Techniques for Carrot cultivation and its seed production
गाजर की खेती पुरे भारत मे की जाती है इसका उपयोग सलाद,अचार एवं हल्वा के रूप मे किया जाता है। गाजर का रस कैरोटीन का महत्वपूर्ण स्त्रोत माना जाता है। कभी कभी इसका उपयोग मक्खन को रंग करने के लिये भी किया जाता है। गाजर मे विटामिन जैसे थियामीन एवं राबोफलेविन प्रचुर मात्रा मे पाया जाता है। संतरे रंग के गाजर मे कैरोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है।
गाजर की खेती के लिये मिटटी एवं जलवायु
गाजर की खेती के लिये अच्छी जल निकासी वाली रेतीली दोमट मिटटी जिसमे कार्बनिक पदार्थ हयुमस की मात्रा अधिक हो तथा पी.एच. मान 5.5-7.0 होनी चाहिए। हल्की मिटटी मे जड की वृध्दि अच्छी होती है। एवं भारी मिटटी गाजर की खेती के लिये उपयुक्त नही होती।
गाजर शीत ऋतु की फसल है। जिसके बीज अकुरण के लिये 7-23 डिग्री तापमान की आवश्यकता पडती है। जबकि जडो की वृध्दि एवं विकास के लिये 18-23 डिग्री तापमान उपयुक्त होती है। अधिक तापमान होने पर जडो के आकार छोटे, मोटे तथा रस की मात्रा कम हो जाती है।
गाजर के लिये खेत की तैयारी
2-3 बार देसी हल जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बनाकर सिंचाई की सुविधा की दृष्टि से नालियां बनाते हुए खेत को छोटी-2 क्यारियों में बांट लेना चाहिए।
गाजर की किस्मे
गाजर मे दो प्रकार की किस्मे पाई जाती है। उष्ण वर्गीय एवं शीतोष्ण वर्गीय किस्मे।
गाजर की शीतोष्ण वर्गीय किस्मे।
अर्ली नैन्टीन : जड़ें बेलनाकार, छोटे शिखर के साथ, गुदा नांरगी, 110 दिन में तैयार हो जाती है। औसत पैदावार 150-190 क्ंविटल प्रति हैक्टेयर।
चान्टैनी : नुकीली परन्तु अग्र भाग एकदम बन्द, नांरगी, 110-130 दिन में तैयार हो जाती है। औसत पैदावार 200-225 क्विंटल प्रति हैक्टेयर।
पूसा यमदागनी : लम्बी जड़ें कम नुकीली, शिखर मधयम, नारंगी रंग, 80-120 दिन में तैयार हो जाती है। औसत पैदावार 190-250 क्ंविटल प्रति हैक्टेयर ।
गाजर की उष्ण वर्गीय किस्मे
पूसा केसर : जड़ें लम्बी, लाल रंग नुकीली तथा 80-100 दिनों में तैयार की जाती है औसत पैदावार 200-250 क्ंविटल प्रति हैक्टेयर ।
पूसा मेघाली : नाँरगी रंग नुकीली, अगस्त से सितम्बर तक लगाने के लिये उपयुक्त, औसत पैदावार 200-250 क्ंविटल प्रति हैक्टेयर ।
गाजर की बुवाई :
गाजर की बुुुुआई सही समय जुलाई से अक्तूबर 25 हैैै। बुवाई 45 सें.मी. के अन्तराल पर बनी मेंड़ों पर 2-3 सें.मी. गहराई पर करें और पतली मिट्टी की परत से ढक दें। अंकुरण के पश्चात् पौधाों को विरला कर 8-10 सें.मी. अन्तराल बनाएं।
गाजर मे खाद व उर्वरक
गोबर की खाद : 10-15 टन/है
नत्रजन : 70 कि.ग्रा./है
फॉस्फोरस: 40 कि.ग्रा./है
पोटाश : 40 कि.ग्रा./है.
गोबर की खाद, सुपर फास्फेट और म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्राा खेत तैयार करते समय डालें। यूरिया की आधी मात्रा बुआई के समय तथा शेष आधी मात्राा को दो बार, पहली मिट्टी चढ़ाते समय तथा दूसरी उसके एक माह बाद डालें।
गाजर फसल में सिंचाई व निराई-गुड़ाई :
पर्याप्त नमी सुनिश्चित करने के लिए गर्मियों में साप्ताहिक अन्तराल पर तथा सर्दियों में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें तथा यह स्मरण रखें कि नालियाें की आधाी मेंड़ों तक ही पानी पहुंचे। बुवाई के लगभग एक महीना पश्चात पौधा छंटाई के समय शेष आधाी नत्रजन की मात्रा के साथ-साथ मिट्टी चढ़ाने का कार्य करें जिससे खरपतवार नियंत्रण भी हो जाएगा।
गाजर में खरपतवार नियंत्रण :
खेत की जुताई के पष्चात् खेत में आधाी मात्रा नत्रजन तथा सारा फॉस्फोरस व पोटाश मिला कर 45 सें.मी. के अन्तर पर मेंड तैयार करें और 3.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से स्टाम्प नामक खरपतवारनाषी का छिड़काव करें और हल्की सिंचाई करें या छिड़काव से पहले पर्याप्त नमी सुनिष्चित करें।
गाजर की तुड़ाई व उपज :
लगभग ढाई से तीन महीनों में गाजर जड़ें निकास के लिए तैयार हो जाती हैं और औसतन 25 से 30 टन प्रति हैक्टर उपज हो जाती है।
गाजर का बीजोत्पादन :
चयनित जड़ों को रोपाई के लिए तैयार करते समय एक तिहाई जड़ के साथ 4-5 सें.मी पत्तो रखें। खेत को तैयार करते समय उसमें 15-20 टन गोबर की खाद, 40 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस और 60 कि.ग्रा. पोटाश मिलाएं। जड़ों की रोपाई 60 ग 45 सेें.मी. पर करें और तत्पष्चात् सिंचाई करें। यह सुनिष्चित करें कि आधाार बीज के लिए पृथक्करण दूरी 1000 मीटर तथा प्रमाणित बीज के लिए 800 मीटर हो।
गाजर बीज फसल की कटाई व गहाई :
जब दूसरी अम्बल या शीर्ष बीज पक जाएं तथा उनके बाद में आने वाले शीर्ष भूरे रंग के हो जाएं तो बीज फसल काट लेनी चाहिए क्योंकि बीज पकने की प्रक्रिया एकमुष्त नहीं होती। इसलिए कटाई 3-4 बार करनी पड़ती है। सुखाने के पष्चात् बीज को अलग कर लें और छंटाई करके वायुरोधाी स्थान पर उनका भण्डारण करें।
गाजर बीज उपज :
औसतन 400-500 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर बीज उपज हो जाती है।
गाजर के प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
सर्कोस्पोरा पर्ण अंगमारी (सर्कोस्पोरा कैरोटेई)
लक्षण: इस रोग के लक्षण पत्तियों, पर्णवृन्तों तथा फूल वाले भागों पर दिखाई पड़ते हैं। रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं। पत्ती की सतह तथा पर्णवृन्तों पर बने दागों का आकार अर्धा गोलाकार, धाूसर, भूरा या काला होता है। फूल वाले भाग बीज बनने से पहले ही सिकुड़ कर खराब हो जाते हैं।
नियंत्रण:
बीज बोते समय थायरम कवकनाषी (2.5 ग्रा./कि.ग्रा बीज) से उपचारित करें। खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही मेंकोजेब, 25 कि.ग्रा. कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 कि.ग्रा. या क्लोरोथैलोनिल (कवच) 2 कि.ग्रा. का एक हजार लीटर पानी में घोल बनाकर, प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
स्क्लेरोटीनिया विगलन (स्क्लेरोटीनिया स्क्लेरोशियोरम)
लक्षण:
पत्तियों, तनों एवं डण्ठलों पर सूखे धाब्बे उत्पन्न होते हैं, रोगी पत्तियां पीली होकर झड़ जाती हैं। कभी-कभी सारा पौधाा भी सूखकर नष्ट हो जाता है। रोगी फलों पर रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रूप में आता है। फिर कवक गूदे में तेजी से बढ़ती है और पूरे फल को सड़ा देती है।
नियंत्रण:
फसल लगाने के पूर्व खेत में थायरम 30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए। कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. कवकनाषी का एक कि.ग्रा. एक हजार लीटर पानी में घोल बनाएं तथा प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिन के अन्तराल पर कुल 3-4 छिड़काव करें।
चूर्ण रोग :
पौधें के सभी भागों पर सफेद हल्के रंग का चूर्ण आ जाता है। चूर्ण के लक्षण आने से पहले ही कैराथेन 50 मि. ली. प्रति 100 लीटर पानीध्द या वैटेबल सल्फर ;200 ग्रा. प्रति 100 लीटर पानीध्द का छिड़काव 10 से 25 दिन के अन्तर पर लक्षण आने से पूर्व करें ।
गाजर में कीट प्रकोप एवं प्रबंधन
गाजर को वीवील (सुरसरी), जैसिड व जंग मक्खी नुकसान पहुंचाते हैं।
गाजर की सुरसुरी (कैरट वीविल)
इस कीट के सफेद टांग रहित षिषु गाजर के उपरी हिस्से में सुरंग बनाकर नुकसान करते हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 1 मि.ली./3 लीटर या डाइमेथोएट 30 ई.सी. 2 मि.ली./लीटर का छिड़काव करें।
जंग मक्खी (रस्ट फलाई)
इस कीट के षिषु पौधाों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं जिससे पौधो मर भी जाते हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी. का 2.5 लीटर/हेक्टेयर की दर से हल्की सिंचाई के साथ प्रयोग करें।
गाजर की दैहीक व्याधियां
जडो मे दरारे पडना
गाजर की खेती करने वाले क्षेत्रो यह बडी समस्या यह दरारे अत्यधिक सिचाई के बाद अधिक नत्रजन युक्त उर्वरको का उपयोग करने के कारण पडती है।
जडो मे खाली निशान पडना (कैविटी स्पाट)
जडो मे घाव के सामान आयताकार धस्से हुए धब्बे दिखाई पडते जो धीरे धीरे बढने लगते है। आवश्यकता से अधिक सिचाई नही करनी चाहिए।
Authors:
विजय कुमार सुर्यवंशी एवं नितेश गुप्ता (उधानिकी विभाग)
(M.Sc. (Ag.) Horticulture), IGKV, Raipur (C.G)
Rural Agriculture Extension Officer, Agriculture Department, District Bilaspur (C.G.) 495001
Email: