Production of quality green fodder round the year through intercropping of Napier hybrid Bajra and legume fodder crops

Production of quality green fodder round the year through intercropping of Napier hybrid Bajra and legume fodder crops

नैपियर बाजरा एवं दलहनी चारा फसलों के अन्तः फसलीकरण से सालभर गुणात्मक हरे चारे का उत्पादन 

प्राचीनकाल से ही भारत की ख्याति एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है तथा पशुपालन इसकी उन्नति एवं सफलता में एक अभिन्न घटक के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। दुग्ध उत्पादन के स्तर में आज हम 180 मिलियन टन के आंकड़े को पार कर चुके है।  प्रति पशु दूध उत्पादकता के स्तर में आज भी हमारे देश की गणना बहुत निचे के स्तर पर दर्ज की जाती रही है जो हमारे लिए एक महत्वपूर्ण शोध का विषय है तथा हमें इसमें सुधार करने की आवश्यकता है।

इस कम उत्पादकता के लिए विधमान अनेकों महत्वपूर्ण कारणों में से संतुलित एवं गुणवत्ता युक्त पशु आहार का अभाव एक अहम कारण है। विभिन्न आंकड़ों के अनुसार वर्तमान स्थिति में हमारे देश में लगभग 35 प्रतिशत हरा चारा, 10 प्रतिशत सूखा चारा और 44 प्रतिशत दाना राशन की कमी दर्ज की गई है। जो पशुओ की दुग्ध उत्पादकता को सीधा प्रभावित करता है।

पशुपालन की कुल लागत का लगभग 65 -70 प्रतिशत खर्च केवल उसके आहार प्रबंधन के कारण आता है। जो इस क्षेत्र की लाभदायक भूमिका बनाये रखने में बहुत जरुरी अंश माना जाता है।

पशुओं के पोषण में हरे चारे की भूमिका सबसे अहम मानी जाती है। इसके लिए उन्हे पौष्टिक, सुपाच्य, रसदार एवं स्वादिष्ट हरे चारे की आवश्यकता होती है। उपरोक्त गुणों के साथ – साथ जिसकी उत्पादन लागत कम एवं उत्पादकता ज्यादा हो उस फसल को किसानो में प्राथमिकता से अनुमोदित किया जाना चाहिए। उपरोक्त वर्णित गुणों एवं वर्तमान पर्यावरण परिस्थितियों के अनुसार नैपियर बाजरा इस कड़ी में एक महत्वपूर्ण चारे की फसल के रूप में उगाया जा सकता है।

नैपियर बाजरा पोषक तत्वों से भरपूर हरे चारे की एक बहुवर्षीय चर्चित फसल है जिसे नैपियर घास एवं बाजरा के अंतर-जातीय संकरण से विकसित किया गया है। इसे विभिन्न क्षेत्रो में अलग-अलग स्थानीय नाम से जाना जाता है, जैसे हाथी घास, किंग घास, युगांडा घास एवं बाना घास इत्यादि। इसकी मुख्य विशेषता, इसकी एक बार रोपाई करने के बाद लगातार चार से पांच वर्षों तक पौष्टिक हरा चारा उत्पादन करना है।

इसे कम तापमान वाले क्षेत्रो को छोड़कर सभी वातावरण में सफलता पूर्वक उत्पादित किया जा सकता है। यह फसल सूखा के प्रति सहनशील होती है। इसकी उपज अन्य फसलों की तुलना में अधिक होती है। इसका चारा बहुत ही पौष्टिक, सुपाच्य, रसदार एवं स्वादिस्ट होता है। यह घास गन्ने की भांति लम्बी एवं अनुकूल परिस्थितियों में प्रति पौधा 40 से 50 कल्ले उत्पादन करने की क्षमता रखती है। इसकी पत्तियों की लम्बाई भी लगभग 75-80 से.मी. तक दर्ज की गई है तथा इसके चारे की गुणवत्ता के पैमाने पर इसमें शुष्क पदार्थ के आधार पर 9 -10 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 2 – 3 प्रतिशत ईथर निष्कर्षण, 10 -11 प्रतिशत राख एवं 34 – 38 प्रतिशत रेशा पाया जाता है।

लघु एवं सीमांत जोत वाले किसान भाई भी इस घास को दलहनी चारा फसलों के साथ अन्तः फसलीकरण पद्द्ति से लगाकर वर्षभर हरा चारा प्राप्त कर सकते है। इसके लिए अनुकूल फसल ज्यामिति का अनुपात (नैपियर घास + दलहनी फसल, 2:3 अनुपात) सबसे प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। पशुओं के संतुलित एवं गुणवत्ता पूर्ण आहार के लिए भी घास एवं दलहनी चारे का मिश्रण बहुत ही लाभदायक माना जाता है।

इसको खिलाने से पशुओं की वृद्धि एवं उत्पादकता भी बेहतर दर्ज की गई है तथा सर्दी के समय ( दिसम्बर से फरवरी ) तापमान में अधिक गिरावट के कारण नैपियर की वृद्धि कम हो जाती है जिससे इसके द्वारा उत्पादित होने वाले चारे की उत्पादकता में भी कमी दर्ज की गई है इसलिए रबी ऋतु के दौरान लगातार हरा चारा उत्पादित करने हेतु दलहनी फसलें जैसे – बरसीम, रिजका, सेनजी एवं मटर आदि बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुई है एवं लगातार हरे चारे की आपूर्ति प्रदान करती है

रबी ऋतु के बाद इस स्थान पर लोबिया लगाकर संसाधन का बेहतर उपयोग किया जा सकता है साथ में लगातार हरी घास के साथ दलहनी चारे के मिश्रण से उसकी गुणवत्ता भी बनाए रखी जा सकती है। नैपियर घास के अधिक उत्पादन की स्थिति में इससे हे या साइलेज बनाकर भी लम्बे समय तक सरंक्षित किया जा सकता है।

अन्तः फसलीकरण:-

मुख्य फसल की दो पंक्तियों के मध्य स्थान में एक निश्चित फसल ज्यामिति में दूसरी फसल को उत्पादित करना अन्तः फसलीकरण कहलाता है। भारत के उत्तरीय मैदानी क्षेत्रो में अप्रैल से जून एवं नवम्वर से फरवरी तक हरे चारे के उत्पादन में बहुत कमी देखी जाती है जिसे सामान्यतया लीन समय के नाम से जाना जाता है अप्रैल से जून के समय अधिक तापमान एवं पानी की कमी एवं नवम्वर से फरवरी में बहुत सर्दी के कारण तापमान लगभग हिमांक बिंदु तक पहुँच जाता है इस परिवर्तन के कारण चारे की अन्य फसलों के प्रदर्शन में कमी देखी गई है

कम तापमान के कारण नैपियर की की पैदावार भी बहुत कम हो जाती है अत: भूमि के समुचित उपयोग एवं लगातार हरा चारा उत्पादित करने के लिए इसकी कतारों के बीच में अन्तः फसलीकरण पद्धति से दलहनी चारे फसल जैसे बरसीम, लूसर्न, सेनजी एवं मटर आदि को उगाया जा सकता है। इसी प्रकार गर्मियों में लोबिया, ग्वार एवं मूंग को अन्तः फसलीकरण फसल के रूप में लिया जा सकता है। जिससे लगातार हरे चारे की उपलब्ध्ता बनी रहती है।

अन्तः फसलीकरण फसल पद्धति के फायदे :-

⦁ प्रति हैक्टर अधिक उत्पादन के साथ-साथ चारे की गुणवत्ता में भी सुधार पाया गया है।
⦁ यह मिश्रण पशुओं में संतुलित आहार की आपूर्ति सुनिश्चित करता है।
⦁ दलहनी फसलें वायुमंडलीय नत्रजन का स्थरीकरण करके सहयोगी फसल को नत्रजन प्रदान कर बाहरी उर्वरकों से निर्भरता को कम करती है।
⦁ दलहनी फसलों के अंतवर्तीय उपयोग से नेपियर घास के चारे की गुणवत्ता में सुधार देखा गया है।
⦁ चारा उत्पादन लागत भी अन्य फसलों की अपेक्षा में कम दर्ज की गई है।
⦁ वर्षभर हरे चारे की उपलब्धता बनी रहती है।
⦁ इस फसल पद्धति से कीट एवं बीमारियों का प्रकोप भी कम देखा गया है।
⦁ खरपतवार की समस्या भी बहुत कम देखी गई है।
⦁ इस मिश्रण से मृदा की उपजाऊ शक्ति को भी बनाए रखा जा सकता है।
⦁ यह मृदा अपरदन रोकने में भी सहायक है।
⦁ प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग किया जा सकता है।

तालिका न.1- नैपियर बाजरा, लोबिया एवं बरसीम में विभिन्न पोषक तत्त्वों की औसत मात्रा (प्रतिशत में)

फसलें  शुष्क पदार्थ  प्रोटीन  ईथर निष्कर्षण राख  एन.एफ.ई.  एन.डी.एफ.  ए.डी.एफ.  हेमि-सेलुलोज 
नैपियर   19-20  9-10   2-3    10-11  46-48   67-68    37-38  29-30 
लोबिया 16-17 17-18 2.5-3 10-11  42-43  46-47  30-31  16-17
बरसीम 15-16 17-18  2.5-3  13-14  40-41  34-35 24-25 10-11

फसलें शुष्क पदार्थ प्रोटीन ईथर निष्कर्षण राख एन.एफ.ई. एन.डी.एफ. ए.डी.एफ. हेमि-सेलुलोज

नैपियर बाजरा के लिए जलवायु :-

नैपियर की अच्छी पैदावार के लिए गर्म एवं नमी युक्त जलवायु उपयुक्त होती है तथा इसकी अच्छी बढ़वार के लिए औसत तापमान 24-28 ॰C (सेल्सियस) सबसे अनुकूल माना जाता है। इसकी खेती 100 से.मी. वर्षा वाले क्षेत्रो में सफलता पूर्वक की जा सकती है। खेत में एक बार स्थापित होने पर यह नमी की कमी एवं अधिक तापमान के प्रति सहनशील होती है।

नैपियर बाजरा के लिए उपयुक्त भूमि :-

यह भारत की सभी मृदाओ में आसानी से उगाई जा सकती है। यद्धपि इसकी अच्छी पैदावार के लिए उचित जल निकास, दोमट या बलुई दोमट भूमि अच्छी मानी जाती है। सामान्यत इसे 5.5 पी.एच. मान तक की भूमि में भी आसानी से उत्पादित किया जा सकता है इसकी जड़ें विस्तृत होने के कारण यह मृदा को मजबूती से जकङ कर मृदा को कटाव से रोकती है। इसकी खेती से जड़ों द्वारा लगातार जीवाश्म पदार्थ प्राप्त होने से मृदा की उर्वरा शक्ति को भी बनाए रखती है।

खेत की तैयारी :-

सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करनी चाहिए । इसके बाद कल्टीवेटर से एक या दो जुताई करके पाटा से भूमि को समतल कर लेना चाहिए। जुताई के समय गोबर की सड़ी हुई खाद को मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।

नैपियर बाजरा बीज प्रबंधन:-

नैपियर घास बीज उत्पादन करने में सक्षम नहीं होती है इस कारण से इसे गांठ दार तना या जड़दार कल्लो को बीज की रुपाई के लिए उपयोग में लिया जाता है। अच्छे बीज के लिए नैपियर के पौधो को 100 दिनों तक नहीं काटना चाहिए। जिससे पौधे सख्त एवं पूरी तरह से परिपक़्व हो जाते है जो इसके बीज के लिए सर्वोत्तम माना जाता है रोपाई की लिए तना को इस प्रकार काटते है कि प्रत्येक तने की कटिंग में दो गाँठ होनी चाहिए। कल्लेदार जड़ों से भी इसकी रोपाई कर सकते है।

नैपियर बाजरा रोपाई :-

इस घास में बीज नहीं बनने से इसकी रोपाई जड़ दार कल्लों या तनों के टुकड़ों से की जाती है। इसकी रोपाई सर्दी को छोड़कर वर्ष भर किसी भी समय में की जा सकती है। सिंचाई की व्यवस्था होने पर फरवरी-मार्च का महीना उपयुक्त होता है इसकी रोपाई के लिए प्रति हैक्टर 35,000 जड़दार कल्लों की आवश्यकता होती है। तथा अन्तः फसलीकरण पद्धति के लिए लगभग 20,000 टुकड़ों की आवश्यकता पड़ती है।

इसकी रोपाई पंक्तियों में की जाती है। इसके लिए तने में दो गांठ होनी चाहिए जिसे 45 डिग्री के कोण पर इस प्रकार लगाते है कि एक गांठ जमीन के नीचे और एक जमीन के ऊपर होनी चाहिए। अकेले नैपियर बाजरा की खेती के लिए कतार से कतार की दूरी 50 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 50 से.मी. रखते है तथा अंतवर्तीय फसल उगाने के लिए कतार से कतार की दूरी 100 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 50 से.मी. रखते है।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन:-

नैपियर एक अधिक उपज देने वाली बहुवर्षीय घास है जिसके कारण इसे अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। अत: बुवाई से पहले गोबर की खाद को 10 से 15 टन प्रति हैक्टर की दर से जुताई के समय मृदा में मिला देना चाहिए।

इसके आलावा रोपाई के ठीक पहले 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 50 कि.ग्रा. पोटाश एवं 20 कि.ग्रा. ज़िंक सल्फेट प्रति हैक्टर की दर से उपयोग अनुमोदित किया गया है इसके बाद प्रत्येक कटाई के उपरांत 30 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए जिस से इसकी आगामी वृद्धि त्वरित दर से हो सके ।

सिंचाई एवं जल निकास :-

जड़ो को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए जड़ दार कल्लों रोपाई के बाद सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। जब तक पौधे भली भांति खेत में स्थापित न हो जाए तब तक 6 से 8 दिन के अंतर से 2 से 3 बार सिंचाई करनी चाहिए। गर्मियों में अप्रेल से जून तक 10 से 12 दिन तथा सर्दियों में 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना अनिवार्य है

सामान्यता: वर्षात के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु लगातार तीन सप्ताह तक वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए। प्रत्येक कटाई के उपरांत सिंचाई जरूर करना चाहिए जिससे पौधो की पुनर्वृद्धि तेजी से होने से उपज भी अधिक मिलती है। वर्षात के पानी का खेत में भराव न हो इसके लिए जल निकास का उचित प्रबंध आवश्यक होता है।

निराई – गुड़ाई :-

नैपियर बाजरा की रोपाई के 1.0 से 1.5 माह तक इसकी बढ़वार में वृद्धि कम होती है जिससे खेत में खरपतवार की संख्या प्रभावी हो जाती है। परन्तु नैपियर के साथ दलहनी फसल को अन्तः फसलीकरण पद्धति में लगाने से खरपतवार की संख्या में भारी कमी देखी गई है इसके उपरांत भी कतारों के बीच में कुछ खरपतवार दिखाई देने पर इनको निराई – गुड़ाई करके नियंत्रित किया जाना चाहिए।

जब यह घास एक बार अच्छी तरह स्थापित हो जाती है तब खरपतवार स्वत: ही दब जाते है तथा वर्षा के समय इसकी निदाई गुड़ाई करने से फसल के सूक्ष्म वातावरण में सुधार होता है जो पौधो की वृद्धि के लिए लाभदायक रहता है।

कटाई प्रबंधन :-

चारे की पैदावार एवं उसकी गुणवत्ता का सीधा सम्बन्ध उसकी कटाई से होता है। इसके लिए इसकी पहली कटाई रोपाई के दो माह के बाद करनी चाहिए तथा बाद की कटाईयाँ ग्रीष्म काल में लगभग 40 से 45 दिन एवं वर्षा ऋतु में 35 से 40 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। इस घास की कटाई जमीन से लगभग 15 से 20 से.मी. की ऊंचाई से करने पर पौधो में स्फुटन शीघ्र होता है।

इस प्रकार ऊपर में लिखित सभी सस्य विधियों का पालन करने से एक वर्ष में लगभग 6-8 कटाईयाँ ली जा सकती है तथा साथ में ली गई अन्तः फसलीकरण दलहनी फसल जैसे लोबिया, ग्वार, बरसीम, लूसर्न, मटर, सेनजी की कटाई अनुमोदित की गई अवधि से ही करना चाहिए।

उपज :-

इस घास के एक बार स्थापित होने के बाद 4 से 5 वर्ष तक लगातार हरे चारे की अच्छी उपज प्राप्त होती है। एकल संकर नैपियर घास से प्रति वर्ष प्रति हैक्टर लगभग 160 से 225 टन हरे चारे की पैदावार ली जा सकती है तथा इसे अन्तः फसलीकरण फसल विधि से दलहनी फसलों के साथ लगाने पर इसकी पैदावार को प्रति हैक्टर लगभग 220 से 300 टन तक प्राप्त किया जा सकता है।

तालिका न. 2 – नैपियर आधारित अन्तः फसलीकरण फसल प्रणाली का प्रदर्शन

नैपियर आधारित फसल प्रणाली हरा चारा (टन / हैक्टर)
नैपियर बाजरा संकर 160-225
नैपियर बाजरा संकर + लोविया -बरसीम 250-300
नैपियर बाजरा संकर + लोविया – बरसीम + चाइनीज सरसो 250-300
नैपियर बाजरा संकर+ लूसर्न 200-225

निष्कर्ष:

भारत की वृहत आबादी की खाद्य आपूर्ति हेतु भूमि संसाधनों पर दबाव को ध्यान में रखकर हमारे देश में विधमान 53.6 करोड़ पशुधन की खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु हमें उन सभी विधियों एवं तकनीकियों को बढ़ावा देने की जरुरत है जो कम लागत के साथ साथ प्रति क्षेत्रफल उत्पादन भी बड़ा सके। इस कड़ी में नैपियर घास की दलहनी फसलों के साथ अन्तः फसलीकरण विधि द्वारा किसान भाई कम लागत में अधिक गुणात्मक हरे चारा के साथ साथ अधिक मुनाफा भी प्राप्त कर सकते है।


Authors:
राजेश कुमार मीना, हरदेव राम एवं राकेश कुमार
भा.कृ.अनु.प. – राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल (हरियाणा)-132001
Corresponding author email-rajeshkumar2793@gmail.com

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