पश्चिमी राजस्थान में खेजड़ी की उत्पादन तकनीक
खेजड़ी एक बहुपयोगी वृक्ष है, जो राजस्थान के थार मरुस्थल एवं अन्य स्थानों पर पाया जाता है। यह शमीवृक्ष के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। राजस्थान के अलावा खेजड़ी पंजाब, हरियाणा, गुजरात, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र राज्यों के शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में भी पाई जाती है।
खेजड़ी वृक्ष की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये तेज गर्मियों के दिनों में भी हरा-भरा रहता है। १९८३ में इसे राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित कर दिया था।
खेजडी राजस्थान के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के लगभग दो-तिहाई हिस्से को आच्छादित करती है और यह सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था का समर्थन करने वाला पेड़ है। इस पेड़ को सब्जी, चारा, ईंधन, औषधीय मूल्यों के कारण 'कल्पतरु' या 'रेगिस्तान का राजा' कहा जाता है।
यह दलहनी कुल से संबंधित फलीदार पेड़ है। दलहनी कुल का पेड़ होने के कारण यह वायुमण्डल से नत्रजन स्थिरीकरण भी करता है। खेजड़ी की ऊंचाई 3-5 मीटर होती है। पत्तियां द्विपक्षीय तथा शाखाये पतली, चमकदार, संपीड़ित, सीधे और बिखरे हुए छिद्रों के साथ कांटेदार होती हैं।
इसकी जड़ प्रणाली अधिक गहराई लिए होती है, परिणामस्वरूप इसे पानी की कम आवश्यकता होती है। जनवरी में फूल आते है तथा अप्रैल में फल बनना प्रारम्भ होते है। फूल छोटे, पीले, पतले स्पाइक्स में होते हैं और इसके बीज फली में होते हैं।
रेगिस्तान में खेजड़ी और सांगरी का महत्व:
खेजड़ी वृक्ष की कठिन परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता और किसानों द्वारा विभिन्न तरीकों से इसका उपयोग करने के कारण थार क्षेत्र के पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
- रेगिस्तानके सूखे वाले क्षेत्रो में खेजड़ी के चारे (लूंग) का बहुत महत्व होता है। खेजड़ी से मिलने वाली लूंग में 14-18 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 15-20 प्रतिशत रेशा तथा 8 प्रतिशत खनिज लवण पाए जाते है। खनिज लवणों में कैल्शियम तथा फास्फोरस की अधिकता होती है। लूंग को बकरियाँ, ऊँट तथा अन्य पशु बड़े चाव से खाते हैं जिससे दूध उत्पादन में बढ़ोतरी होती है।
- ताजा कच्ची सांगरी को सब्जी और अचार बनाने में प्रयुक्त किया जाता है तथा इन्हें सुखा कर भण्डारित भी किया जा सकता है। कच्ची सांगरी में औसतन 8 प्रतिशत प्रोटीन, 58 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 28 प्रतिशत रेशा, 2 प्रतिशत वसा, 4 प्रतिशत कैल्शियम तथा 0.2 प्रतिशत लौह तत्व पाया जाता है।
- इसकी फली सूखने के बाद मीठी हो जाती हैं, जिसे खोखा सूखा मेवा भी कहते हैं। इसमें 8-15 प्रतिशत प्रोटीन, 40-50 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 8-15 प्रतिशत शर्करा तथा 9-21 प्रतिशत रेशा होता है। राजस्थान की परंपरागत प्रसिद्ध पंचकुटा सब्जी जो कि पाँच तरह की सूखी सब्जियों को मिलाकर बनाई जाती है, उनमें सूखी सांगरी मुख्य घटक है।
- खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता, तब यह पेड़ ही उनको राहत प्रदान करता है।
- अकालके समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों के प्राण बचाने में इसका बहुत महत्व है। सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था, जिसको 'छपनिया अकाल' कहा जाता है, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।
- इसकी निरन्तर गिरने वाली छोटी पंत्तियां जमीन में आसानी से मिलकर तथा सड़ गल कर प्राकृतिक उर्वरक के रूप में कार्य करती हैं तथा भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है। इस कारण इसके नीचे उगने वाली फसल की पैदावार अधिक होती है।
- छाल का उपयोग दवा के रूप में ब्रोंकाइटिस, अस्थमा, पाइल्स आदि के इलाज में किया जाता है।
- इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है।
- इसका साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व भी हैं। दशहरेके दिन खेजड़ी की पूजा करने की परंपरा भी है।
खेजड़ी के लिए भूमि व जलवायु:
खेजड़ी के पेड़ मरु क्षेत्रों में पाई जाने वाली बालू रेत, रेत के टीबों तथा क्षारीय भूमि में पनप जाते हैं।
खेजड़ी उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र का पौधा है। खेजड़ी में सूखा रोधी गुणों के अलावा सर्दियों में पड़ने वाले पाले तथा गर्मियों में उच्च तापमान को आसानी से सहन कर लेने की क्षमता पायी जाती है।
शुष्क परिस्थितियों में पाया जाने वाला यह वृक्ष प्रति वर्ष 250-500 मिमी वर्षा होने वाले क्षेत्रों में आसानी से उग जाता है। खेजड़ी की इन्हीं विशेषताओं के कारण यहां के किसान वर्षा आधारित फसलों में इसे एक विशेष घटक के रूप में बढ़ावा व संरक्षण देते रहे हैं।
भूमि की तैयारी:
भूमि को हल के साथ 3-4 बार जुताई करके तैयार किया जाता है। जमीन को सुविधाजनक आकार के भूखंडों में बाँटकर मुख्य और उप चैनल निर्धारित किए जाते हैं।
उसके बाद 5 मीटर x 5 मीटर की दूरी पर 45 सेमी x 45 सेमी x 45 सेमी आकार के गड्ढे खोदे जाते हैं और उन्हें 1:1 के अनुपात में शीर्ष मिट्टी और अच्छी तरह से विघटित गोबर की खाद से भरा जाता है।
नर्सरी तैयार करने की तकनीक:
बीज के माध्यम से तैयार किये गए पौधों में अंकुरण क्षमता 90 प्रतिशत होती है। इस हेतु एक हेक्टेयर के लिए लगभग 20 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम 15-20 मिनट के लिए सल्फ्युरिक एसिड के साथ बीज का उपचार किया जाता है और मई के दौरान 2.0 सेमी गहराई पर इसे पॉलीबैग में बोया जाता है।
जुलाई-अगस्त के माह में तैयार किये गए गड्डो में एक महीने पुरानी रोपण को प्रत्यारोपित किया जाता है।
अन्तरासस्यन:
अन्तरासस्यन के रूप में खेजड़ी की दो कतारो के मध्य उपस्थित स्थान में बाजरा, दलहनी फसलें या ग्वार इत्यादि फसलों को उगाया जा सकता है।
सिंचाई प्रबंधन:
अधिकतम वृद्धि और उपज प्राप्त करने के लिए मासिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। किन्तु पानी की कमी वाले क्षेत्रो में इसे बिना किसी सिंचाई के केवल बरसात के पानी से उगाया जाता है।
खरपतवार प्रबंधन:
खरपतवार नियंत्रण हेतु पौधे की 3-4 साल की आयु तक हर 15-20 दिन के अंतराल पर निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
रोग और कीट प्रबंधन:
इसकी प्रारम्भिक अवस्था में दीमक के अलावा किसी प्रकार के कीट का प्रकोप नहीं होता है। इससे बचाव हेतु हमेशा पूर्ण रूप से सड़ी हुई खाद का ही प्रयोग करें। बीज को बिवेरिया बेसियाना से उपचारित करें।
हाल ही में नागौर, झुंझुनू, जोधपुर, चुरु, सीकर और जयपुर जिलों में इस पेड़ की भारी मृत्यु दर ने खतरे का संकेत किया है। खेजड़ी के वनक्षेत्र में कमी के मुख्य कारणों में इसकी शाखाओं की अंधाधुंध रूप से कटाई, पानी का भू स्तर तेजी से गिरना, कवकीय रोग और परजीवी गोंडर्मा ल्यूसिडर्म की वृद्धि है।
केंद्रीय शुष्क क्षेत्रीय अनुसन्धान संस्थान के शोध कार्यो से पता चला कि 50 साल या उससे अधिक उम्र के पुराने पेड़ों में मृत्यु दर अधिक थी और इसके कारणों में बीटल (एन्थोफोरस सेराटिकोरोनिस) और सफेद सड़ांध कवक (गोंडर्मा ल्यूसिडम) थे।
कीट पुराने जड़ों को नुकसान पहुंचाती है और कवक इन जड़ों पर बढ़ती है जो पेड़ों की पोषक तत्व और जल परिवहन प्रणाली को प्रभावित करती है। इसके नियंत्रण हेतु ट्राइकोडेर्मा (गोबर में तैयार किया हुआ) और माईकोराइजा की 250 ग्राम मात्रा को पेड़ के चारो और डाले।
कटाई:
यह एक धीमी गति से बढ़ने वाला बहुवर्षीय पेड़ है जो फूल, फल और छाल उत्पादन में लगभग 7 से 8 वर्ष ले लेता हैं।
कटाई के बाद प्रबंधन:
पुरानी शाखाओं से नवंबर के महीने में चाकू की मदद से छाल का स्क्रैपिंग किया जाता है और विपणन के लिए गन्नी बैग में शुष्क छायादार और हवादार जगह में संग्रहीत किया जाता है।
खेजड़ी का प्राकृतिक व पारम्परिक उत्पादन:
अघिकतर खेजड़ी के वृक्ष प्राकृतिक तरीके से बीजों द्वारा उगते हैं। बीज द्वारा उगे होने के कारण खेजड़ी में स्वतः प्राकृतिक चयन होता रहता है। जिसके कारण इनमें काफी विविधता पाई जाती है। केवल 15-20 प्रतिशत पेड़ों में ही गुणवतायुक्त सांगरी पाई जाती है जबकि 80 प्रतिशत खेजड़ी लूंग, लकड़ी आदि की दृष्टि से उपयोगी होती है।
छोटी अवस्था में हर वर्ष सधाई करके पेड़ों को एक-दो मीटर की ऊँचाई तक एकल तने के रूप में उत्प्रेरित करते हैं तथा बाद में तीन-चार मुख्य शाखाओं को बढ़ावा देकर इसको चारों दिशाओं में फैलने देते हैं।
पेड़ो के बढे होने पर हर वर्ष नवम्बर-दिसम्बर में इनकी छंगाई करते हैं। पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बाड़मेर तथा जैसलमेर में पेड़ों की छंगाई न करके हाथ से हरा लूंग इकट्ठा करके हरी अवस्था में ही पशुओं विशेषकर बकरियों को खिलाते हैं।
इस विधि से लूंग लेने से सिर्फ पत्तियां व छोटी शाखाएँ साथ में टूटती हैं, जिससे सांगरी उत्पादन प्रभावित नहीं होता, जबकि छंगाई करने से अगली ऋतु में उन पेड़ों पर सांगरी नहीं आती है।
कलिकायन:
गुणवतायुक्त सांगरी उत्पादन के लिए खेजड़ी में कलिकायन एक सफल तथा सार्थक तकनीकी है। कलिकायन हेतु सर्वप्रथम प्राकृतिक तरीके से लगे पेड़ों की सांगरी के परीक्षण द्वारा उत्तम सांगरी वाले पेड़ों को चिन्हित करके इन्हीं चयनित पेड़ों से ही कलिका ली जाती हैं।
मूलवृंत के लिए एक वर्ष के बीजू पौधे ही उपयोग में लाये जाते हैं। कलिकायन किये पौधों का उचित रखरखाव करने से उनमें तीसरे वर्ष ही सांगरी उत्पादन शुरू हो जाता है जबकि बीजू पौधों में यह 8-10 साल बाद ही शुरू हो पाता है और सांगरी की गुणवत्ता भी नहीं रहती है।
कलकायन विधि द्वारा तैयार पौधों का उचित उत्पादन प्रबंधन कर हर वर्ष उत्तम गुण की सांगरी और लूंग ले सकते है। ऐसे पौधे कम ऊँचाई के होने के कारण इनकी कटाई-छंटाई तथा सांगरी की तुड़ाई आसानी से की जा सकती है। कलिकायन विधि से चयनित खेजड़ी के पेड़ों का बगीचा निम्न विधियों से विकसित किया जा सकता है-
1. शीर्ष क्रिया द्वारा:
प्राकृतिक तरीके से लगी उत्तम सांगरी वाली खेजड़ी के 1-5 वर्ष के बीजू पौधों का चयन 6-8 मीटर दूरी पर करके इन पौधों को दिसम्बर-जनवरी में जमीन की सतह से तना तथा जड़ों को नुकसान पहुचाये बिना काटे। मार्च-अप्रैल में कटे हुए पौधों से नई शाखाएँ निकलना शुरू होती है।
इनमें से दो-तीन सीधी बढ़ती हुए शाखाओं को कलिकायन के लिए रख कर शेष को हटा दें। मई माह तक यह शाखाएँ कलिकायन करने योग्य हो जाती हैं। साइड से कांटे व छोटी शाखाओं को हटाते हुए इनके शीर्ष भाग को करीब एक फुट छोड़ कर काट दें। अब जमीन से लगभग 6 इंच की ऊँचाई पर पेंच विधि से मातृवृक्ष से एकत्रित कलिका को इस पर चढ़ाकर प्लास्टिक की टेप से बाँध दें।
साथ ही कलिकायन के लिए मूल वृन्त छाल का टुकड़ा तथा इसी आकार का छाल का टुकड़ा चयनित मातृवृक्ष की शाखा से लेकर मूलवृन्त में फिट कर बांध देते हैं। लगभग एक माह बाद लगाई गई कलिका से स्फुटन शुरू होकर कलिका से नई शाखाएँ निकलती हैं।
इस दौरान मूलवृन्त से निकलने वाली शाखाओं को हटाते रहें जिससे कि कलिकायन किये गये भाग की तीव्र वृद्धि हो सके।
2. स्वस्थानिक कलिकायन से बगीचा लगाना:
इस विधि में फसल पद्धति की आवश्यकतानुसार मई माह में गड्ढे खोदकर इन्हें कुछ दिनों के लिए खुला छोड़कर इसमें दस किलो गोबर की सड़ी खाद को गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में मिलाकर भर दें। मई-जून में खेजड़ी की पूर्ण पकी फलियों से बीज निकालकर बुवाई के लिए रख लें।
जुलाई में वर्षा होने के बाद प्रत्येक गड्ढे में 3-4 बीज लगभग एक इंच की गहराई पर बुवाई करें। प्रति गड्ढे एक-दो बीजू पौधों को छोड़कर शेष को निकाल दें। गड्ढों में बीजों की सीधी बुवाई से जड़ें सीधी व अधिक गहराई में विकसित हो जाती हैं, जिससे बाद में इनमें अधिक सूखा सहन करने की क्षमता विकसित हो जाती है।
जुलाई माह में प्रत्येक गड्ढे में एक सीधे तने वाला पौधा छोड़कर बाकी को निकाल लें। अब इनमें चिन्हित मातृ वृक्ष से कलिका लेकर कलिकायन कर लें। इस तरह दो वर्ष में स्वस्थानिक विधि से पूरा बगीचा तैयार हो जाता है।
3. पौधशाला में कलिकायन कर पौधे तैयार करना:
इस विधि में सबसे पहले खेजड़ी की पूर्ण पकी सूखी फलियों से बीज निकालकर खेजड़ी के बीजू पौधे तैयार किये जाते हैं। इन बीजों को पोलीथीन की थैलियों में गोबर की खाद, बालू मिट्टी तथा चिकनी मिट्टी (1:5:1) के मिश्रण से भरकर बेड़ में लाइन से जमाकर बीजों की जुलाई माह में बुवाई कर दी जाती है। प्रति थैली 3-4 बीज बोवें कम से कम एक-दो पौधे मिल सकें।
अगले वर्ष जून माह में इन पर चयनित मातृ वृक्ष से कलिका लेकर कलिकायन कर दिया जाता है। एक माह के भीतर इसमें कलिका फूटने लगती है तथा तेजी से वृद्धि करती है। लगभग दो माह बाद इनको एक बार नई द्वितीयक नर्सरी क्यारी में स्थानान्तरित किया जाता है। जिसके 10-15 दिन बाद इन पौधों को खेतों में वांछित दूरी पर प्रतिरोपित किया जा सकता है।
कलिकायन विधि से तैयार खेजड़ी का उत्पादन प्रबंधन:
कलिकायन के बाद इन्हें एक मजबूत पेड़ के रूप में विकसित करने के लिए प्रारम्भ से ही कटाई-छंटाई द्वारा संतुलित बढ़वार नियंत्रित करना आवश्यक है। शुरूआत में कलिकायन किये हुए स्थान के नीचे मूलवृन्त से निकलने वाली अन्य शाखाओं को निकाला जाता है।
कलिकायन के स्थान से एक मजबूत उध्र्वगामी शाखा से 2-3 शाखाओं को सभी दिशा में बढ़ने दें। आगे जाकर यही शाखाएँ पेड़ की मुख्य शाखाओं का रूप लेंगी। इसके बाद तीन चार वर्ष तक इन शाखाओं से केवल वांछित शाखाओं को ही रखे।
खेजड़ी की प्रति वर्ष छंगाई नवम्बर-दिसम्बर की बजाए मई-जून के अंतिम सप्ताह से जून के प्रथम सप्ताह तक करने से लूंग के साथ-साथ सांगरी भी ली जा सकती है। मई-जून में छंगाई करने के बाद जून-जुलाई में इन पेड़ों पर पुनः नई फूटान आ जाती है तथा नवम्बर-दिसम्बर तक शाखाएँ पक जाती हैं जिससे उनमें अप्रैल में कच्ची सांगरी की फसल ले सकते हैं।
Authors:
सुमित्रा देवी बम्बोरिया1, संदीप कुमार चौधरी2, जितेन्द्र सिंह बम्बोरिया3, शांति देवी बम्बोरिया4 और बी.आर. कुड़ी5
1विषय वस्तु विषेशज्ञ, कृषि विज्ञान केंद्र, मौलासर, नागौर (राज.)
2राजस्थान कृषि अनुसन्धान संस्थान, दुर्गापुरा, जयपुर
3विद्यावाचस्पति, महाराणा प्रताप राजस्थान कृषि विश्विद्यालय, उदयपुर, राज.
4शोध वैज्ञानिक, भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान, लुधियाना, पंजाब
5आई.सी.ए.आर.डी.ए. सेंटर- भोपाल
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