Beekeeping a means of successful employment

मधुमक्खी अर्थात मौन हमारे जीवन में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से लाभदायक है। प्रत्यक्ष रुप से इसके पालन से हमें मधु, मोम, रॉयलजैली या राजअवलेह, मधुमक्खी गाेंद आदि बहुमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है। अप्रत्यक्ष रुप से ये फसलों में पर-परागण की क्रिया करके उनकी पैदावार में वृध्दि कर देती है।

हमारे प्रदेश में भूमि के जोत प्राय: बहुत ही छोटे हैं। इसके पालन में अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस व्यवसाय को किसान, बागवान एवं खेतिहर मजदूर भी आसानी से कर सकते हैं। इसमें शारीरिक परिश्रम अधिक न होने से ग्रामीण महिलाएं भी अपने घरेलू कार्य के साथ कर सकती है। इसमें समय भी अधिक नहीं देना पड़ता है।

मधुमक्खी पालन में मौन पेटिका एवं अन्य उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए इस व्यवसाय के साथ दूसरे अन्य छोटे उद्योगों को भी बढ़ावा मिलता है। अधिक पूंजी लगने के कारण बेरोजगार नवयुवक भी इसे अपना रोजगार का साधन बना सकता है।

मधुमक्खी परागण का कर्य करती हैंBeekeeping

मौन या मधुमक्‍खी 

मधुमक्खी की चार प्रजातियों में से सिर्फ दो प्रजातियों को ही पाला जा सकता है। भारतीय मधुमक्खी और इटालियन मधुमक्खी। ये दोनो स्वभाव से ही पालतू हैं।

भारतीय मधुमक्खी

इस मौन का पालन युगों से हमारे देश में परम्परागत मौनगृहों में होते आ रहा है। परन्तु अब लकड़ी के बने आधुनिक मौनगृहों में इनका पालन किया जा रहा है। ये मधुमक्खियाँ समानान्तर छत्ते बनाती है। इनका आकार इटालियन मधुमक्खी से छोटा होता है।

इस मौन जाति में वकछूट अधिक पाई जाती है। थोड़ी से परेशानी या भोजन की कमी होने पर इसमें घरछूट भी हो जाती है। इसके एक बक्सा से एक वर्ष में 5 से 15 किलोग्राम मधु का उत्पादन हो जाता है। यह मौन जाति थाईसेक ब्रूड वायरस बीमारी से ग्रसित हो जाने से इसके पालन में काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अब इसका पालन बहुत ही कम मधुमक्खी पालन कर रहे हैं।

इटालियन मधुमक्खी

यह मौन भारतीय मधुमक्खी से आकार में बड़ी एवं गहरे भूरे रंग की होती है। अपना छत्ता समानान्तर रुप से बनाती है। इसका पालन लैंगस्ट्राथ मौनपेटिका में किया जाता है। इसमें घरछूट एवं वकछूट की प्रवृति बहुत कम है। ये स्वभाव से काफी मेहनती होती है। इसके एक बक्सा से एक वर्ष में लगभग 40-60 कि0ग्रा0 तक मधु का उत्पादन हो जाता है।

यदि इसको मधु प्रदान करने वाले पेड़-पौधों के पास स्थानान्तरण करते रहे तो एक वर्ष में एक बक्से से एक क्विंटल से भी अधिक मधु प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रजाति पर अभी विषाणुजनित थाईसेक रोग का प्रकोप नहीं पाया गया है। इसके पालन से मधुर क्रान्ति हो गई है।

बिहार राज्य में इसका पालन बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। सर्वेक्षण के अनुसार इस मौन जाति के परिवारों की संख्या उत्तारी बिहार में लगभग 2,50,000 एवं दक्षिण बिहार में लगभग 50,000 है। इसकी मधु उत्पादन क्षमता अधिक होने के कारण्ा लोगों के बीच यह मक्खी काफी लोकप्रिय होती जा रही है।

मधुमक्खियों द्वारा फसलों के उत्पादन में वृध्दि

मधुमक्खियाँ विभिन्न प्रकार के पौधों पर जाकर अपने वंश के लिए पराग एवं पुष्परस इकट्ठा करती है। हमारे देश की लगभग 160 लाख हेक्टैयर भूमि कीट परागित फसलों से घिरी हुई है। इन फसलों में फल, सब्जियाँ एवं तेलहन आदि शामिल है।

यह भी अनुमान लगाया जा चुका है कि प्रकृति में जो भी फूल पाये जाते हैं उन फूलों में 5 प्रतिशत स्वयं परागण तथा 95 प्रतिशत फूल पाये जाते हैं। उन फूलों में 5 प्रतिशत स्वयं परागण तथा 95 प्रतिशत फूल पर-परागण के होते हैं। इनमें परागण 10 प्रतिशत हवा के द्वारा और 85 प्रतिशत कीटों के द्वारा होता है।

कीटों द्वारा परगण के कार्य में 90 प्रतिशत अकेले मधुमक्खी ही परागण का कर्य करती हैं इस प्रकार मधुमक्खी एक उपयोगी परागणकर्ता सिध्द होती है। यदि मधुमक्खीपालन को मधु और मोम के उत्पादन के लिए बढ़ावा दिया जाय तो यह पर-परागण के लिए लाभकारी सिध्द होगा।

मधुमक्खी पालन की शुरुआत कैसे करें।

मौनपालन प्रारम्भ करने के लिए मौन के जीवन स्वभाव, उनके कार्य शरीर रचना, भोजन, रहन-सहन, शत्रु एवं बीमारी की रोकथाम आदि का अध्ययन करना आवश्यक है। ये अध्ययन किसी मौनपालक, शिक्षा केन्द्र या किसी अनुभवी मौनपालक से प्राप्त किये जा सकते हैं।

आधुनिक और वैज्ञानिक विधि से मौनपालन का प्रशिक्षण विविध राजकीय मौनपालन केन्द्र, खादी ग्रामोद्योग संघ, समन्वित अखिल भारतीय मौन अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र, स्वयंसेवी संस्था अथवा मधुमक्खी इकाई, एन.ए.आई.पी. (समस्तीपुर), राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से प्राप्त किया जा सकता है।

मधु का प्राकृतिक स्रोत

मौन पालन की सफलता वहाँ के उपलब्ध मौनचरों पर पूर्ण रुप से निर्भर करती है। यह अत्यन्त आवश्यक है कि मौनालय के आसपास मौनों के लिए सालों भर पुष्परस एवं पराग प्रदान करने वाले पेड़-पौधे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों।

मौनचरों में प्रमुख पेड़-पौधे जैसे सरसों, लीची, जामुन, करंज, युकेलिप्टस, बनकट, सहलन, सूर्यमूखी, नींबू, सागवान, मक्का, तिल, लत्तीदार सब्जियाँ आदि होती है जिनमें लीची, सहजन, करंज तथा जामुन मधु के मुख्य स्रोत माने जाते हैं।

आवश्यक उपकरण

आधुनिक मधुमक्खी पालन में उपकरणों का मुख्य स्थान है। इनके प्रयोग से मौनों को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये बिना पौष्टिक एवं शुध्द मधु का उत्पादन कर सकते हैं। इसके अलावा एक स्थान पर मौनचर स्रोत समाप्त होने पर अन्यत्रउपयुक्त स्थान पर आसानी से स्थानान्तरण किया जा सकता है।

उपकरणों में प्रमुख लैंगस्ट्रॉथ मौनपेटिका, मधु निष्कासन यन्त्र, आधार छत्ता बनाने वाली मशीन, वाहन बक्सा, रानी पिंजड़ा, रानी अवरोधक, वकछूट थैला, नकाब, धुंआकार आदि है।

स्थान का चुनाव

मौनपालन के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए जहाँ पर मौनों को बाधा न हो। यह स्थान मुख्य सड़क के पास न हो परन्तु पहुँच मार्ग अवश्य हो। स्वच्छ पानी का अच्छा स्रोत हो। वायुरोध और आंशिक छायादान स्थान होना चाहिए। इसके अलावा मौनालय के तीन किलोमीटर की त्रिज्या में सालोंभर मौनों को मौनचर उपलब्ध होते रहे।

उपयुक्त समय

बिहार में मौनपालन शुरु करने के लिए उपयुक्त समय अक्टूबर-नवम्बर है। चूँकि इस समय में लम्बे समय तक मौनों को मौनचर उपलब्ध हो जाते हैं। मौनों को इस फसल से पराग एवं पुष्परस दोनों उपलब्ध हो जाने पर मौने अपना प्रजनन कार्य काफी तीव्र गति से करके अपनी संख्या बढ़ाने में सक्षम हो जाती है। इसके अलावा इस मसय में मौनों को न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी का सामना करना पड़ता है।

मौनवंशों की संख्या

मौनपालन शुरु करने के लिए 2-3 मौनवंश उपयुक्त माने गये हैं। इनकी संख्या अपने तकनीकी ज्ञान के बढ़ने के साथ-साथ बढ़ाते जायें। इस प्रकार प्रारम्भ में अधिक पूंजी की आवश्यकता नहीं होगी और व्यवस्था करने में भी आसानी होगी।

मौनपालन शुरु करने के लिए उपयुक्त समय अक्टूबर-नवम्बरमधुमक्खी परिवारों का निरीक्षण

मौनपालन व्यवसाय श्रम

मौनपालन के लिए श्रम उनकी संख्या पर निर्भर करता है। सामान्यत: 10-15 मौनवंश के लिए अतिरिक्त श्रमिक की आवश्यकता नहीं होती है।

मौनपालन की वार्षिक व्यवस्था

इस व्यवसाय में समय के प्रतिबन्ध का बहुत महत्व है। थोड़ी सी असावधानी या विलम्ब से पूरे कार्य खराब होने की आशंका होती है। मौसम परिवर्तन के साथ-साथ मौनवंशों की व्यवस्था में भी मधुमक्खीपालन को सफल बनाने एवं अधिकाधिक मधु प्राप्त करने हेतु परिवर्तन करना पड़ता है।

वसन्त एवं मधुस्राव काल में मोने अपना परिवार बढ़ाने में जुट जाती है और छत्तों में उपलब्ध मधु एवं पराग का पूर्ण रुप से सेवन करके अपने कार्य की गति तीव्र कर देती है। इनकी कार्य क्षमता को क्षीण होने से बचाने के लिए खाद्य पदार्थ की कमी न होने देनी चाहिए।

शिशुपूर्ण कोशिका वाले छत्तों की आवश्यकता हो तो अन्य बक्से से लेकर उसमें दे दें। ऐसा करने से कमजोर मौनवंश का मनोबल कम नहीं होगा। अनावश्यक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। मधुस्राव काल आरम्भ होते ही छत्ते उजले होने लगते हैं।

बक्सों का वजन बढ़ने लगता है। ऐसी स्थिति में बक्सों में स्थान की कमी न होने दें मधु अतिरिक्त खाली छत्ते देते रहे और सुपर चढ़ा देना चाहिए। छत्तों में मधु भर जाय और मौने, मोमी टोपी से कोषों के मुँह को बन्द कर दें, तब मधु का निष्कासन करके पुन: उस चौखट को उसी बक्से में डालें।

गर्मी एवं बरसात में मधुमक्खियों को काफी दिक्कत होती है, चूँकि इन दिनों मौनचरों की कमी हो जाती है। अधिक गर्मी एवं लगातार वर्षा के कारण मधुमक्खियाँ अपना भोजन एकत्रकरने के लिए बक्से से बाहर नहीं जा पाती है। रानी अण्डा देना कम कर देती है।

इसलिए परिवार दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगता है। ऐसी स्थिति में बक्सों में भोजन की कमी हो जाती है। मधुमक्ख्यिों की स्थिति सुदृढ़ रखने हेतु चीनी की गाढ़ी चासनी बनाने हेतु एक भाग पानी एवं एक भाग चीनी की मात्रा लें। इस मौसम में मोमी फतिंगा कीट से मौनों की सुरक्षा हेतु बक्सों में खाली छत्ते जिन्हें मधुमक्खी ढ़ककर न रख सकें, कदापि न छोड़ें।

यदि इस कीट का आक्रमण बक्से में हो गया है तो पाराडाइक्लोरोबेन्जीन की 5 ग्राम मात्रा को एक सुईवाली शीशी में रखकर मौनगृह के तलपट न रखें। शीशी के मुंह पर रुई का ढ़क्कन अवश्य लगा दें ताकि उसमे होकर उसकी गन्ध इस दुश्मन कीट तक पहुँच जाय। इस गन्ध से या तो वे भाग जायेंगे अथवा मर जायेंगे।

शरद ऋतु में मौनपालन के लिए यह आवश्यक है कि बक्सों में 2-3 किलोग्राम मधु का भण्डार अवश्य हो। यदि ऐसा न होगा तो सर्दी के समय मौने अपने घर को गर्म करने में समर्थ नहीं हो पायेंगी। यह कोशिश रहे कि सर्दी के दिन में युवा रानी हो। यदि कोई परिवार कमजोर हो गया है तो उसे मजबूत परिवार के साथ मिला देना चाहिए। चूंकि कमजोर परिवार सर्दी झेलने लायक नहीं होते हैं।

सामान्यत: उत्तारी बिहार में बहुत अधिक सर्दी नहीं पड़ती फिर भी आवश्यकता हो तो बक्सों पर पुआल की चटाई अथवा जूट की बोरियाँ रख देनी चाहिए। इन दिनों माइट (अष्टपदी) के प्रकोप से बचाने हेतु सल्फर पाउडर का चौखटों पर वुरकाव दो सप्ताह के अन्तराल पर कर देना चाहिए।

वार्षिक व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि बक्सों को कमजोर न होने देना चाहिए। यदि मौनवंश शक्तिशाली हो तो दुश्मन कीट क्षति नहीं पहुँचा पाते। इस इटालियन मधुमक्खी में बीमारियों का प्रकोप न के बराबर होता है। यदि मौनपालक अपने मौनवंशों को साफ-सुथरा रखें और कमजोर न होने दे ंतो बीमारियों का प्रकोप भी नहीं होता है।

मधुमक्खी परिवारों का निरीक्षण

मौनवंशों की समय से देखभाल उनके कार्यों को सफल और तेज करने के लिए आवश्यक होती है। इसके लिए वैज्ञानिक ढ़ंग से बनाए गए आधुनिक बक्सों में मौनवंशों का निरीक्षण करना आसान है। काफी धूप, ऑंधी, वर्षा, ठण्ड और बादल वाले दिनों में बक्सों का निरीक्षण नहीं करना चाहिए।

निरीक्षण करने के पूर्व में नकाब, दस्ताना, कुर्ता पजामा एंव पैंट आदि इस प्रकार पहन लें ताकि मधुमक्खी कपड़े के अन्दर न घुस सके। निरीक्षण्ा करने का उपयुक्त समय सर्दी के दिनों में 10 बजे से 3 बजे दिन के बीच होगा। निरीक्षण करते समय चौधट के कोषों में देखें कि अण्डें, शिशु, पराग और मधु रस उपलब्ध है या नहीं।

रानी मक्खी की अण्डे देने की क्या गति है, इसके साथ ही यह भी जाँच करें कि किसी बीमारी अथवा दुश्मन का प्रकोप तो नहीं है। निरीक्षण के समय यदि शिशु पूर्ण कोषयुक्त चौखट न मिले तो मधुमक्खियों के मनोबल को बनाए रखने के लिए कोषयुक्त चौखटे अन्य शक्तिशली बक्से से लेकर दे दें।

मजबूत मौनवंश्ज्ञ का एक सप्ताह और कमजोर मौनवंशों का 15 दिनों के अन्तराल पर निरीक्षण करना चाहिए। छत्तों में जब मधु भर गया हो तो बक्सों में से छत्तों को निकालकर मधु निष्कासन यन्त्र द्वारा मधु निकाल कर खाली छत्तों को पुन: उसी बक्से में रखें। ऐसा करने से छत्ते के कोष भी बर्बाद होने से बच जायेंगे और इस प्रकार से निकाला गया मधु पौष्टिक और शुध्द होगा।


 Authors:

नागेन्द्र कुमार1, अनिल कुमार2 एव विनोद कुमार3

1कीट विज्ञान विभाग, कीट विज्ञान विभाग, डा0 राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (समस्तीपुर)

2ईख अनुसंधान संस्थान, कीट विज्ञान विभाग, डा0 राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (समस्तीपुर)

3मधुमक्खी पालन केंद्र, कीट विज्ञान विभाग, डा0 राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (समस्तीपुर)

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