Bael (Wood apple) production technique.
बेल भारत के प्राचीन फलों में से औषधीय गुणों से भरपूर एक महत्वपूर्ण फल है। स्थानीय स्तर पर इसे बेलगिरी, बेलपत्र, बेलकाठ या कैथा के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी भाषा में इसे वुड एप्पल (Wood Apple) कहतें हैं। यह एक पतझड़ वाला वृक्ष हैं, जिसकी ऊंचाई 6-8 मीटर होती है और इसके फूल हरे-सफ़ेद और मीठी सुगंध वाले होते हैं|
इसके फल लम्बाकार होते है, जो ऊपर से पतले और नीचे से मोटे होते हैं| बेल को पोषक तत्वों और औषधीय गुणों के कारण बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है| इसके फल में विभिन्न प्रकार के एल्कलाॅइड, सेपोनिन्स, फ्लेवोनाॅइड्स, फिनोल्स कई तरह के फाइटोकेमिकल्स विटामिन-ए, बी.सी., खनिज तत्व व कार्बोहाइड्रेट पाये जाते हैं।
बेल के जड़, छाल, पत्ते शाख और फल औषधि रूप में मानव जीवन के लिये उपयोगी हैं। बेल से तैयार दवाइयाँ दस्त, पेट दर्द, फूड पाईप, मरोड़ आदि के लिए प्रयोग की जाती हैं| इसका प्रयोग शुगर के इलाज, सूक्ष्म-जीवों से बचाने, त्वचा सड़ने के इलाज, दर्द कम करने के लिए, मास-पेशियों के दर्द, पाचन क्रिया आदि के लिए की जाने के कारण, इसको औषधीय पौधे के रूप में जाना जाता हैं| इससे अनेक परिरक्षित पदार्थ (शरबत, मुरब्बा) बनाया जा सकता है।
बेल के उपयोग
- फलों के गूदे का उपयोग पेट के विकार में किया जाता है।
- फलों का उपयोग पेचिश, दस्त, हेपेटाइटिस बी, टी वी के उपचार में किया जाता है।
- पत्तियों का प्रयोग पेप्टिक अल्सर, श्वसन विकार में किया जाता है।
- जडों का प्रयोग सर्पविष, घाव भरने तथा कान सबंधी रोगों के इलाज में किया जाता है।
- बेल सबसे पौष्टिक फल होता है इसलिए इसका प्रयोग कैंडी, शरबत, टाफी के निर्माण में किया जाता है।
बेल उगाने के लिए जलवायु
यह उपोष्णकटिबंधीय जलवायु का पौधा है, फिर भी इसे उष्ण, शुष्क और अर्द्धशुष्क जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी बागवानी 1200 मीटर ऊँचाई तक और 10 से 44 डिग्री सेल्सियस तापक्रम तक सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसके पेड़ की टहनियों पर कांटे पाये जाते हैं और मई-जून की गर्मी के समय इसकी पत्तियाँ झड़ जाती है। यह शुष्क जलवायु के लिए अधिक उपयुक्त होता है।
बेल उगाने के लिए भूमि
बेल एक बहुत ही सहनशील वृक्ष है। इसे समस्याग्रस्त क्षेत्रों-ऊसर, बंजर, कंकरीली, खादर, बीहड़ भूमि में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है, परन्तु जल निकासयुक्त बलुई दोमट भूमि इसकी खेती के लिए अधिक उपयुक्त है। नीची जमीन में पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। भूमि जिसका पी.एच. मान 8.0 से 8.5 तक हो, में बेल की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
बेल उगाने कीी उन्नत किस्में
नरेन्द्र बेल-1,2: सबसे ज्यादा उपयोगी और बढ़िया पैदावार वाली किस्म हैं|
नरेन्द्र बेल -5: इसके फल का औसतन भार 1 किलो होता हैं| यह गोल मुलायम, कम गोंद और बहुत ही स्वादिष्ट नर्म गुद्दे वाले होते हैं|
नरेन्द्र बेल -6: इसके फल का औसतन भार 600 ग्राम होता हैं| यह गोल मुलायम, कम गोंद और नर्म गुद्दे वाले होते हैं| यह हल्के खट्टे और स्वाद में बढ़िया होते हैं|
नरेन्द्र बेल-7: इन फलों का आकर बढ़ा, समतल गोल और रंग हरा-सफेद होता हैं|
नरेन्द्र बेल -9: इन फलों का आकर बढ़ा, लम्बाकार होता हैं और इनमे रेशे और बीजों की मात्रा बहुत कम होती हैं|
नरेन्द्र बेल -16: यह एक बेहतरीन पैदावार वाली किस्म हैं, जिसके फलों का आकर अंडाकार, गुद्दा पीले रंग का होता हैं और रेशे की मात्रा कम होती हैं|
नरेन्द्र बेल -17: यह एक बेहतरीन पैदावार वाली किस्म हैं, जिसके फल औसतन आकर के होते हैं और रेशे की मात्रा कम होती हैं|
सी.आई.एस.एच-बी.-1: यह मध्य- ऋतु की किस्म हैं, जो अप्रैल-मई में पकती हैं| इनका भार औसतन 1 किलो होता हैं और इसका गुद्दा स्वादिष्ट और गहरे पीले रंग का होता हैं| पेड़ों की औसत उपज 50-80 कि.ग्रा. प्रति पेड़ तक पायी जाती है।
सी.आई.एस.एच-बी.-2: यह छोटे कद वाली किस्म है| इसका गुद्दा स्वादिष्ट और संतरी-पीले रंग का होता है| इसमें रेशे और बीज की मात्रा कम होती हैं| पेड़ों की औसत उपज 60-90 कि.ग्रा. प्रति पेड़ तक पायी जाती है।
पंत सिवानी : इस किस्म के पेड़ ऊपर की तरफ बढ़ने वाले एवं घने होते हैं। पेड़ों की औसत उपज 50-60 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष तक पायी जाती है।
पंत अर्पणा : यह एक बौनी एवं कम घनी किस्म है, जिनकी शाखायें नीचे की तरफ लटकती रहती है। फल गोलाकार 0.6 से 0.8 कि.ग्रा. वजन एवं पतले छिलके वाले होते हैं। अत: यह किस्म प्रोसेसिंग के लिए ज्यादा उपयुक्त हो सकती है।
पंत उर्वसी : यह एक मध्यम समय में पकने वाली किस्म है। फलों का आकार अंडाकार लम्बा तथा प्रतिफल भार 1.6 कि.ग्रा. तक होता है। फलों में गूदे की मात्रा 68.5 प्रतिशत एवं रेशे की मात्रा कम पायी जाती है। पेड़ों की औसत उपज 27-30 कि.ग्रा. तक होती है।
पंत सुजाता: इस किस्म के पेड़ मध्यम आकार के घने एवं फैलने वाले होते हैं। फल गोल तथा दोनों सिरे चपटे होते हैं। पेड़ों की औसत उपज 45-50 कि.ग्रा. वृक्ष तक पायी जाती है।
बेल का प्रवर्धन
बेल का प्रवर्धन साधारणतया बीज द्वारा ही किया जाता है। बेल को वानस्पतिक प्रवर्धन से भी उगाया जा सकता है। बेल के पौधे मुख्य रूप से बीज द्वारा तैयार किये गये मूलवृंत पर कालिकायन या ग्राफ्टिंग द्वारा बनाये जाते हैं।
मई या जून के महीने में जब फल पकने लगता है, पके फल के बीजों को निकालकर तुरन्त नर्सरी में15-20 सें.मी. ऊँची 1 x 10 मीटर आकार की क्यारियों में 1-2 सें.मी. गहराई पर बो देना चाहिए। पहले बीजों को लगभग 12-14 घंटों के लिए पानी में भिगो दिया जाता है और फिर हवा में सुखाया जाता है| फिर इनको बोया जाता है|
बुवाई का उत्तम समय मई-जून का महीना होता है। व्यावसायिक स्तर पर बेल की खेती के लिए पौधों को चश्मा विधि से तैयार करना चाहिए। चश्मा की विभिन्न विधियों में पैबंदी चश्मा विधि जून-जुलाई में चढ़ाने से 80-90 प्रतिशत तक सफलता प्राप्त की जा सकती है और सांकुर शाख की वृद्धि भी अच्छी होती है।
कलिकायन के लिए 1-2 वर्ष पुराने पौधे उपयुक्त पाये गये है। चष्मा बांधने के बाद जब तक कली 12 से 15 सेन्टीमीटर की न हो जाए उनकी क्यारियों को हमेषा नमी से तर रखना चाहिए जिससे कली सूखने न पाए। जब कलिका ठीक प्रकार से फुटाव ले ले तो मूलवृंत को कलिका के ऊपर से काट देना चाहिए।
पौध रोपण
बेल के पौधों का रोपण वर्षा के प्रारम्भिक महीनों से करना चाहिए क्योंकि इन महीनों में नमी होने के कारण नर्सरी से उखाड़े गए पौधे आसानी से लग जाते हैं। उद्यान में बेल के पौधों का स्थाई रोपण करने के लिए गड्ढों को गर्मी में खोदना चाहिए ताकि कड़ी धूप से लाभ प्राप्त हो सके।
गड्ढे की तैयारी
गड्ढ़ों का आकार 90 × 90 × 90 सेन्टीमीटर तथा एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे की दूरी 8 मीटर रखनी चाहिए। बूंद-बूंद सिंचाई विधि से 5 X 5 मीटर की दूरी पर सधन बाग स्थापना की जा सकती है। यदि जमीन में कंकड़ की तह हो तो उसे निकाल देना चाहिए।
इन गड्ढों को 20-30 दिनों तक खुला छोड़कर वर्षा शुरू होते ही बाग़ की मिट्टी और 25 किलो रूडी की खाद, 1 किलो नीम तेल केक और 1 किलो हड्डीओं के चूरे का मिश्रण गड्ढों में डालें| ऊसर भूमि में प्रति गड्ढे के हिसाब से 20-25 किलोग्राम बालू तथा पी.एच मान के अनुसार 5-8 किलोग्राम जिप्सम/ पाइराइट भी मिला कर 6-8 इंच ऊँचाई तक गड्ढों को भर देना चाहिए।
एक-दो वर्षा हो जाने पर गड्ढ़े की मिट्टी जब खूब बैठ जाए तो इनमें पौधों को लगा देना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
पौधों की अच्छी बढ़वार, अधिक फलन एवं पेड़ों को स्वस्थ रखने के लिये प्रत्येक पौधे में 10 कि.ग्रा. सड़ी गोबर की खाद, 50 ग्रा. नेत्रजन, 25 ग्रा. फास्फोरस एवं 50 ग्रा. पोटाश प्रति वर्ष प्रति वृक्ष डालनी चाहिए। खाद एवं उर्वरक की यह मात्रा दस वर्ष तक गुणित अनुपात में बढ़ाते रहना चाहिए।
पांच वर्ष के फलदार पेड़ के लिए 250 ग्राम नत्रजन, 125 ग्राम फासफोरस एवं 120 ग्राम पोटाष की मात्रा प्रति पेड़ देनी चाहिए। चूंकि बेल में जस्ते की कमी के लक्षण पत्तियों पर आते हैं अतः जस्ते की पूर्ति के लिए 0.5 प्रतिषत जिंक सल्फेट का छिड़काव क्रमषः जुलाई, अक्टूबर और दिसम्बर में करना चाहिए।
जिन बागों में फलों के फटने की समस्या हो उनमें खाद और उर्वरकों के साथ 100 ग्राम/वृक्ष बोरेक्स (सुहागा) का प्रयोग करना चाहिए। खाद को थालों में पेड़ की जड़ से 0.75 से 1.00 मीटर दूर चारों तरफ छिड़ककर जमीन की गुड़ाई कर देनी चाहिए। खाद की मात्रा दो बार में, एक बार जुलाई-अगस्त में तथा दूसरी बार जनवरी-फरवरी में देनी चाहिए।
सिंचाई
बेल एक अत्यधिक सहनशील पौधा होता है। यह बिना सिंचाई के भी रह सकता है। नये पौधों को एक-दो वर्ष तक सिंचाई की अत्याधिक आवश्यकता पड़ती है। सिंचाई के लिए “मटका ड्रिप विधि” को उपयोग में लाने से युवा पौधो को सिंचाई का जल प्राप्त हो जाता है और एक समान वितरण बना रहता है।
गर्मियों में बेल का पौधा अपनी पत्तियाँ गिरा कर सुषुतावस्था में चला जाता है इसके अलावा इसमें पुष्पण तथा फल वृद्धि बरसात के मौसम से शुरू होकर जाड़े के समय तक होती है। इस तरह यह सूखे को सहन कर लेता है।
सिंचाई की सुविधा होने पर मई-जून में नई पत्तियाँ आने के बाद दो सिंचाई 20-30 दिनों के अंतराल पर कर देनी चाहिए। वृद्धि, फल उत्पादन एवं फल गुणवत्ता के आधार पर बेल की प्रजाति नरेन्द्र बेल-5 व नरेन्द्र बेल-9 का उत्पादन बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति पर उपयुक्त पाया गया।
खरपतवार नियंत्रण
इस फसल में ज्यादा निंदाई की जरूरत नहीं होती है| पहली निंदाई शुरू में पौधों के विकास के समय करें और फिर अगली निंदाई पौधे की 2 साल की उम्र में करें |
संधाई-छंटाई
पौधों की सधाई का कार्य शुरू के 4-5 वर्षो में करना चाहिए। मुख्य तने को 75 सें.मी. तक शाखा रहित रखना चाहिए। इसके बाद 4-6 मुख्य शाखायें चारों दिशाओं में बढ़ने देनी चाहिए। बेल के पेड़ों में विशेष छंटाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है परन्तु सूखी, कीड़ों एवं बीमारियों से ग्रसित टहनियों को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए।
अंत: फसलें
शुरू के वर्षो में नये पौधों के बीच खाली जगह में अंत: फसल लेते समय ऐसी फसलें न लें जिन्हें पानी की अधिक आवश्यकता हो और वह बेल के पौधों को प्रभावित करें। टांड की फसलें लगाकर उन्हें वर्षा ऋतु में पलट देने से भूमि की दशा में भी सुधार किया जा सकता है।
फलन
बीजू पौधे रोपण के 8-9 वर्ष बाद फूलने लगते हैं। लेकिन यदि चष्में से तैयार किए गए पौधे लगाए जाएं तो उनकी फलत 4-5 वर्ष पश्चात् ही शुरू हो जाती है। बेल का पेड़ लगभग 15 वर्ष के बाद पूरी फलत में आता है। दस से पन्द्रह वर्ष पुराने पेड़ से 150-175 फल प्राप्त होते हैं। बेल के पेड़ में फूल, जून-जुलाई में आते हैं और अगले वर्ष अप्रैल-मई में पककर तैयार हो जाते हैं।
फलों की तुड़ाई
बेल लगाने से 6 से 7 साल बाद यह पौधे फल देना शुरू कर देते है| इसकी तुड़ाई जनवरी में की जाती है जब पौधे पीले-हरे दिखने लग जाते है| यह पीले-हरे फल 8 दिनों के लिए रखें, ताकि इनका हरा रंग चला जाये| फलों को उठाने-रखने के समय सावधानी का प्रयोग करें, नहीं तो फल गिरने के साथ इसमें दरार आ सकती है|
श्रेणीकरण एवं पैकिंग
आकर्षक कीमतों के लिए फलों की श्रेणीकरण उनके आकार के आधार पर की जाती है। पैकिंग दूरी पर निर्भर करती है। फलों को बोरे में पैक कर सकते है। वायुरोधी थैले इनके लिए उपयुक्त होते है।
भडांरण
पके हुये फलों को लगभग 15 दिनों तक रख सकते है। फलों को 18 से 24 दिनों में उपचारित करके कृत्रिम रूप से पकाकर 100 से 1500 ppm ईथराँल का उपयोग करके कृत्रिम रूप से पकाकर 860F (300C) में रखा जा सकता है। फलों को सूखी जगह में भंडारित करना चाहिए।
परिवहन
किसान अपने उत्पाद को बैलगाडी़ या टैक्टर से बाजार ले जाते है। दूरी अधिक होने पर उत्पाद को ट्रक या लाँरियो के द्बारा बाजार तक पहुँचाया जाता है। परिवहन के दौरान चढ़ाते एवं उतारते समय पैकिंग अच्छी होने से फसल खराब नहीं होती है।
बेल वृक्ष के रोग
बेल का कैंकर
यह रोग जैन्थोमोनस विल्वी बैक्टीरिया द्वारा होता है। प्रभावित भागों पर पानीदार धब्बे बनते हैं जो बाद में बढ़ कर भूरे रंग के हो जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लिन सल्फेट (200 पी.पी.एम.) को पानी में घोल कर 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।
डाई बैक
इस रोग का प्रकोप लेसिया डिप्लोडिया नामक फफूंद द्वारा होता है। इस रोग में पौधों की टहनियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का दो छिड़काव सूखी टहनियों को छांट कर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
पत्तियों पर काले धब्बे
बेल की पत्तियाँ पर दोनों सतहों पर काले धब्बे बनते हैं, जिनका आकार आमतौर पर 2-3 मि.मी. का होता है। इन धब्बों पर काली फफूंदी नजर आती है, जिसे आइसेरेआप्सिस कहते हैं। इसके रोकथाम के लिए बैविस्टीन (0.1 प्रतिशत) या डाईफोलेटान (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।
फलों पर गांठें पड़ना
यह बीमारी जेथोमोनस बिलवई कारण होती है| यह बीमारी पौधे के हिस्सों, पत्तों और फलों पर धब्बे डाल देती है| इसकी रोकथाम के लिए दो-मुँह वाली टहनियों को छाँट दें और नष्ट कर दें या स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट(20 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी)+ कॉपर ऑक्सीक्लोराइड(0.3%) 10-15 दिनों के फासले पर डालें|
फल का फटना और गिरना
यह दोनों बीमारियां फल की बनावट को बिगाड़ देती है| इसकी रोकथाम के लिए बोरेक्स 0.1% दो बार फूल के खिलने पर और फल के गुच्छे बनने के समय डालें|
पत्तों पर सफेद फंगस
यह बीमारी भी बेल की फसल में आम पायी जाती है और इसकी रोकथाम के लिए घुलनशील सल्फर+क्लोरपाइरीफोस/ मिथाइल पैराथियान+गम एकेशियाँ (0.2+0.1+0.3%) की स्प्रे करें|
बेल के कीट
नींबू की मक्खी
यह पपीलियो डेमोलियस के कारण होती है| इसकी रोकथाम के लिए नरसरी वाले पौधों पर स्पिनोसेड @ 60 मि.ली. की छिड़काव 8 दिनों के फासले पर करें|
बेल की तितली
यह बेक्टोसेरा ज़ोनाटा के कारण होती है| इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर स्पिनोसेड @ 60 मि.ली. की छिड़काव 10-15 दिनों के फासले पर करें|
पत्तें खाने वाली सुंडी
यह सुंडी नये पौधे निकलते समय ज्यादा नुकसान करती है और इसकी रोकथाम के लिए थियोडेन 0.1% डालें|
Authors
संगीता चंद्राकर, प्रभाकर सिंह, हेमंत पाणिग्रही और सरिता पैकरा
फल विज्ञान विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर( छ.ग.)
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