Improved cultivation techniques of Suthnee

Improved cultivation techniques of Suthnee

सुथनी की खेती के लिए उन्नत तकनीक 

सुथनी एक कन्दीय फसल है जिसे याम समूह में रखा गया है और यह डायसकोरेसी कुल के अंंर्तगत आती है। इसके पौधों पर छोटे छोटे काँटे पाये जाते हैं। इसे बहुत सारे नामों से जाना जाता है जैसे: – सुथनी, लेसर याम, पिंडालु या छोटा रतालु।

सुथनी एक कन्दीय फसलइसमे स्र्टाच के साथ साथ बहुत सारे सूक्ष्म तत्व भी पाये जाते है जो मनुष्य के शरीर के लिए बहुत ही उपयोगी होते है। बिहार प्रदेश में इस फसल की मांग छठ पर्व के अवसर पर बढ़ जाती है जिसे लोग प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।

इस फसल की खेती गर्म एवं आर्द्र जलवायु में की जाती है, जिसके लिए 26 – 31 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान तथा 1200 – 1500 मि॰ली॰ औसत वार्षिक वर्षा उपयुक्त होती है।

भूमि का चयन एवं खेतों की तैयारी

इस फसल की खेती के लिए उपजाऊ, दोमट या बलुई दोमट मिट्टी के साथ साथ अच्छी जल निकास वाली भूमि उपयुक्त होती है, जिसका पी॰एच॰ मान 5.5 – 6.5 हो।

खेत की तैयारी के लिए 1-2 जुताई मिट्टी पलटने वाली हल से करने के बाद 10-15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टयर की दर से खेतों पर फैला दे, उसके बाद 2-3 जुताई देशी हल से करें तथा प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य चला दे ताकि खेत समतल होने के साथ मिट्टी भुरभुरी हो जाय।

प्रभेदों का चयन 

सुथनी की खेती के लिए प्रभेदों का चयन एक महत्वपूर्ण कार्य होता है जिसमें बीज के रूप में कन्दों का ही उपयोग किया जाता है।

ऐसे मे प्रभेदो का क्रय किसी प्रतिष्ठित संस्थान से ही करना चाहिए वैसे बीज का चयन कतई नहीं करना चाहिए। जो सूखा तथा सड़ा हुआ हो।

इस तरह के कन्दों में अंकुरण नहीं होता है जिसका सीधा प्रभाव फसल की उपज क्षमता पर पड़ता है।

उन्नत प्रभेद

श्री लता

यह प्रभेद 7-8 माह में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है जिससे 20-25 टन प्रति हेक्टयर उपज प्राप्त होती है, इसके कन्द लम्बें, मोटे तथा धूसर – भूरे रंग के होते हैं। इसके गूदे मक्खन की तरह सफेद तथ खाने में स्वादिष्ट होते हैं।

श्री कला

श्री कला 8-9 माह में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है जिसकी उपज क्षमता 20-25 टन प्रति हेक्टयर है, इसके कन्द छोटे तथा चिकने होते हैं। जो असानी से पक जाते है तथा खाने में मीठे लगते हैं।

suthanee kee khetee

रोपाई का समय, दूरी एवं बीज दर

सुथनी की रोपाई अप्रैल – मई माह में कन्दों के द्वारा की जाती है। रोपाई के समय कन्दों को 8-10 सें॰मी॰ के गड्ढ़ों में रखकर मिट्टी से भरने के बाद उसपर 10-15 सें॰मी॰ मिट्टी चढ़ाकर ऊँचा कर देना चाहिए ताकि बीज का अंकुरण तथा पौधों का बढ़वार अच्छी तरह से हो सके।

कन्दों की रोपाई के समय पंक्ति तथा पौधों से पौधों की दूरी 50 x 50 सें॰मी॰ रखते हैं, इस प्रकार एक हेक्टयर  रोपाई के लिए 10-12 क्विंटल कन्दों की आवश्यकता पड़ती है। यदि खेत में रोपाई के समय नमी की मात्रा कम हो तो रोपाई के पश्चात् एक हल्की सिंचाई कर देनी चहिए।

भूमि में नमी बनाए रखने के लिए तथा खरपतवारों के नियंत्रण के लिए पराली से खेतों को ढ़क देना चाहिए जिससे उपज क्षमता पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

नेत्रजन की 100 कि॰ग्रा॰, फाॅस्फोरस की 50 कि॰ग्रा॰ तथा पोटाश की 100 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टयर  की दर से व्यवहार में लाने की अनसंसा की गई है। नेत्रजन की आधी मात्रा तथा फाॅस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई के समय व्यवहार करना चाहिए। बचे हुए नेत्रजन की आधी मात्रा को रोपाई के दो महीने बाद उपरिवेशन के रूप में व्यवहार करे।

सिंचाई

रोपाई के समय मिट्टी में नमी की मात्रा कम रहने पर रोपाई के तुरन्त बाद सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि बीजों का अंकुरण समान रूप से हो सके। सिंचाई की आवश्यकता वर्षा जल पर निर्भर करती है। यदि वर्षा समय पर ना हो तो आवश्यकता अनुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।

निकाई – गुड़ाई

पहली निकाई – गुड़ाई एक माह के बाद तथा दूसरी निकाई – गुड़ाई दो माह बाद करे साथ ही बचे हुए उर्वरक की शेष मात्रा का इस्तेमाल जड़ों पर मिट्टी चढ़ाने के समय करे ऐसा करने पर फसल की उपज क्षमता पर अनुकुल  प्रभाव पड़ता है।

फसल चक्र

सुथनी के फसल को खुदाई करने के बाद उस भूमि पर क्रमवद्ध फसल उगाया जा सकता है जैसेः-

सुथनी – गेहूँ  – मूँग,  सुथनी – आलू – मूँग,  सुथनी – मटर – मूँग

सुथनी के प्रमुख रोग

एन्थ्रेकनोजः

यह रोग कोलेटोट्राइकम नामक जीवाणु से उत्पन होते हैं। इस रोग के प्रमुख लक्षण पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बें बनने के साथ शुरू होता है जो आकार में बढ़कर बाद में काले रंग के हो जाते हैं। जिससे पूरी फसल सुखकर बर्बाद हो जाते है जिसका प्रभाव फसल की उपज क्षमता पर पड़ता है।

इस रोग से बचाव के लिए वेभिस्टीन नामक दवा का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल से रोपाई से पहले कन्दों को उपचारित अवश्य करें। पौधे की बढ़वार अवस्था में इस रोग का प्रकोप होने पर कैप्टान या ब्लाइटाॅक्स दवा का 2.2 – 3.0 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव 2 – 3 बार 15 दिनों के अन्तराल पर करें।

रतालु मोजइक

इस रोग का फैलाव कीट के द्वारा होता हैं। इस रोग में पौधों की पत्तियाँ सिकुड़ कर छोटी हो जाती है तथा पौधों की वृ़द्धि  रूक जाती है। इस रोग से बचाव के लिए रोग फैलाने वाली कीट के रोकथाम हेतु इन्डोसल्फान कीटनाशी का 1.5 लीटर प्रति 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

रतालु के प्रमुख कीट

स्केल कीट

शिशु एवं मादा वयस्क कीट पौंधों के लतरों और कन्दों के रस चूसते हैं जिससे पौधें पीले पड़ कर सुख जाते है फलस्वरूप कन्द पूर्ण विकसित नही हो पाते हैं जिसका सीधा असर फसल के उत्पादन क्षमता पर पड़ता है। जब इस कीट से अक्रांतित कन्द का भण्डारण स्वस्थ्य कन्द के साथ किया जाता है तो स्वस्थ्य कन्द भी प्रभावित हो जाते है। इस कीट से रोकथाम के लिए रोपाई से पहले डाईमिथोएट 0.05 प्रतिशत के घोल से उपचारित कर रोपाई करनी चाहिए। यदि इस कीट का प्रभाव पौधे की बढ़ावार अवस्था में होता है तो इसके रोकथाम के लिए मालाथियान या कार्बेरिल घुलनशील धूल का 0.05 प्रतिशत की दर से 15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

केन्द्रों की खुदाई विपणन एवं भण्डारण

सुथनी की खुदाई नवम्बर – दिसम्बर में की जाती है जब पौधे की लताए पुरी तरह से सुख जाते है। कन्दों की खुदाई के बाद अच्छी तरह से सफाई करने के बाद कन्दों को 2 – 3 दिनों तक पक्का फर्श पर सुखाना चहिए तद्पश्चात् कन्दों को बाजार में बेचने के लिए भेजा जाना चाहिए।


Authors

अनुज कुमार चौधरी, मणि भूषण एवं रवि केसरी

*भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय, पूर्णियाँ सिटी, पूर्णियाँ-854302

E-mail: anujraubau@gmail.com

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