किन्नू में लगने वाले पीड़क एवं उनका समेकित प्रबंधन

किन्नू में लगने वाले पीड़क एवं उनका समेकित प्रबंधन

Integrated Pests management of kinnow

नीबू वर्गीय फल वाली फसलें बहुवर्षीय एवं वृक्ष नुमा होती हैं। भारत में फल उत्पादन की दृष्टि से नीबू वर्गीय फल तीसरे स्थान पर है। इस वर्ग में लगभग 162 जातियाँ आती हैं। इस वर्ग में मेन्ड्रिन नारंगी (किन्‍नों, नागपुर, खासी दार्जिलिंग) को एक बड़े क्षेत्रफल में उगाया जाता है।

किन्नू के लिए कम आर्द्रता, गर्मी और अपेक्षाकृत सुहानी सर्दी अनुकूल होती है। उत्तर-भारत में जहाँ पर तापमान गिर कर 1-66° से 4-40° सेल्सियस तक पहुँच जाता है वहाँ किन्नू के फल अच्छे रंग, स्वाद और अत्यधिक रसदार होते हैं।

भारत में किन्‍नो का क्षेत्र लगभग 56910 हेक्टेयर है जिससे लगभग 1222-66 मेट्रिक टन वार्षिक उत्पादन होता है। किन्नू एवं नारंगी की खेती पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान का उत्तर-पश्चिमी भाग और उत्तर प्रदेश में की जाती है |

किन्नूके लिए बलुई या बलुई दोमट मृदा अच्छे उत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है। नीबू वर्गीय फल की दो किस्मों “राजा (सिट्रस नोबिलिस) व “विलो लिफ” (सिट्रस डेलिसिओसा) के संकरण से किन्‍नो मेन्ड्रिन तैयार किया गया है।

उत्तरी-पश्चिमी भारत में किन्‍नो के प्रवर्धन की सबसे सफल विधि टी बडिंग है जिसको जट्टी-खट्टी या जम्भेरी रुट स्टोक से तैयार किया जाता है तथा अन्य भागों में खरना-खट्टा से वानस्पितिक प्रवर्धन किया जाता है। किन्नू जनवरी-फरवरी माह में परिपक्व हो जाते हैं।

इनके फल के छिलके का विशेष आर्थिक महत्व है तथा फल बड़ी मात्रा में निर्यात किये जाते है। फल की अम्लता, फूलाव, विशिष्ट स्वाद के साथ ही विटामिन “सी” का पर्याप्त श्रोत होने के कारण किन्नों नारंगीं के स्थान पर अधिक लोकप्रिय साबित हुआ है।

किन्नूको पक्षियों के द्वारा भी कम ही क्षति होती हैं। किन्‍नो की खेती के लिए उतरी-भारत मुख्य रूप से प्रसिद्ध है क्योंकि बगीचों के मालिक किन्नूमें लगने वाले प्रमुख कीट व व्याधियों द्वारा उनकी फल क्षति, क्षति की प्रकृति और वातावरणीय अनुकूल प्रबंधन के प्रति जागरुक हो गए हैं।

हानिकारक पीड़क

किन्नू में कई प्रकार के नाशीजीव व बीमारियाँ व्यापक रूप से क्षति पहुंचाते हैं जोकि पत्तों, फलों व फलों, आदि को क्षतिग्रस्त करके उत्पादन एवं फलो की गुणवत्ता में भारी कमी पहुँचाते हैं। कुछ कीट फलों पर आक्रमण करके उनको बाजार के लिए अनुपयोगी बना देते है।

इनमे से कुछ हानिकारक कीटों एवं व्याधियों जैसे सिट्रस पर्ण सुरंगक, सिद्रम सिल्ला, सिट्रस कैन्कर (नासूर), सिट्रस ग्मोसिस, हरितकारी रोग और सिट्रस स्कैब आदि से पंजाब क्षेत्र में अत्यधिक क्षति होती है।

प्रमुख हानिकारक कीट

1. सिट्रस पर्ण सुरंगकः (फिल्लोक्निस्टिस सिट्रेला स्टेनटन, लेपीडोप्टेरा : ग्रेसिलिराइडी )

सिट्रसपर्ण सुरंगक कीट पौधों को नर्सरी अवस्था में मुख्य रुप से नुकसान पहुंचाते हैं तथा यह स्वस्थ नर्सरी उत्पादन में प्रमुख बाधक है। यह मुख्य रूप से नर्सरी रोपण के बाद अत्यधिक  क्षति पहुंचाती हैं। यह सामान्यतःबसंत ऋतु (मार्च-अप्रैल) और शरद ऋतु (सितम्बर-अक्टूबर) के दौरान अक्रामक होती है |

पर्ण सुरंगक का व्यस्क बहुत छोटा, चमकीला-सफेद 2 मिमी लम्बा साथ ही इसके झालरदार पंख होते हैं। आगे वाले पंखों पर भूरे रंग की पट्टियां और किनारे पर एक गहरा काला धब्बा होता है। जबकि पीछे वाले पंख सफेद एवं पंख फैलाने पर 4-5 मिमी होते हैं। वयस्क नई कोमल पत्तियों पर दिखाई देता है।

इसकी मादा अंडे समूह में न देकर अकेले पत्तियों के मध्यशिरा के पास देती है। अंडे छोटे पानी की बूंदों की तरह दिखाई देते हैं और अंडे से लार्वा 3-5 दिन में निकलते है। हल्के पीले रंग की सुन्डियाँ तुरंत पत्ती की एपिडर्मल परतों के बीच खाना शुरू कर देती हैं।

क्षतिग्रस्त पत्ती के किनारे के पास बड़े लार्वा कोषस्थ कीट में बदल जाते हैं। यह अपना जीवन चक्र 2-3 सप्ताह में पूरा कर लेते हैं। पर्ण सुरंगक के क्षति पहुंचाने के विशेष लक्षण आमतौर पर पत्ती की सतह पर सफेद टेढ़ीमेढ़ी सुरंग के रूप में दिखाई देते है।

आमतौर पर प्रत्येक पत्ती पर केवल एक ही सुरंग दिखाई देती है। लेकिन भारी क्षति के कारण एक पत्ती पर कई सुरंग हो सकती है। पत्तियों पर इस सुरंग के कारण पत्तियाँ ऊपर की ओर मुड़कर विकृत हो जाती है जिससे नई पत्तियों में प्रकाश संश्लेषण क्षेत्र भी कम हो जाता है।

सुरंग के कारण पत्तियों के उपरी सतह पर भी गंभीर क्षति देखी जा सकती है। इस कीट के कारण हुआ घाव कैन्कर रोग के विकास के लिए पूर्वाधार प्रदान करता है।

2. सिट्रस सिलला: (डाइफ्रोरिना सिट्राई हेमिप्टेरा: सिल्लिडी)

यह कीट भारद ऋतु एवं वसंत के दौरान नई कोमल पत्तियों पर सक्रिय रहता है लेकिन यह अधिक क्षति मार्च-अप्रैल में फूल और फल बनने के दौरान करता है। यह कीट छोटा, 3-4 मिमी लम्बा, भूरे या हल्के कत्थई रंग का तथा पारदर्शी पंख युक्त होता है। सिल्‍ला अंडो को खुली पत्तियों की कलिया पर देता है जो चमकीले पीले रंग के होते है |

निम्फ आरम्भिक अवस्था में हल्का हरा या नारंगी और अंतिम अवस्था में चकतेदार भूरे पीले नारंगी रंग का होता है। निम्फ व प्रौढ दोनों ही पत्तियों कोमल तनों और फूलों से रस चूसकर नुकसान पहुँचाते हैं।

 जिससे पत्तियाँ मुड़कर सूखना, पतझड़ होना और अन्ततः टहनियाँ भी सूखने लगती हैं। निम्फ सफंद क्रिस्टलीय भाहद जैसे द्रव को श्रावित करते हैं जो कि कवक के विकास को आकर्षित करती हैं फलस्वरूप प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है।

 यह कीट सिट्रस हरितकारी रोग को संचारित करता है। गंभीर नुकसान के कारण पत्तियाँ, कलिकायें व फूल मुरझा जाते हैं।

3. सिट्रस सफेद मक्खी: (डाइलायूरोडिस सिट्राई एशमिड, हेमिप्टेरा: ऐलीरोडिएड )

सफेद मक्खी, नीबू उगाने वाले सभी क्षेत्रो में पाई जाती है। इसका प्रौढ 1—5 मिमी लम्बा, सफेद या भूरे पंख वाला, हल्के पीले नारंगी रंग का शरीर और लाल संकीर्ण आँखों वाला होता है।

निम्फ आकार में अंडाकार स्केल के समान कालेपन के साथ सीमान्तर रोम खड़े और स्थिर होते है। ये बड़ी संख्या में पीले रंग के अडें (150—200) पतियो की नीचली सतह पर देती है। जिससे 10 दिन बाद अंडे से निम्फ बन जाते है। निम्फ पत्तियों की अंदर की सतह पर एकत्रित होकर रस चूसते रहते है।

निम्फ और प्रौढ दोनों ही पेड़ से रस चूसते हैं और मधु जैसा पदार्थ श्रावित करते है। जिससे काली कवक पत्तियों पर विकसित हो जाती है। जिसके कारण फल सहित पूरे भाग काले रंग की परत से ढक जाते हैं। जो कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करते है ।

4. सिट्रस काली मक्खी : (ऐलुरोकेन्थस वोगलुमी एशबी, हेमिप्टेरा: ऐलीरोडिडे )

प्रौढ़ काली मक्खी का उदर भाग गहरे कत्थई रंग का होता हैं तथा उदर के ऊपरी भाग पर दो समान एवं पारदर्शी पंख होते हैं। प्रौढ़ मादा 1-2 मिमी लम्बी होती है और नर 0-8 मिमी लम्बा होता है।

इसके निम्फ स्केल कीट के समान चमकदार काले अन्डाकार तथा इनके किनारों पर नुकीले हुक पाये जाते हैं। प्रौढ़ मार्च-अप्रैल में निकलते हैं और लैंगिक संयोजन के उपरांन्त मादा पीले भूरे रंग के अन्डाकार 15 से 22 अंडे एक समूह में पत्तियों की निचली सतह पर एक सर्पिलाकार ढंग से देती है।

अण्डों से 7 से 14 दिनों में निम्फ बन जाते हैं और निम्फ प्रारम्भिक अवस्था में ही पत्ती की कोशिकाओं से रस चूसना प्रारम्भ कर देते हैं तथा पत्ती के निचली सतह पर ही रहते हैं। काली मक्खियाँ एक वर्ष में अलग अलग दो जीवन चक्र पूरे कर लेती हैं। प्रथम चक्र में प्रौढ़ अप्रैल में तथा द्वितीय चक्र में जूलाई-अक्टूबर भे निकलते हैं।

 प्रौढ़ एवं निम्फ दोनों पत्तियों से रस चूसते है जिसके परिणाम स्वरूप पत्तियाँ मुड़ने लगती हैं। इसके साथ-साथ फूलों की कलियाँ एवं विकसित हो रहे फल पकने से पूर्व गिर जाते हैं जिससे पेड़ की आयु कम हो जाती है।

काली मक्खी के अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों तथा पौधों पर शहद जैसा तरल पदार्थ एकत्रित होता है। जिससे काली मोल्ड (कवक) को पौधे तथा पत्तियों पर विकसित होने के लिए पर्याप्त भोज्य पदार्थ उपलब्ध हो जाता है और कवक विकसित होकर पत्तियों की ऊपरी सतह को काला कर देता है। जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया प्रमावित होती है। जिसके परिणामस्वरूप पौधों की वृद्धि रुक जाती है एवं फूलों की सघनता भी कम हो जाती है जिससे फलोत्पादन भी कम होता है|

5. सिट्स एफिड: (टोक्सोप्टेरा अरान्टी, माइजस परसिकी सुल्जर, एपिस गोसिपाई ग्लोवर हेमिप्टेरा: एफिडिडी )

एफिड एक रस चूसक कीट हैं और इसका शरीर मुलायम होता है जो कि नाशपाती के आकार का दिखाई पड़ता है। इनकी लम्बाई कम से कम 2 मिमी-और रंग में पीले, पीले-हरे से काले रंग के होते हैं। इनके पाँचवे उदर खंड से उत्पन्न होने वाली एक जोड़ी कोर्निक्लस पाई जाती है। एफिड में अनिशेचक जनन होता है।

प्रत्येक एफिड एक से तीन सप्ताह में पांच नए निम्फ उत्पन्न करता है। एक जीवन चक्र पूरा करने में सामान्यतः छः से आठ दिन का समय लगता है। एफिड की तीन प्रजातियों (टोक्सोप्टेरा एयूरॉन्टी (बोयर डे फोन्सकोलोम्बे)) एफिस ग्रोसिपाई ग्लोवर और माइजस परसिकी (सुल्जर) सामान्य रूप से किन्नूके आकस्मिक नाशीजीव कीट हैं, किन्तु अब ये सिट्रस के नियमित रूप से नाशीजीव बनते जा रहे हैं।

टी-एयूरॉन्टी और एपिस गोसिपाई मुख्य रूप से सिट्रस ट्रिसटीजा वायरस (सीटीवी) के प्रमुख वाहक के रूप में पाये गये हैं। निम्फ एवं प्रौढ़ द्वारा मुलायम पत्तियों और प्ररोह का रस चूसने के कारण पत्तियाँ पीली होकर मुड़ने लगती हैं और कार्यिक विकृति के कारण सूखने लगती हैं।

जिससे नए प्ररोह की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और पौधों की वृद्धि रूक जाती है। एफिड के द्वारा उत्सर्जित शर्करा युक्त द्रव पदार्थ पर सूटी मोल्ड (कवक) विकसित हो जाता है। फल आने के समय एफिड का आक्रमण हांने से फल लगने में कमी देखी गयी है।

6. सिट्स फल का रस चूसने वाला कीट, (यूड़ीलिमा फूलोनिका; लीनियस, लेपिडोप्टेरा: नोक्ट्यूडी )

हाल ही में पंजाब के होशियारपुर गुरूदासपुर जुलाई-अक्टूबर के दौरान किन्नूके परिपक्व फलों पर नियमित नुकसान करने वाला यह नाशीजीव कीट पाया गया है। इसके पतंगे रात के समय सक्रिय हो जाते हैं और अपनी लम्बी प्ररोवोसिस के द्वारा फलों से रस चूसते हैं। जिससे फल छिद्र युक्त हो जाते हैं और फलों पर प्रायः रोगजनक कवकों का प्रकोप हो जाता है।

इसके कारण फलों में दुर्गंध आने लगती है और फल परिपक्व होने से पहले ही गिर जाते हैं। केवल प्रौढ़ पतंगे ही किन्नूफलों को नुकसान पहुँचाते हैं। इन कीटों में विशष प्रकार की सुविकसित दाँतेदार नुकीले प्ररोवोसिस होने से ये पतंगे पके हुए फलों को बेधने के लिए सक्षम होते हैं। यू-फ्लोनिका के प्रौढ़ पीले नारंगी भूरे शरीर वाले होते हैं इनके आगे वाले पंख गहरे भूरे एवं पीछे के पंख नारंगी लाल रंग के साथ इनमें दो काली घुमावदार पट्टियां होती हैं।

मादा पतंगे प्रायः अण्डे अन्य पौधों जैसे टीनोस्पोरा कार्डिफोलिया, टी-सेमिलासिना, कोकूलस हिरसूटस, कोनवालवुल्स एरवेन्सिस आदि पर देती है और आठ से दस दिनों में अण्डे से लार्वा (सुन्डिया) निकल आती हैं। सुन्डियों पर, गहरे भूरे साथ में पीले और लाल रंग के धब्बे पाये जाते हैं और इनका आकार अर्द्ध कुण्डलक होता है।

पूर्ण विकसित सुन्डियाँ 50-60 मिमी लम्बी होती हैं तथा ये पृष्ठीय और पार्श्वीय भागों पर गहरे नीले रंग के साथ पीले रंग के धब्बे होते हैं। इसका कोकन (प्यूपा) पारदर्शी पीला-सफेद पत्तियों के आवरण में पाया जाता है। सुन्डियों की 28-35 दिनों की अवस्था होती है और 14-18 दिनों में सुन्डियाँ कोकून अवस्था में परिवर्तित हो जाती है।

7. छाल खाने वाले कीट: (इन्डारबेला कूआड्रिनोटाटा वाकर, लेपिडोप्टेरा: मेटारबेलिडि)

ये कीट पुराने एवं अप्रबन्धित  बागानों में मुख्य रूप से दिखाई  देते हैं। प्रौढ़ पतंगे मई-जून के दौरान सक्रिय रहते हैं। यह आकार में 35-40 मिमी तथा के पीलेभूरे या भूरे रंग के होते हैं। इनके प्रकोप के कारण अक्टूबर-अप्रैल के दौरान सूखी लकड़ी का बुरादा या इसके मल पदार्थ तथा जाले की बनी लटें लटकती हुई दिखाई पड़ती हैं और कभी-कभी दो शाखाएं आपस में सुरंग के रूप में जुड़ी रहती है। प्रौढ़ मादा पौधों की छाल में अण्डे देती है।

अण्डे 8-10 दिन में स्फूटित हो जाते हैं जिनसे से 50-60 मिमी लम्बी सुन्डियाँ निकल आती हैं इनका रंग प्रायः पीला-भूरा होता है। सुन्डियाँ पेड़ की छाल को खाती हैं और पेड़ के अन्दर छेदकर देती हैं। सुन्डियाँ दिन के समय इन सुरंगों में छिपी रहती हैं और रात के समय सक्रिय हो जाती हैं। कई सारी सुन्डियाँ एक ही पेड़ पर अलग-अलग स्थानों पर हमला करती हैं जिससे छाल की गम्भीर क्षति हो जाती है और छोटी शाखाएं सूख भी जाती हैं।

इस प्रकार तने पर बने छिद्र अन्य कीटों या पादप रोगों के संक्रमण के आश्रय सिद्ध हो सकते हैं। प्रभावित शाखाएं प्रकोपित स्थान से दूट जाती हैं। इनके गंभीर संक्रमण से पेड़ों का विकास एवं फल-फूलने की क्षमता निम्न स्‍तर की हो सकती है।

8. सिट्स माइट: (यूटेट्रानिक्स ऑरिएन्टेलिस क्लेन, एकरिना)

सिट्स माइट नीबू के बगीचों में विशेष रूप से मई-जून में पायी जाती है और शुष्क ह वातावरण में इसका गंभीर प्रकोप देखा गया है। पंजाब में इसका प्रकोप किन्‍नों, नारंगी, नींबू अंगूर और खट्टे नीबू में पाया गया है। निम्फ एवं प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों पर धब्बे बना देते हैं जिसके परिणामस्वरूप पत्तियाँ फटकर क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। भारी नुकसान विशेष रूप से युवा पौध अवस्था में होता हैं जिससे पौधों में पूर्ण रूप से पतझड़ हो जाता है तथा बड़े प्रभावित पौधों में फलझड़ होने लगता है और फल पीले पड़ जाते हैं।

प्रौढ़ 0-33 मिमी लम्बे होते हैं एवं इनके शरीर के रैष्टीय पक्ष पर मोटे गहरे भूरे रंग के धब्बे पाये जाते हैं और इनका शरीर कटीले रोमयुक्त रेशों से ढका रहता है तथा प्रत्येक रेशा एक छिद्र युक्त रचना (टयूबरक्ल) से निकलते हैं। माइट मई-जून में सबसे अधिक सक्रिय रहती है। इसी दौरान लगभग 50 अंडे देती है जो कि पतियों की निचली सतह पर शिराओं के साथ व्यवस्थित रहते हैं। अंडे बहुत छोटे, गोल और नारंगी रंग के होते है जो कि पत्ती के ऊतको में धंसे हुए हैं जिनसे एक सप्ताह में निम्फ बन जाते हैं।

नये निकले जोड़ निम्फ हल्के पीले भूरे रंग के होते हैं और इनमें केवल तीन जोड़ी टांगें होती हैं। ये तीन-चार दिन तक पत्तियों से रस चूसते रहते है |इसके बाद त्वचा में विमोचन करके प्रोटोनिम्फ  में बदल जाते है। अब इनमें चार-जोड़ी टांगें बन जाती हैं ।

यह 3 या 4 दिनों तक वृद्धि करके प्रोटोनिम्फ से ड्यूटोनिम्फ में बदल जाते हैं। यह 4-5 दिन तक पत्तियों के खाने के बाद त्वचा विमोचन करके प्रौढ़ माइट में परिवर्तित हो जाते हैं। मादा माईट लगभग 10 दिनों तक ही जीवित रहती है। गर्मियों में यह अपना जीवन चक्र 17 से 20 दिनों में पूरा कर लेती हैं। वयस्क माइट वर्ष भर में कई अतिरिक्त पीढ़ियों के माध्यम से गुजरती है।

9. सिट्रस श्रिप्स: (सरटोश्रिप्स सिट्राई; थाइसेनोप्ट्रेरा: भीपिडी )

वयस्क सिट्रस श्रिप्स का शरीर पीले रंग का होता है, इसकी मादा 0-6 से 0-9 मिमी लम्बी होती है। सामान्यतयः नर, मादा के समान ही दिखाई देता है लेकिन कभी-कभी छोटा होता है। इनका सिर लम्बाई की तुलना में चौड़ा होता है और एन्टीना आठ खण्डयुक्त गहरे एवं हल्के कत्थई होते हैं। नर व मादा दोनों के उदर के ऊपरी भाग पर चार झालर अथवा झाड़ू युकतपंख होते हैं| थ्रिप्स का जीवन चक्र छ: अवस्थाओं से होकर गुजरता है। अण्ड एवं सुन्डी अवस्था, पूर्व एवं पश्च कोकून अवस्था |

अण्डे 0-2 मिमी लम्बे और केले के आकार के होते हैं यह अपने अण्डे नई व वृद्धि करती हुईं पत्तियों, तनो व फल पर देती है, मादा 250 की संख्या तक अण्डे दे सकती है। इसकी एक पीढ़ी पूरी होने में लगभग एक महीने का समय लगता है जो कि वातावरण के तापमान पर निर्भर करता है। सुन्डियों की द्वतीय अवस्था में ये पौधों से गिर कर जमीन में प्रवेश कर जाती हैं जहाँ ये कोकून अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं। परन्तु इसकी कुछ जातियाँ कोकून अवस्था पौधों पर ही प्राप्त कर लेती हैं इनकी यह अवस्था विभिन्‍न कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता प्राप्त कर लेती है।

लार्वा पंख रहित तथा वयस्क के समान प्रतीत होता है। प्रथम और द्वितीय अवस्था पत्तियों एवं ताजे फल को खाते है। जिसके परिणाम स्वरुप पत्तियों एवं फलों की ऊपरी सतह क्षतिग्रस्त हो जाती है। पत्ती की सतह हरितलवक रहित चांदी के समान दिखाई देती है तथा फलों पर इनकी क्षति से भूरे रंग के रिंग बन जाती हैं। कोकन अवस्था में ये निष्क्रिय या सुप्तावस्था में जमीन के अन्दर या पत्तियों पर पड़े हैं। इस अवस्था में पौधों को किसी प्रकार की क्षति नही पहुचती हैं।

किन्नू के हानिकारक रोग

10. सिट्रस का गुमोसिसः ( फाइटोफ्थोरा निकोटीआना )

इस बीमारी से ग्रसित पौधों को इनकी छाल से अधिक मात्रा में गोंद जैसा चिपचिपा पदार्थ निकलने से पहचाना जा सकता है। इससे प्रभावित तने की छाल पर गहरे कत्थई अथवा काले रंग की अनुधैर्य दरारे विकसित हो जाती हैं। इस रोग की अधिकता से छाल सड़ने लगती है। इससे लकड़ी के ऊतक पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है और पौधे सूखने लगते हैं।

इसको बीमारी का गर्डलिंग प्रभाव भी कहते हैं। अधिक वर्षा, जल निकासी न होना, अत्यधिक और सिंचाई की पुरानी प्रचलित (फ्लड) विधि, अत्यधिक पानी के साथ तना और क्राउन के लम्बे समय तक नम रहने, गहरी जुताई, नीची बड़िग और ग्रसित जड़े या तने का स्तंभ सिद्रस का गुमोसिस बीमारी को बढाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं|

पौध अवस्था में फाइटोफ्थोरा निकोटीआना कवक से संक्रमित पौधे (स्टाक) लगाने से नींबू जातीय बगीचों में यह रोग फैलता है। प्राथमिक अवस्था में रोगजनक मिट्टी या संक्रमित जडो में मौजूद हो सकते हैं। तथा रोग के लक्षण तत्काल स्पष्ट दिखाई नहीं देते हैं। रोग कारक कवक किसी रोग वाहक के द्वारा ही गैर पीड़ित पौधे तक गमन करके पौधो या नर्सरी को संक्रमित कर देते हैं।

अनियंत्रित विधि से सिंचाई करने के कारण रोगजनक एक उतक से दूसरे उतक तक आसानी से फैल जाते हैं तथा भारी वर्षा के कारण भी सतह का पानी रोगजनक पौधों से स्वस्थ पौधों तक आसानी से पहुँच सकता है। जिससे रोग कारक कवक स्वस्थ पौधों को भी अपनी चपेट में ले लेते हैं और रोग फैलता चला.जाता है|

11. सिट्रस कैन्कर|नीबू का नासुर: (जैन्थोमोनास सिटाई; उपजाति सिट्राई)

यह भारत में स्थानीय रोग है। यह उन सभी क्षेत्रों में पाया जाता है जहाँ नींबू जातीय फसलें उगायी जाती हैं। यह एक जीवाणु जनित रोग है यह नीबू के पर्ण सुंरगक कीट के द्वारा फैलता है। नासूर सूक्ष्म घाव अथवा धब्बे के रुप में शुरू होता है और 2-10 मिमी व्यास तक पहुँच जाता है।

इसका अंतिम आकार तथा संक्रमण मुख्य रूप से फसल की आयु एवं पौधों के ऊतकों पर निर्भर करता है। घाव शुरू में गोल लेकिन बाद में अनियमित हो जाते हैं | पत्तियों पर घाव के संक्रमण जल्द ही लगभग सात दिनों में अन्दर की तरफ ऊपरी व निचकीःसतहों पर भी दिखाई देने लगते हैं।

इसका प्रभाव प्रायः पत्वी के अग्रभागों या पत्ती के एक सीमित क्षेत्र में हो – सकता है4 घाव बाद में पिचके हुए और कटोरेनुमा आकार में बदल जाते हैं और साथ मे उठा हुआ मध्यशिरा और धंसा हुआ केन्द्र बन जाता है। फल व तने पर विस्तारित घाव 1-3 मिमी गहरे और पत्तियों की पृष्ठीय सतह पर एक समान दिखाई देते हैं।

12. स्कैबः (इलसिनोई फावसेट्टी)

नीबू स्कैब का आक्रमण होने पर फल, पत्तियों कि एवं टहनियों पर हल्का अनियमित उभार युक्त वाहय वृद्धि होने लगती है। यह स्केब भूरे /धूसर या गुलाबी रंग के होते हैं और कालान्तर में गहरे रंग के हो जाते हैं। ये पत्तियों की तुलना में फलों पर अधिक होते हैं।

स्कैब रोग से ग्रसित उठी हुई गॉठ नींबू के कैन्कर और स्केब के रोगों के लक्षणों में भ्रमित करती है। कवक के बीजाणु आसानी से साल भर में नये फल और पतियों पर स्कैब घाव उत्पन्न करत रहते हैं। कवक के बीजाणु बगीचों में वर्षा तथा अतिरिक्त सिंचाई द्वारा और कभी-कभी छिड़काव प्रक्रिया के दौरान फैल जाते हैं।

अधिक ओस पड़ने से भी कवक के बीजाणुओं विभिन्‍न घावों से अन्य जगहों एवं पौधों पर विसरित हो जाते हैं। परन्तु बीजाणुओं का सीमित मात्रा मे बिखराव के कारण इनका संक्रमण केवल स्थानीय ही होता है।

13. हरितकारी ग्रीनिंग बीमारी: (केन्डीडेटस लिबरीबेक्टरएश्यिटिकस )

इस रोग का संक्रमण एवं प्रकोप की दक्षता प्राय: ऋतु,संक्रमण का प्रकार, पौधें की आयु और पोषक तत्वों की उपलब्धता के साथ बदलती रहती है। हरितकारी शेग से संक्रमित पौधों की प्रत्तियाँ सामान्यतः छोटी एवं सीधी हो जाती है। यह लक्षण अक्सर हरी शिशाओं और आन्तरिक शिराओं वाले क्षेत्रों में क्लोरोफिल की कमी के कारण हल्का पीला छोटा स्ता घेरा बन जाता है।

रोग जे ग्रसित विभिन्‍न प्रकार की प्रत्तियाँ चित्तीदार हो जाती हैं इस प्रकार के संक्रमण को बदरंग या चित्तीदार हरिलतकारी रोग कहतें हैं। इस रोग के अत्यधिक प्रकोप्र से पत्तियाँ पीले व हल्के सफेद रंग में परिवर्तित हो जाती हैं जिससे प्रभावित पौधा कमजोर पड़ जाता है और इसके फल छोटे एवं कई परिपक्व होने से पूर्व ही गिर जाते हैं

कभी-कभी फल टहनियों पर लगे रहते हैं लेकिन इनका रंग परिपक्व फल से भिन्‍न:अर्थात समान रूप से पकने जैसा नहीं दिखाई देता अपितु कहीं पीला कहीं हरा प्रतीत होता कारण इस रोग को हरितकारी. रोग कहते हैं। यह रोग प्रायः सिट्रस सिल्‍ला कीट के माध्यम से फैलता है |

14 .नीबू का उल्टा सूखा रोग

उल्टा सूखा रोग से प्रभावित पौधा ऊपरी भाग से नीचे की तरफ सूखना शुरू हो जाता है। नीबू का उल्टा सूखा रोग का विशिष्ट कारण ज्ञात नहीं है परन्तु यह माना जाता है कि कुछ रोग जनक जैसे ट्रिस्टेजा वाइरस का संक्रमण, जिंक तत्व की कमी होना एवं रोग जनक कवकों के संक्रमण को इस रोग का कारण माना जाता है|

इसके साथ-साथ पोषक तत्वों से संबंधित विकार, प्रतिकूल – , दोष पूर्ण व्यवसायिक प्रक्रियएं, कमजोर चयनित सामग्री आदि कारण भी हो सकते हैं। प्रभावित पेड़ों की जड़ों के गलने से, तने में घेरा / खाई, फलों का गिरना, पत्तियों में  झुलसा तथा पत्तियों की प्रारंभिक अवस्था में प्ररोह कें अंतिम भागों पर हल्के भूरे से – गहरे भूरे रंग के रूप में धब्बे दिखाई देने लगते हैं।

अनुकूल जलवायु परिस्थितियों में यह रोग तेजी से फैलता हुआ प्ररोह के अग्र भाग से प्ररोह के नीचे आधार तक पहुँच जाता है। जिससे प्ररोह के मुझनि के लक्षण प्रतीत हाते हैं और प्ररोह अन्त में मर जाता है। संक्रमित पेड़ों पर सामान्यतः भारी मात्रा में फूलन-फलन होता है, छोटे आकार के फूल आते हैं और जड़ गलन के कारण भारी मात्रा में फल गिर जाते हैं व रोग की अधिकता में पेड़ो की छाल भी काली हो जाती है।

समेकित नशीजीव प्रबंधन प्रणाली

भारत के उत्तर पश्चिमी और उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में नारंगी के कीट-रोगों के समेकित प्रबंधन के लिए  परियोजना को 2013-14 से 2019-20 के लिए क्रियान्वित किया गया। परियोजना का प्रमुख उद्देश्य किसान और सहकारी मंडियों के लिए किन्‍नो और खासी नारंगी के लिए प्रभावी एवं उपयुक्त समेकित नाशीजीव प्रबंधन मॉड्यूल तैयार करना तथा उनका वैधीकरण व प्रसार करना था।

किसान की सहभागिता से खेत में प्रदर्शनों के माध्यम से किन्‍नो की हरित बीमारी की.जाँच और इसका प्रबंधन एवं किसानों के खेतों पर ट्राईकोर्डर्मा प्रजातियां और स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस के स्थानीय उत्पादन एवं प्रमुख रोगों जैसे कि फाइटोपथोरा के प्रबंधन के लिए परीक्षण किए गए।

समेकित नाशीजीव जीव प्रबंधन मॉड्यूल का सहयोगी केन्द्र द्वारा प्रदान की गई जानकारी के आधार पर संश्लेषण किया गया जिनका किसानों की सहमागी से वैधीकरण किया गया । इस परियोजना का क्रियान्वयन अर्घ शुष्क क्षेत्र के अंतर्गत कृषि अनुसंधान केंद्र श्रीगंगानगर (राजस्थान) तथा पंजकोसी, फजिलका (पंजाब) में किया गया।

पंजकोसी गांव जिला और तहसील मुख्यालय के साथ अच्छे से जुड़ा हुआ है और इस गाँव में अधिकांश बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं और साक्षरता दर बहुत अधिक है। लगभग 90 प्रतिशत क्षेत्र में खेती की जाती है और नहर के पानी का स्तर ऊँचा होने से सिंचाई हो जाती है परन्तु कई बार जल भराव की समस्या भी पैदा हो जाती है। पहले खरीफ में कपास और रबी मौसम में गेहूं इस क्षेत्र की प्रमुख फसल होती थी लेकिन अब किसान आदानों के उपयोग, कीटनाशक और लाभप्रदता को देखते हुए अन्य फसलों की तुलना में अधिक लाभ मिलने के कारण किन्‍नो के बगीचों का विकास कर रहे हैं।

इसके अलावा किसान अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता के लिए सब्जियों और सरसों की भी खेती कर रहे हैं। 25 प्रतिशत से अधिक किसान अब किन्‍नो की खेती में लगे हुए हैं। 150 कृषि परिवार मुख्य रूप से किन्‍नो की खेती में लगे हुए हैं, इस क्षेत्र में औसत फसल क्षेत्र 150 हेक्टर है जो लगभग नहर सिंचाई क्षेत्र के पास है। फसलों के आर्थिक विश्लेषण के संबंध में यह पाया गया है कि अन्य कृषि योग्य फसलों की अपेक्षा किन्‍नो के बागों से किसानों को उच्च लाभ मिल रहा है क्योंकि किन्‍नो से शुद्ध रिटर्न 15000 रुपये एकड़ से ज्यादा है जबकि गेहूं की खेती से केवल 5000 रुपये से 7000 रुपये प्रति एकड़ और कपास में आदानों के अधिक मात्रा में उपयोग के कारण कोई रिटर्न नहीं मिल रहा है।

औसतन, किसान 43000 – 45000 हजार रुपये किन्‍नो की खेती में खर्च कर रहे थे और 70 क्विं / हेक्टेयर की उपज प्राप्त कर रहे थे जो कि बाजार में 8-14 रुपये प्रति किलोग्राम में बेचा जाता है, इस प्रकार 25,000 / एकड़ का लाभ किसान को मिलता है। कीटनाशकों में मुख्य रूप से कवकनाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है और इनके छिड़काव की आवृत्ति फरवरी से दिसम्बर माह तक की अवधि के दौरान 15-20 हो जाती है।

किसानों द्वारा सामना की जाने वाली प्रमुख समस्याएं पानी का बढ़ता स्तर और खराब गुणवत्ता है जो किन्‍नो बागानों को नुकसान पहुंचाती है, इसके अतिरिक्त रोजगार के साधन में और परिवहन सुविधाओं में कमी भी ग्रामीणों की मुख्य समस्याएं हैं। किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाले बीज, इंडेक्स रोपण सामग्री और अन्य निविष्टियों की उपलब्धता भी नहीं है जिसके कारण कृषि अर्थव्यवस्था प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रही है।


Authors:

शिखा डेक्का1, मीनाक्षी मलिक 2, राज कुमार काकोटी1, मुकेश सहगल2 एवं सुभाष चंद्र2

1सीट्रस रिसर्च स्टेशन तिनसुकिया,असम

2आई.सी.ए.आर.- राष्ट्रीय अनुसंधान समेकित नाशीजीवअनुसंधानकेंद्र,पूसा परिसर,नई दिल्ली

Email: minaxi.2007@gmail.com

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