Effects of Parthenium weed on crops and human life
पारथेनियम (गाजर घास) पर लगातार किए जा रहे शोध कार्यो से हाल ही में एक नतीजा सामने आया कि पारथेनियम नामक खरपतवार केवल मानव अथवा पशुओं के स्वास्थ्य पर ही बुरा असर नहीं डाल रहा है बल्कि इसका सर्वाधिक प्रभाव दलहनी फसलों पर पड़ रहा है।
हर मौसम और हर फसल के साथ उपजने में सक्षम गाजरघास ने दलहनी फसलों के उत्पादन की मात्रा पर असर डालना ही शुरु कर दिया है साथ ही खेतों में फसल चक्र के जरिए उर्वरता बढ़ाये जाने की प्रक्रिया भी लडख़ड़ाने लगी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह स्थिति बरकरार रही तो यह तय है कि फसल चक्र विधि तो बेअसर साबित होगी ही साथ ही दलहनी फसलों की दर भी घट जायेगी।
कृषि वैज्ञानिक इसका मूल कारण गाजर घास का एलेलोपैथिक प्रभाव बता रहे हैं। जांच के दौरान पाया गया है कि जिस क्षेत्र में गाजरघास उगती है वहां एलेलोपैथिक प्रभाव के कारण दीगर पौधे उग ही नहीं पाते ।
लेकिन जब गाजरघास के पौधे दलहनी फसलों के बीच उग आते हैं तो दलहनी पौधों की जड़ों की गांठों में पाये जाने वाले बैक्टीरिया काम करना बंद कर देते हैं। नतीजन दलहनी पौधों की उत्पादन क्षमता स्वत: घट जाती है। इसके अलावा दलहनी पौधों की जड़ों में पाये जाने वाले बैक्टीरिया काम करना बंद कर देते हैं तो खेत की उर्वरता बढऩे की संभावना भी समाप्त हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि सामान्य फसल के बाद दलहनी फसल लगाने और उसके पश्चात पुन: अन्य फसल लगाये जाने के प्रक्रम को किसान केवल इसलिए अपनाते हैं कि खेतों की उर्वरता बरकरार रहे। चूंकि दलहनी पौधों की जड़ों में पाये जाने वाले बैक्टीरिया वायुमंडल से नाइट्रोजन का अवशोषण करने में सक्षम होते हैं इसलिए मिट्टी की उर्वर क्षमता भी बढ़ाते हैं। अब अगर ये बैक्टीरिया काम करना बंद कर देंगे तो किसानों द्वारा अपनाया जाने वाला फसल चक्र प्रक्रम भी अर्थहीन हो जाएगा और दलहनी फसलों का उत्पादन घटेगा सो अलग।
एक वर्षीय गाजर घास का पौधा नमी वाले स्थानों पर तेजी से उगता ही है, इसके अलावा खुले स्थानों और खाली खेतों में भी तीव्र गति से वृद्धि करता है। इस पौधे से उत्पन्न होने वाले बीज कुछ घंटे भी सुपुप्तावस्था में नहीं रहते हैं, इस कारण पौधों से बीज जमीन पर गिरने के तुरंत बाद ही उनमें अंकुरण की प्रक्रिया शुरु हो जाती है
मिट्टी किसी भी प्रकार की हो जलवायु भी किसी प्रकार की हो, गाजरघास के पौधे के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं होती। गाजर घास के पौधे पर न कोई कीड़े आक्रमण करते और न ही इसे जानवर ही खाते हैं। अगर गाजरघास का समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब दालों का उत्पादन घटकर शिफर के अंक को छू जायेगा।
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खरपतवार केवल दलहनी फसलों पर ही नहीं वरन अन्य किस्म की फसलों के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव डाल रहा है जिस पर केवल आपसी तालमेल और अभियान के नजरिए से कार्य करने पर ही नियंत्रण पाया जा सकता है।
गाजरघास खरपतवार का एक पौधा हजारों की तादात में एक बार में बीजोत्पादन करता है और हर मौसम में बीजोत्पादन की प्रक्रिया जारी रहती है। बीज हल्के सूक्ष्म आकार के होने के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से उड़कर या पानी के बहाव के साथ पहुंच जाते हैं। जहां भी इन बीजों को अनुकूल वातावरण मिल जाता है वहीं उगना प्रारंभ कर देते हैं। गाजरघास का पौधा 3 ये 4 माह में जीवन चक्र पूरा कर एक वर्ष में 2 से 3 पीढ़ी पूरी कर लेता है। हर पौधा लगभग 1500 से 2000 तक अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है, जो हवा एवं पानी के साथ पूरे क्षेत्र में फैल चुके हैं।
गाजरघास केवल फसली पौधों के लिए हानिकारक नहीं है बल्कि मनुष्य और जानवरों के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो रहा है। इस पौधे के सम्पर्क में आने से एलर्जी हो जाती है। इस पौधे से निकलने वाले रस एवं पराग कणों के कारण होने वाले चर्मरोगों का इलाज भी बमुश्किल हो पाता है। पशु-पक्षी यदि इसे खा लेते हैं तो वे भी रोग ग्रस्त हो जाते हैं। फसलों और व्यक्तियों के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही गाजरघास नियंत्रण के लिए केवल वैज्ञानिकों को ही नहीं बल्कि किसानों को भी एक अभियान के दृष्टिकोण से कार्य करना होगा।
राष्ट्रीय खरपतवार का दर्जा प्राप्त गाजरघास का समूल उन्मूलन जल्द ही नहीं किया गया तो खाद्य उत्पादन और कम होने के साथ ही यह महामारी का रुप लेगा। आज गाजर घास कन्याकुमारी से लेकर जम्मू-कश्मीर तक अपनी जड़े जमा चुका है। जिस पर सर्दी, गर्मी, प्रकाश अंधकार और अम्लीय व क्षारीय भूमि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। प्रचंड गर्मी में भी यह हरी-भरी बनी रहती है।
गाजरघास खरपतवार का मूल स्थान वेस्टइंडीज मध्य एवं उत्तरी अमेरिका है। भारत में सर्वप्रथम 1955 में पूना (महाराष्ट्र) में दिखाई दिया। भारत में इसका प्रवेश चार दशक पहले अमेरिका या कनाडा से आयात किए गए गेहूं के साथ हुआ। अभी तक 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में इसका प्रकोप हो चुका हैं।
गाजरघास के संपर्क में आने से लोगों को डरमेटादटिस, एक्जिमा, एलर्जी, बुखार और सास संबंधी रोग हो जाते हैं। लम्बे समय तक गाजर घास ग्रसित स्थान पर रहने से लोगों के हाथों में लालामी, सूजन, चेहरे व गले में फफोले तक हो जाते हैं।
एलिलोपैथी
जब किसी पौधे द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से वातावरण में विसर्जित अथवा उत्सर्जित पदार्थ अन्य पौधे को प्रभावित अथवा हानि पहुंचाता है तो इस क्रिया को एलिलोपैथी कहा जाता है।
अनेक पौधे मृदा अन्य संवर्धन माध्यमों में जड़ों द्वारा अनेक रसायनों का उत्सर्जन अथवा स्त्राव करते हैं। भूमि में पौधों के अवशेषों के सडऩे गलने से भी अनेक कार्बनिक रसायनों का उत्पादन होता है। ये पदार्थ उसी पौधे अथवा अन्य विभिन्न प्रकार के पौधों के वर्धन को उनकी जड़ों को प्रभावित करके परिवर्तित करते हैं। करीब-करीब सभी पौधों में एलिलोपैथी के लिए जिम्मेदार यौगिक होते हैं, जो मुख्यत: पत्तियों, तनों एवं जड़ों में पाये जाते हैं।
पौधों की जड़ों से उत्सर्जित होने वाले अथवा पौधों के विभिन्न अंगों के सडऩे से उत्पन्न होने वाले कुछ रसायन स्कोपोलेटिन, सिन्नामिक एसिड, कोमेरिक एसिड, 5-हाइड्रोक्सीनेप्थो क्यूनोक, एबसिन्थिन, 3-एसिटिल-6 मिथाक्सीबेन्जालडिहाइड एवं अनेक फिनोलिक यौगिक, बायलोफोस, अलीलोसोथायोसायनेट, पट्लिन कैफीन, गैलिक एसिड, सोरालेन, फ्लोरिजिन आदि है।
मोथा की गांठों के जलीय अर्क को बाजरा, सनई, घान, मक्का, ज्वार, कपास, चना, मूंगफली, तिल, लोबिया के बीजों के अंकुरण एवं उनके नवपादपों के वर्धन को अवरुद्ध करते हैं। पूरे देश में महामारी का रुप ले चुकी गाजरघास की वजह से फसलों की पैदावार में भी 40 फीसदी की कमी आई है।
इसमें सेरक्यूटरपीन लैक्टोन नामक विषाक्त पदार्थ पाये जाने से यह फसलों के अंकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। यही नहीं इसकी जड़े व परागकण भी सब्जी व फलों के उत्पादन को कम व विकृत पैदावार कर रहे है।
Authors:
बच्चू सिंह मीना1 एवं अजय कुमार मीना2
1सीनियर रिसर्च फ़ेलो (ए. आर. एस., कृषि विश्वविद्यालय, कोटा)
2विद्यावाचस्पति छात्र, सस्यविज्ञान (राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर)
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