गेहूँ उत्पादन की आधुनिक सस्य तकनिकी 

देश में लगभग 3.02 करोड़ हेक्टेअर क्षेत्रफल से 9.68 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हो रहा है। देश की बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वर्ष 2030 के अन्त तक 28.4 करोड़ टन गेहूँ की आवश्यकता होगी। इसे हमे प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण, भूमि, जल एवं श्रमिक कमी तथा उत्पादन अवयवों के बढ़ते मूल्य के सापेक्ष प्राप्त करनी होगी।

उत्तर प्रदेश के वर्ष 2001-02 से वर्ष 2016-17 के गेहूँ उत्पादन एवं उत्पादकता के आंकड़ो से स्पष्ट है, कि इसमें एक ठहराव सा आ गया है। जिसको हम मुख्य रूप से उन्नतशील बीज, पोषक तत्व, नाशीजीव, खरपतवार एवं जल प्रबन्ध को एक साथ समायोजित कर ही प्राप्त कर सकते है।

खेत की तैयारी:

गेहूँ की अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी करने के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाले डिस्क हैरो तथा कम से कम दो बार कल्टीवेटर का अथवा एक बार रोटाबेटर का प्रयोग करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगा लेना चाहिए जिससे ढेले टुट जाय क्योंकि धान की फसल के बाद तुरन्त जुताई करने से ढेलें अधिक बनते हैं।

मृदा शोधन तथा विश्लेषण करवाने के बाद प्राप्त संस्तुति के अनुसार ही पोषक तत्वों का प्रयोग करना चाहिए।

बुआई:

गेहूँ की बुआई समय से पर्याप्त नमी पर करना चाहिए। देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई समय से अवश्य कर लेना चाहिए अन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुआई में विलम्ब होता जाता है गेहूँ की पैदावार में गिरावट की दर बढ़ती चली जाती है।

दिसम्बर से बुआई करने पर गेहूँ की पैदावार 3 से 4 कु0 प्रति हे0 एवं जनवरी में बुआई करने पर 4 से 5 कु0 प्रति हे0 प्रति सप्ताह की दर से घटती है। गेहूँ की बुआई सीडड्रिल से करने पर उर्वरक एवं बीज की बचत के साथ ही अन्य सस्य क्रियायें सुगमता से की जा सकती हैं।  

बीज दर एवं बीज शोधन:

लाइन में बुआई करने पर सामान्य दशा में 100 कि0ग्रा0 तथा छिटकवाँ बुआई की दशा में सामान्य दाने वाली किस्मों का 125 कि0ग्रा0 एवं मोटे दाने वाली किस्मों का 150 कि0ग्रा0 प्रति हे0 की दर से प्रयोग करना चाहिए।

बुआई के पहले जमाव प्रतिशत अवश्य परीक्षण करा लेना चाहिए। बीजों को एजेटोबैक्टर व पी०एस०वी० से उपचारित कर बुआई करना चाहिए। सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में रिजवेड विधि से बुआई करने पर सामान्य दशा में 75 कि0ग्रा0 तथा मोटा दाना 100 कि0ग्रा0 प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

पत्तियों की दूरी:

सामान्य दशा में 18 से0मी0 से 20 से0मी0 एवं गहराई 5 से0मी0 एवं विलम्ब से बुआई की दशा में 15 से0मी0 से 18 से0मी0 तथा गहराई 4 सेमी०।

बुआई की विधि:

बुआई हल के पीछे कूड़ों में या फर्टीसीडड्रिल द्वारा भूमि की उचित नमी पर करना चाहिए। पलेवा करके ही बोना उत्तम होता हैं। यह ध्यान रहे कि प्रति वर्गमीटर 400 से 500 उत्पादक किल्ले अवश्य हो अन्यथा इसकी कमी से इसके उपज पर कुप्रभाव पड़ेगा।

गेहूँ की मेंड पर बुआई:

इस तकनीकि द्वारा गेहूँ की बुआई के लिए खेत पारम्परिक तरीके से तैयार किया जाता है और फिर मेड़ बनाकर गेहूँ की बुआई की जाती है। इस पद्धति में एक विशेष प्रकार की मशीन (वेडप्लान्टर) का प्रयोग बुआई के लिए किया जाता है।

मेंडो के बीच नालियों से सिंचाई की जाती है तथा बरसात में जल निकासी का काम भी इन्ही नालियों से होता है। एक मेड़ पर 2 या 3 कतारों से गेहूँ की बुआई होती है। इस विधि से गेहूँ की बुआई करने पर बीज, खाद तथा पानी की बचत के साथ अच्छी पैदावार मिलती है। इस तकनीक की विशेषताये एवं लाभ इस प्रकार है।

  1. इस पद्धति में लगभग 25 प्रतिशत बीज की बचत की जा सकती है। अर्थात् 30-32 किलोग्राम बीज एक एकड़ के लिए पर्याप्त है।
  2. यह मशीन 70 सेन्टीमीटर की मेड़ बनाती है जिस पर 2 या 3 पंक्तियों में बोआई की जाती है। अच्छे अंकुरण केलिए बीज की गइराई 4 से 5 सेन्टीमीटर होनी चाहिए।
  3. मेड़ उत्तर-दक्षिण दिशा में होनी चाहिये ताकि हर एक पौधे को सूर्य का प्रकाश बराबर मिल सकें।
  4. इस पद्धति से बोये गये गेहूँ में 25 से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
  5. इस पद्धति में लगभग 25 प्रतिशत नत्रजन भी बचती है अतः 120 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हे0 पर्याप्त होता है।

उर्वरको का प्रयोग:

खाद की मात्रा:

उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। बौने गेहूँ की अच्छी उपज के लिए मक्का, धान, ज्वार, बाजरा की खरीफ फसलो के बाद भूमि में 150:60:40, तथा विलम्ब से 80:40:30 क्रमशः नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश का प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सामान्य दशा में 120:60:40 कि0ग्रा0, नत्रजन, फास्फोरस तथा पोटाश एवं 30 किग्रा० गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग लाभकारी पाया गया है। यदि खरीफ में खेत परती रहा हो या दलहनी फसले बोई गई हो तो नत्रजन की मात्रा 20 किग्रा० प्रति हेक्टर तक कम प्रयोग करें।

लगातार धान-गेहूँ फसल चक्र वाले क्षेत्रों में कुछ वर्षा बाद गेहूँ की पैदावार में कमी होने लगती है। अतः ऐसे क्षेत्रों में गेहूं की फसल कटने के बाद तथा धान की रोपाई के बीच हरी खाद का प्रयोग करना चाहिए अथवा धान की फसल में 10-12 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए।

खाद लगाने का समय व विधि:

उर्वरक की क्षमता बढ़ाने के लिए उनका प्रयोग विभिन्न प्रकार की भूमियों में निम्न प्रकार से करना चाहिए। 1. दोमट या मटियार, कावर तथा मार भूमि में नत्रजन की आधी, फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय कँड़ों में बीज के 2-3 सेमी0 नीचे करें। नत्रजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई के 24 घण्टे पहले या ओट आने पर दे।

बुआई दोमट राकड़ व बलुई जमीन में नत्रजन की 1/3 मात्रा, फास्फेट तथा पोटाश की पूरी मात्रा को बुआई के समय कँडो में बीज के नीचे देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई (20-25 दिन) के बाद (क्राउन रूट अवस्था) तथा बची हुई मात्रा दूसरी सिंचाई के बाद देना चाहिए।

गेंहूॅ में सिंचाई:

आश्वस्त सिंचाई की दशा में:

सामान्यतः गेहूँ की बौनी प्रजातियों से अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए हल्की भूमि में सिंचाईयों को निम्न अवस्थाओं में करनी चाहिए।

पहली सिंचाई: बुआई  के 20-25 दिन बाद (ताजमूल अवस्था)

दुसरी सिंचाई: बुआई के 40-45 दिन बाद (कल्ले निकलते समय)

तीसरी सिंचाई: बुआई के 60-65 दिन पर (दीर्ध सन्धि अथवा गाठे बनते समय)

चैथी सिंचाई: बुआई के 80-85 दिन बाद (पुष्पावस्था) 

पांचवी सिंचाई: बुआई के 100-105 दिन (दुग्धावस्था)

छठी सिंचाई: बुआई के 115-120 दिन पर (दाना भरते समय)

दोमट या भारी दोमट भूमि में निम्न चार सिंचाइयाँ करके भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है परन्तु प्रत्येक सिंचाई कुछ गहरी (8 सेमी) करें।

सीमित सिंचाई साधन की दशा में:

यदि तीन सिंचाईयों की सुविधा ही उपलब्ध हो तो ताजमूल अवस्था, बाली निकलने से पूर्व तथा दुग्धावस्था पर करें। यदि दो सिंचाईयाँ ही उपलब्ध हों तो ताजमूल तथा पुष्पावस्था पर करें। गेहूँ एक ही सिंचाई उपलब्ध हो तो ताजमूल अवस्था पर करें।

सिंचित तथा विलम्ब से बुआई की दशा में:

पिछैती गेहूँ में सामान्य की अपेक्षा जल्दी-जल्दी सिंचाईयों की आवश्यकता होती है पहली सिंचाई जमाव के 15-20 दिन बाद या ताजमूल अवस्था करें। बाद की सिंचाई 15-20 दिन के अन्तराल पर करें। बाली निकलने से दुग्धावस्था तक फसल को जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहें।

संस्तुत प्रजातियाँ:

     

क्र.सं. दशा गेहूँ की संस्तुत प्रजातियाँ
1. समय से सिंचित दशा हेतु (नवम्बर के प्रथम सप्ताह से 25 नवम्बर तक) पी0बी0डब्ल्यू0-343. डब्ल्यू०एच-542, के0-9107, एच0पी0-1931, एच0डी0-2733. के0-307, के0-402, के0-607, के0-1006, एच0डी0-2967, एच0डी0-2587
2. विलम्ब से सिंचित दशा हेतु (25 नवम्बर से 25 दिसम्बर तक) मालवीय-234, के0-7903, के0-9162, के0-9533, डी0वी0डब्ल्यू0-14, के0-9423. पी0वी0डब्ल्यू0-524, एन डब्ल्यू-1076, एच०यू०डब्ल्यू0-510
3. समय से असिंचित दशा हेतु (अक्टूबर के द्वितीय पक्ष से नवम्बर के प्रथम पक्ष तक) के0-8962, के0-9465, मालवीय-533, के0-9351, एच0डी0-2888, सी0-306, एच0डी0-2380, एच0डी0-2800
4. असिंचित विलम्ब से (नवम्बर के द्वितीय सप्ताह में) के0-9465, के0-8962, एच0एस0-95, एच0एस0-207, के0-9644, के0-1317
5. ऊसर क्षेत्र हेतु (सिंचित दशा व समय से बुवाई) के0आर0एल0 1-14, केआर0एल0-19, के0-8434, के0आर0एल0-213 के0आर0एल0-210

प्रमुख खरपतवार:

  1. सकरी पत्ती- गेंहुसा एवं जंगली जई
  2. चैड़ी पत्ती- बथुआ, कृष्णनिल, हिरनखुरी, खरतुआ, सेंजी, चटरी-मटरी, अकारा-अकरी, जंगली गाजर, वन प्याजी, एवं सत्यानाशी आदि।

नियंत्रण के उपायः

सकरी पत्ती के खरपतवार गेहूँसा एवं जंगली जई नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर बुआई के 30-35 के बाद प्लैट फैन नोजिल से छिड़काव करना चाहिये। सल्फोसल्फ्यूरान हेतु पानी की मात्रा 300 लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए।

  1. सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत डब्ल्यू0पी0 33 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
  2. फिनोक्साप्रापदृ पी0-मिथाइल 10 प्रतिशत ई0सी0 को 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर।
  3. क्लोडिनाफॉप प्रोपैजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यू०पी० को 400 ग्रा0 प्रति हेक्टेयर।
  4. फिनोक्साडेन 5 प्रतिशत ई0सी0 900-1000 मिलीग्राम प्रति हेक्टेयर।

चैड़ी पत्ती के खरपतवार बथुआ, कृष्णनील, हिरनखुरी, जंगली गाजर, खरतुआ एवं सत्यानाशी आदि के नियंत्रण हेतु निमांकित रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर बुआई के 30-35 दिन के बाद फ्लैट फैन नोजिल से छिड़काव करना चाहिये।

  1. 2.4 डी0 सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत की 625 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
  2. कारफेन्ट्राजान मिथाइल 40 प्रतिशत डी0एफ0 की 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
  3. मेट सल्फ्यूरान मिथाइल 20 प्रतिशत डब्ल्यू0पी0 की 20 ग्राम प्रति हेक्टेयर।

सकरी एवं चैड़ी पत्ती दोनों प्रकार के खरपतवार नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में धोलकर प्रति हेक्टेयर प्लैटफेन नाजिल से छिड़काव करना चाहिये।

  1. पेडीमेथिलीन 30 प्रतिशत ई०सी० की 3.33 लीटर प्रति हेक्टेयर बुआई के 3 दिन के अन्दर।
  2. सल्फो सल्फ्यूरान 75 प्रतिशत डब्ल्यू0पी0 की 33 ग्राम प्रति हेक्टेयर बुआई के 30-35 दिन के बीच में।
  3. सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत़ मेटसल्फोसल्फ्यूरान मिथाइल 5 प्रतिशत डब्लयू०पी० की 40 ग्राम बुआई के 30-35 दिन के बीच में।

गेहूँ में फसल सुरक्षा:

(क) प्रमुख कीट

  1. दीमक- यह एक सामाजिक कीट है तथा कालोनी बनाकर रहते हैं। एक कालोनी में लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक, 3-3 प्रतिशत सैनिक, 1 रानी व 1 राजा होते हैं। श्रमिक पीलापन किये हुए सफेद रंग के पंखहीन होते है जो फसलों को क्षति पहुंचाते है।
  2. गुजिया कीट- यह कीट भूरे मटमैले रंग का होता है जो सूखी जमीन में ढेले एवं दरारों में रहता है। यह कीट उग रहे पौधो को जमीन की सतह काटकर हानि पहुंचाता है।
  3. माहूँ- हरे रंग के शिशु एवं प्रौढ़ माहू पत्तियों एवं हरी बालियो से रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं। माहूं मधुश्राव करते है जिस पर काफी फफूंद उग आती है। जिससे प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न होती है।

नियंत्रण के उपाय:

  1. बुवाई से पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरीपायरीफास 20 प्रतिशत ई0सी0 की 3 मिली मात्रा प्रति किग्रा0 बीज की दर से बीज को शोधित करना चाहिये।
  2. खड़ी फसल में दीमकध्गुजिया के नियंत्रण हेतु क्लोरीपायरीफास 20 प्रतिशत ई0 सी0 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिये।
  3. माहूं कीट के नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई0 सी0 अथवा मिथाइल-ओ0-डेमेटान 25 प्रतिशत ई0सी0 की 1 लीटर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।

(ख) प्रमुख रोग:

                 गेहूँ में प्रायः गेरूई, कण्डुआ, करनाल बन्ट, पहाडी बन्ट एवं सेहूँ रोग लगते हैं। इनमें भूरी गेरूई, पीली गेरूई व काली गेरूई जो पत्तियों व तनों के ऊपर पाउडर के रूप में दिखाई देती है के प्रकोप से गेहूँ की पैदावार घट जाती है। कण्डुआ ग्रसित बालियों में दाने नहीं आते है। करनाल बन्ट बीमारी दानों पर काले चूर्ण के रूप में दिखाई देती है। काला पाउडर (चूर्ण) विषाक्त होता है तथा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। सेहूँ रोग एक सूत कृमि द्वारा फैलता है। इसमें पत्तियों व बालियाँ सिकुडकर मुड जाती है।

उपचार व रोकथाम:

  1. उपलब्ध नवीनतम बीज केवल सरकारी व मान्यता प्राप्त केन्द्रों से ही खरीदकर प्रयोग किया जाये।
  2. गांव के घरेलू बीजों को 2 प्रतिशत नमक के घोल में (200 ग्राम नमक 10 लीटर पानी) में आधे घंटे डुबाकर छान ले फिर पानी में दो-तीन बार धोकर बोये।
  3. अनावृत कण्डुआ की रोकथाम के लिये 3 ग्राम 1 प्रतिशत पारायुक्त रसायन अथवा 5 ग्राम बीटावैक्स प्रति कि0ग्रा0 बीज में मिलाकर बुआई करना चाहिए।
  4. झुलसा व गेरूई के लिए डाइथेन एम-45 की 0 किग्रा या जिनेब की 2.5 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से 10-12 दिन के अन्दर पर दो बार छिडकाव करना चाहिये।
  5. पहाडी बन्ट के लिये थीरम 5 ग्रामध्किग्रा० अथवा कार्बान्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा0 बीज की दर से शोधित करके बोना चाहिये।

(ग) चूहो से बचाव:

चूहों की रोकथाम के लिये 3-4 ग्राम जिंक फास्फाइड को एक किलो आटा, थोड़ा सा गुड़ व तेल मिलाकर छोटी-छोटी गोली बना लें तथा बिलों के पास रख दें। चूहों की रोकथाम सामूहिक रूप से करने पर अधिक लाभ होता है। एल्यूमिनियम फास्फाइड की 3 ग्राम की चैथाई टिकिया या 0.6 ग्राम वाली एक टिकिया चूहे के बिल में डालकर बन्द कर देना चाहिये।

कटाई-मडाई:

बालियों पक जाने पर जब मोड़ने पर टूट जाये तो फसल तुरन्त काटकर मौसम को ध्यान में रखकर ही मड़ाई करना चाहिये। ऊसर भूमि में गेहूँ की उपज 50-55 कु0 प्रति हे0 लगभग होती है।

अधिक उत्पादन के प्रभावी बिन्दु:

  1. खेत की त्वरित तैयारी हेतु यथा सम्भव रोटावेटर का प्रयोग करें।
  2. क्षेत्रीय अनुकूलता एवं समय विशेष के अनुसार ही प्रजाति का चयनित करें।
  3. शुद्ध एवं प्रमाणित बीज को शोधन के बाद बुवाई करें।
  4. जिवांश खादों का उपयोग सुनिश्चत करते हुये यथा सम्भव कम से कम आधी पोषक तत्वों की मात्राइन खादों द्वारा ही पूर्ति करें।
  5. मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग सही समय, सही विधि एवं सही मात्रा में प्रयोग करें।
  6. फसल की क्रांन्तिक अवस्थाओं पर सिंचाई अवश्य करें। यदि पानी की कमी है तो ताजमूल एवं पुष्पावस्था पर अवश्य सिंचाई करें।
  7. खरपतवारों का उनकी क्रांन्तिक अवस्थाओं पर नियन्त्रण अवश्य करें एवं गेहूंसा के नियन्त्रण के लिए नवीन खरपतवारनाशी का ही प्रयोग करें।
  8. बीमारियों एवं कीड़-मकोड़ो की रोकथाम हेतु निगरानी के साथ ही सही समय पर नियन्त्रण करें।Authors

     


 Authors:

प्रमोद कुमार, नौशाद खान एवं रविकेश कुमार पाल

1शोध छात्र, सस्य विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्राद्यौगिक वि० वि०, कानपुर

2सह-प्राध्यापक, सस्य विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्राद्यौगिक वि० वि०, कानपुर

3शोध छात्र, सस्य विज्ञान विभाग, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, साबौर, भागलपुर, बिहार.

Email: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.