कुसुम की खेती किसानों के लिए लाभदायक उपक्रम
कुसुम एक औषधीय गुणों वाली तिलहनी फसल है। कुसुम को करडी, कुसुबे, कुसुम्बा आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इसके दानों में 29 से 33 प्रतिशत तेल, 15 प्रतिशत प्रोटीन, 15 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेड, 33 प्रतिशत रेशा पाया जाता है।
इसके तेल में पाये जाने वाले असंतृप्त वसीय अम्ल में 77 प्रतिशत लिनोलिक अम्ल तथा 14 प्रतिशत ओलिक अम्ल पाया जाता है। यह तेल उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोगियों के लिए लाभदायक है। अन्य खाद्य तेलों की अपेक्षा कुसुम तेल में असंतृप्त वसीय अम्ल की मात्रा अधिक होती है।
यह खून में कोलेस्ट्राल की मात्रा को कम करता है। इससे तैयार खल को पशुओं के चारे के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग साबुन, पेंट, वार्निश, लिनोलियम और इनसे संबधित पदार्थो को तैयार करने में भी लिया जाता हैं।
कुसुम के औषधीय गुण
कुसुम का बीज, छिलका, पत्ती, पंखुड़ियाँ, तेल, शरबत सभी का उपयोग औषधि के रूप में किया जा सकता है। कुसुम का तेल भोजन में उपयोग करने पर कोलेस्ट्राॅल की मात्रा कम रहती है एवं तेल से सिर दर्द में भी आराम मिलता है। इसके शरबत के उपयोग से बदन दर्द में आराम मिलता है। मांसपेशियों की चोट, कलाई, हड्डियों तथा घुटने के दर्द में भी इससे इलाज किया जाता है।
कुसुम की पंखुड़ियों से बनी चाय का उपयोग औषधि के रूप में तथा शक्तिवर्धन के रूप में किया जाता है। मानसिक रोगों में भी कुसुम के रस से उपचार किया जाता है। इसके पत्तों को सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। जिसमें आयरन और कैरोटिन पाया जाता है।
इसकी पंखुड़ियों से कई प्रकार के खाने योग्य रंग प्राप्त होते है। तथा यह कपड़ो की डाई के लिए भी उपयोग किया जाता है। कुसुम चाय बनती है। जो जोंड़ो के दर्द रक्त स़्श्राव, हृदय रोगों में लाभदायक होती है।
किसानो के लिए लाभदायक:-
- इसे अन्य रबी फसलों की अपेक्षा जल्दी बोया जा सकता है।
- बारानी क्षेत्रों में यहा पानी की कमी पाई जाती है उन क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता हैं।
- इसकी जड़े गहराई में जाती हैं जो भूमि के नीचे की नमी को उपयोग कर लेती हैं। इसी लिए कुसुम की खेती सिमित सिंचाई अवस्था में की जाती है।
- इसकी उन्नत किस्में 140-150 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।
- सिंचिंत क्षेत्रों में अन्र्तवर्तीय पद्धति को अपनाकर किसान अच्छा उत्पादन व लाभ ले सकते हैं।
- छत्तीसगढ़ में चना - कुसुम (2ः1, 4ः2), अलसी - कुसुम (2ः1, 6ः2) या सरसो - कुसुम (6ः2) अन्र्तवर्तीय फसल लेने से किसान अतिरिक्त आमदनी 2500 से 5000 रूपये प्रति हैक्टयर ले सकते है
- अंकुरण के लिए 15 डिग्री तापमान तथा अच्छी पैदावार के लिए 20-25 डिग्री तापमान अच्छा होता है। कृषक यदि कुसुम की खेती आधुनिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
- यह रक्षक फसल के रूप में फसलों के चारो ओर लगा सकते हैं। जिससे मुख्य फसल को पशुओं से बचाया जा सकता हैं।
भूमि की तैयारी
भारी गठन एवं नमी धारण की क्षमता वाली मध्यम भूमि, इस फसल हेतु उपयुक्त होती है। फसल की बढ़वार के दौरान खेत में जल-भराव नहीं होना चाहिए। धान की कटाई के बाद दो से तीन जुताई करके पाटा चला दें। ऐसा करने से भूमि की नमी संरक्षित रहेगी। लेकिन अंकुरण के समय खेत में पर्याप्त नमी हो।
उन्नत व संकर किस्में
छत्तीसगढ़ हेतु उन्नत किस्में व संकर किस्में निम्नलिखित हैः
उन्न्त किस्में - जे.एस.एफ.-1, जे.एस.आई.-7, नारी-6, परभनी कुसुम, फुले कुसुम, पी.बी.एन.एस.-40, पी.बी.एन.एस.-12, नारी-38, एस.एस.एफ-658, आई.एस.एफ.-764
संकर किस्में - डी.एस.एच.-129, एम.के.एच.-11, नारी-एन.एच.-1, नारी-एच.-15, एम.आर.एस.ए.-521
बोआई का समय
छत्तीसगढ़ में अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक बोआई अवश्य कर दें अन्यथा अधिक ठंढ पड़ने से अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है।
बीजदर एवं बीजोपचार
छत्तीसगढ़ में कुसुम फसल की बोआई के लिये प्रति हेक्टर 10 से 15 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। कतार से कतार के बीच की दूरी 45 से.मी. तथा पौधों के बीच की दूरी 20 से.मी. रखी जाती है। बीज की गहराई 4 से 5 सेंटीमीटर रखी जाती है।
बीज को 3 ग्राम थाइरम, केप्टान, अथवा कारबेण्डिजिम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बोया जाना चाहिये।
उर्वरक
वर्षा आधारित कुसुम की फसल हेतु 20-30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 15-20 किलोग्राम फास्फोरस, 10-15 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर तथा सिंचित अवस्था हेतु 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-30 किलोग्राम फास्फोरस, 15-20 किलाग्राम पोटाश प्रति हेक्टर की दर से बोवाई के समय डाल दें।
सिंचाई प्रबंधन
कुसुम फसल कम सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिये अत्यधिक उपयुक्त है यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तब दो सिंचाई दी जानी चाहिये। प्रथम सिंचाई बोआई के 40 से 45 दिन बाद, पौधे की बढ़वार अवस्था में तथा दूसरी सिंचाई बोआई के 65 से 70 दिनों के बाद जब पौधे में पुष्पन आरंभ हो जाए, तब करें
निराई-गुड़ाई व छंटाई
प्रारम्भ में कुसुम के पौधों की वृद्धि बहुत कम होती है। इसलिए खरपतवार से फसल की प्रतिस्पर्धा अधिक होती है। अतः बोआई के लगभग 30 व 45 दिनों के अंतर से हल्की गुड़ाई एक अथवा दो बार करने पर फसल की बढ़वार अच्छी आती हैं। बोआई के लगभग 15-20 दिनों के बाद अतिरिक्त पौधों को निकालना आवश्यक होता है।
इससे उपज में लगभग 35-40 प्रतिशत तक बढ़ोतरी होती है
रासायनिक नींदा नाशक जैसे आक्साडाईजोन 1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बोआई पूर्व किया जाना चाहिये। इसके साथ ही फ्लूक्लोरलिन अथवा ट्राईफ्लूरालिन 1 कि.ग्रा. प्रतिहेक्टेयर का बोआई पूर्व खेत में छिड़काव खरपतवर नियंत्रण में सहायक पाया गया है।
कीट एवं नियंत्रण
कुसुम में कीटों का प्रकोप कम होता है। लेकिन कभी-कभी एफिड का आक्रमण होता है। इससे बचाव के लिए सही समय पर बोआई करें, क्योंकि विलम्ब से बोआई होने पर एफिड का प्रकोप अधिक पाया जाता है। इसका नियंत्रण मोनोक्रोटोफास (0.05 प्रतिशत), क्लोरोपाइरोफास (0.05 प्रतिशत) का छिड़काव करके किया जाता है।
रोग एवं नियंत्रण
कुसुम में अल्टरनेरिया पर्ण धब्बे रोग देखा गया है इससे बचाव के लिए समय से बोआई करें, अत्यधिक सिंचाई न दें। मेन्कोजेब (0.25) का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल में दें।
रस्ट के लिए डाइथिन एम-45 (0.25 प्रतिशत) हर 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें। तथा प्रभावित पौधों को नष्ट कर दें।
उकठा रोग से बचाव के लिए प्रभावित पौधों को नष्ट करें। कार्बेन्डाजिम 0.1-0.2 प्रतिशत की दर से बीज उपचार करें
जड़गलन रोग से बचाव के लिए बीजो को थाइरम अथवा डाइथेन एम-45 की 0.2 प्रतिशत दर से बीजोपचार करें।
कटाई व मड़ाई
परिपक्वता आने पर जब पत्तियाँ तथा डालियां सूख जाती है तब निचली पत्तियों को काटकर हटा दें ताकि पौधों को काँटेदार पत्तियों के बाधा के बिना आसानी से पकड़ा जा सके। सुबह कटाई करने से कांटे मुलायम रहते है इसके अतिरिक्त काँटेदार जाति की कटाई के लिये हाथों में दस्ताने पहनकर कटाई की जा सकती है। कटी फसल को 2 से 3 दिनों तक धूप में सुखाने के बाद डण्डे से पीटकर मड़ाई की जाती है।
पक्षीयों से सुरक्षा
पक्षीयों से सुरक्षा हेतु बांस की डंडी पर चमकदार फीतों को लगाकर कुसुम के खेत में थोड़ी-थोड़ी दुरी पर लगाने से भी ज्यादा नुकसान से बचा जा सकता है।
खिलौना तोता को कुसुम के खेत में उल्टा लटकार रखने से खेत में पक्षी कम आते है जिससे फसल को ज्यादा नुकसान से बचा सकते हैं।
उपज
असिंचित अवस्था से 900 से 1200 कि.ग्रा./हेक्टेयर तथा सिंचित अवस्था से 1500 से 2000 कि.ग्रा./ हेक्टेयर उपज मिलती है।
Authors
डॉ. निर्मोध प्रभा, वैज्ञानिक
एस के कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, आईजीकेवी, कवर्धा
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