Improved dense orchard techniques of nutrient fruit lychee
लीची एक फल के रूप में जाना जाता है। जिसे वैज्ञानिक नाम लीची चाइनेन्सिस से बुलाते है। इसका परिवार है सोपबैरी। यह ऊपोष्ण कटिबन्धीय फल है, जिसका मूल निवास चीन है। लीची के फल अपने आकर्षक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के कारण भारत ही नहीं बल्कि विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुये है।
इसमें प्रचुर मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है। इसके अलावा प्रोटीन, खनिज पदार्थ, फास्फोरस, चूना, लोहा, रिबोफ्लेविन तथा विटामिन-सी इत्यादि पाये जाते हैं। इसका उपयोग डिब्बा बंद, स्क्वैश, कार्डियल, शिरप, आर.टी.एस., लीची नट इत्यादि बनाने में किया जाता है।
लीची को सघन बागवानी के रूप में सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। परन्तु इसकी खेती के लिए विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता होती है जो देश के कुछ ही क्षेत्रों में है। अतः इसकी खेती बहुत ही सीमित भू-भाग में की जा रही है।
देश में लीची की बागवानी सबसे अधिक बिहार में की जाती है। इसके अतिरिक्त देहरादून की घाटी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, झारखण्ड के छोटानागपुर क्षेत्र तथा छत्तीसगढ के अंबिकापुर क्षेत्र में की जाती है। फलों की गुणवत्ता के आधार पर अभी तक उत्तरी बिहार की लीची का स्थान प्रमुख है।
सघन बागवानी
सघन बागवानी से तात्पर्य है कि एक निश्चित क्षेत्रफल मे आधुनिक प्रबंधन के सामंजस्य से आधिक से अधिक पौधो का समावेश करते हुए प्रति इकाई क्षेत्रफल से गुणवत्तायुक्त अधिक उत्पादन प्राप्त करना। सघन बागवानी से फलो के उत्पादन मे 5 - 10 गुना तक वृद्धि की जा सकती है।
जिसमे अपने देश की कुपोषण को दूर करने, प्रति व्यक्ति फलो की उपलब्धता बढ़ाने एवं किसानो को आत्मनिर्भर बनाने मे यह तकनीक कारगार साबित हो सकती है।
लीची के लिए भूमि की तैयारी एवं रेखांकन
लीची के लिए भूमि की तैयारी परम्परागत बाग लगाने के जैसे ही होता है। रेखांकन में अंतर रहता है क्योंकि सघन बागवानी में पौधे से पौधे एवं कतार से कतार की दूरी परम्परागत बागवानी के अपेक्षा कम होती है। इसे 5 × 5 मीटर पर लगाया जाता है।
लीची बाग लगाने के लिए पौधा रोपण
यह कार्य भी परम्परागत बागवानी की तरह किया जाता है। पौध लगाने का उत्तम समय जून और जुलाई का महीना है। पौधे से पौधे और लाइन से लाइन की दूरी भूमि की उपजाऊ शक्ति के अनुसार 10 से 12 मीटर रखनी चाहिए ।
मई से जून के प्रथम सप्ताह तक 10 से 12 मीटर की दूरी पर एक मीटर व्यास और एक मीटर गहराई के गड्ढ़े खोदकर 8 से 15 दिनों तक खुले रहने चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद बराबर- बराबर मात्रा में लेकर गड्ढ़े मे डाले जिससे कि मिट्टी बैठकर ठोस हो जाये
तत्पश्चात जुलाई में पौधा का रोपण किया जा सकता है। यदि खेत कि मिट्टी चिकनी हो तो खेत की मिट्टी खाद व बालू रेत बराबर-बराबर मात्रा में मिला देना चाहिए।
लीची के पौधों में मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। इसलिए अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए रोपाई करते समय तथा रोपाई करने के बाद कुछ सावधानियां रखना आवश्यक है।
रोपाई करते समय निम्न सावधानियां बरतनी चाहिए-
- खेत में केवल वही पौधे लगाये जाये जो पेड़ से गुटी काटने के बाद कम से कम 6 से 8 माह तक गमलो में अथवा भूमि में लगाये गए हो, क्योंकि लीची की गुटी पेड़ से अलग होने के पश्चात् बहुत कम, अधिक जीवित रह पाती है। और कभी-कभी तो 60 प्रतिशत तक मर जाती है। इस प्रकार पुराने पौधे भी खेत में लगाने के बाद शत प्रतिशत जीवित नहीं रह पाते है।
- जहाँ तक संभव हो लीची के दो वर्ष के पौधे खेत में लगाया जाना चाहिए, इससे कम पौधे मरेंगे।
- रोपाई के समय पौधे को गड्ढ़े में रखकर उसके चारों और खाली जगह में बारीक मिट्टी डालकर इतना पानी डाल देना चाहिए कि गड्ढ़ा पानी से भर जाये। इससे मिट्टी नीचे बैठ जाएगी और खाली हुए गड्ढ़े में पुन बारीक मिट्टी डालकर गड्ढ़े को जमीन की सतह तक भर देना चाहिए ।
- पेड़ के चारों और मिट्टी डालकर मिट्टी को हाथ से नहीं दबाना चाहिए। क्योंकि इससे प्रायः पौधे की मिट्टी का खोल पिंडी टूट जाता है। जिससे पौधे कि जड़ टूट जाती है। और पौधा मर जाता है। इसलिए मिट्टी को पानी द्वारा उपरोक्त विधि से सेट कर भर देना चाहिए।
- लीची का नया बाग लगने हेतु गड्ढ़ों को भरते समय जो मिट्टी व खाद आदि का मिश्रण बनाया जाता है उसमे लीची के बाग की मिट्टी अवश्य मिला देना चाहिए क्योंकि लीची कि जड़ों में एक प्रकार का कवक जिसे माइकोराइजा कहते है पाई जाती है। इस कवक द्वारा पौधे अच्छी प्रकार फलते फूलते है और नए पौधे में भी कवक अथवा लीची के बाग कि मिट्टी मिलाने से मृत्युदर कम हो जाती है।
पौधों की रोपाई के बाद निम्न सावधानियां बरतनी चाहिए-
- पौधों के थालों में नमी बनी रहनी चाहिए। वर्षा न होने की स्थिति में नए पौधों के थाले सूखने नहीं चाहिए। दुसरा अधिक वर्षा की स्थिति में थालो में पानी रुकना नहीं चाहिए।
- सर्दियों में पाले से बचाना आवश्यक है जिसके लिए 10 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए। गर्मियों में लू से बचाने के लिए प्रति सप्ताह सिंचाई करते रहना चाहिए।
- प्रारंभिक अवस्था में पौधों को पाले और लू से बचाने के लिए पौधों को पूर्व की ओर से खुला छोड़कर शेष तीनो दिशाओं में पुवाल, गन्ने की पत्तियों और बॉस की खप्पचियों अथवा अरहर आदि की डंडियों की मदद से ढ़क देना चाहिए।
- सूर्य की तेज धुप से बचाने के लिए तनों को चुने के गाढ़े घोल से पोत देना चाहिए।
- उत्तर-पश्चिम व दक्षिण दिशा मे शीशम का सघन वृक्षा रोपण वायु अवरोधक के रूप में किया जाना चाहिए।
- फलत वाले पेड़ों में सर्दियों में 15 दिन के अंतर पर और गर्मियों में फल बनने के पश्चात् लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए जल्दी जल्दी सिंचाई करते रहना चाहिए। इस समय पानी की कमी नहीं होना चाहिए। अन्यथा झड़ने और फटने का डर रहता है।
लीची में सिंचाई
नये पौधों में थोड़ा-थोड़ा पर जल्दी-जल्दी सिंचाई की आवश्यकता होती है। अतः शुरू के दो वर्षों तक वर्षा शुरू होने से पहले सप्ताह में एक बार अच्छी सिंचाई करनी चाहिए।
लीची के पेड की कटाई-छँटाई
सघन बागवानी के अंतर्गत लीची के पेड़ों में फल क्षेत्र को बढ़ाना, वृक्ष उँचाई का प्रबंध इत्यादि प्रमुख है। अतः शुरूआत से ही वृक्ष को उचित आकार प्रदान करना तथा फलदार वृक्ष में फल तुड़ाई के बाद शाखाओं की छँटाई करना काफी महत्वपूर्ण है।
लीची में एक साल के पौधों की 40-50 सेमी पर शीर्ष कटिंग किया जाना चाहिए। यह कार्य अगस्त सितम्बर में करना चाहिए। कटिंग के तुरंत बाद बोरडेक्स मिश्रण या कापर आक्सीक्लोराइड का लेप लगाना चाहिए। सशक्त तथा अच्छी दूरी वाले बाहरी प्ररोहों को मुख्य शाखा का गठन करने दिया जाए।
मुख्य शाखा के साथ क्रोचेज बना रही सभी शाखाओं की छँटाई कर इसे नियमित आकार देना चाहिए। जब वृक्ष फलन में आ जाए तब फल तुड़ाई के समय 25-30 सेमी लम्बी फल-शाखाओं को हटा देना चाहिए। इस प्रकार 2-3 नए सिरे विकसित होंगे जिसके फलस्वरूप अगले मौसम में फलदार शाखाएँ विकसित होती है।
लीची में पोषण प्रबंधन
प्रारम्भ के 2-3 वर्षों तक लीची के पौधों को 30 किग्रा सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 किग्रा करंज की खल्ली, 200 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सिगल सुपरफास्फेट तथा 150 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। तत्पश्चात पौधों की बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए।
पूरी खाद एवं आधे उर्वरकों को जून तथा शेष उर्वरकों को सितम्बर में वृक्ष के छत्राक के नीचे गोलाई में देकर अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। खाद देने के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।
जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे उनमें 150-200 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में देना चाहिए।
लीची बाग में समस्याएँ एवं निदान
लीची के फलों का फटना
फल विकसित होने के समय भूमि में नमी की कमी और तेज गर्म हवाओं से फल अधिक फटते हैं। यह समस्या फल विकास की द्वितीय अवस्था में आती है। जिसका सीधा संबंध भूमि में जल स्तर तथा नमी संधारण की क्षमता से भी है।
इससे बचने के लिए भूमि में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल के प्रथम सप्ताह से फलों के पकने एवं उनकी तुड़ाई तक बाग की हल्की सिंचाई एवं पौधों पर जल छिड़काव करना चाहिए। यह भी देखा गया है कि अप्रैल में पौधों पर 10 पी.पी.एम. एन.ए.ए. एवं 0.4 प्रतिशत बोरेक्स के छिड़काव से भी फलों के फटने की समस्या कम होती है।
लीची माइट
यह कीट पत्तियों के निचले भाग पर पाया जाता है, जो पत्तियो का रस चूसता है। तथा पत्तिया भूरे रंग की व मखमली हो जाती है और इसकी पत्तियाँ मुड़ जाती है। तथा इनका परिसंकुचन इतना अधिक बढ़ जाता है कि यह पूर्ण रूप से मुड़कर गोल हो जाती है। अन्त में पत्तिया सूख जाती है। यह कीट मार्च-जुलाई तक लीची के पौधे पर काफी देखने को मिलता है।
रोकथाम
इसकी मखमली पत्तियों को सावधानी पूर्वक तोड़कर जला देना चाहिए। तथा नीचे गिरी पत्तियों को भी एकत्रित कर जला देना चाहिए। व इसके पेड़ पर 0.05 प्रतिशत पैराथियान का छिड़काव करना चाहिए।
लीची में मीलीबग
लीची और आम के मिश्रित बागों व उद्यानों में इस कीट का प्रकोप पाया जाता है। यह फूलों तथा नई कोपलों से रस चूसता है।
रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए 0.05 प्रतिशत पैराथियान का छिड़काव करना चाहिए तथा पक्षी और चमगादड़ को आने से रोकने के लिए अच्छी रखवाली की जानी चाहिए ।
लीची की सघन बागवानी के लाभः-
सघन बागवानी से निम्न लाभ प्राप्त होते है जो इस प्रकार है-
- भूमि एवं संसाधनो का समुचित उपयोग होता है।
- प्रकाश का समुचित उपयोग होता है जिससे प्रकाश संश्लेषण अधिक होता है।
- परंपरागत विधियो की अपेक्षा सघन बागवानी मे व्यावसायिक फलन जल्दी आता है सामान्यतः परंपरागत विधियो मे व्यावसायिक फलन लगभग 10-12 वर्षो मे आता है जबकि सघन बागवानी मे 4-5 वर्षो मे आ जाता है।
- फलो की गुणवत्ता मे वृद्धि होती है।
- अधिक पौधो का समावेश होने के कारण उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ती है।
- बौने पौधे होने के कारण कॅटाई-छॅटाई, फलो की तुड़ाई, पौध संरक्षण उपाय अपनाने मे आसानी होती है।
Authors
धनिता पटेल और एच. जी. शर्मा
फल विज्ञान विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर
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