्रथम सप्ताह से करनी चाहिए। 
खूंटी प्रबंधन
राज्य में कुल गन्ना के क्षेत्रफल का लगभग 50: क्षेत्र खूंटी फसल के अन्तर्गत आता है जबकि इसकी उत्पादकता मुरहन फसल की अपेक्षा काफी कम है। खूंटी फसल की उत्पादकता बढ़ाने हेतु निम्नलिखित तकनीकों की अनुशंसा की जाती है।
  1. फसल एवं प्रभेद का चुनाव: स्वस्थ मुरहन फसल जिसमें पर्याप्त पौधे हो तथा कल्ले प्रस्फूटन की अधिक क्षमता हो उसी प्रभेद का चयन करना चाहिए।
  2. उपयुक्त समय पर मुरहन फसल की कटाई: जनवरी के अन्त से 15 मार्च तक काटी गई मुरहन फसल से अच्छी खूंटी फसल प्राप्त होती है।
  3. खूंटार की छंटाई एवं मेड़ तोड़ना: मुरहन फसल की कटाई तेज धार वाले औजार से जमीन की सतह से लगभग 5-7 सें.मी. नीचे से करनी चाहिए इससे कल्ले स्वस्थ तथा समान रुप से निकलते हैं। मेड़ों को तोड़कर खूंटी को बचाते हुए अच्छी तरह जुताई करने से पुरानी जड़ें कट जाती हैं तथा नयी जड़ों का विकास होता है।
  4. मिट्टी एवं खूंटी उपचार: खूंटी तोड़ने के बाद 20 टन कम्पोस्ट या गंधकीय प्रेसमड समान रुप से छींटकर मिलाना चाहिए। खूंटी के कटे हुए भाग पर झरने या स्प्रेयर द्वारा वेभिस्टीन का 0.1ः (एक ग्राम) के घोल में प्रति लीटर पानी के साथ छिड़काव करने से आरम्भिक अवस्था में गन्ना रोगग्रस्त होने से बच जाते हैं। खूंटी सफाई के तीन सप्ताह बाद रसायनिक उर्वरक के व्यवहार के बाद 15 किलोग्राम फोरेट 10 जी./हे. के दर से इस्तेमाल करने से कीटों से सुरक्षा मिलती है।
  5. खाली जगहों को भरना: खूंटी फसल के लिए प्रति मीटर की दूरी में तीन झुड़ होना आवश्यक है। यदि झुड़ों की संख्या इससे कम हो तो खाली स्थानों में पौली बैग या बडचिप द्वारा विकसित पौधों से खाली स्थानों को भरना चाहिए।
  6. सिंचाई: साधारणतया 3 सप्ताह के अन्तराल पर मानसून की बरसात के पहले तक सिंचाई देते रहना चाहिए। इस प्रकार कुल 4-5 सिंचाई देना आवश्यक है

Authors:
ललिता राणा, नवनीत कुमार, सुमित सो, अनिल कुमार, सिद्ध नाथ सिंह एवं देवेन्द्र सिंह
ईख अनुसंधान संस्थान
डा0 राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा
समस्तीपुर (बिहार)-848125
Email: lalita@rpcau.ac.in

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