ईसबगोल के प्रमुख कीट एवं रोग प्रबन्धन
ईसबगोल एक महत्वपूर्ण नगदी औषधीय फसल है। इस फसल में कीट एवं रोगों का प्रकोप यदि कम होता है, परन्तु इसमें मुख्य रूप से कीटों में माहू (मोयला) एवं दीमक नुकसान पहुचाते हैं और रोगों में मृदु रोमिल फफूंद प्रमुख है। इन नाशीजीवों के जीवन चक्र के बारे में सही पता कर इसे समय पर रोकथाम कर अधिक उच्च गुणवता वाला उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
भारत का स्थान ईसबगोल उत्पादन एवं क्षेत्रफल में प्रथम है। भारत में इसका उत्पादन प्रमुख रूप से गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तारप्रदेश एवं मध्यप्रदेश में करीब 50 हजार हेक्टयर में हो रहा हैं। म.प्र. में नीमच, रतलाम, मंदसौर, उज्जैन एवं शाजापुर जिले प्रमुख हैं।
ईसबगोल का उपयोग:
ईसबगोल का औषधीय उपयोग अधिक होने के कारण विश्व बाजार में इसकी मांग तेजी से बढ़ रही है। ईसबगोल के बीज पर पाए जाने वाला छिलका ही इसका औषधीय उत्पाद है जिसे ईसबगोल की भूसी के नाम से जाना जाता है।
भूसी और बीज का अनुपात 25:75 रहता है। इसकी भूसी में पानी सोखने की क्षमता अधिक होती है। इसलिए इसका उपयोग पेट की सफाई, कब्जीयत, दस्त आव पेचिस, अल्सर, बवासीर जैसी शारीरिक बीमारियों के उपचार में आयुर्वेदिक दवा के रूप में किया जाता है।
इसके अलावा आइसक्रीम रंग रोगन, प्रिंटिंग आदि उद्योगों में भी इसका उपयोग किया जाता है। इसकी मांग एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करना आवश्यक है।
ईसबगोल के बीज को मैटालैक्जिल 35 एस.डी. की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज के मान से बीजोपचार कर बुवाई करें। किसान भाई मृदा उपचार हेतु जैविक फफूंदी नाशक ट्राइकोडर्मा विरिडी की 2.5 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से अच्छी पकी हुई गोबर की खाद अथवा वर्मीकम्पोस में मिला कर नमी युक्त खेत में प्रयोग करें।
प्रमुख कीट:
दीमक:
यह सर्वभक्षी कीट है। इसका प्रकोप मुख्य रूप से कम पानी, अधिक तापमान एवं रेतीली मिट्टी में अधिक होता है। ईसबगोल फसल के विकास की किसी भी अवस्था में नुकसान पहुंचा सकता है।
यह कीट जमीन के नीचे मिट्टी में अपना घर बनाकर रहते हैं तथा ईसबगोल की जड़ों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैं। इस वजह से पौधे जगह-जगह से सुख जाते है और खींचने पर आसानी से उखड़ जाते है। खेत में सूखे हुए पौधों की जगह-जगह खोदने पर दीमक आसानी से दिखाई देती है।
रानी दीमक अनुकुल परिस्थितियों में प्रतिदिन हजारों अण्डे देती है। शुष्क क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप अन्य स्थानों की तुलना में अधिक होता हैं। इस प्रकार ईसबगोल के पौधे सूखने से इसकी पैदावार पर बुरा असर पड़ता हैं।
रोकथाम:
खेत में व खेत के आसपास दीमक के घरों तथा खरपतवारों को नष्ट करें। खेत में काम ली जाने वाली गोबर या अन्य खाद पूर्ण रूप से सड़ा कर काम में लेनी चाहिए। खेत में नीम की खली 200 किलोग्राम प्रति हैक्टयर की दर से खेत की अन्तिम जुताई के समय भूमि में मिलावें।
माहु (ऐफिड):
माहू का प्रकोप सामान्यत: बुवाई के 60-70 दिन की अवस्था पर होता है। यह सूक्ष्म आकार का कीट पत्तिायों, तना एवं बालियों से रस चूसकर नुकसान पहुंचाता है। अधिक प्रकोप होने की स्थिति में पूरा पौधा मधु स्त्राव से चिपचिपा हो जाता हैं तथा फसल पर क्रिया बाधित हो जाती है जिससे उत्पादन प्रभावित होता हैं।
यह काले एवं हरे पीले रंग का कोमल शरीर वाला सुक्ष्म व अण्डाकार कीट होता है। इस कीट का सामान्यत: आक्रमण पत्तिायों पर (फरवरी के प्रथम सप्ताह) में शुरू होता है और पौधे के कोमल भागों पर गुच्छे के रूप में कॉलोनी बनाता है। कई बार वातावरण में नमी व बादल रहने पर इस कीट का प्रकोप दिसम्बर माह से भी शुरू हो जाता है।
फसल पर इस कीट के शिशु व प्रौढ़ दोनों सर्वाधिक नुकसान फरवरी अन्त से मार्च मध्य तक पहुंचाते है। इस कीट के प्रकोप से फसल में लगभग 20 से 30 प्रतिशत तक पैदावार में हानि आकी गई है। मौसम में नमी (हल्की बुन्दा बान्दी तथा कई दिन तक बादल) होने पर कीटों की संख्या मे तेजी से बढ़ोतरी होती है और प्रकोप उग्र होने पर हानि बहुत अधिक हो जाती है।
इस कीट का प्रकोप सभी किस्मों पर होता है, परन्तु इसकी संख्या प्रकृति में परभक्षी कीटो (कोकसिनेला, क्राईसोपा आदि), पक्षियो एवं सूक्ष्म रोगाणुओं के द्वारा कुछ सीमा तक नियन्त्रित रहती है।
रोकथाम:
समय पर फसल की बुआई करें, नवम्बर मध्य के बाद बुवाई करने पर कीट प्रकोप बढ़ने से उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है। प्रकोप का अनुमान ज्ञात करने हेतु पीले रंग के चिपचिपे पाश का प्रयोग करें, ताकि समय पर नियन्त्रण शुरू किया जा सके।
इसकी रोकथाम हेतु आक्सी मिथाइल डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा डाइमिथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. की 1.5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में अथवा इमिडाइक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल. अथवा एसिटामिप्रिड 20 प्रतिशत एस. पी. की 5 मिलीध्ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें एवं आवश्यकतानुसार छिड़काव को दोहराए ।
ईसबगोल की जैविक खेती में नीम धतुरा आक की सूखी पत्तिायों के पाउडर को 1:1:1 अनुपात में मिलाकर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचारित करें। ईसबगोल की खेती में कीट सर्वेक्षण हेतु 12 पीले चिपचिपे पाश प्रति हैक्टेयर की दर से लगावें।
मृदा में बिवेरिया बेसियाना 5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई से पूर्व मिलावें। खड़ी फसल में कीट (माहु) नियंत्रण हेतु नीम धतुरा आक 1:1:1 के अनुपात में पत्तिायों के घोल (10 प्रतिशत) को गौमूत्र (10 प्रतिशत) में मिलाकर आवश्यकतानुसार पर्णीय छिड़काव करें।
प्रमुख रोग:
डाउनी मिल्डयू (मदुरोमिल आसिता):
मृदुल रोमिल आसिता के लक्षण पौधों में बाली (स्पाइक) निकलते समय दिखाई देते हैं। यह फफूंद सबसे पहले पत्तिायों पर धब्बे के रुप में प्रकट होता है तथा धीरे-धीरे पूरी पत्ताी पर फैलकर उसे नष्ट कर देता है।
पत्तिायों की ऊपरी सतह पर सफेद या कत्थई रंग के धब्बे दिखाई देते हैं तथा पत्ताी के निचले भाग में सफेद चूर्ण जैसा कवक जाल दिखाई देता है।
बाद में पत्तिायां सिकुड़ जाती हैं तथा पौधों की बढ़वार रुक जाती है जिसके परिणामस्वरूप डंठल की लम्बाई, बीज बनना एवं बीज की गुणवत्ताा प्रभावित होती है। अधिक नमी होने पर इस रोग का फैलाव और बढ़ जाता है।
प्रबंधन:
रोग ग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर नष्ट कर देवें। गर्मियों में गहरी जुताई कर खेत खाली छोडें। फसल चक्र अपनायें अर्थात बार-बार एक ही खेत में ईसबगोल की खेती नहीं करेंद्य ईसबगोल की खेती में स्वस्थ, प्रमाणित एवं रोग रोधी किस्मों का चयन करें। खेत में प्रयोग की जानें वाली खाद पूर्ण रुप से सड़ी हुई होनी चाहिये।
रोग नियंत्रण हेतु स्वस्थ व प्रमाणित बीज बोयें, बीजोपचार करें एवं कटाई के बाद फसल अवशेषों को जला देवें। प्रथम छिड़काव रोग का प्रकोप होने पर मैटालैक्जिल मैंकोजेब की 2-2.5 ग्राम मात्रा अथवा कापर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर दोहराए। खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय भूमि में मिलावें। ईसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतुरा, एवं आक की सूखी पत्तिायों के पाउडर को 1:1:1 अनुपात में मिलाकर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचारित करें।
झुलसा:
यह रोग 'आल्टरनेरिया आल्टरनाटा नामक कवक से होता है। फसल में फूल आने शुरू होने के बाद आकाश में बादल छा, रहें तो इस रोग का लगना नि'चित हो जाता है। फूल आने के बाद से लेकर फसल पकने तक यह रोग कभी भी हो सकता है।
मौसम अनुकूल होने पर यह रोग बहुत तेजी से फैलता है। रोग के सर्वप्रथम लक्षण पौधो भी पत्तिायों पर भूरे रंग के धाब्बों के रूप में दिखाई देते है। धाीरे-धाीरे ये काले रंग में बदल जाते है। पत्तिायों से वृत, तने एवं बीज पर इसका प्रकोप बढ़ता है।
पौधाों के सिरे झुके हुए नजर आते है। संक्रमण के बाद यदि आर्द्रता लगातार बनी रहें या वर्षा हो जाये तो रोग उग्र हो जाता है। यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि रोग के लक्षण दिखाई देते ही यदि नियंत्रण कार्य न कराया जाये तो फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल होता है।
प्रबंधन:
स्वस्थ बीजों को बोने के काम में लीजिए। फसल में अधिाक सिंचाई नही करें। फूल आते समय लाभ 30-35 दिन की फसल अवस्था पर मेंकोजेब 0-2 प्रतिशत या टॉप्सिन एम 0-1 प्रतिशत के गोल का छिड़काव करें आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन बाद दोहरायें। जैविक नियंत्रण में इस रोग के नियंत्रण के लिए फसल पर गौमूत्र (10 प्रतिशत) व एनएसकेइ (2-5 प्रतिशत) व लहसुन अर्क (2-0 प्रतिशत ) गोल का छिड़काव करें।
Authors:
अर्जुन लाल यादव1, राज कुमार फगोडिया2 एवं बाबू लाल फगोडिया2
1पादप रोग विज्ञान विभाग, कृषि महाविद्यालय, बीकानेर
2पादप रोग विज्ञान विभाग,राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर
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