हल्दी की वैज्ञानिक खेती

हल्दी की वैज्ञानिक खेती

Scientific cultivation of Turmeric

हल्दी की खेती सामान्यत: सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। उचित जलनिकास वाली बलुई दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश की अच्छी मात्रा हो, हल्दी के लिये उपयुक्त होती है। इसकी अच्छी पैदावार के लिये भूमि का पी एच मान 5.0-7.5 के बीच होना चाहिए।

चिकनी मिट्टी, क्षारीय भूमियों तथा पानी ठहरने वाले स्थान पर विकास रुक जाता है। इसकी खेती बगीचों में अंतरवर्तीय फसल के रूप में भी की जा सकती है।

हल्दी की खेती के लि‍ए भूमि

हल्दी की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये भूमि की अच्छी तैयारी करने की आवश्यकता होती है क्योंकि यह जमीन के अंदर होती है जिससे जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाया जाना आवश्यक हैं। मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करके 3-4 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करना चाहिए।

हल्दी की उन्नतशील प्रजातियाँ

सुगंधा, रोमा, सुरोमा, सी.ओ.-1, कृष्णा, राजेन्द्र सोनिया, सुगुना, सुदर्शन,सुवर्णा, प्रभा, प्रतिभा.

हल्‍दी में बीज की मात्रा
बीज की मात्रा प्रकन्दों के आकार व बोने की विधि पर निर्भर करता है। शुद्ध फसल बोये जाने के लिये 20-25 क्विंटल जबकि मिश्रित फसल हेतु 12-15 क्विंटल प्रकन्द की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है। प्रकन्द 7-8 सेमी लम्बे तथा कम से कम दो आंखों वाले होने चाहिये। यदि कन्द बड़े हो तो उन्हे काटकर बुवाई की जा सकती है।

हल्‍दी में बीजोपचार
बुवाई के पूर्व प्रकन्दों को थिरम या मैंकोजेब नामक किसी एक दवा की 2.5 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर बीज को 30-50 मिनट तक उपचारित करके छाया में सुखाकर बुवाई करनी चाहिये। भूमि में यदि दीमक लगने की सम्भावना हो तो उपरोक्त रसायनों में क्लोरोपाईरीफॉस की 2 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से मिलाकर उपचारित करना चाहिये।

हल्‍दी बुवाई का समय तथा विधि

हल्दी की बुवाई 15 अप्रैल से 15 जुलाई तक की जाती है। आमतौर पर किसान हल्दी की बुवाई समतल क्यारियों में करते है। परंन्तु जहां पर पानी रुकने की संभावना हो वहां पर हल्दी की बुवाई 15-20 सेमी. उंची मेड़ों पर भी की जा सकती है। समतल खेत में तैयारी के बाद 5-7 मीटर लम्बी व 2-3 मीटर चौड़ी क्यारियां बनाते हैं।

ध्यान रहे क्यारियों में जल निकास की उचित व्यवस्था हो। इन क्यारियों में प्रकन्दों की पंक्ति से पंक्ति 40 सेमी. की दूरी पर 15-20 सेमी के अन्तराल पर 5-6 सेमी की गहराई पर बुवाई करते हैं।

बुवाई के पश्चात खेत में नमी बनाये रखने तथा खरपतवार के नियन्त्रण के लिये सूखी घासफूस, पत्ती, पुआाल या भूसे को पलवार के रूप में मोटी परत बिछाने से जमाव शीघ्र होता है तथा उपज में 40 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी पाई गई है।

हल्‍दी में खाद एवं उर्वरक
हल्दी की बेहतर उपज प्राप्त करने के लिये खाद एवं उर्वरक की संतुलित मात्रा में समयानुसार प्रयोग करना आवश्यक होता है। इसके लिये प्रति हेक्टेयर 20-25 टन गोबर या कम्पोस्ट की सड़ी हुई खाद, 100-120 किग्रा नत्रजन, 60-80 किग्रा स्फुर तथा 80-100 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है।

खेत की जुताई से पहले गोबर की खाद को खेत मे अच्छी तरह से मिला देते हैं। इसी प्रकार अंतिम जुताई के समय नत्रजन की आधी मात्रा, पोटाश व स्फुर की पूरी मात्रा को खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये।

नत्रजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर खड़ी फसल में पहली मात्रा बुवाई के 40-60 दिन बाद एवं दूसरी मात्रा 80-100 दिनों बाद देकर हल्की मिट्टी चढ़ाना चाहिये। हल्दी की खेती हेतु पोटाश का बहुत महत्व है। जो किसान इसका प्रयोग नही करते हैं हल्दी की गुणवत्ता एवं उपज दोनो प्रभावित होती है।

सूक्ष्म तत्वों में जिंक सल्फेट व आयरन सल्फेट को 50 किग्रा प्रति हेक्टेयर देने से उपज में वृद्धि पाई गयी है।

हल्‍दी में सिंचाई
चिकनी दोमट या मटियार भूमि में हल्दी की खेती करने से सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है किन्तु हल्की भूमियों में सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है। बुवाई के बाद वर्षा न होने तक 4-5 सिंचाई की आवश्यकता होती है।

बरसात में यदि आवश्यकता हो तो 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिये। बीज प्रकन्दों के जमाव तथा प्रकन्दों की बढ़ोत्तरी के समय (अक्टूबर- दिसम्बर) भूमि को नम रखना अत्यन्त आवश्यक है।

हल्‍दी में खरपतवार नियंत्रण
हल्दी में समान्यत: 3-4 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। यदि पलवार बिछाया गया हो तो काफी हद तक खरपतवार नियन्त्रण हो जाता है। बुवाई के 30, 60 व 90 दिनों बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिये। अक्टूबर-नवम्बर माह में गुड़ाई करके पौधें के आधार पर मिट्टी चढ़ाने से प्रकन्दों का समुचित विकास होता है।

हल्‍दी में रोग प्रबंधन

हल्‍दी प्रकन्द विगलन 

जड़ गलन या विगलन रोग हल्दी के खेत तथा भण्डारण दोनों समय होता है। इससे प्रभावित पौधें की पत्तियाँ सूखने लगती हैं। प्रकन्दों का रंग चमकीले नारंगी से भूरा हो जाता है। तत्पश्चात प्रकन्द उपर से स्वस्थ दिखाई पड़ते हैं परन्तु अन्दर सड़ जाते हैं।

खेत में उचित जल निकास तथा उचित फसल चक्र अपनाने सें रोग का प्रसारण कम हो जाता है। खेत में लक्षण दिखाई देने पर रोग ग्रसित पौधें को निकाल कर जला देना चाहिये। मेंकोजब तथा कार्बेन्डाजिम नामक रसायनों की दो-दो ग्राम मात्रा प्रति लिटर पानी में घोलकर छिड़काव करे। जड़ के पास सिंचाई करने से रोग दूर हो जाता है।

हल्‍दी में पत्ती चित्ती 

रोग के लक्षण पत्तियों के दोनों सतहों पर धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं जो बाद में भूरे होकर सूख जाते हैं। नियन्त्रण के लिये रोग रहित प्रकन्दों का चयन करके बुवाई करना चाहिए तथा खेत में जल भराव नही होना चाहिये।

रोग का प्रकोप होने पर मेंकोजेब 0.2 प्रतिशत तथा कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत के मिश्रण के घोल का छिड़काव करें।

हल्‍दी में पत्ती धब्बा

इस रोग से ग्रसित पौधें की पत्तियों तथा डंठल पर छोटे-छोटे धब्बे दिखाई देते हैं। जो 4-5 सेमी लम्बे तथा 3 सेमी तक चौड़े होते हैं। ये धब्बे आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं जिससे पत्तियां सूख जाती हैं। धब्बों का मध्य भाग हल्का स्लेटी तथा किनारा भूरे रंग का होता है।

इसके नियन्त्रण के लिये कैप्टान, जिनेब या कॉपर आक्सीक्लोराइड नामक रसायन का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिये। अगस्त – दिसम्बर माह तक प्रत्येक माह में कम से कम एक छिड़काव करते रहने से रोग का प्रकोप नही होता है।

हल्‍दी में कीट नियंत्रण

हल्‍दी में थ्रिप्स 

यह कीट पत्तियों का रस चूसकर पत्तियों को कमजोर कर देतीं है। जो धीरे-धीरे पीली पड़कर सूख जाती हैं। इस कीट की रोकथाम के लिये डायमिथियेट या मेटासिस्टाक्स की 2 मिली मात्रा 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे। अगर कीट का प्रकोप अधिक हो तो 10-15 दिन बाद दुबारा छिड़काव करना चाहिये।

तना छेदक 

यह कीट तने के अन्दर प्रवेश कर रस चूसता है जिससे नयी पत्तियाँ सूखने लगती हैं। परिणामस्वरूप पूरा पौध सूख जाता है। टहनियों की ऊपरी भागों में छेद दिखाई देते है तथा इन छेदों से विशेष प्रकार का द्रव निकलता है। इस कीट का प्रकोप होने पर डायमिथियेट नामक रसायन की 1.5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर जुलाई-अक्टूबर माह तक एक महीने के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।

पत्ती लपेटक कीट 

इस कीट की सूडिय़ाँ पत्तियों को लपेट लेती हैं। जिससे पत्ती मुड़ी सी दिखाई देती है। मुड़ी हुयी पत्तियों के अन्दर सुंडी पत्तियों को नुकसान पहुँचाती है। इस कीट नियन्त्रण के लिये थायोडान या डायमिथियेट रसायन की 1.5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे। यदि आवश्यकता हो तो 15 दिन के बाद दुबारा छिड़काव करें।

स्केल कीट 

यह बहुत छोटा कीट होता है जो हल्दी के प्रकन्दों को खेत से लेकर भण्डारण तक नुकसान पहुँचाता है। बुवाई के पूर्व तथा भण्डारण में प्रकन्दों को रखने से पहले क्लोरोपाइरीफॉस नामक रसायन की 1.5 मिली मात्रा प्रतिलीटर पानी में घोलकर 30 मिनट तक उपचारित करने से कीटों का प्रकोप नही होता है।

सूत्रकृमि 

हल्दी की फसल को सूत्रकृमि द्वारा भी नुकसान पहुँचता है। सुत्राकृमि से प्रभावित खेतों में बुवाई से पूर्व इससे सुत्राकृमियों का विकास रूक जाता है।

प्रकन्दों की खुदाई
जब पौधें की पत्तियां पीली होकर सूखने लगती है तब फसल खुदाई योग्य हो जाती है। हल्दी की फसल किस्मों के अनुसार 210-280 दिन में पक कर खुदाई योग्य हो जाती है।

पूर्ण रूप से परिपक्व प्रकन्द पुंजों की खुदाई इस प्रकार करनी चाहिये कि प्रकन्द कटने व छिलने न पाये। प्रकन्द पुंजों से पत्तियों, जड़ों आदि को काटकर अलग करके प्रकन्दों को अच्छी तरह साफ करके रखना चाहिये।

उपज
हल्दी की उपज उगायी जाने वाली किस्मों पर निर्भर करती है। यदि हल्दी की उन्नत प्रजातियों की खेती वैज्ञानिक ढ़ंग से की जाय तो इससे 400-500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पर प्रकन्द प्राप्त किये जा सकते हैं। इन प्रकन्दों से 15-20 प्रतिशत तक की सूखी हल्दी प्राप्त की जा सकती है।

असिंचित क्षेत्रों तथा बागों में बोई गयी फसल से 200-210 क्विंटल तक हल्दी की उपज प्राप्त हो सकती है।

भण्डारण
बीज के लिये हल्दी के भण्डारण हेतु खुदाई के बाद मूल प्रकन्दों तथा अच्छे प्रकन्दों को छाँटकर अलग कर लेते हैं।

कन्दों को अन्धेरे में रखते हैं। कीटों व कन्दों के गलन से रोकने के लिये कन्दों को 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन तथा 0.2 प्रतिशत क्लोरोपाईरीफॉस के घोल में 30 मिनट तक डुबाने के बाद छायों में अच्छी तरह सुखाने के बाद भण्डारण करते हैं।

भण्डारण के लिये मिट्टी में आवश्यकतानुसार गड्ढ़ा बनाकर 3-5 सेमी भूसे की परत बिछाकर गाँठों को रखकर उपर से बाँस की पट्टी या घास फूस रखकर मिट्टी से ढंक देते हैं। गड्ढे के चारों तरफ 15-20 सेमी0 ऊंची मेड़ बना देते हैं।

हल्‍दी का प्रसंस्करण
हल्दी को बाजार में ले जाने के लिये प्रकन्दों का प्रसंस्करण करना आवश्यक है। प्रसंस्करण प्रक्रिया में प्रकन्दों की सफाई करना, उबालना, उपचारित करना, सूखाना तथा भण्डारण करना आदि शामिल है।

 

प्रकन्दों की सफाई करना

खुदाई के एक सप्ताह के अन्दर गाँठों से मिट्टी झाड़कर, पक्के टैंक में पानी भरकर अच्छी प्रकार से धुलाई करते हैं। अन्त में साफ पानी से धोकर प्रकन्दों को पक्की फर्श पर फैलाकर सूखाते हैं।

उपचारित करना

साफ तथा सुखी गाँठों को मिट्टी के या किसी बड़े बर्तन में रखकर या गाँठों को लोहे के कड़ाहे जिसमें टोकरी या कैरेट डूब जाय। उसमें 0.1 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट का घोल बनाकर 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से डालकर घोल बनाकर भर देते हैं।

उबालना
इस घोल में साफ की गई गाँठों को तब तक उबालते हैं जब तक गाँठों से विशेष प्रकार का गंध निकलने लगे और गाँठ मुलायम हो जाये। उबालने के बाद गाँठों को कैरेट के साथ निकालने पर गाँठों का नारंगी रंग निखर आता है। गाँठों के पक्के फर्श या त्रिपाल पर रखकर तेज धूप में सुखाते हैं। गाँठों को पूर्ण रूप से सूखने में 10-12 दिन लग जाते हैं।

 

पॉलिस करना
गाँठों को अच्छी तरह से सुखाने के बाद उसे आकर्षक बनाने के लिये पॉलिस करना आवश्यक होता है। पॉलिस करने के लिये बोरे में 10-15 किग्रा सूखी गाँठ को भर कर धीरे-धीरे रगडऩे सें गाँठों में लगी पत्तियाँ तथा जड़ों निकल जाती हैं। पॉलिस हो जाने से गाँठें चमकदार हो जाती हैं। इसके लिये दुकानदार खुरदरी डिब्बों में गाँठों को रखकर घुमाने सें गाँठों की सफाई हो जाती है।

उपज
इस प्रकार 100 किग्रा कच्ची गाँठों से प्रसंस्करण के उपरान्त 20-25 किग्रा सूखी हल्दी प्राप्त हो जाती है।


Authors:

बच्चू सिंह मीना1, अजय कुमार मीना2 एवं कौशल किशोर3

1सीनियर रिसर्च फ़ेलो (ए. आर. एस., कृषि विश्वविद्यालय, कोटा)

2विद्यावाचस्पति छात्र, सस्यविज्ञान (राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर)

3विद्यावाचस्पति छात्र, सस्यविज्ञान, (डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पुसा बिहार)

लेखक ईमेल: (bsagrorca@gmail.com)

 

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