Potential for potato seed production in Gwalior-Chambal area of Madhya Pradesh
सफलतापूर्ण आलू उत्पादन हेतु गुणवत्ता युक्त बीज एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अवयव है। गुणवत्तायुक्त बीज के अभाव की पहचान सम्पूर्ण विश्व में आलू उत्पादन में बाधक एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारक के रूप में हुई है। विशेषकर विकासशील देशों में गर्म जलवायु के कारण, आलू बीज एक अत्यन्त खर्चीली उत्पादक सामग्री है जो कि कुल उत्पादन लागत का 40 से 50 प्रतिशत तक होता है।
भारत में लघु एवं सीमान्त कृषकों को गुणवत्तायुक्त बीज की अनुउपलब्धता के कारण विकसित देशों की तुलना में उत्पादकता निम्न है। किसानों से प्राप्त बीज की तुलना में उत्तम गुणवत्तायुक्त बीज उपयोग करने से औसत उपज में 30 से 50 प्रतिशत तक की वृध्दि होती है।
अधिकांशत: विकसित देशों में बडी संख्या में लघु जोत वाले कृषक आम बीज उत्पादकों से प्राप्त प्रक्षेत्र को बचाकर रक्खे हुये आलू का उपयोग बीज रूप मेे करते हैं क्योंकि वे जहां पर रहते हैं वहां पर या तो वाणिज्यिक बीज उत्पादन तंत्र का अभाव होता है अथवा प्रमाणीकृत बीज का मूल्य अधिक होता है। कृषक आधारित अनोपचारिक बीज तंत्र सामान्यत: बीज गुणवत्ता बनाये रखने और रोग जैसे जीवाणु मिलानी या विषाणु आदि के उन्मूलन में असमर्थ होता है।
गुणवत्ता युक्त बीज की मांग:-
भारत में दो मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र की बुवाई हेतु कम से कम 6 मिलीयन मै. टन उत्तम गुणवत्तायुक्त आलू बीज की आवश्यकता है। केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान लगभग 2500 मै. टन प्रजनक बीज विभिन्न राज्यों एवं अन्य संगठनों को प्रदाय करता है। जो कि आधारीय बीज के दो एवं प्रमाणिक बीज के दो चकों के द्वारा 1.6 मि. टन तक गुणन कर सकते हैं।
ये कुल आवश्यकता का 26 प्रतिशत तक है। अत: गुणवत्तायुक्त बीज उत्पादन के रिक्त स्थान को भरने के लिए निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में की भागीदारी को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। गुणवत्तायुक्त बीज उत्पादन के विस्तार हेतु निम्न क्षेत्रों पर जोर दिया जाना चाहिये।
- कम लागत एवं प्रभावी प्रवर्धन विधियों का विकास एवं मानकीकरण- ऐरोपोनिक, बायोरियेक्टर तकनीक
- कृषि विज्ञान केन्द्र/कृषि विश्वविद्यालय की बीजोत्पादन में भागीदारी
- प्रमाणीकृत बीज उत्पादन हेतु गांव/प्रगतिशील कृषकों की पहचान
बीज उत्पादन का औपचारिक तंत्र देश की बीज आवश्यकता का लगभग 20 प्रतिशत ही पूर्ण कर पाता है तथा शेष बीज मांग, अनौपचारिक तंत्र द्वारा पूरी की जाती है।
भारत में बीज आलू का वितरण:-
कई राज्यो में सरकार द्वारा कृषकों को अनुदान दरों पर प्रमाणित बीज वितरण हेतु नीति बनाई गई है। यह भी एक कारण है जो कि आलू के वार्षिक उत्पादन एवं क्षेत्रफल को प्रभावित करता है। आम तौर पर कृषकों को उत्तम गुणवत्ता की बुवाई सामग्री उपलब्ध करवाने की जिम्मेवारी राजकीय कृषि/ उद्यानिकी विभागों की होती है।
आलू फसल के लिये विभाग केन्द्रीय आलू अनसन्धान संस्थान, शिमला से प्रजनक बीज क्रय करते हैं। आधारीय बीज प्रगतिशील कृषकों को प्रमाणित बीज उत्पादित करने हेतु प्रदाय किया जाता है। उद्यानिकी विभाग प्रमाणित बीज क्रय कर बीज मांग पूर्ति हेतु कृषकों में वितरित कर देते हैं।
उत्तर-पश्चिम में पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के कुछ जिले प्रमुख बीज उत्पादक क्षेत्र हैं एवं कुछ विस्तार पश्चिम बंगाल में भी है। औपचारिक तंत्र द्वारा उत्पादित बीज, प्रमुख आलू उत्पादक एवं बीज उत्पादक क्षेत्रों से दूर विशेषकर उत्तर पूर्वी भारत एवं भारत के पश्चिमी भाग के कृषकों की मांग पूर्ण करने में सक्षम नहीं होता है।
देश की बीज आवश्यकता का लगभग 20 प्रतिशत कार्यकारी बीज तंत्र द्वारा उत्पादित किया जाता है। लघु एवं मध्यम कृषक अपने प्रक्षेत्र पर उत्पादित आलू पर अत्यधिक निर्भर होते हैं। जबकि कुछ मध्यम एवं बडे कृषक अधिकांशत: बीज निजी बीज कम्पनियों/ आलू बीज उत्पादकों से क्रय करते हैं। इसलिये कुछ क्षेत्रों में फसल स्वास्थ्य अन्य क्षेत्रों की तुलना में सन्तोषजनक है ।
निर्धन कृषकोें में भी उन किस्मों को उगाने की प्रवृति होती है जिनमें विघटन दर अन्य किस्मों की तुलना में कम होती है। दूरस्थ पूर्वी एवं अ-बीज उत्पादक राज्यों के समृध्द कृषक प्रजनक बीज प्राप्त कर लेते हैं और यह बीज चार-पांच संततियों तक उपयोग किया जाता है और उत्पादन में कमी आने पर यह नवीन बीज द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है। जबकि इन स्थानों लघु एवं सीमान्त कृषक अपना बीज कभी-कभी 20 वर्षो तक नहीं बदलते हैं।
आलू के उन्नत बीज उत्पादन की तकनीक विकास:-
भारत में पिछले पांच देशकों के दौरान बीज उत्पादन की तकनीक विकास एवं उत्पादन रणनीति में अत्यधिक प्रगति देखी गयी है। केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान औपचारिक बीज उत्पादन तकनीक के विकास की रीढ़ है एवं प्रजनक बीज को परम्परागत (टयूबर इन्डेैक्सिंग एवं क्लोनल सिलेक्शन) एवं उच्च तकनीक बीज उत्पादक तंत्र (सूक्ष्म प्रवर्धन) द्वारा विकसित करता है।
यह संस्थान अन्य राज्य कृषि विश्वविद्यालय एवं निजी बीज कम्पनी के साथ मिलकर देश की बढती हुई बीज मांग को पूर्ण करने के लिये महत्वपूर्ण किस्मों के प्रजनक बीज का उत्पादन कर रहा है।
वर्तमान में बीज की कुल मात्रा का 94 प्रतिशत उष्ण कटिबन्धीय मैदानों में एवं शेष 6 प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों में उत्पादित किया जाता है। एशिया में भारत एक अकेला अग्रणी देश है जिसने उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में निम्न माहू अवधि, मृदा जनित रोग एवं कीटों की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुये वैज्ञानिक बीज उत्पादन तकनीक को विकसित किया है।
अधिकांशत: बीज उत्पादक जो आलू बीज का उत्पादन एवं विपणन कर रहे हैं वे आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान द्वारा विकसित सीड प्लॉट तकनीक का प्रयोग करते हैं।
केन्द्रीय आलू अनुसन्धान केन्द्र, ग्वालियर-
उन्नसवीं सदीं के अन्त में आलू बीज उत्पादन के लिये सीड प्लॉट तकनीक के विकास के पश्चात् अक्टूबर 1978 में भा.कृ.अनु.प.-केन्द्रीय आलू अनुसन्धान केन्द्र की स्थापना हुई। यह सी.पी.आर.आई. शिमला के प्रजनक बीज उत्पादन के केन्द्रों में से एक है। यह केन्द्र अपनी स्थापना से ही क्षेत्र एवं देश में आलू के वृध्दि एवं विकास में निरन्तर योगदान दे रहा है।
मध्य प्रदेश की आरम्भिक उत्पादकता बहुत निम्न (140-150 कु. है. ) थी जो कि पिछले तीन वर्षों के दौरान बढकर भारत के राष्ट्रीय औसत के समानान्तर हो गई है।
मध्य प्रदेश की वर्तमान में उत्पादकता 21.4 टन/है0 है। इस केन्द्र का उद्देश्य आलू के प्रजनक बीज का उत्पादन कर विशेषत: मध्यप्रदेश एवं अन्य राज्य जैसे- छत्तीसगढ, उडीसा, पंजाब, जम्भू एवं कष्मीर, बिहार, पश्चिम बंगाल, उ.प्र., उत्तराखण्ड, एवं हिमाचलप्रदेश की बीज आवश्यकता को पूर्ण करता है जो कि प्रमुख आलू उत्पादक राज्य हैं। यह केन्द्र प्रतिवर्ष 500-700 टन नाभिकीय एवं प्रजनक बीज का उत्पादन करता है और लगभग 400-500 टन प्रजनक बीज विभिन्न शासकीय संस्थाओं एवं बीज उत्पादक कृषकों को प्रदाय करता है।
तालिका-1- भा.कृ.अनु.प.-केन्द्रीय आलू अनुसन्धान केन्द्र, ग्वालियर पर कुल बीज उत्पादन एवं प्रदाय का वर्षवार विवरण
वर्ष |
कुल नाभिकीय एवं प्रजनक बीज उत्पादन (Vu) |
कुल बीज प्रदाय (Vu) |
2011-12 |
598 |
445 |
2012-13 |
717 |
558 |
2013-14 |
543 |
392 |
2104-15 |
477 |
334 |
2015-16 |
583 |
440 |
2016-17 |
488 |
297 |
प्रतिवर्ष मार्च एवं अप्रैल के दौरान 140 टन से अधिक प्रजनक बीज पंजाब, उ.प्र. एवं मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के बीज उत्पादक कृषकों को प्रदाय किया जाता है। इस बीज को कृषक आगे गुणनकर आधारीय-1 , आधारीय-2 एवं प्रमाणित बीज बनाते हैं। आलू उत्पादकों द्वारा लगाया गया 80 प्रतिशत से अधिक बीज, अधिक या कम , विघटित भण्डार से प्राप्त होता है।
ग्वालियर-चम्बल क्षेत्र के कृषक सीपीआरआई, शिमला द्वारा विकसित सीड प्लॉट तकनीक अपनाकर अपना गुणवत्तायुक्त बीज तैयार कर सकते हैं। यह क्षेत्र देश में बीज उत्पादन हेतु सर्वाधिक उपयुक्त है। भारत में यह क्षेत्र आलू बीज उत्पादक केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है क्योंकि इस क्षेत्र में उत्तम गुणवत्ता का बीज उत्पादन किया जा सकता है एवं बीज व्यवसाय से आय में वृध्दि कर जीवन स्तर सुधारा जा सकता है। केवल कुछ कृषक ही बीज उत्पादन व्यवसाय के लिए प्रयासरत रहते हैं। अत: कृषकों को प्रयासरत करने हेतु प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
आलू बीज उत्पादन हेतु पूर्व-परिस्थिति एवं ग्वालियर चम्बल क्षेत्र की जलवायवीय परिस्थितियां-
बीज उत्पादक क्षेत्र मृदा जनित रोग कारकों जैसे बार्ट, सिस्ट, सूत्रकृमि, जीवाणु म्लानी, काली चूर्णी एवं कॉमन स्केब आदि से मुक्त होना चाहिये एवं फसल बुवाई के पश्चात् 75 दिेन तक निम्न माहू या माहू मुक्त अवधि होना चाहिए। फसल वृध्दि के दौरान अधिकतम एवं न्यूनतम तापक्रम उपयुक्त परास में 8 से 28 डिग्री सेण्टीग्रेड के बीच होना चाहिये।
ग्वालियर-चम्बल क्षेत्र आलू बीज उत्पादन के लिये आदर्श जलवायवीय परिस्थितियां आलू बीज उत्पादन हेतु अत्यधिक उपयुक्त है। इस क्षेत्र की मृदा गठन में मृतिका दोमट से दोमट है। अधिकतम एवं न्यूनतम माध्य तापक्रम 18-34 डिग्री सेण्टीग्रेड तक रहता है एवं 5-20 डिग्री सेण्टीगेड तापक्रम आलू बीज उत्पादन हेतु अत्यधिक उपयुक्त है।
अधिकतम एवं न्यूनतम माध्य आपेक्षिक आद्रर्ता 68-90 प्रतिशत एवं 35-70 प्रतिशत रहती है। वर्तमान में फसल अवधि के दौरान बीच-बीच में होने वाली वर्षा के कारण निम्न माहू जनसंख्या का अतिरिक्त लाभ भी प्राप्त होता है। चित्र 1 - 4 में क्षेत्र की जलवायवीय परिस्थितियां प्रदर्षित हैं। इसके अतिरिक्त ग्वालियर चम्बल क्षेत्र प्रमुख मृदा एवं कन्द जनित रोगों जैसे काली चूर्णी, कौमन स्कैब एवं पछेती झुलसा जो कि अत्यधिक विनाशकारी फफूंद रोग है उक्त सभी से मुक्त है।
सीड प्लॉट तकनीक-
सीड प्लॉट तकनीक का सिध्दान्त है कि आलू बीज फसल में स्वस्थ बीज का उपयोग कर, निम्न माहू अवधि अक्टूबर से जनवरी के प्रथम सप्ताह तक, समन्वित कीट प्रबन्धन, रोगिंग एवं जनवरी माह के अन्तिम सप्ताह तक माहू के क्रान्तिक स्तर तक पहुंचने के पूर्व बीज फसल के पत्तों की कटाई करना सम्मिलित है।
शिमला के कुफरी एवं फागू के अतिरिक्त सीपीआरआई नये क्षेत्रों जैसे मोदीपुरम (उ.प्र.), जालन्धर (पंजाब), पटना (बिहार) एवं ग्वालियर (म0प्र0) में प्रजनक बीज उत्पादित कर रहा है। यह बीज आगे तीन अवस्थाओं आधारीय 1, 2 एवं प्रमाणित बीज में गुणन हेतु राज्य के कृषि/ उद्यानिकी विभागों को प्रदाय किया जाता है।
सीड प्लॉट तकनीक के अभिलक्षण:
- फसल बुवाई के 75 दिन अवधि तक िनम्न माहू अथवा माहू मुक्त अविध होना चाहिये। मृदा जनित रोग कारकों से बचाव हेतु 2-3 वर्षों तक फसल चक्र अपनाना चाहिये।
- बीज फसल, भौज्य फसल से 25 मीटर की प़थक्करण दूरी पर लगाना चािहयेा
- बीज विश्वसनीय स्रोत से प्राप्त किया जाना चाहिये तथा विषाणु एवं मृदाजनित रोग कारकों से मुक्त होना चाहिये एवं उचित कार्यकीय आयु वाला षीत भण्डारित बीज ही उपयोग में लाना चाहिये।
- बीज फसल 10 अक्टूबर तक पंजाब में, 25 अक्टूबर तक हिरयाणा, राजस्थान, पिश्चमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं 5 नवम्बर तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उडीसा में बुवाई की जानी चाहिये।
- चूषक कीटों के लिये प्स्टेिमक कीटनाशी जैसे थिमेट’ 10 जी 10 किग्रा./ है. की विभक्त मात्रा में बुवाई के समय एवं मिट्टी चढाने के समय उपयोगित की जानी चाहिये।
- अनेक अंकुर वाले अंकुिरत बीज उपणेग किये जाने चािहये जिससे त्विरत, एक समान एवं शीघ्र अंकुरण सुनिश्चित हो सके।
- फसल अविध के दौरान 45, 60 एवमद्य 75 दिन पर बीज फसल का निरीक्षण करना चाहिये तथा अवांछित एवं रोगी पौधों को निकाल देना चाहिये।
- फसल पर मैंकोजैब का छिडकाव 2-5 किग्रा. प्रति है. की दर से नवम्बर के तीसरे ससताह से 10 दिन के अन्तराल पर एवं करजट एम-8 का 3 किग्रा. है. की दर से जब पछेती झुलसा दिखाई दे तब छिडकाव करना चाहिये।
- कीटों को नियंत्रित करने के लिये दिसम्बर के प्रथम ससताह से 15 दिवस के अन्तराल पर रोगर (1.25 लीटर/है0) अथवा एमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल (0.4 लीटर/है0) की दर से क्रमिक रूप से छिडकाव करना चाहिये।
- दिसम्बर के त़तीय ससताह से अर्थात पत्ते काटने से 7 - 10 दिन पूर्व उत्तर’ पश्िचमी मैदानों में जनवरी के प्रथम सप्ताह में उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्रों में सिंचाई बन्द कर देना चाहिये।
- पत्ते काटने का कार्य पंजाब, हिरयाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदे़शा में दिसम्बर के अन्त में, मध्य उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में 10 जनवरी एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल एवं उडीसा में 15 जनवरी तक कर देना चाहिये।
- पत्ते काटने के 15-20 दिवस साश्चात खेत खुदाई की स्थति में आ जायेगा एवमं कन्द का छिलका भलीभांति कडा हो जाये तब फसल की खुदार्इ्र करनी चाहिये तथा 15-20 दिन तक आलुओं को ठण्डे छायादार स्थान पर ढेर बनाकर रखना चाहिये।
- कन्दों को वािणिज्यक श्रेणी के बोिरकएिसड के 3 प्रितशत घोल से 20 िमनट तक उपचारित करना चाहिये जिससे सतही रोग कारकों से बचाव किया जा सके। छायादार जगह पर सुखाकर बैग में भरने, सील लगाने एवं भलीभांति लेबल लगाने के बाद ही
बीज आलू को शीतगृह में रखें।
गुणवत्तायुक्त बीज उपयोग के दो पहलू हैं । उत्तमगुणवत्ता का बीज पर्याप्त मात्रा में प्रदान किया जा सके एवं कृषक गुणवत्तायुक्त बीज का उपयोग करने में रूचि रखते हों। दोनों ही पहलू बाजार परिस्थ्ािति से सम्बध्द हैं। अन्य फसलों की तुलना में आलू बीज उत्पादन से प्राप्त प्रतिस्पर्धात्मक लाभ ही एक ऐसा कारक है जो कृषकों को आलू उत्पादन हेतु प्रेरित करता है।
इस क्षेत्र के कृषक समूह/ संस्था बनाकर बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा पंजीकरण करवाकर अपनी बीज फसल का प्रमाणीकरण करा सकते हैं। सीपीआरआई द्वारा विकसित सीड प्लॉट तकनीक अपनाकर एवं बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा निरीक्षण की विभिन्न अवस्थाओं में प्रमाणीकरण करवाकर इस क्षेत्र के बीज उत्पादक भारत के विभिन्न क्षेत्रों के कृषकों को बीज प्रदाय कर अपनी आय में वृध्दि कर सकते हैं। आधारीय बीज 1, 2 एवं प्रमाणित बीज उत्पादन लाभ का विवरण तालिका में दिया है।
तालिका: आधारीय 1, 2 एवं प्रमाणित बीज की उत्पादन लागत का मदवार विवरण
मद |
आधारीय -1 |
आधारीय -2 |
प्रमाणित |
बीज |
98000 |
73500 |
59500 |
मशीनरी |
6500 |
6500 |
6500 |
श्रमिक |
25800 |
6500 |
6500 |
सिंचाई |
6000 |
6000 |
6000 |
पादप संरक्षण |
11888 |
11888 |
11888 |
खाद्य एवं उर्वरक |
21455 |
21455 |
21455 |
प्रमाणीकरण एंव अन्य शुल्क |
2000 |
2000 |
2000 |
कुल कार्यकारी लागत |
171643 |
147143 |
133143 |
कुल लागत पर ब्याज |
8582 |
7357 |
6657 |
कुल लागत |
180225 |
154500 |
139800 |
उपज (टन/है0) |
20.0 |
20.0 |
20.0 |
लागत (रू. है. ) |
9010 |
7730 |
6990 |
शीतगृह तक परिवहन लागत (रू0/टन) |
200 |
200 |
200 |
बोरे की कीमत (रू0/टन) |
1000 |
1000 |
1000 |
भण्डारण लागत (रू0/टन) |
2000 |
2000 |
2000 |
कुल उत्पादन लागत (रू0/टन) |
12210 |
10930 |
10190 |
निष्कर्ष:-जैसा कि सम्पूर्ण देश में गुणवत्तायुक्त आलू बीज की मांग में दिन-प्रतिदिन वृध्दि होती जा रही है। अत: ग्वालियर -चम्बल क्षेत्र के कृषक सीपीआरआई द्वारा विकसित सीड प्लॉट तकनीक को अपनाकर स्वयं का गुणवत्तायुक्त बीज पैदा कर सकते हैं क्योंकि यह क्षेत्र बीज आलू उत्पादन के लिये आदर्श जलवायवीय परिस्थितियों के कारण देश में सर्वाधिक उपयुक्त है इसलिये इस क्षेत्र को भारत के बीज आलू उत्पादक केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है एवं कृषक आलू बीज व्यवसाय से अपनी आय एवं जीवन स्तर में वृध्दि कर सकते हैं।
चित्र 5 बीज उत्पादन करने हेतु बीज उत्पादन तकनीक
Authors:
मुरलीधर जे. सदावर्ती, शिव प्रताप सिंह, संजय कुमार शर्मा, राजेन्द्र कुमार समाधिया, राजेश कुमार सिंह, सत्यजित रॉय एवं स्वरूप कुमार चक्रवर्ती
केन्द्रीय आलू अनुसन्धान केन्द्र, ग्वालियर, मध्यप्रदेश-474020
केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान, शिमला, हिमाचलप्रदेश-171001
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