वैज्ञानिक विधि से लौकी की उन्नत खेती
कद्दू वर्गीय सब्जियों में लौकी का प्रथम स्थान है इसके हरे फलों से सब्जी के अलावा मिठाई रायता , कोफ्ता , खीर आदि बनाए जाते हैं इसकी पत्तियां तने व गूदे से अनेक प्रकार की औषधियां बनाई जाती हैं
यह कब्ज को कम करने पेट को साफ करने खांसी या बलगम दूर करने में अत्यंत लाभकारी होती है इसके मुलायम फलों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिंसव खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं
लौकी की खेती के लिए जलवायु
लौकी की खेती के लिए गर्म एवं आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है इसकी बुवाई गर्मी एवं वर्षा की समय में की जाती है यह पाले को सहन करने में बिल्कुल असमर्थ है कम तापमान पर पौधे की बढ़वार रुक जाती हैं।
भूमि
इसकी खेती विभिन्न प्रकार की घूमने की जाती है किंतु उचित जल धारण क्षमता वाली जीवाश्म युक्त हल्की दोमत भूल इसकी फसल सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है कुछ अम्लीय भूमियों में इसकी खेती की जा सकती है 1 जुलाई मिट्टी पलटने वाली हल्से करके फिर दो-तीन बार हैरो या कल्टीवेटर से करनी चाहिए
किस्में
कोयम्बटूर‐1- यह जून व दिसम्बर में बोने के लिए उपयुक्त किस्म है, इसकी उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है जो लवणीय क्षारीय और सीमांत मृदाओं में उगाने के लिए उपयुक्त होती हैं।
अर्का बहार ‒ यह खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त है। बीज बोने के 120 दिन बाद फल की तुडाई की जा सकती है। इसकी उपज 400 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।
पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड ‒ यह अगेती किस्म है। इसकी बेलों का बढ़वार अधिक और फैलने वाली होती हैं। फल गोल मुलायमकच्चा होने पर 15 से 18 सेमी. तक के घेरे वाले होतें हैं, जों हल्के हरें रंग के होतें है। बसंत और ग्रीष्म दोंनों ऋतुओं के लिए उपयुक्त हैं।
पंजाब गोल ‒ इस किस्म के पौधे घनी शाखाओं वाले होते है। और यह अधिक फल देने वाली किस्म है। फल गोल, कोमल, और चमकीलें होंते हैं। इसे बसंत कालीन मौसम में लगा सकतें हैं। इसकी उपज 175 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
पुसा समर प्रोलेफिक लाग ‒ यह किस्म गर्मी और वर्षा दोनों ही मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त रहती हैं। इसकी बेल की बढ़वार अच्छी होती हैं, इसमें फल अधिक संख्या में लगतें हैं। इसकी फल 40 से 45 सेंमी. लम्बें तथा 15 से 22 सेमी. घेरे वालें होते हैं, जो हल्के हरें रंग के होतें हैं। उपज 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
नरेंद्र रश्मि‒ यह फैजाबाद में विकसित प्रजाती हैं। प्रति पौधा से औसतन 10‐12 फल प्राप्त होते है। फल बोतलनुमा और सकरी होती हैं, डन्ठल की तरफ गूदा सफेद औैर करीब 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
पूसा संदेश‒ इसके फलों का औसतन वजन 600 ग्राम होता है एवं दोनों ऋतुओं में बोई जाती हैं। 60‐65 दिनों में फल देना शुरू हो जाता हैं और 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
पूसा हाईब्रिड‐3 ‒ फल हरे लंबे एवं सीधे होते है। फल आकर्षक हरे रंग एवं एक किलो वजन के होते है। दोंनों ऋतुओं में इसकी फसल ली जा सकती है। यह संकर किस्म 425 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर की उपज देती है। फल 60‐65 दिनों में निकलनें लगतें है।
पूसा नवीन‒ यह संकर किस्म है, फल सुडोल आकर्षक हरे रंग के होते है एवं औसतन उपज 400‐450 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है, यह उपयोगी व्यवसायिक किस्म है।
बोने का समय-
ग्रीष्मकालीन फसल के लिए ‒ जनवरी से मार्च
वर्षाकालीन फसल के लिए ‒ जून से जुलाई
बीज की बुबाई व मात्रा-
पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.5 मीटर ए पौधे से पौधे की दूरी 1.0 मीटर पर बुआई करें। जनवरी से मार्च वाली फसल के लिए 4‐6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बीज का डालें।
खाद एवं उर्वरक-
मृदा की जाँच कराके खाद एवं उर्वरक डालना आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त रहता है यदि मृदा की जांच ना हो सके तो उस स्थिति में प्रति हेक्टेयर की दर से खाद एवं उर्वरक डालें।गोबर की खाद -20‐30 टन ,नत्रजन‒50 किलोग्राम स्फुर‒40 किलोग्राम पोटाश‒40 किलोग्राम खेत की प्रारंभिक जुताई से पहले गोबर की खाद को समान रूप से टैक्टर या बखर या मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर देनी चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्राए फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा का मि़श्रण बनाकर अंतिम जुताई के समय भूमि में डालना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर दो बार में 4 ‐ 5 पत्तिया निकल आने पर और फुल निकलते समय उपरिवेशन (टॅाप ड्रेसिंग) द्वारा पौधो की चारों देनी चाहिए।
सिंचाई
ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 4‐5 दिन के अंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है जबकि वर्षाकालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता वर्षा न होने पर पडती है। जाड़े मे 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए।
निंराइ गुडाई
लौकी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते है। अत इनकी रोकथाम के लिए जनवरी से मार्च वाली फसल में 2 से 3 बार और जून से जुलाई वाली फसल में 3 - 4 बार निंदाई गुड़ाई करें।
मुख्य कीट
लाल कीडा (रेड पम्पकिन बीटल)
प्रौढ कीट लाल रंग का होता है। इल्ली हल्के पीले रंग की होती है तथा सिर भूरे रेग का होता है। इस कीट की दूसरी जाति का प्रौढ़ काले रंग का होता है। पौधो पर दो पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है।यह कीट पत्तियों एवं फुलों कों खाता हैए इस कीट की सूंडी भूमि के अंदर पौधो की जडों को काटता है।
रोकथाम ‒
- निंदाई गुडाई कर खेत को साफ रखना चाहिए।
- फसल कटाई के बाद खेतों की गहरी जुताई करना चाहिएए जिससे जमीन में छिपे हुए कीट तथा अण्डे ऊपर आकर सूर्य की गर्मी या चिडियों द्वारा नष्ट हो जायें।
- कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत दानेदार 7 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब के पौधे के आधार के पास 3 से 4 सेमी. मिट्टी के अंदर उपयोग करें तथा दानेदार कीटनाशक डालने के बाद पानी लगायें।
- प्रौढ कीटों की संख्या अधिक होने पर डायेक्लोरवास 76 ई.सी. 300 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें।
फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई)
कीट का प्रौढ़ घरेलू मक्खी के बराबर लाल भूरे या पीले भूरे रंग का होता है। इसके सिर पर काले या सफेद धब्बे पाये जाते है। फल मक्खी की इल्लियां मैले सफेद रंग का होता है, जिनका एक शिरा नुकीला होता है तथा पैर नही होते है। मादा कीट कोमल फलों मे छेद करके छिलके के भीतर अण्डे देती है। अण्डे से इल्लियां निकलती है तथा फलो के गूदे को खाती है, जिससे फल सडने लगती है। बरसाती फसल पर इस कीट की प्रकोप अधिक होता है।
रोकथाम ‒
- क्षतिग्रस्त तथा नीचे गिरे हुए फलों को नष्ट कर देना चाहिए।
- विष प्रलोभिकायों का उपयोग. दवाई का साधारण घोल छिडकने से वह शीघ्र सूख जाता है तथा प्रौढ़ मक्खी का प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता है। अतः कीटनाशक के घोल में मीठा, सुगंधित चिपचिपा पदार्थ मिलाना आवश्यक है। इसके लिए 50 मीली, मैलाथियान 50 ई.सी. एवं 500 ग्राम शीरा या गुड को 50 लीटर पानी में घेालकर छिडकाव करे। आवश्कतानुसार एक सप्ताह बाद पुनः छिडकाव करें।
- खेत में प्रपंची फसल के रूप में मक्का या सनई की फसल लगाएं । इन फसलों की ओर यह कीट आकर्षित होकर आराम करता है। ऐसी फसलों पर विष प्रलोभिका का छिडकाव कर आराम करती हुई मक्खियों को प्रभावशाली रूप से नष्ट किया जा सकता है।
मुख्य रोग
चुर्णी फफूंदी‒
यह रोग फफूंद के कारण होता है। पत्तियों एवं तने पर सफेद दाग और गोलाकार जाल सा दिखाई देता है जो बाद मे बढ़ जाता है और कत्थई रंग का हो जाता हैं। पूरी पत्तियां पीली पडकर सुख जाती है, पौधो की बढवार रूक जाती है।
रोकथाम ‒
रोगी पौधे को उखाड़ कर जला देंवे।2.घुलनशील गंधक जैसे कैराथेन 2 प्रतिशत या सल्फेक्स की 0.3 प्रतिशत रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही कवकनाशी दवाइयों का उपयोग 10‐15 दिन के अंतर पर करना चाहिए।
उकठा (म्लानि)-
रोग का आक्रमण पौधे की भी अवस्था मे हो सकता हे। यदि रोग का आक्रमण नये पौधे पर हुआ तो पौधे के तने का जमीन की सतह से लगा हुआ भाग विगलित हो जाता है और पौधा मर जाता है। इस रोग के प्रभाव से कभी कभी तो बीज अकंरण पूर्व ही सडकर नष्ट हो जाता है।
रोग के प्रमुख लक्षण पुरानी पत्तियों का मुरझाकर नीचे की ओर लटक जाना होता है व ऐसा प्रतीत होता है कि पानी का अभाव है कि जबकि खेत में पर्याप्त मात्रा में नमी रहती है तथा पत्तियों के किनारे झुलस जातें है। ऐसे लक्षण दिन में मौसम के गर्म होने पर अधिक देखे जा सकते है। पौधे धीरे धीरे मर जाता है, ऐसे रोगी मरे पौधों की बेल को लम्बवत काटने पर संवाहक उत्तक भूरे रंग के दिखाई देते हैं।
रोग प्रबंधन-
रोग की प्रकृति बीजोढ़ व मृदोढ़ होने के कारण नियंत्रण हेतु बीजोपचार वेनलेट या बाविस्टिन 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करते है तथा लंबी अवधि का फसल चक्र अपनाना जरूरी होता है।
तुडाई
फलों की तुडाई उनकी जातियों पर निर्भर करती है। फलों को पूर्ण विकसित होने पर कोमल अवस्था में किसी तेज चाकू से पौधे से अलग करना चाहिए। उपज-जनवरी‐मार्च वाली फसलों में क्रमश 150 से 200 क्विंटलप्रति हेक्टेयर उपज मिल जाती है।
Authors
1रामजीवन, , 2अरुण कुमार वर्मा ,3नीरव कुमार
1स्नातकोत्तर छात्र ,2शोध छात्र ,(सब्जी विज्ञान विभाग), स्नातक छात्र (उद्यान विज्ञान)
चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय कानपुर (उत्तर प्रदेश) 208002
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