Importance of water use efficiency in wheat crop
कृषि, उधोग तथा घरेलू उपयोगों में पानी की लगातार बढ़ती हुई मांग के मध्यनजर भविष्य में पर्याप्त जल की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक वैश्विक चुनौती है। वैश्विक स्तर पर कृषि सम्बंधित कार्यों के लिए लगभग 70 प्रतिशत जल का उपयोग हो रहा है जो सर्वाधिक है। हालांकि अच्छी गुणवत्ता वाले जल का सिंचाई में प्रयोग काफी सीमित है, किन्तु लगातार बढ़ते हुए शुष्क क्षेत्रों एवं पर्यावरण के बदलते रूप के कारण पानी की बढ़ती कमी एक चिंतनीय विषय है।
बदलते जलवायु परिवेश के संदर्भ में न केवल उपलब्ध जल का विवेकपूर्ण उपयोग जरूरी है अपितु कम जल उपयोग द्वारा अच्छा उत्पादन देने वाली तकनीकों की भी पूरे विश्व को आवश्यकता है। अतः कृषि के क्षेत्र में जल उपयोग को सीमित करने के लिए ऐसी फसल प्रजातियां विकसित करनी होंगी जो कम सिंचाई में नहीं बल्कि, भूमि में उपस्थित संरक्षित जल का उपयोग करके भी फसल उत्पादन में सुधार करने में सक्षम हों।
जल उपयोग दक्षता उत्पादन वृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। अधिक जल उपयोग दक्षता के लिए वांछनिय विशेषता युक्त प्रजातियां तथा सिंचाई के उपयुक्त तरीकों का उपयोग अत्यंत आवश्यक है। वर्षा की कमी, बढती जल मांग तथा बढ़ते तापमान के कारण भूमि का जल स्तर लगातार घटता जा रहा है।
जिसके कारण शुष्क भूमि के क्षेत्रों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इस प्रकार की समस्या से लड़ने के लिए हमें प्रकृति के साथ मिलकर बदलती परिस्थ्तिियों के अनुरूप फसल किस्मों तथा बदलते परिवेश के अनुरूप शष्य क्रियाओं में बदलाव लाने की तात्कालिक जरूरत है, जिन्हें अतिशीघ्र अपनाना भी चाहिए।
जल उपयोग दक्षता का अर्थ
जल उपयोग दक्षता का अर्थ है उपलब्ध जल का उचित उपयोग करके अधिकाधिक उपज प्राप्त करना। हमें शुष्क क्षेत्रों के लिए फसल के जैव भार में वृद्धि करनी होगी। जिससे बालियों में दानों की संख्या को बढ़ाया जा सके। इसके लिए जल उपयोग दक्षता को बढ़ाना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। फसल उपज के संदर्भ में जल उपयोग दक्षता को सूत्रों के द्वारा और भी अच्छी तरह से समझ सकतें है।
GY = W X WUE X HI
यहाँ
GY= अनाज उत्पादन (Grain Yield)
W= खेत से फसल द्वारा किया गया वाष्पोत्सर्जन (Total amount of water transpired by the crop and evaporates from the field)
HI= फसल सूचकांक (Harvest Index) = उत्पादित अनाज / कुल जैवभार (Grain yield /Total biomass)
संक्षेप में जल उपयोग दक्षता को दो प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं।
1. फसल (पौधों) में चयापचय क्रिया के द्वारा जल उपयोग तथा जल हानि के अनुपात को जल उपयोग दक्षता कहते हैं।
2. जल उपयोग दक्षता में वाष्पोत्सर्जन दर का उपयोग करके जैवभार में वृद्धि के अनुपात को जल उपयोग दक्षता कहते हैं।
WUE=TE (1+Es/T)
TE= वाष्पोत्सर्जन दक्षता (Transpiration efficiency)
Es= मृदा की सतह से वाष्पीकृत जल (Water lost by evaporation from the soil surface)
T= फसल द्वारा वाष्पीकृत जल (Water lost though transpiration by the crop)
जल उपयोग दक्ष किस्मों के आवश्यक लक्षण (Significant symptoms of WUE varieties)
पिछले कुछ दशकों में कृषि वैज्ञानिकों ने ऐसी प्रजातियां विकसित की हैं जो कम जल आपूर्ति में भी अच्छी उत्पादकता प्रदान करती हैं। जल उपयोग दक्षता का पता लगाने के लिए इन प्रजातियों को निर्धारित सिंचाई की अपेक्षा कम नमी/ सिंचाई की परिस्थितियों में उगा कर वैज्ञानिक रणनीतियों द्वारा अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।
वर्गीकरण के पश्चात वैज्ञानिक मापदंडों (RWC, NDVI, Yield) के आधार पर जल उपयोग दक्ष प्रजातियों की पहचान की जाती है। कम नमी की अवस्था में भी इन प्रजातियों के कुछ लक्षण इन्हें बाकी प्रजातियों से श्रेष्ठ बना कर अच्छी उत्पादकता देने में सहायता करते हैं यह लक्षण निम्नलिखित प्रकार से हैं।
जड़िय लक्षणः
जड़ पौधे का एक महत्वपूर्ण भाग है। ऐसी प्रजातियां जिनकी जड़े भूमि में गहराई तक पहुंच कर जल अवशोषित करती हैं। जल उपयोग दक्षता को बढ़ावा देती है। इसके अतिरिक्त सहायक तथा गौण जड़ों की संख्या भी पौधों की जल उपयोग दक्षता को बढ़ावा देने में सहायता करती है।
ऐसे स्थान जहाँ पर नियमित वर्षा नहीं होती या जहाँ पर सिंचाई के लिए सीमित जल की उपलब्धता है। ऐसे स्थानों पर गहरी जड़ों वाली प्रजातियों का महत्व और भी बढ़ जाता है। भूमि की अन्तः परतों में उपस्थित जल वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन दोनों से सुरक्षित रहता है तथा पौधे के विकास के अंतिम चरणों में फसल सूचकांक को बढ़ाता है।
गेहूँ जैसी एक वर्षीय फसल में तो जड़ के लक्षणों का महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि वैज्ञानिक परिक्षणों से यह ज्ञात हुआ है कि प्रति 10 सेंटीमीटर जड़ की लम्बाई 0.5 टन हैक्टर उपज को बढ़ाती है।
पत्तियों पर मोमी आवरणः
पौधे की पत्तियों पर उपस्थित मोमी परत का आवरण वाष्पोत्सर्जन को नियंत्रित करने में सहायक है, साथ ही यह मोमी परत पौधे को बाह्य वातावरण में होने वाले परिवर्तनों जैसे तापमान में बढ़ोत्तरी, जल की कमी इत्यादि से बचाकर पौधे के तापमान को संतुलित करने में भी सहायता करती है।
नियंत्रित वाष्पोत्सर्जनः
मोमी परत के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे लक्षण हैं जो जल की कमी की अवस्था में पौधे की दक्षता को बढ़ा कर उपज को बढ़ाते हैं, जैसे पौधे पर उपस्थित रोएं तथा उपत्वचा। यह लक्षण न केवल पौधे की सतह से होने वाली जल हानि को रोकते हैं, अपितु पौधे की कैनोपी को ठंडा रख उसे अजैविक तनाव (सूखा,गर्मी) की स्थिति से लड़ने में भी सक्षम बनाते हैं।
रंध्रः
पौधे की पत्तियों पर उपस्थित रंध्रों की कार्य पद्धति, संख्या तथा व्यवहार पौधे को शुष्क वातावरण में अनुकूलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह रंध्र पौधे में प्रकाश संश्लेषण तथा वाष्पोत्सर्जन दोनों ही प्रक्रियाओं को विनियमित करके उपलब्ध जल का सही उपयोग करते हैं।
जल उपयोग दक्षता का पता लगाने की विधि (Detecting WUE in crop varieties)
फसल प्रजातियों की जल उपयोग दक्षता का पता लगाने के लिए कई वैज्ञानिक विधियों की पहचान की गई है, जो इस प्रकार से है:-
1. पोर्टेबल प्रकाश संश्लेषण प्रणालीः
पोर्टेबल प्रकाश संश्लेषण मीटर द्वारा गैस विनिमय मापदंडो का आंकलन करके पौधे की प्रकाश संश्लेशण दक्षता का पता लगाया जा सकता है। जल उपयोग दक्षता का पता लगाने के लिए प्रति ईकाई पत्ती के क्षेत्र द्वारा नियत की गई कार्बन डाई आॅक्साईड तथा पत्ती द्वारा वाष्पीकृत जल के अनुपात का प्रयोग एक वैज्ञानिक विधि है जिसके द्वारा किसी भी प्रजाति की जल उपयोग दक्षता की गणना की जा सकती है।
2. स्थिर कार्बन आइसोटोपः
प्रजातियों की बड़े पैमाने पर तुलना करने के लिए इस विधि का तेजी से प्रयोग किया जा रहा है। कार्बन आइसोटोप 13C (%) का जल उपयोग दक्षता के साथ नकारात्मक सम्बंध पाया गया है।
3. प्रारम्भिक ओजः
पौधे की वृद्धि की प्रारम्भिक अवस्था में कैनोपी का तीव्र विकास एक सकारात्मक लक्षण है। तेजी से बढ़ता कैनोपी कवर मिट्टी को ढक कर वाष्पीकरण को घटाता हैए जिससे मृदा में नमी अधिक दिनों तक बनी रहती है। कैनोपी कवर से जल उपयोग दक्षता में 25 प्रतिशत तक वृद्धि देखी गई है।
जल उपयोग दक्षता बढ़ाने में सस्य क्रियाओ का महत्वः
जल उपयोग दक्षता को सस्य विज्ञान की विभिन्न क्रियाओं द्वारा भी बढ़ाया जा सकता है। जैसे -उचित किस्म, बिजाई का समय, बीज दर, सिंचाई का तरीका, बुआई की विधि, खाद अनुप्रयोग, अन्तर सस्यन, नमी को संरक्षित रखने के तरीके इत्यादि।
किस्म- गेहूँ की किस्मों को अगेती तथा पिछेती दो मुख्य प्रकार से बांटा गया है, और इन दोनों प्रकार की किस्मों के लक्षणों का अलग-अलग प्रकार की जल उपयोग दक्षता के साथ सह सम्बंध देखा गया है, जिससे वह भूमि में उपस्थित जल की मात्रा का सटीक उपयोग करके अच्छी ऊपज दे। इस प्रकार की प्रजातियों का प्रयोग कर लागत को कम किया जा सकता है।
पौधे लगाने की विधि- मृदा की ऊपरी सतह से होने वाला वाष्पोत्सर्जन अप्रत्यक्ष रूप से जल उपयोग दक्षता को प्रभावित करता है। मृदा में उपस्थित जल वाष्पोत्सर्जन के द्वारा वायुमण्डल में चला जाता है, जिससे मृदा शुष्क हो जाती है। इस कमी का प्रभाव पौधों की जल उपयोग दक्षता पर पड़ता है।
अतः हमें पौध लगाने की ऐसी विधि का प्रयोग करना चाहिए जिससे मृदा की ऊपरी सतह से होने वाली नमी की हानि को कम किया जा सके तथा मृदा की नमी को संरक्षित किया जा सके। सतह पर बिजाई तथा सिंचाई की अपेक्षा मेढ़ विधि से बिजाई कर सिंचाई में प्रयुक्त होने वाले जल की मात्रा को कम करके अच्छी पैदावार ली जा सकती है।
पोषक तत्व- पौधों को अच्छी वृद्धि के लिए उर्वरक एवं खाद की आवश्यकता होती है। जैसे-नत्रजन, फास्फाॅरस, पोटाश एवं जैविक खाद इत्यादि। पौधों को इन तत्वों का समुचित उपयोग करने के लिए जल की आवश्यकता होती है। अतः यदि खाद उपयुक्त मात्रा में दिया जाए तो जल उपयोग दक्षता में वृद्धि की जा सकती है। जैसे उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में गेहूँ की फसल में नत्रजन की मात्रा 150 किलोग्राम/हैक्टर की दर से दी जाए तो गेहूँ की फसल की जल उपयोग दक्षता को बढ़ाया जा सकता है। साथ ही अगर यूरिया को खेत में डालने के पश्चात सिंचाई की जाए तो फसल के लिए उसकी उपयोगिता बढ़ जाती है।
जुताई- यदि खेत तैयार किये बिना ही जीरो टीलेज मशीन (जीरो टीलेज सीड ड्रील) की सहायता से सीधे बीजाई करें तो खेत में सिंचाई की आवश्यकता कम होगी। इसके साथ ही जीरो टीलेज मशीन के द्वारा बीजाई से फसल जड़ों की वृद्धि, जल उपयोग दक्षता, नत्रजन उपयोग दक्षता इत्यादि को बढ़ाती है।
पलवार- यदि हम गेहूँ की फसल में पलवार का उपयोग करें तो पानी की बचत की जा सकती है। पलवार का तात्पर्य किसी फसल या खरपतवार के सूखे हुए पुआल से है, जैसे की धान का पुआल। धान का पुआल गेहूँ के खेत में बिछाने से उस खेत की नमी को काफी दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। जिससे सिंचाई की आवश्यकता कम होगी तथा पौधे की वृद्धि के अंतिम चरणों में पौधे की विकास प्रक्रिया बाधित नहीं होगी, इस प्रक्रिया द्वारा भूमि से होने वाले वाष्पोत्सर्जन को 30-60 प्रतिशत तक रोका जा सकता है।
टपका सिंचाई- यह सिंचाई की वह विधि है जिससे जल को मंद गति से बूंदों के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाईप से दिया जाता है। इस विधि में जल का उपयोग अल्पव्यापी तरीके से होता है। जिससे सतही वाष्पन एवं भूमि रिसाव से जल की हानि कम से कम होती है। इस विधि द्वारा पानी देने से पौधे की जल उपयोग दक्षता को 90 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है।
जल उपयोग दक्षता का भविष्य में उपयोगः
आने वाले समय में पानी की कमी की समस्या लगातार बढ़ेगी। अतः हमें ऐसी किस्मों का उत्पादन करना होगा जो कम पानी होने पर भी अच्छी उपज प्रदान करें। इस प्रकार की प्रजातियों का उपयोग किसानों के लिए वरदान साबित होगा। अच्छी जल उपयोग दक्षता वाली किस्मों का उपयोग करके सिंचाईयों की संख्या में कमी की जा सकगी।
पौधे/फसलों की जल उपयोग दक्षता को बढ़ाना न केवल समय की मांग है, अपितु भारत के आर्थिक रूप से पिछड़े किसान वर्ग की उन्नति की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है। “जल नहीं तो कल नहीं“ अतः भावी पीढ़ी को एक सुरक्षित कल देने के लिए जल संसाधनों को संरक्षित कर उपज को बढ़ाना ही कृषि विज्ञान का एक प्रमुख लक्ष्य है
। इस दिशा में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काम किया जा रहा है तथा कई ऐसी प्रजातियों की पहचान भी की जा चुकी है। इन प्रजातियों को फसल प्रजनन कार्यक्रमों में उपयोग करके जल उपयोग दक्ष प्रजातियों को किसान के खेत तक पहुँचाया जा रहा है। जिससे किसान की लागत में कमी आएगी तथा उत्पादन में वृद्धि होगी।
Authors:
1रिंकी, 2माम्रुथा एच एम, 3राज पाल मीणा, 4कृष्णा गोपाल, 5वनिता पांडेय, 6प्रियंका चंद्रा, 7रविश चतरथ एवं 8जी पी सिंह
1,2,5,6वैज्ञानिक, 3वरिष्ठ वैज्ञानिक, 4सीनियर रिसर्च फ़ेलो, 7प्रधान वैज्ञानिक, 8निदेशक,
भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल,
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