मुख्य दलहनी फसल चने की खेती

चना बिहार के मुख्य दलहनी फसल है। इसकी खेती रबी के मौसम में होती है। चना की  बिहार में 58 हजार हे0 क्षेत्र में खेती की जाती है एवं इसकी औसत उत्पादकता 1015 किलोग्राम प्रति हे0 है। चना प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत है। इसके उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि लाकर कुपोषण की समस्या के समाधान में भी चना महत्वपुर्ण योगदान करने में समर्थ है।

उन्नत किस्मों का चयन, ससमय बुआई, उन्नत तकनीक वाली सस्य क्रियाओं का उपयोग, राइजोबियम कल्चर एवं पी0एस0बी0से बीजोपचार, समुचित उर्वरता प्रबंधन, कीट ब्याधि एवं खरपतवार प्रबंधन तथा आवश्यकतानुसार हल्की सिंचाई सेे इसकी उत्पादकता में दुगूनी तक वृद्धि लायी जा सकती है।

चना उगाने के लि‍ए भूमि‍:

दोमट एवं भारी दोनो प्रकार की मिट्टी चने के खेती के लिए उपयूक्त मानी जाती है। लवणीय-क्षारीय मिट्टी चना की खेती के अनुपयुक्त होती है। इसके लिए खेत जल जमाव से मुक्त होनी चाहिए।

चने के खेत की तैयारी:

पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की दो जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करनी चाहिए। इसकी खेती के लिए मिट्टी को काफी भरभूरी करने की आवश्यकता नही होती है। क्योंकि चना फसलों की जड़ों में वायू का संचार होना अति आवश्यक है। बुआई के समय भूमि को प्रर्याप्त मात्रा में नमी का होना अति आवश्यक है।

चने की उन्नत किस्में:

चना का प्रमूख किस्मों में छोटा चना, मध्यम चना और काबुली चना है। कुछ मुख्य किस्में निम्न प्रकार है। -

(1) जी0सी0पी0-105: यह प्रभेद उकठा एवं जड़ गलन रोग के प्रति सहनशील है। दाना मध्यम आकार और परिपक्वता अवधि 140 से 145 दिन है। इसकी बुआई 1 से 30 नवम्बर तक की जा सकती है। औसत उपज 20 से 25 क्विटंल प्रति हे0 प्राप्त होता है।

(2) पूसा 362 : इस किस्म के दाने मध्यम आकार के होते हंै। इसकी बुआई 15 नवम्बर से 15 दिसम्बर के मध्य में कर सकते हैं। फसल 130 से 140 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की उपज क्षमता 15 से 20 क्विटंल प्रति हे0 हैै।

(3) पूसा 372: यह पिछात किस्म है। इसकी बुआई 15 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक करते हैं। इसकी दाना का आकार छोटा होता है। यह फसल 130 से 140 दिन में पक कर तैयार हो जाता है।इसकी उत्पादन क्षमता 15 से 20 क्0ि/हे0 है। इस फसल में फली छेदक, उकठा एवं जड़ गलन का प्रकोप नही पाया जाता है।

(4) डी0सी0पी0 923: यह छोटे दोने के उकटा अवरोधि किस्म है। इसकी बुआई 01 नवम्बर से 30 नवम्बर तक कर सकते हंै। 135 से 140 दिन में फसल पूर्ण रूप् से पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म की उपज क्षमता 18 से 20 क्0ि/हे0 है।

(5) जे0जी0 14: इस किस्म की बुआई 01 नवम्र से 30 नवम्बर के मध्य कर सकते है। दाना बड़ा होता है। जिससे 20 से 25 क्विंटल उत्पादन प्रति हे0 प्राप्त होती है। फसल 130 से 140 दिन में पक कर तैयार होती है।

(6) शुभ्रा: यह काबुली चना है।इसकी बुआई 15 अक्टुबर से 15 नवम्बी की मध्य की जाती है। फसल पक कर 135 से 140 दिन में तैयार होती है। इसकी उत्पादन क्षमता 18 से 20 क्0ि/हे0 है।

(7) एच0 के0 94134: यह उकठा एवं जड़ गलन रोधि किस्म है इसकी बुआई 15 अक्टुबर से 15 नवम्बर के मध्य कभी भी कर सकते हैं। यह 140 से 145 दिन में फसल पक कर तैयार हो जाती है। 18 से 20 क्विंटल उत्पादन प्रति हे0 प्राप्त होता है।

(8) बी0जी0 1053: यह उकठा रोगरोधी किस्म है। इसकी बुआई 15 अक्टुबर से 15 नवम्बर के मध्य की जाती है। उत्पादन क्षमता 12 से 15 क्0ि/हे0  तथा 140 से 145 दिन में फसल पक कर तैयार हो जाती है।

चने मे पोषक तत्‍व प्रबंधन -

राइजोबियम कल्चर का प्रयोग -

बीज में राइजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से दलहनी फसलों की जड़ों में नेत्रजन स्थिरिकरण बढ़ जाती है जिससे भुमि की उर्वरता बढ़ जाती है तथा उपज में भी बढ़ोतरी होती है। राइजोबियम कल्चर का (5 पैकेट प्रत्येक 200 ग्राम ) प्रति हे0 के लिए आवश्यकता होती है।

कल्चर का व्यवहार  उसकी समाप्ति तिथि देखकर ही करें। 100 ग्राम गुड़ को 01 ली0 पानी में घोलकर हल्का गरम करें ताकि घोल लस-लसा हो जाए, तदोपरांत ठण्डा होने पर इस घोल में 5 पैकेट राइजोबियम कल्चर डालकर अच्छी तरह से मिला दें।

जीवाणु युक्त घोल में 80 किलोग्राम बीज को अच्छी तरह से मिला दें, ताकि एक परत बन जाए। इसके बाद छाये में सुखाकर शिघ्र बुआई कर दें।

फास्फोजिप्सम का प्रयोग:

संघन खेती एवं गंधक रहित उर्वरको के अधिक उपयोग से मिट्टी में गंधक की कमी हो रही है। फास्फोजिप्सम में 17 प्रतिशत गंधक होता है जिससे चने की बुआई पुर्व 200 किलोग्राम/हे0 व्यवहार करने से 30-35 किलोग्राम /हे0 गंधक की आवश्यकता पूरी हो जाती है।

सूक्ष्म पोषक तत्व का प्रयोग:

बिहार में मुख्यतः जिंक और बोराॅन की कमी पायी जा रही है। जिससे दलहन की उपज प्रभावित होती है। सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग मिट्टी जाँच के आधार पर करना चाहिए। जिंक एवं बोराॅन के व्यवहार उर्वरक के रूप में बुआई के पूर्व अनुशंसित मात्रा में 30-40 किलोग्राम कम्पोस्ट के साथ खेत में करना चाहिए।

सूक्ष्म पोषक तत्वों के एक बार प्रयोग करने से 5 फसल लगातार किया जा सकता है।

पी0एस0बी0 का प्रयोग:

यह फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने के लिए जीवाणू उर्वरक है। समान्यता असिंचित भुमि में स्फूर की उपलब्धता घट जाती है। पी0एस0बी0 प्रयोग करने से फास्फोरस की उपलब्ध्ता बढ़ जाती है। 4 किलोग्राम पी0एस0बी0 को 50 किलोग्राम कम्पोस्ट में मिलाकर प्रति हे0 की दर से खेतों में बुआई से पूर्व व्यवहार करना चाहिए।

उर्वरको का उपयोग:

उर्वरक का प्रयोग मृदा परिरक्षण के आधार पर करना उचित है। समान्य उर्वरा शक्ति वाले खेतों में 20 किलोग्राम नेत्रजन (45 किलोग्राम युरिया) एवं 40किलोग्राम फास्फोरस (250 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) अन्तिम जुताई के समय व्यवहार करें। यदि डी0ए0पी0 उपलब्ध हो तो प्रति हे0 के लिए 100 किलोग्राम डी0ए0पी0 की मात्रा प्रयाप्त है।

बीज दर एवं बोने की बिधि:

चने की शुद्ध फसल के लिए छोटे दाने वाले प्रभेदों के लिए 80 किलोग्राम तथा बड़े दाने वाले प्रभेदों के लिए 100 किलोग्राम बीज प्रति हे0 की दर से बुआई करें । टाल क्षेत्रों के लिए बीज दर समान्य से प्रति हे0 की दर से 20 किलोग्राम अधिक अनुसंशा है। मिश्रित फसल के रूप  में बुआई के लिए अनुशंसित आधी बीज की मात्रा की अवश्यकता होती है।

पंक्ति में बुआई: बुआई की दूरी 30 से0मी0 ग् 10 से0मी0 रखें। बुआई की गहराई 5-6 से0मी0 से अधिक नही होनी चाहिए। पंक्ति में बुआई करने से खरपतवार नियंत्रण में सुविधा रहती है तथा बीज की मात्रा कम हो जाती है और फसलों का विकास सही होता है।

बीजोपचार: मिट्टी में दीमक एवं कटवर्म बचाव हेतु 1.5 प्रतिशत क्यूनालफाॅस या पाराथियान चूर्ण 25 कि0ग्रा0 हे0 की दर से आखिरी जुताई के साथ खेत में मिला दें अथवा क्लोरोपाइरीफाॅस 20 ई.सी. 6 मिली0 प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुआई करें। कीटनाशक से बीज को उपचारित करने के पुर्व बीज को कीट-व्याधियों से मुक्त रखने के लिए ट्राइकोडर्मा विरीड 5 ग्राम किलोग्राम बीज से या 1.5-2.0 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। बीजोपचार के समय फफूँदनाशी कीटनाशी एवं राइजोबियम कल्चर के क्रम में उपदानों का व्यवहार किया जाना उचित होगा।

सिंचाई: यदि बुआई के समय खेत मेंनमी की कमी हातो बोने के 4-5 दिन के पुर्व हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। चने मे 1-2 सिंचाई आवश्यक होती है। यदि मिट्टी हल्की हो तो प्रथम सिंचाई बुआई के 45 दिनों के बाद एवं दुसरी बुआई दाना बनने के समय करनी चाहिए। टाल क्षेत्रों में सिंचाई की आवश्यकता नही होती है। सुक्ष्म सिंचाई से दलहनी फसलों की सिंचाई करना अधिक उपयुक्त है।

खरपतवार नियंत्रण: बथुआ, कटैया एवं प्याजी घास का प्रकोप चना में पाया जाता है। इसके नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथिलीन  3.3 ली0 को 700-800 ली0 पानी में घोलकर प्रति हे0 की दर से बुआई के 2 से 3 तीन दिन के अन्दर छिड़काव करें। इसके आलावा फ्लूक्लोरिन खरपतवारनाशी का उपयोग कर सकते है इसके 1.5-2.0 ली0 दवाई को 600-700 ली0 पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़कांव करें।

फसल सुरक्षा प्रबंधन: विभिन्न प्रकार के सुरक्षात्मक उपायों का सही तरीके से उपयोग करके फसल में होने वाले क्षति को कम कर सकते हैं एवं उत्पादन में वृद्धि कर सकते है। चना के विभिन्न कीट-व्याधि निम्नलिखित है:-

  1. कजरा पील्लु या दिमक - इसके लिए क्लोरोपाईरिफास से बीजोपचार करें। 1.5 प्रतिशत क्युनालफास या पाराथियान चुर्ण 25 किलोग्राम प्रति हे0 की दर से अन्तिम जुताई के पश्चात खेत में छिड़कांव करें।
  2. फलीछेदक कीट -इमामेक्टीबेन्जोएट नामक दवाई का 1 मिली0 प्रति 3 लीटर पानी में घोलकर छिड़कांव करें। इसके अलावा फेरोमोन ट्रैप (12 टैªप प्रति हे0) का उपयोग करें।
  3. उकठा रोग - फसल चक्र को अपनाए। ट्राइकोडरमा 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोंपचार करें। ट्राइकोडरमा को गोबर की खाद में मिलाकर खेत में छिड़कांव करें अथवा बैभेस्टिन $ थिरम से बीजांेपचार करें। खेत में साफ नामक फफूँदनाशी 2.50 ग्राम प्रति ली0 पानी में घोलकर छिड़कांव करें।
  4. झुलसा -बैभेस्टिन नामक फफूँदनाशी (2 ग्राम प्रति ली0 पानी) का कम से कम दो बार छिड़कांव करें।

Authors:

 नि‍शांत प्रकाश

कृषि विज्ञान केन्द्र, लोदीपुर, कलेर, अरवल

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