Guava Cultivation, an apple of Sawai Madhopur.
अमरूद भारत के प्रमुख फलों में से एक लोकप्रिय फल है। अपनी व्यापक उपलब्धता, भीनी सुगन्ध एवं उच्च पोषक गुणों के कारण यह ‘‘गरीबों का सेब’’ भी कहलाया जाता है। अमरूद के फलों में विटामिन ‘सी’ (200-300 मिली. ग्राम प्रति 100 ग्राम फल) की प्रचुर मात्रा होती है। अमरूद के फलों को ताजे खाने के साथ-साथ, व्यवसायिक रूप से प्रसंस्करित कर जैम, नेक्टर एवं स्वादिष्ट पेय बनाकर प्रयुक्त किया जाता है। अमरूद के अधिक उत्पादन के लिये इन पहलुओं पर ध्यान रखना चाहिए।
अमरूद की खेती के लिए जलवायु :
यह उष्ण एवं उपोष्ण दोनो प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, तथा यह सूखे को भी सहन कर सकता है। अमरूद फलवृक्ष 30 डिग्री तापमान पर बहुत अच्छी वृद्धि करता है, जबकि न्यूनतम तापमान 15 डिग्री होना आवश्यक हैं।
अमरूद उगाने के लिए भूमि :
फलोद्यान के लिए 4.5 से 9.0 पी. एच. मान की बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त है, अत: इसे जलाक्रांत एवं क्षारीय मृदाओं में सुधार कर भी उगाया जा सकता हैं।
अमरूद की उन्नत किस्में :
इलाहबाद सफेदा :
इलाहाबाद की इस महत्वपूर्ण प्रजाति में बीज द्वारा प्रवर्धन के कारण बड़ी विविधता पाई जाती है। फल आकार में बड़े, गोल, चिकने व श्वेत, पीले रंग के होते है।
फल का गुदा मीठा, सफेद, ठोस तथा मुलायम व उच्च मिठास व विटामिन-सी एवं अच्छे स्वाद व सुवासयुत्त होता है।
इलाहाबाद सुर्खा :
इसके फल बडे़ तथा छिलका व गूदा दोनों लाल रंग होता हैं, इसके फल मीठे, कम बीज वाले, प्रसन्नचित्त सुवासयुक्त होते है। इसके वृक्ष तेजी से बढने वाले, अर्धवृताकार व घने छायादार होते है।
चित्ती दार :
यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध प्रजाति है। फल भित्ती पर लाल रंग की अनेक चित्तीयाँ होती है, उच्च मिठास, छोटे से लेकर मध्यम व मुलायम बीज वाले गुणों के कारण जानी जाती है। इसके फल का आकार, रूप तथा गूदा इलाहाबाद सफेदा के अनुरूप होता है।
इसमें मिठास इलाहाबाद सफेदा व सरदार किस्म से अधिक होतीहै, किन्तु विटामिन-सी की मात्रा इनकी अपेक्षा कम होती है। वृक्ष इलाहाबाद सफेदा की भांति होते है।
धारी दार :
इसका चयन पुराने बीजू पेड़ से मध्य प्रदेश के रीवा जिले में किया गया है। पेड़ भारी, मध्यम लम्बे, शाखायें ऊपर की ओर सीधीं व फैलावदार होती है। फल मध्यम से बड़े लगभग 195 ग्राम, गोल तथा पांच से सात धारीयुक्त होते है। फलों का रंग हरापन के साथ पीला होता हैं। गूदा मुलायम व मीठा तथा तथा विटामिन सी लगभग 200 मि.ग्रा (100 ग्राम फल) पाया जाता है।
श्वेता :
फल बड़ें गोल, श्वेत आभायुक्त पीले होते है। कभी कभी फलों पर लालिमा भी उभर आती है। फल कम बीज वाले, मुलायम तथा सफेद गुदायुक्त होते है। फलों का स्वाद अच्छा अधिक मिठास (14 प्रतिशत) व विटामिन सी (300 मि.ग्रा./100 ग्राम) वाले होते है। यह अधिक उपज वाली किस्म है।
ललित :
फल आकर्षित पीले रंग के जिसमें कभी कभी लालिमा उभर आती है। यह मध्यम आकार के लगभग 200-250 ग्राम वजन वाले होते है। यह इलाहाबाद सफेदा की तुलना में अच्छी उपज देने वाली किस्म है। फल का गुदा कड़ा, लाल रंग का तथा शर्करा एवं अम्लता की उपयुक्त मिश्रणवाला होता है। इसके फल खाने व फल प्रसंस्करण (जैली, पेय पदार्थ) दोनों के लिए उपयुक्त है।
सरदार (लखनऊ-49) :
फल वृक्ष बढ़ने वाले, अधिक शाखायुक्त, फेलावदार तथा अधिक फलन वाले होते है। फल बड़े, उभार लिये गोल, चमकीले पीले तथा सफेद गुदा वाले होते है। बीज औसत संख्या में मुलायम होते है। अच्छा स्वाद एवं विटामिन-सी की प्रचुर मात्रा होती है।
अमरूद की संकर किस्में :
अर्का अमूल्या (बेदाना - इलाहाबाद सफेदा) :
यह संकर किस्म भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा विकसित की गई हैं, इसके वृक्ष अधिक उपज वाले औसत सुडौल होते है। फल मध्यम आकार (180-200 ग्राम) व श्वेत तथा मीठे (12.5 प्रतिशत) गूदे वाले छोटे (100 बीजभार-1.8 ग्राम) मुलायम एवं कम बीजयुक्त होते है।
सफेद जाम (इलाहाबाद सफेदा - कोहिर) :
फल अनुसंधान केन्द्र, संगारेड्डी द्वारा विकसित संकर किस्म है। पेड़ मध्यम उचांई व भारी उपज देने वाले होते है। फल गोल, पतले छिलके व मुलायम बीज तथा अच्छे स्वादयुक्त होते है।
अमरूद के पौधें लगाना :
अमरूद बाग लगाने से पूर्व खेत की जुताई करके खरपतवार व अवांछनीय झाडि़यॉं निकालकर अच्छी तरह समतल कर लेना चाहिए। पौधे वर्गाकार विधि में 6 x 6 मीटर दूरी पर लगाना चाहिए। बगीचा लगाने के लिए गडढे, वर्षा से पूर्व ही तैयार कर लेने चाहिए, जिससे समय पर पौध रोपण किया जा सके।
उचित रेखांकन द्वारा 100 x 100 x 100 सेमी. आकार के गढ्डे खोदकर, ऊपरी उपजाऊ मिट्टी में 10 किग्रा. या दो टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद के साथ 50 ग्राम क्विनॉलफॉस 1.5 % चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह भर दें।
कम जल धारण क्षमता वाली बलुई मिट्टी हो तो गे भरते समय चिकनी मिट्टी मिलानी चाहिए। गडढे में 10 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद एवं रसायिनक उर्वरक (100 ग्राम नत्रजन + 50 ग्राम फास्फोरस + 50 ग्राम पोटाश) का मिश्रण डालने से पौधों के स्थापन पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
पौध रोपण के लिए जुलाई-अगस्त का समय उत्तम रहता है। यदि पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध हो तो बसंत ऋतु (फरवरी-मार्च) में भी पौधे लगाये जा सकते हैं। रोपण के पश्चात् पौधों के चारो ओर की मिट्टी को अच्छी तरह से दबाकर हल्की सिंचाई अवश्य करें एवं क्षारीय भूमि में जिप्सम भी डालें।
अमरूद के बाग में सिंचाई एवं जल प्रबन्ध:
फलोत्त्पादन के लिए सिंचाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। अच्छी गुणवत्ता एवं उत्पादन के लिए 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए। शुष्क क्षेत्रों में पौधों के चारो ओर की भूमि में 5 प्रतिशत की ढलान देकर वर्षा जल को एकत्रित करके उपयोग में लिया जा सकता है।
इसी प्रकार मृदा नमी को संरक्षित रखने के लिए काली एल्काथीन (200 गेज) कर पलवार बिछाना भी लाभदायक होता है। सिंचाई तथा वातावरण में निरन्तर पर्याप्त नमी बनाये रखनी चाहिए। यदि वातावरण तथा मृदा में नमी का असंतुलन रहता है, तो फल फट जाते हैं।
शुष्क क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई पद्धति (बूंद-बूंद सिंचाई विधि) अत्यधिक लाभप्रद है। इस विधि से 50-60 प्रतिशत पानी की बचत के साथ 10-15 प्रतिशत उपज बढ़ जाती है, तथा फल फटने के समस्या का एक सीमा तक समाधान हो सकता है।
अमरूद के बाग में खाद एवं उर्वरक :
पौध रोपण के समय गों में 30-40 कि.ग्रा. तालाब की मिट्टी, 10-15 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 10 ग्राम डी.ए.पी. का प्रयोग लाभदायक रहता है। सामान्य उर्वरकता वाली भूमि में एक वर्ष के पौधे में 10-15 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद तथा उर्वरकों द्वारा 75 ग्राम नत्रजन, 65 ग्राम फासफोरस तथा 50 ग्राम पोटाश देना चाहिए।
पौधों की आयु के अनुसार खाद एवं उर्वरकों की मात्रा हर वर्ष बढ़ाते रहना चाहिए, पांच वर्ष बाद प्रत्येक पौधे को क्रमश: 50-60 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद, 450 ग्राम नत्रजन, 400 ग्राम फासफोरस तथा 300 ग्राम पोटाश प्रतिवर्ष दिया जा सके। नत्रजन की मात्रा को दोभागों में बांटकर पौध वृद्धि एवं फूल आने व फल बनने पर देना चाहिए।
सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति हेतु जिंक सल्फेट (0.4%), फेरस सल्फेट (0.4%) तथा 8-10 ग्राम बोरेक्स के घोल का पर्णीय छिड़काव (एक साथ या अलग-अलग) फूल आने तथा फल बनने के समय करना चाहिए।
अमरूद की बहार का नियंत्रण :
अमरूद में वर्ष भर फूल आते रहते हैं। परन्तु फलन के तीन मुख्य मौसम हैं जिन्हें ‘अम्बे बहार’ (जनवरी-फरवरी), ‘मृग बहार’ (जून-जुलाई) और ‘हस्त बहार’ (सितम्बर-अक्टूबर) कहते हैं।
वर्ष भर फूल व फल आते रहना उपज एव गुणवता की दृष्टि से ठीक नहीं रहता है। इसलिए बहार का िनयंत्रण करना अति आवश्यक है।
बहार नियन्त्रण के लिए अवांछित बहार के समय सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो थालों की गहरी गुड़ाई करके कुछ समय के लिए जड़ों को खुला छोड़ दें। कुछ रसायनों (यूरिया, पोटशियम आयोडायड, इत्यादि) के पर्णीय छिड़काव द्वारा भी पतझड़ लाकर इसे नियंत्रित किया जा सकता है।
जिस बहार में फलन लेनी हो उससे ठीक एक माह पहले बाग में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग कर सिंचाई प्रारम्भ करें। इससे पौधों में वानस्पतिक वृद्धि, फूल आना तथा फल लगना शुरू हो जाता है।
सामन्यत: फल विकास वर्षा ऋतु में पूर्ण हो जाता है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में ‘अम्बे बहार’ की फसल लेना ठीक रहता है, क्योंकि अत्यधिक नमी के कारण इन क्षेत्रों में मृग बहार के फल रोग एवं कीटों के प्रकोप से खराब हो जाते हैं।
अच्छी गुणवत्ता के फल प्राप्त करने के लिए पेड़ की आयु, आकार एवं स्वास्थ्य के आधार पर उचित संख्या में ही फल रखने चाहिए। जिसके लिए पर्याप्त संख्या के अतिरिक्त फूल और छोटे फलों को तोड़ देना चाहिए।
एक विकसित पेड़ पर लगभग 50-60 फल रखना उपज एवं गुणवत्ता की दृष्टि से उचित रहता है।
अमरूद में अन्त: फसली (इन्टर क्रापिंग) :
बाग लगाने के प्रारम्भिक तीन चार वर्षाें तक पेड़ों की कतारों के बीच खाली जगह रहती है जिसके समुचित उपयोग के लिए अन्त: शस्य करते हैं।
बाग के पूर्ण रूप से फलदायी होने तक खाली भूमि में दलहनी फसलें जैसे लोबिया, ग्वार, मोठ, मूंग इत्यादि लगाकर अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते हैं।
अमरूद के रोग एवं कीट का नियंत्रण :
उकठा रोग :
यह अमरूद फल वृक्षों का सबसे विनाशकारी रोग हैं रोग के लक्षण दो प्रकार से दिखाई पड़ते हैं। पहला आंशिक मुरझान जिसमें पौधे की एक या अधिक मुख्य शाखाऐं रोग ग्रसित होती है व अन्य शाखाऐं स्वस्थ दिखाई पड़ती हैं।
ऐसे पौधों की पत्तियाँ पीली पड़कर झडने लगती है। रोग ग्रस्त शाखाओं पर कच्चे फल छोटे व भूरे सख्त हो जाते है। दूसरी अवस्था में रोग का प्रकोप पूरे पेड पर होता है और वह शीघ्र सूख जाता है। रोग अगस्त से अक्टूबर माह में उग्र रूप धारण कर लेता है।
इसके रोकथाम के लिए कार्बण्डाजिम एक ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 20 से 30 लीटर घोल प्रति पेड या आवश्यकतानुसार मृदा का सिंचन (डे्रेच) करें या जैविक फफूंदीनाशक ट्राईकोडर्मा 50 से 100 ग्राम प्रति पेड के हिसाब से थावलों में गुड़ाई कर सिंचाई से पूर्व मिलावें या प्रतिरोधी मूलवृन्त सीडियमकुजेविलस का उपयोग करके भी रोग से बचाव सम्भव है।
एन्थ्रेकनोज :
इस रोग से पेड़ों के सिरे से रोगी कोमल शाखाऐं नीचे की तरफ सूखने लगती है। ऐसी शाखाओं की पत्तियाँ झड़ने लगती है और इनका रंग भूरा हो जाता है। इसके रोकथाम के लिए मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर या थायोफिनाईट मिथाइल एक ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर फल आने तक 10 से 15 के अन्तराल पर छिड़काव दोहराते रहना चाहिए।
फल सड़न:
इस रोग में फल सड़ने लगते है, सड़े हुए भाग पर रूई के समान फफंूदी की वृद्धि दिखाई देती है। इस रोग के रोकथाम के लिए 2 ग्राम मेनकोजेब एक लीटर पानी मेंं घोलकर 3-4 बार छिडकाव करना चाहिए।
छाल भक्षक कीट :
इस कीट की लटें अमरूद की छाल, शाखाओं या तनों में छेद करके अंदर छिपी रहती है। ये रेशमी धागों से जुड़े हुये लकड़ी के बुरादे व अपने मल से बने रक्षक आवरण के नीचे खाती हुई टेढ़ी-मेढ़ी सुरंग बना देती है। इस सुरंग के छिद्र में एक लट पाई जाती है।
छोटे पौधों में प्रकोप होने पर पौधा कमजोर दिखलाई पड़ता है और बढ़वार रूक जाती है। इसके नियत्रण के लिए क्वीनॉलफास का 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर शाखाओं, डालियों पर छिड़कें तथा सुरंग को साफ करके किसी पिचकारी या इन्जेक्शन सीरिंज की सहायता से डाइक्लोरोवास (0.1 प्रतिशत) का घोल बनाकर डालकर चिकनी मिट्टी से बंद कर देवें।
मिली बग :
यह छोटे रूई के से सफेद मोम आवरण युक्त बिना पंख वाले कीडे होते हैं जो मुलायम टहिनयों, कोमल पत्तियों व पंखुडि़यों के नीचे छिपकर रस चूसते रहते हैं
इस कीट के नियत्रण के लिए डाइमेथोएट 1.5 मि.ली. या फैिन्थयान 1 मि.ली. प्रति लीटर के घोल का छिड़काव करें या शिशु कीटों को पेड़ पर चढने से रोकने के लिए जुलाई माह में एल्काथिन (400 गेज) 30 से.मी. चौड़ी पट्टी तने के चारों तरफ भूमि से 30 से.मी. ऊपर धागे की सहायता से बांधकर इस पर ग्रीस का लेप कर देवें।
फल मक्खी :
इस कीट का प्रकोप बरसात के फलों में अधिकता से होता है। मक्खी फल छिलके के नीचे अण्डे देती हैै जिनसे मैगट (लट) िनकल कर गूदे को खाते है जिससे फल सडकर गिर जाते है, क्षतिग्रस्त फलों में कीट की सूंडिया भरी रहती है। फलों में किण्वन होने से गूदा सड़ जाता है व पकने से पूर्व ही फल गिरने लगते हैं।
इस कीट के िनयत्रण के लिए विष चुग्गा बनाते है, एक लीटर पानी में 100 ग्राम चीनी या गुड व 10 मि.ली. मैलाथियान मिलाकर तैयार करें व इसे मिट्टी के प्यालों में या डिस्पोजल कप में 50 से 100 मि.ली. भरकर बाग में 10 पौधों के मध्य एक के हिसाब से बाग में जगह-जगह पेड़ों पर टांग देवें।
फल तुड़ाई एवं उपज :
अमरूद के फल पुष्पन के लगभग 4-5 माह में पक कर तैयार हो जाता है। यह समय किस्म विशेष एवं तापमान पर निर्भर रहता है जब फल गहरा हरा रंग छोडकर पीले, हरे या हल्के पीले रंग का हो जाये तब उन्हें तोड़ लेना चाहिए। अमरूद के पड़ों से चौथे वर्ष से ही 75-100 फल प्रति वृक्ष मिलना शूरू हो जाते हैं। जिनकी संख्या वृक्षों की आयु के साथ धीरे-धीरे बढ़ते हैं।
Authors:
1डाँ शशि कुमार बैरवा, 2डाँ हरीश वर्मा, एवं 3श्री किशन बैरवा,
1सहायक आचार्य (उद्यान विज्ञान),2 सहआचार्य (कीट विज्ञान),3सहायक आचार्य (पौध रोग विज्ञान)
कृषि विज्ञान केन्द्र, सवाई माधोपुर
कृषि अनुसंधान केन्द्र, श्रीगंगानगर (राजस्थान)
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